tag:blogger.com,1999:blog-21686144748788604912024-03-12T21:13:33.453-07:00मेरा सरोकारये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जब भी और जहाँ भी ये अनुभव होता है कि इसको तो सबसे बांटने और पूछने का विषय है, सब में बाँट लेने से कुछ और ही परिणाम और हल मिल जाते हैं. एकस्वस्थ्य समाज कि परंपरा को निरंतर चलाते रहने में एक कण का क्या उपयोग हो सकता है ? ये तो मैं नहीं जानती लेकिन चुप नहीं रहा जा सकता है.रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.comBlogger373125tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-51018311965181519502024-01-12T01:35:00.000-08:002024-01-12T01:35:40.006-08:00मकर संक्रान्ति !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b> </b> <b>मकर संक्रान्ति</b> हिंदू धर्म में एक प्रमुख पर्व है। पौष मास
में जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है तभी यह पर्व मनाया
जाता है। हिदू
धर्म में एकमात्र मकर संक्रांति का पर्व ऐसा है, जो अंग्रेजी तारीख के अनुसार मनाया जाता
है यह वह पर्व है जो अंग्रेजी माह जनवरी की दिनाँक 13 - 14
को ही पड़ता है लेकिन कभी कभी ग्रहों की गति या सूर्य के प्रवेश के समय में
कुछ अंतर होने पर यह 15 जनवरी को भी पड़ती है क्योंकि मकर संक्रान्ति के
दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसलिये इस पर्व को <b>उत्तरायणी</b> भी कहा जाता है। इसको उत्तरायणी गुजरात राज्य में ही कहा जाता है। मकर संक्रांति एकमात्र ऐसा पर्व है जिसका निश्चय
सूर्य की गति की अनुसार होता है क्योंकि शेष सभी पर्व चन्द्रमा की गति के
अनुसार निश्चित होते हैं। इसका अपना पौराणिक महत्व माना जाता है। <br />
<br />
<b>मकर संक्रांति से काल चक्र में परिवर्तन </b><br />
वैज्ञानिकों का मानना है कि उत्तारायण में सूर्य के ताप शीत को कम करता है।14 जनवरी मकर संक्रांति के साथ ही ठंड के कम होने की
शुरुआत मानी जाती है। हालांकि जलवायु परिवर्तन का असर मौसम पर भी पड़ा है। बता दें कि एक संक्रांति से दूसरे
संक्रांति के बीच के समय को सौर मास कहते हैं। मकर संक्रांति के बाद जो
सबसे पहले बदलाव आता है वह है दिन अवधि का बढ़ना और रात की अवधि का छोटा
होना। मकर संक्रांति का धार्मिक महत्व है उसके साथ साथ वैज्ञानिक महत्व भी है।
जैसी कि पौराणिक महत्व की बात करते हैं तो इसके साथ ही प्राकृतिक परिवर्तन
के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। <br />
<br />
<b> </b><br />
<b>स्वास्थ्य के लिए मकर संक्रांति का महत्व</b><br />
आयुर्वेद के अनुसार इस मौसम में चलने वाली सर्द हवाएँ कई बीमारियों की कारण
बन सकती हैं, इसलिए प्रसाद के तौर पर खिचड़ी, तिल और गुड़ से बनी हुई
मिठाई खाने का प्रचलन है। तिल और गुड़ से बनी हुई मिठाई खाने से शरीर के
अंदर रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। इन सभी चीजों के सेवन से शरीर के अंदर
गर्मी भी बढ़ती है। मौसम के संक्रमण काल के चलते ये आहार शरीर के अनुकूल होते हैं। <b></b> खिचड़ी से पाचन क्रिया सुचारु रूप से चलने लगती है।
इसके अलावा आगर खिचड़ी मटर और अदरक मिलाकर बनाएं तो शरीर के लिए काफी
फायदेमंद होता है। यह शरीर के अंदर रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है साथ ही
बैक्टिरिया से भी लड़ने में मदद करती है। <br />
<br />
<b>मकर संक्रांति से जुडी पौराणिक आधार </b><br />
मकर संक्रांति एकमात्र ऐसा पर्व है जिसका निश्चय
