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सोमवार, 25 नवंबर 2013

अंतर्राष्टीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस २५ नवम्बर !

             सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि महिला हिंसा आज इतने विकराल रूप में सामने आ रही है कि  विश्व  पटल पर लाने वाली समस्या बन  खड़ी हो चुकी है . बड़े बड़े प्रगतिशील देश , आधुनिकता और समानता  हुंकार भरने वाले देश और इसी के लिए आगे बढ़कर भाषण देने वाले बड़े बड़े लोग इस काम को करने में पीछे नहीं रहते हैं।
                         डॉक्टर , वकील , जज , नेता, साधू-संत और मंत्री तक महिला हिंसा में लिप्त पाये जा रहे हैं।  ऐसा तब हो रहा है जब कि हमारे जैसे देश की नारी चुप रहना अधिक पसंद करती है कि व्यर्थ में उसकी ही बदनामी होगी।  वह चुपचाप सब कुछ सहती रहती है।  ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ गाँव , गरीब और अशिक्षित महिलाओं के बीच होने वाली भावना है बल्कि ये बड़े बड़े परिवारों में , अच्छा खासा कमाने वाली , समाज में अपना एक अलग रुतबा रखने वाली , उच्च  शिक्षित महिलायों के साथ भी हो रहा है . वह अपने संस्कारों के चलते , अपने बच्चों के भविष्य को देखते हुए और फिर पति की प्रतिष्ठा को ठेस लगेगी - ये सब  सोच कर सारी  हिंसा सहन करती रहती है।
                        महिला  हिंसा से मतलब सिर्फ शारीरिक हिंसा नहीं  है बल्कि बल्कि इसके अंतर्गत आती कई स्थितियां और जिनको आज भी नारी सह रही है क्योंकि हमारा समाज भी इस हिंसा को सहते रहने वाली महिला को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखता है और इसमें पुरुषों से अधिक महिलाएं भी शामिल होती है।  ये जरूरी नहीं कि महिला हिंसा सिर्फ ससुराल में , पति से या  कार्यक्षेत्र में ही सह रही हो।  वह सिर्फ महिला होने के भी रूप में भुगत सकती है।
                       महिला हिंसा  अंतर्गत किसी भी प्रकार की हिंसा या प्रताड़ना को शामिल किया गया है फिर चाहे  वह शारीरिक , मानसिक , भावात्मक या फिर आर्थिक किसी भी रूप में  क्यों न हो ? उसे महिला हिंसा ही कहा जाएगा। हमारे समाज की जो भावनाएं महिलाओं के प्रति है , वे कितनी ही प्रगतिशील होने के दावे का ढिंढोरा क्यों न पीटें , वह इसमें सबसे पहले कारक बनती हैं। हमारी सामाजिक व्यवस्था ( पता नहीं कौन इसके जिम्मेदार  है ?) प्रताड़ित , परित्यक्त , तलाकशुदा , संतानहीन या फिर सिर्फ लड़कियों की माँ के प्रति अपना एक अलग रुख रखता है।  इस काम के लिए जिम्मेदार भी वही है और फिर महिला आयोग , महिला संगठन के प्रति लोगों के विचार सुने हैं - वे इनको महिलाओं को भड़काने वाला ,  घर तोड़ने वाला और समाज विरोधी करार देते हैं।  क्योंकि औरत की अपनी कोई पहचान नहीं होती - वह तो जिस कुलबहू बनती है उसी कीबन जाती है उसी के नाम से जानी जाती है।  फिर उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व कहाँ है ?
                        हम विश्व की नहीं सिर्फ भारत की बात करें तो आज भी ३५ प्रतिशत महिलायें ( इसमें बचपन से लेकर बात की जा रही है ) अपने माता-पिता के घर में भी हिंसा का शिकार होती हैं।  एक तो जन्म से ही उनको परिवार में दोयम दर्जे का स्थान देना अभी भी ८० प्रतिशत परिवारों की परंपरा में शामिल है। लड़कों की तुलना में उनकी जो उपेक्षा होती है वह उनको भावात्मक रूप से आहात करती है।  बड़े होने पर भी शिक्षा की दृष्टि से उनकी शिक्षा पर कम खर्च करने की सोची जाती है।  घर के अंदर के कामों में साडी जिम्मेदारी उनके सिर पर डाल  दी जाती है। उनके जन्म से ही परिवार वाले ही नहीं बल्कि  दूसरे लोग भी पराया धन , परायी अमानत कह कर परिचय करते हैं।
