जीवन में लेखन के तो लगभग पांच दशक होने वाले हैं। वह बचपन की बाल जगत की कहानियों और कविताओं के काल से जोड़ रही हूँ। छोटी जगह का आदमी अधिक जानकारी भी नहीं रखता है। हाँ घर में पिता पढ़ने के शौक़ीन थे सो सारी पत्र पत्रिकाएं घर में आती थीं। लिखने की कला तो विरासत में मिली और प्रोत्साहन भी मिला लेकिन ये मुझे बहुत बाद में पता चला कि पापा भी लिखते थे लेकिन उनका लिखा कभी पढने को नहीं मिला।
लिखने और छपने का काम भी जल्दी ही शुरू हो गया था। लेकिन पत्र पत्रिकाओं में छपने का मजा भी कुछ और ही था क्योंकि तब और कुछ तो था नहीं। मध्यमवर्गीय परिवार में बगैर नौकरी के अर्जन आपने आप में एक अलग सुख था। लेकिन तब इतना नहीं जानती थी कि ये अपनी लिखी हुई हर चीज संभालकर रखनी चाहिए सो काफी छपा हुआ इधर उधर हो गया और जो शादी के बाद साथ लायी थी वो मेरी अनुपस्थिति में रद्दी की भेंट चढ़ गया। मेरी अप्रकाशित रचनाएँ भी। तब मुक्तक नहीं भेजती थी ढेर सारे मुक्तक और शेर सब कुछ।
जब ब्लॉग बनाया तो इतना रोना आया कि काश मेरी सारी डायरी होती तो पता नहीं कितना डालने को मेरे पास होता। खैर जो भी बचा था और जो भी फिर लिखा गया वह तो ब्लॉग में है। ऐसा नहीं है मेरी बहनें अब भी कहती हैं कि क्या ब्लॉग पर लिखा करती हो ? पत्रिकाओं में क्यों नहीं भेजती ? पहले कितना अच्छा था ? सच तो ये है की पत्रिका उन्हें आसानी से हासिल हो जाती है और ब्लॉग पर जाना और पढना अभी तक सबको आता नहीं है और फिर समय भी नहीं है। लेकिन अब भेजने में झंझट लगने लगा है क्योंकि ब्लॉग पर तुरंत लिखो और तुरंत प्रकाशित कर दिया। अभिव्यक्ति का एक अलग माध्यम है , जिसमें किसी संपादक की पसंद या नापसंद का कोई झंझट ही नहीं ( संपादक बंधुओं से क्षमा याचना सहित ) . वैसे प्रिंट मीडिया में भी अपनी अलग राजनीति होती है। अब वो जमाना नहीं है - पहले मैंने कभी संपादक को कवर लैटर भी नहीं लिखा। अपनी रचना लिफाफे में बंद की और सीधे भेज दी। वहां से स्वीकृति पत्र मिला बस और उसके बाद चेक। इसमें कुछ भी न सही लेकिन सब कुछ अपने हाथ में है। लिखो डालो और पब्लिश कर दो. ढेर सारे मंच भी हैं जहाँ अपने और साथियों की रचनाओं के विषय में जानकारी मिलती रहती है।
आज अपने पांच वर्ष पूरे करने पर मैं ब्लॉग के बारे अधिक जानकारी देने के लिए अपनी मित्रों रश्मि रविजा , रचना सिंह , संगीता स्वरूप को धन्यवाद कहना चाहूंगी , जिनसे मैंने बहुत कुछ सीख कर आगे कदम रखे। फिर लेखन में और मेरी श्रृंखलाओं में मेरे सभी मित्रों ने समय समय पर मेरे विषय को लेकर जो अपने विचार या अनुभव दिए उन सबके को भी मेरा हार्दिक धन्यवाद !
मेरी कविताओं को लेकर अपने संपादन में छपने वाले संग्रह में स्थान देने के लिए मुकेश कुमार सिन्हा,सत्यम शिवम् और रश्मि प्रभा जी को मेरा हार्दिक धन्यवाद !