सूर्य की गति की अनुसार होता है क्योंकि शेष सभी पर्व चन्द्रमा की गति के
अनुसार निश्चित होते हैं। इसका अपना पौराणिक महत्व माना जाता है। <br />
पौराणिक सन्दर्भ में प्रमुख तीन घटनाओं को उल्लिखित किया गया है --<br />
<br />
<b>1 .</b> ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्यदेव
अपने पुत्र शनिदेव से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। चूँकि शनिदेव मकर
राशि के स्वामी हैं , इसी लिए सूर्य धनु राशि से मकर में प्रवेश करते है
,तभी इसको मकर संक्रान्ति कहा जाता है।<br />
<br />
<b>2 </b>. महाभारत काल में भीष्म
पितामह सूर्य के दक्षिणायन होने के कारण शरशय्या पर रहे , जब तक कि सूर्य
उत्तरायण नहीं हुए और इसी दिन उन्होंने अपने प्राण त्यागे थे। <br />
<br />
<b>3 </b>. मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जाकर मिली थीं। <br />
<br />
<b> देश के विभिन्न भागों में संक्रांति का स्वरूप --</b><br />
<br />
संक्रांति हे एक ऐसा पर्व है जो सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है और
अपने अपने रिवाजों के अनुरूप उसके स्वरूप को निश्चित कर लिया है। एक
दृष्टि देश के सभी राज्यों में मनाये जाने वाले ढंग पर डाले<br />
<br />
<b>पश्चिम बंगाल</b>
-- बंगाल में इसको पौष माह के अन्तिम दिन पड़ने के कारण ही 'पौष पर्व ' नाम
दिया गया है। इसमें खजूर , खजूर के गुड़ को मिठाई बनाने में प्रयोग किया
जाता है और माँ लक्ष्मी की पूजा की जाती है। दार्जिलिंग में भगवान् शिव
की पूजा होती है। इस पर्व पर स्नान के पश्चात तिल दान करने की प्रथा है। <br />
<br />
<b>तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश </b>--
पोंगल - ये चार दिनों का त्यौहार होता है -- प्रथम
भोगी-पोंगल जिसमें दिवाली की तरह ही घर की सफाई करते हैं , दूसरा
सूर्य-पोंगल मनाने के लिये स्नान करके
खुले आँगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनायी जाती है, जिसे पोंगल कहते
हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है।इस दिन लक्ष्मी जी की
पूजा भी की जाती है। तीसरा मट्टू अथवा
केनू-पोंगल जिसमें पशुओं की पूजा की जाती है ,उसके बाद खीर को प्रसाद के
रूप में सभी ग्रहण करते हैं।, और चौथे दिन कन्या-पोंगल- इस दिन बेटी और
जमाई का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है।<br />
<br />
<b> पंजाब </b>--
लोहड़ी १३ जनवरी को ही मनाया जाता है। इस दिन सुबह स्नान करके तिल के
तेल का दीपक जलाते हैं ताकि घर में खुशियां और समृद्धि आये। इस दिन
अँधेरा होते ही आग जलाकर अग्निदेव की पूजा करते हुए तिल , गुड़ और मूंगफली
और भुने हुए मक्के (तिलचौली ) की आहुति दी जाती है। इसमें भाँगड़ा और
गिद्धा नृत्य की विशेष रूप से धूम होती है। लोग
तिल की बनी हुई गजक और रेवड़ियाँ आपस में बाँटकर खुशियाँ मनाते हैं। नई
बहू और नवजात बच्चे के लिये
लोहड़ी का विशेष महत्व होता है।<br />
<br />
<b>महाराष्ट्र </b>--इस दिन सभी विवाहित महिलाएँ अपनी पहली संक्रान्ति पर कपास, तेल व नमक आदि
चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। तिल-गूल नामक हलवे के बाँटने
की प्रथा भी है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं
-'तिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो।'
इस दिन महिलाएँ आपस में तिल, गुड़, और हल्दी कुमकुम बाँटती हैं।<br />
<br />
<b>उत्तराखण्ड </b>
-- यहाँ पर यह घुघूती या काले कौवा के नाम से जाना जाता है और इसको