                    इस महिला हिंसा को सहने के लिए मजबूर क्यों है आज की नारी क्योंकि हमारी सामाजिक व्यवस्था और उसकी आर्थिक परतंत्रता या फिर अगर वह कमाती भी है तो जरूरी नहीं कि वह अपनी कमाई को अपने मन से खर्च कर ले।  ऐसा नहीं है कि आत्मनिर्भर महिलायें को प्रताड़ित नहीं किया जाता।  अभी तक तो एक सोच थी कि ज्यादातर घरों में काम करने वाली महिलाओं के पति ही उनके पैसे छीन कर उनको प्रताड़ित करते हैं लेकिन ऐसा नहीं है -  नौकरी वाली लड़की से शादी करना पसंद करते हैं क्योंकि उनके घर में दोहरी कमाई आएगी और एक कामधेनु उन्हें मिल रही होती है लेकिन कुछ घरों में तो सिर्फ कामधेनु ही समझी जाती है।  उसकी कमाई पर पति और सास ससुर का हक़ होता है।
                            एक अध्ययन के अनुसार ५० प्रतिशत महिलायें पति के द्वारा मार खा चुकी हैं।  रोज न सही लेकिन उनके मन का काम न होने पर हाथ उठाने में गुरेज नहीं करते और इसको वे सामान्य बात मानती है फिर इस हिंसा का तो कोई उपाय नहीं नहीं है। ५० प्रतिशत महिलायें और पुरुष इस बात को बुरा नहीं समझते हैं।
                           ये सब बातें तो तब की हैं जब कि वह एक परिवार में उसके सदस्य होने के नाते सह रही होती है और जी रही होती है।  ऐसा नहीं है कि उसकी आत्मा इस हिंसा के बाद रोती नहीं है लेकिन कभी बच्चों का मुंह देख कर , कभी माता पिता की इज्जत का हवाला देने के बाद और कभी छोटे भाई बहनों के भविष्य को देख कर आपने आंसुओं के गले के नीचे उतार कर सब कुछ सह लेती हैं।
                         इसके अलावा भी परित्यक्ता होने पर वह जिस हिंसा का शिकार होती है उसका जिम्मेदार भी हमारा समाज अधिक जिम्मेदार है।  उसके दर्द को समझने के स्थान पर उस पर परोक्ष रूप से लांछन लगाये जाते हैं क्योंकि पुरुष हर हाल में सही समझा जाता है।  इस का उन्मूलन कैसे हो सकेगा ? इस पर विचार भी होना चाहिए।
                        संतानहीन महिला भी समाज की दृष्टि में पूर्णरूप से दोषी समझी जाती है बगैर से जाने की इसका कारण क्या है ? ससुराल में उसका विकल्प लाने की बात भी सोची जाने  लगती है .  वंश तो उसको ही बढ़ाना होगा।  इस कारण के उन्मूलन की बात सोचने की पहल होनी चाहिए।  चाहे गोद लेकर या फिर और आधुनिक विकल्प भी सोचे जा सकते हैं और उस मानसिक प्रताड़ना से बचाया जा सकता है।
                         सिर्फ लड़कियों की माँ और लडके की माँ को अलग अलग तरीके से व्यवहृत होती है . इसके लिए भी परिवार वाले उनके प्रति विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित करने के अवसर खोजते रहते हैं और कभी कभी तो लड़की होने पर घर से भी निकाल देते है।
                        घर से लेकर बाहर तक किसी भी जगह वह यौन शोषण का शिकार तो बनती ही रही है और जैसे जैसे हमारे समाज ने प्रगति की है वैसे वैसे उसकी असुरक्षा जा रही है।  वह सिर्फ एक सामान समझी जाती है।  घर में पुरुष सदस्यों में अब कोई सीमा रेखा नहीं रह गयी है , पास पड़ोस में चाचा और भाई कहे जाने वाले लोग , स्कूल में सहपाठी ,   कार्य स्थल पर बॉस , सहकर्मी , इसके बाद उसके लिए संसार की कोई भी जगह महफूज़ नहीं है।  रोज रोज घटने वाली घटनाओं ने एक आतक का भाव उसके मन में भर दिया है।  अब पुरुष वर्ग इतना उदंड और वहशी हो चूका है कि उसके न उम्र का लिहाज रहा है और न ही किसी का खौफ बचा है।  जैसे जैसे क़ानून सख्त होने का प्रयास कर रहा है वैसे वैसे ही अपराधों की संख्या बढ़ रही है।  इसके पीछे एक कारन यह भी है कि अब निर्भीक होकर महिलायें अपने प्रति होने वाले हिंसा के मामलों को सामने लाने लगी हैं और इससे जो बेनकाब हो रहे हैं वे दुनियां में बहुत प्रतिष्ठित और सम्मानीय व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं .
                             आज के दिन हम अपने नारी वर्ग से जो इस बात के प्रति सजग है , न हिंसा को सहन करें और न औरों के सहते हुए देखें।  जरूरत बगावत की ही नहीं है बल्कि शांत और सौम्य तरीके से उससे जुड़े हुए लोगों को समझने की भी है।  अगर लोगों की सोच में सकारात्मक बदलाव आएगा तो वास्तव में महिला हिंसा उन्मूलन की दिशा में एक सफल कदम कहा जाएगा।

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