चेहरा तो मेरा मेरे पास था जन्म से ही ,
भाव भरे मन में विधाता ही था शायद ,
थामी कलम इन हाथों में वो पिता ने दी ,
तराशा किसी ने नहीं , बस जो लिखा था
उसी तरह पन्नों पर उतरा और रख दिया।
ये वक़्त ही था पहले पन्ने से पन्नों पर
फिर पन्नों से इस मंच तक चली आई।
पढ़ा, सराहा या फिर पोस्ट मार्टम किया
साथ रहे मेरे सभी मित्र और बहन- भाई।
बस आपके साथ , स्नेह और सहयोग से शेष जीवन में ब्लॉग पर लिखने की प्रेरणा देते रहें और आलोचना या समालोचना हो भी निःसंकोच अपने विचार हम तक जरूर भेजें।
लिखने और छपने का काम भी जल्दी ही शुरू हो गया था। लेकिन पत्र पत्रिकाओं में छपने का मजा भी कुछ और ही था क्योंकि तब और कुछ तो था नहीं। मध्यमवर्गीय परिवार में बगैर नौकरी के अर्जन आपने आप में एक अलग सुख था। लेकिन तब इतना नहीं जानती थी कि ये अपनी लिखी हुई हर चीज संभालकर रखनी चाहिए सो काफी छपा हुआ इधर उधर हो गया और जो शादी के बाद साथ लायी थी वो मेरी अनुपस्थिति में रद्दी की भेंट चढ़ गया। मेरी अप्रकाशित रचनाएँ भी। तब मुक्तक नहीं भेजती थी ढेर सारे मुक्तक और शेर सब कुछ।
जब ब्लॉग बनाया तो इतना रोना आया कि काश मेरी सारी डायरी होती तो पता नहीं कितना डालने को मेरे पास होता। खैर जो भी बचा था और जो भी फिर लिखा गया वह तो ब्लॉग में है। ऐसा नहीं है मेरी बहनें अब भी कहती हैं कि क्या ब्लॉग पर लिखा करती हो ? पत्रिकाओं में क्यों नहीं भेजती ? पहले कितना अच्छा था ? सच तो ये है की पत्रिका उन्हें आसानी से हासिल हो जाती है और ब्लॉग पर जाना और पढना अभी तक सबको आता नहीं है और फिर समय भी नहीं है। लेकिन अब भेजने में झंझट लगने लगा है क्योंकि ब्लॉग पर तुरंत लिखो और तुरंत प्रकाशित कर दिया। अभिव्यक्ति का एक अलग माध्यम है , जिसमें किसी संपादक की पसंद या नापसंद का कोई झंझट ही नहीं ( संपादक बंधुओं से क्षमा याचना सहित ) . वैसे प्रिंट मीडिया में भी अपनी अलग राजनीति होती है। अब वो जमाना नहीं है - पहले मैंने कभी संपादक को कवर लैटर भी नहीं लिखा। अपनी रचना लिफाफे में बंद की और सीधे भेज दी। वहां से स्वीकृति पत्र मिला बस और उसके बाद चेक। इसमें कुछ भी न सही लेकिन सब कुछ अपने हाथ में है। लिखो डालो और पब्लिश कर दो. ढेर सारे मंच भी हैं जहाँ अपने और साथियों की रचनाओं के विषय में जानकारी मिलती रहती है।
आज अपने पांच वर्ष पूरे करने पर मैं ब्लॉग के बारे अधिक जानकारी देने के लिए अपनी मित्रों रश्मि रविजा , रचना सिंह , संगीता स्वरूप को धन्यवाद कहना चाहूंगी , जिनसे मैंने बहुत कुछ सीख कर आगे कदम रखे। फिर लेखन में और मेरी श्रृंखलाओं में मेरे सभी मित्रों ने समय समय पर मेरे विषय को लेकर जो अपने विचार या अनुभव दिए उन सबके को भी मेरा हार्दिक धन्यवाद !
मेरी कविताओं को लेकर अपने संपादन में छपने वाले संग्रह में स्थान देने के लिए मुकेश कुमार सिन्हा,सत्यम शिवम् और रश्मि प्रभा जी को मेरा हार्दिक धन्यवाद !
चेहरा तो मेरा मेरे पास था जन्म से ही ,
भाव भरे मन में विधाता ही था शायद ,
थामी कलम इन हाथों में वो पिता ने दी ,
तराशा किसी ने नहीं , बस जो लिखा था
उसी तरह पन्नों पर उतरा और रख दिया।
ये वक़्त ही था पहले पन्ने से पन्नों पर
फिर पन्नों से इस मंच तक चली आई।
पढ़ा, सराहा या फिर पोस्ट मार्टम किया
साथ रहे मेरे सभी मित्र और बहन- भाई।
बस आपके साथ , स्नेह और सहयोग से शेष जीवन में ब्लॉग पर लिखने की प्रेरणा देते रहें और आलोचना या समालोचना हो भी निःसंकोच अपने विचार हम तक जरूर भेजें।