चिड़ियों के अन्यत्र प्रवास को ख़त्म होने का पर्व मनाया जाता है। इसमें
खिचड़ी और अन्य चीजें दान की जाती हैं। जगह जगह मेले लगते हैं और मीठे
व्यंजन बना कर चिड़ियों को खिलाये जाते हैं। <br />
<br />
<b>कर्नाटक</b>
-- यहाँ पर इसे कृषि से सम्बद्ध मानकर मनाया जाता है। वे अपने घरों को
रंगोली से सजाते हैं और अपने पशुओं को भी सजाते हैं। उनके सीगों को
रंगों से सजाते हैं। महिलायें एक दूसरे के यहाँ एक थाली में तिल , गुड़ ,
गन्ने और अन्य मिष्ठान भर कर आदान प्रदान करती हैं। <br />
<br />
<b>गुजरात</b> -- <span class="notranslate">मकर संक्रांति या उत्तरायण गुजरात </span><span class="notranslate">का </span><span class="notranslate"> प्रमुख त्योहार है। पहले दिन 14 जनवरी को </span> <span class="notranslate"> उत्तरायण मुख्य रूप से पतंगबाजी के रूप में मनाया जाता है।</span> <span class="notranslate"> पतंग उड़ाने प्रतियोगिताएं राज्य भर में आयोजित की जाती है. </span><span class="notranslate"> </span><span class="notranslate">अगले दिन बासी उत्तरायण कहा जाता है , इसमें </span><span class="notranslate">सर्दियों में उपलब्ध सब्जियों और चिक्की, तिल के बीज, मूंगफली और
गुड़ से बने का एक विशेष व्यंजन तैयार करते है, जिसका प्रयोग इस अवसर का जश्न मनाने के लिए
किया जाता है।</span><br />
<br />
<span class="notranslate"><b> बिहार व झारखण्ड</b> -- </span><span class="notranslate">बिहार / झारखंड में </span><span class="notranslate">इसे सकरात या खिचड़ी कहते हैं। पहले दिन मकर संक्रांति के दिन, लोग तालाबों और नदियों में स्नान करते हैं और मीठे </span><span class="notranslate">व्यंजनों में तिल गुड़ के लड्डू और चावल की लाई </span><br />
<span class="notranslate"> के
लड्डू भी बनाये जाते हैं। खाने में चिवड़ा और दही को प्रमुख रूप प्रयोग
करते हैं। खिचड़ी और काले तिल का दान विशेष रूप से किया जाता है। </span><br />
<br />
<span class="notranslate"><b>हिमांचल प्रदेश </b>--
इसको माघ साजी कहा जाता है , साजी संक्रांति का प्रतीक शब्द है। शरद के
समापन बसंत के आगमन पर मनाया जाता है। इसमें पवित्र जल में स्नान करके
मंदिरो में जाते हैं। गरीबों में खिचड़ी , मिठाई दान करते हैं। आपस में
भी खिचड़ी और गुड़ तिल की चिक्की का आदान प्रदान करते हैं और शाम को लोक
नृत्य आदि का आयोजन होता है। </span><br />
<br />
<span class="notranslate"><b>आसाम </b>--
आसाम में इसको बिहू कहा जाता है। इसमें रात में ही बांस और सूखे पत्तों
से झोपड़ी नुमा तैयार करते हैं और सुबह स्नान करके उस झोपड़ी को जलाते हैं
फिर चावल की रोटी बनाते हैं पीठा बनाकर देवता को अर्पित करते हैं और फिर
आपस में बाँटते हैं। इसी के साथ अच्छी फसल की कामना करते हैं। </span><br />
<br />
<span class="notranslate"><b>राजस्थान</b> -- </span><span class="notranslate">इस पर्व पर सुहागन महिलाएँ अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद प्राप्त करती
हैं। साथ ही महिलाएँ किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन
एवं संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं। </span><br />
<br />
<span class="notranslate"> <b>उत्तर प्रदेश</b> -- </span>यहाँ
पर भी इसको संक्रांति या खिचड़ी के नाम से जाना जाता है , यह दो दिन मनाया
जाता है - पहले दिन शाम दाल की नयी फसल आने के उपलक्ष में मूंग दाल के
मगौड़े और उडद दाल के बड़े बनाये जाते हैं और दूसरे दिन सुबह लोग पवित्र नदी
अगर उपलब्ध है तो उसमें स्नान करते हैं और फिर काले तिल और खिचड़ी का दान
करते हैं। उस दिन खाने में खिचड़ी ही खायी जाती है। इसके साथ ही तिल के
लड्डू के साथ साथ अन्य धान्य के लड्डू जैसे भुने चने के , लाइ के , रामदाना
के का भी सेवन करते हैं और दान करते हैं। इस पर्व पर संगम के साथ साथ
गंगा , यमुना आदि नदियों में स्नान करने लाखों की संख्या में लोग आते है। <br />
<br />
<span class="notranslate"> <b>कश्मीर घाटी</b> -- में इसको नवजात शिशु या नववधू के आगमन पर उत्सव के रूप में मनाया जाता है और इसको शिशुर संक्रात कहते हैं। </span><br />
<br />
<span class="notranslate"> भारत के अतिरिक्त यह पर्व अलग अलग नामों से बाहर भी मनाया जाता है। इसमें पडोसी देशों में -- </span><br />
<b>नेपाल </b> -- मकर संक्रान्ति को माघे-संक्रान्ति, सूर्योत्तरायण कहा जाता है। थारू समुदाय का यह सबसे प्रमुख त्यैाहार है।
नेपाल के बाकी समुदाय भी तीर्थस्थल में स्नान करके दान-धर्मादि करते हैं और
तिल, घी, शर्करा और कन्दमूल खाकर धूमधाम से मनाते हैं। वे नदियों के संगम पर लाखों की संख्या में नहाते हैं।<br />
<b>बांग्ला देश</b> -- शंकरेण / पौष सांगक्रान्ति<br />
<b>थाईलैंड </b>-- सोंगक्रान<br />
<b>लाओस</b> -- गड़बड़ी मा लाओ<br />
<b>म्यांमार</b> -- थिंज्ञान<br />
<b>कंबोडिया</b> -- मोहां / सांगक्रान<br />
<b> श्रीलंका</b> -- पोंगल / तिरुनल<br />
<br />
<br /></div>
रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-4140073659756275712023-12-25T05:36:00.000-08:002023-12-25T05:37:18.052-08:00कानपुर लिटरेरी फेस्टिवल - 23<p><span style="vertical-align: inherit;"><span style="vertical-align: inherit;"> कानपुर लिटरेरी फेस्टिवल</span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="vertical-align: inherit;"><span style="vertical-align: inherit;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdmoifmNR0jxorFW30eAisHHIdusNrFiibHeT4vuf9nniHCluIFdZXIuoBD7CAF6oSJExee1dGn1GMNHj5ERAiTSW0ICWzYJ0_PoYqkFR_b-cTksaReyof8EYF66kBHGmqlFl1r0TuGpCU0F8iXF1_VRxPUDIeWGfHo4B7Oq_TM9nrRH2AMZUm-8dBv_I/s4608/IMG20231223141235.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4608" data-original-width="3456" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdmoifmNR0jxorFW30eAisHHIdusNrFiibHeT4vuf9nniHCluIFdZXIuoBD7CAF6oSJExee1dGn1GMNHj5ERAiTSW0ICWzYJ0_PoYqkFR_b-cTksaReyof8EYF66kBHGmqlFl1r0TuGpCU0F8iXF1_VRxPUDIeWGfHo4B7Oq_TM9nrRH2AMZUm-8dBv_I/s320/IMG20231223141235.jpg" width="240" /></a></span></span></div><span style="vertical-align: inherit;"><span style="vertical-align: inherit;"><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiljSrVFk0DiimlJTfA2mgv4PWI08Wf-3cmJ7yRyHDezD-tbMLK7b_-sQD1jMmXgvdEFXUWgITlrIte8wS-iRfz29M9q66UF313vhf2XG2fkNgNxS0gaIXCUwEFsFSbvvfxVcJqOFnJzYfewlzQsAJQBfs-O1Ismh1zd9T-GzqA1NRX4otoeBg8WVzjMlc/s4608/IMG20231223141230.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4608" data-original-width="3456" height="320" 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src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgSSq2i1bqGEcC6WraRzQOtRdan2bAr4eIoEUuOI1ygVRG1N0WEIt2SNF0mBi_WXHFYj4hj2IpvAfpsr6dAXZ_PijYFo8EifdYZlnT6Grd9CceRnVGCSRrchb7OCN5DovnsjBycZXlg64F4zzfykH9DkF1Xt5xrkaxk54DGjm2bDR6RAaKoeuY3k5RNIsE/s320/IMG20231224151320.jpg" width="240" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1-iAIMuVa5Q0oq78AsaAhMF_a6Dd4t_Kll4dXZzbeAdIiNMPsvju-hZHsIyUMH__6FSmoJOxtDri5Xb8HTIipv-x770WAL7dibT-TeKW-jKl0xvASlqt_5gxNg4BjVu7N6MXZb8TikZKSs8A2gs1PaMGFrjPvLNJ6aEVTwo8jRO9bTUMzGqz8Oumd9OM/s4608/IMG20231224151408.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4608" data-original-width="3456" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1-iAIMuVa5Q0oq78AsaAhMF_a6Dd4t_Kll4dXZzbeAdIiNMPsvju-hZHsIyUMH__6FSmoJOxtDri5Xb8HTIipv-x770WAL7dibT-TeKW-jKl0xvASlqt_5gxNg4BjVu7N6MXZb8TikZKSs8A2gs1PaMGFrjPvLNJ6aEVTwo8jRO9bTUMzGqz8Oumd9OM/s320/IMG20231224151408.jpg" width="240" /></a></div><br /> - 2023, जो 23-24 दिसंबर को यहां प्रकाशित हुआ, इसमें शामिल होने का यह पहला अनुभव बहुत अच्छा रहा। </span><span style="vertical-align: inherit;">इस अनुभव ने मुझे फिर से सक्रिय होने का और बहुत सारे अच्छे कार्यक्रम में शामिल होने का आनंद प्राप्त करने का अवसर भी दिया।</span></span><p></p><p><span style="vertical-align: inherit;"><span style="vertical-align: inherit;"> इसके लिए मैंने अपनी बिटिया रानी रंजना यादव को पूरा श्रेय दिया, क्योंकि उन्होंने मुझे वहां आकर अपनी कहानियां रखने का मौका दिया था। </span><span style="vertical-align: inherit;">उसने ही जद्दोजहद को लेकर कान के लेखकों के लिए एक स्टॉल की व्यवस्था की थी और फिर लेखक या नहीं पहुंचे सभी की सलाह को वहां पर लेकर आए थे। </span><span style="vertical-align: inherit;">उसका दृश्य भी नीचे देखना होगा। </span><span style="vertical-align: inherit;">यह भी एक रिकॉर्ड रखा गया है कि हमारे शहर में कितने लोग एक-दूसरे के साथ काम कर रहे हैं, जरूरी नहीं कि किसी भी मंच से जुड़ने का मौका मिले और सीखा जा सके। मेरे जैसे लोग जो अपने जीवन को एक अलग तरह के संघर्ष की राह पर बनाए रखते हैं, तो रहे लेकिन चित्रित करने का कभी सोचा ही नहीं, बहुत कुछ लिखा लेकिन फिर मैंने भी किताब का आकार दिया लेकिन प्रकाशक और प्रकाशन के बारे में कोई अनुभव नहीं था, जिसने जैसा सुझाया वैसा ही कर दिया। </span><span style="vertical-align: inherit;">इस अवसर पर विभिन्न लोगों से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ, जो लब्ध प्रतिष्ठित और जाने-माने लोग थे और उनकी टीम को बहुत अच्छा लगा। </span><span style="vertical-align: inherit;">फिर लगा कि विभिन्न उत्सवों में इतने सारे उत्सवों में न जाने के कारण बहुत सारे गैर-सरकारी लोग रहते हैं लेकिन जब भी जागो सवेरा। </span></span></p><p><span style="vertical-align: inherit;"><span style="vertical-align: inherit;"> इसके साथ-साथ 23 और 24 दिसंबर को दो सत्र आए, जो फिल्मों से संबंधित थे - एक तो ब्रह्मानंद जी की राहुल देव बर्मन की तैयारी के दौरान उनके शोध में शामिल हुए दिग्गज तन्मयता से नजर आए और खचाखच हॉल में उनके अनूठे संगीत की यात्रा हुई। रचना के साथ जब देखा तो न समय का पता चला और न ही कहां क्या हो रहा है पता चला, बहुत ही आनंद आया। </span></span></p><p><span style="vertical-align: inherit;"><span style="vertical-align: inherit;"> ऐसे ही दूसरे दिन 24 दिसंबर को धूमकेतु के आकाशवाणी के जाने वाले यूनुस खान जी द्वारा पोस्ट किए गए अवशेष जी के अवशेष लेकर चले गए शोध - जब एक-एक करके उनकी जीवन यात्रा और उनकी यात्रा के बारे में पोस्ट किया गया। तो पता नहीं चला कि समय कहां गया और पूरे हॉल के लोग भी साथ-साथ गीत गा रहे थे। </span><span style="vertical-align: inherit;">आवाजें गूँजती थीं। </span><span style="vertical-align: inherit;">मेरे अनुभव के अनुसार एक लाजवाब अभिनेता थे। </span><span style="vertical-align: inherit;">उनके स्मारकों में से एक गोपाल शर्मा और श्वेतावृथ ने अपनी आवाज दी थी जो आपके घर में थी।</span></span></p><p><span style="vertical-align: inherit;"><span style="vertical-align: inherit;"> यूनुस जी से मिलने का मेरा पूरा मन था इसलिए वह कोई सेलिब्रिटी नहीं हैं बल्कि वह मेरे भाई अजय ब्रह्मात्मज के पारिवारिक सदस्य हैं, लेकिन समयाभाव और उनके अन्य काम कार्यक्रम में प्रोत्साहन ने अपना यह पद नहीं दिया। </span><span style="vertical-align: inherit;">मेरी उनकी पत्नी ममता सिंह से हुई मुलाकात बहुत अच्छी लगी।</span></span></p><p><span style="vertical-align: inherit;"><span style="vertical-align: inherit;"> इसी अवसर पर रंजना यादव की किताब "मैट्रो का पहला डिब्बा" का कवर पेज लॉन्च किया गया। </span><span style="vertical-align: inherit;">जो दिल्ली की बुक मॉल में उपलब्ध होगी।</span></span></p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-17735674854305190782023-06-30T06:34:00.000-07:002023-06-30T06:34:01.715-07:00सोशल मीडिया डे !<p> <span style="font-size: large;"> सोशल मीडिया डे !</span></p><p><br /></p><p> पहले से तो मुझे इस बारे में ज्ञात नहीं था कि सोशल मीडिया डे नाम से कोई दिवस भी मनाया जाता है। बहुत अच्छे प्लेटफॉर्म हैं यहाँ पर , लेकिन उन पर अगर विचार करें तो इसने हमारी सामान्य दिनचर्या या सामाजिक जीवन का सर्वनाश कर दिया है, लेकिन हर क्षेत्र में ऐसा ही हो रहा है ऐसा नहीं है। कोई भी सामाजिक सरोकार से जुड़ी हुई सुविधा सदैव अच्छी ही या बुरी ही नहीं होती है। यह तो हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम उसको किस तरह से प्रयोग कर रहे हैं। उसका उपयोग या दुरुपयोग कर रहे हैं। न तो विज्ञानं दोषी है और न कोई सुविधा बस हमारा ही विवेक उसका गुलाम हो चुका है। चलिए हम कुछ बिंदुओं पर विचार ही करते चलें। </p><p><br /></p><p><span style="font-size: large;">उपयोगी बिंदु :-- <br /></span></p><p> * सोशल मीडिया ने दूरदराज बैठे लोगों के मध्य एक सेतु बन कर उनके विचारों के आदान प्रदान के लिए एक मंच प्रस्तुत किया है। </p><p> *कितनी जानकारियाँ जिनसे एक आम आदमी परिचित ही नहीं है उससे अवगत कराया। उनके ज्ञान का विस्तार होने लगा। </p><p> * इतिहास बन चुके साहित्य, ज्ञानकोष, जो कि प्रिंट मीडिया ने अब छापने बंद कर दिए थे। दूसरों शब्दों में कहैं तो कालातीत हो चुके थे। इस सोशल मीडिया ने उनको खोज कर या फिर प्रबुद्ध लोगों ने उसको यहाँ पर लोड करके सर्व सुलभ बना दिया। </p><p> *बच्चों या बड़ों में सोई पड़ी प्रतिभा - लेखन, चित्रकारी , होम डेकोरेशन , बागवानी , शिल्प सभी तरह की चीजों को मंच मिला। दूसरे लोग भी इससे फायदा उठाने लगे हैं। <br /></p><p> * कुछ सामाजिक, सांस्कृतिक ,साहित्यिक संगठनों का निर्माण हुआ और उससे पूरे विश्व से लोगों ने जुड़ कर उसको समृद्ध बनाया। उनके कार्य पटल पर आने लगे। भाषा और संस्कृति को समझने समझाने में भी एक अच्छा मंच बन चुका है। </p><p> *गृहणियों के लिए भी एक अच्छा मंच मिला , वे सिर्फ घर में रहकर घर तक ही सीमित रह गयीं थी। उनकी उच्च शिक्षा , ज्ञान और कला जो घर की चहारदीवारी में दम तोड़ रही थी , उसको सही स्थान मिला और उससे वे कुछ क्षेत्रों में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी होने लगी। </p><p> *छात्रों के लिए अपनी पढाई के लिए विश्व के साहित्य या पठन पाठन के लिए उपयोगी सामग्री भी प्राप्त होना सुलभ हो गया। हर छात्र के लिए सन्दर्भ पुस्तकें खरीदना संभव नहीं होता है तो वे सोशल मीडिया से सब आसानी से प्राप्त कर लेते हैं। </p><p> *किसी भी दुर्घटना के बारे में कभी कभी सोशल मीडिया से ही पता चल जाता है और पीड़ित को समय से सहायता भी मिल जाती है , जो उसके जीवन को बचा भी लेती हैं। </p><p> *अवसाद में गिरे हुए कितने लोग ये बात अगर सोशल साइट पर शेयर करके गलत कदम उठाने लगते हैं तो कई बार वे समय से बचा भी लिए जाते हैं। </p><p> *खोये हुए बच्चे या भटके हुए बुजुर्ग भी कभी कभी इसके द्वारा सही स्थान पर मिल जाते हैं। बरगला कर भगाये हुए बच्चे भी इससे पकड़ लिए जाते हैं। <br /></p><p><br /></p><p><span style="font-size: large;">अनुपयोगी बिंदु :--</span></p><p><br /></p><p> *सबसे अधिक दुरूपयोग इसका अपराधी प्रवृत्ति के लोग करने लगे हैं। फेसबुक जैसे मंच से दोस्ती करके के बाद मैसेंजर पर जाकर स्त्रियाँ पुरुषों और पुरुष स्त्रियों को गलत ढंग से बातचीत करने के लिए फ़ोन मिलाने लगे हैं या फिर मैसेज के द्वारा ही उनसे अश्लील बातचीत करने लगते हैं। इसमें सिर्फ एक नहीं बल्कि दोनों ही होते हैं बल्कि ये भी होता है कि पुरुष होकर अपनी प्रोफाइल महिला के नाम से बना कर बात करते हैं और महिलाओं से ही गलत व्यवहार करने लगते हैं। ये सबसे बड़ी समस्या है और इसका कोई निदान भी नहीं है सिवाय इसके की पीड़ित पक्ष उसको अपने मित्र श्रेणी से बाहर कर दे या फिर अपना मैसेंजर ही लॉक कर दे। </p><p> *घरेलू महिलायें, बच्चों की देखरेख करने वाली सहायिकायें इसका दुरूपयोग करके छोटे छोटे बच्चों के सामने राइम या गेम खोल कर रख देती हैं और वे पाने काम में लगी रहती हैं। अपनी सुविधा के लिए वे बच्चों को इसका आदी बना देती हैं और फिर बच्चा खाना भी उसके साथ ही खायेगा। इसके दुष्प्रभावों को वे जाती हैं या नहीं ये तो नहीं कह सकती लेकिन इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव होता है कि बच्चे का बोलना देर से शुरू होता है और वे वीडिओ वाली भाषा भी ग्रहण करने लगते हैं। (इस बारे में मेरी बात एक बच्चों की डॉक्टर ,जो इसका ही इलाज करती हैं , के साथ हुई है।)</p><p> *बहुत छोटी उम्र में ही वे मोबाइल में अपने मन के वीडिओ लगाने लगते हैं , कॉल भी करने लगते हैं। उनको इसका ज्ञान नहीं होता है लेकिन उंगली चला कर वे उसके अभ्यस्त हो जाते हैं। पढ़ने वाले बच्चे भी मोबाइल चाहते हैं , छोटे छोटे क्लास के बच्चों के लिए भी अब पढाई का तरीका बदल गया है। विषय वार वाट्सएप पर ग्रुप बना दिए जाते हैं और पहले की तरह से हर बच्चे की डायरी में होमवर्क लिखने के बजाय वह एक बार ग्रुप पर डाल देती हैं फिर अभिभावकों सिरदर्द कि वे उसको देखें और कुछ बड़े बच्चे हुए तो उनको लैपटॉप या मोबाइल चाहिए। </p><p> *किशोर होते बच्चों के लिए पढाई के लिए लैपटॉप बहुत जरूरी हो गया है क्योंकि उनको अपना प्रोजेक्ट बनाना है या फिर सन्दर्भ देखने हैं। फिर पढाई के अलावा बच्चे बहुत कुछ देखना सीख जाते हैं। जो कि उनके मानसिक विकास की दृष्टि समय से पहले परिपक्व बना रहा है। </p><p> *किशोर इससे ही अवसाद शिकार जल्दी होने लगे हैं और उससे भी निजात पाने के लिए आत्महत्या जैसे कदम भी उठाने लगे हैं। वो क्रियाएं या अपराध जो कि उनके लिए न उचित हैं और न ही उनकी उम्र के अनुसार होने चाहिए वे करना सीख रहे हैं। उनकी IQ बहुत अधिक होने लगी है तो उनको सोशल मीडिया से और अधिक ज्ञान मिलने लगा है। </p><p> *मैंने देखा है कि किशोर लड़कियाँ अपनी प्रोफाइल में अपनी आयु अधिक डाल देती हैं और फिर उनकी मित्रता भी उस उम्र के लड़कों से होने लगाती है और वे बहकावे में भी जल्दी आ जाती हैं। आजकल हो रहे अपराधों के गर्भ में कहीं न कहीं ये मंच जिम्मेदार हो रहे हैं। </p><p> *नए नए स्कैम भी इसी के तहत होने लगे हैं , जिन्हें पकड़ पाना हर एक के वश की बात नहीं है और इस तरह से अपराधों की श्रेणी में आ रहे हैं। ये सोशल मीडिया ही है कि बी टेक और एम बी ए जैसी व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करते हुए वे अपराधों में लिप्त होने लगे है उनको सारे रास्ते यही पर मिल जाते हैं। </p><p> इस सोशल मीडिया डे को हम किस दृष्टि से देखते हैं, ये अपनी अपनी सोच है लेकिन कुल मिला कर हम प्रगति तो कर रहे हैं लेकिन गर्त में ज्यादा जा रहे हैं। <br /></p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-38130013279410853852023-06-19T20:37:00.006-07:002023-06-19T20:37:47.433-07:00 मैट्रो से - 2 !<p><span style="font-size: large;"> मैट्रो से - 2 !</span></p><p><span style="font-size: large;"> एक ही स्टेशन से कई सहायिकाएं लेडीज़ डिब्बे में चढ़ती हैं, रोज नहीं तो अक्सर उनका मिलना होता रहता है , एक बहनापे की तरह हो गया। एक टाउनशिप में सब काम करती हैं और कई कई घरों में करती हैं। इतने बड़े शहर में अपने दम पर ही तो रह रही हैं। </span></p><p><span style="font-size: large;"> "अरी बबिता आज कुछ ज्यादा थकी नजर आ रही है, वह भी सुबह सुबह।"</span></p><p><span style="font-size: large;"> "हाँ बहन कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है, फिर कल तो पूरी रात सो ही नहीं सकी, काम पर निकलना ही था। "</span></p><p><span style="font-size: large;"> "रोज तेरा कुछ न कुछ ऐसा ही होता रहता है, अरी थोड़ा मजबूत बन, नहीं तो सब तुझे भी बेच कर खा जाएंगे। " </span></p><p><span style="font-size: large;"> "वह तो है तभी तो रोती नहीं हूँ, कब का छोड़ दिया लेकिन दिल और दिमाग के आँसूं आँखों से चुगली कर देते हैं। " </span></p><p><span style="font-size: large;"> "अरे आज सी तो कभी न दिखी, कह डाल तो कुछ हल्की हो जायेगी।"</span></p><p><span style="font-size: large;"> "क्या कहूँ, कल रात पीने के लिए पैसे माँग रहा था तो मैंने मना कर दिया। मारपीट करके घर से भाग गया। जब देर तक न आया तो एक बजे ढूंढने निकली। धुत पड़ा मिला। किसी तरह से लेकर आयी। तीन बज गया और चार बजे से घर के काम करके निकल पड़ी।"</span></p><p><span style="font-size: large;"> "तू भगा क्यों नहीं देती ऐसे मरद को, कमाए भी तू, खिलाये भी तू और मार खाकर खोजने भी तू ही जाए। कम से कम चैन से काम करके खायेगी तो। "</span></p><p><span style="font-size: large;"> "किस किस को भगाएँगे, हम लोगों के भाग्य में ऐसे ही मरद लिखे होते हैं, नहीं तो हम भी घर में चैन से न रहें।"</span></p><p><span style="font-size: large;"> "सच कह रही है, किसी की औलाद खून पीने के लिए पैदा होती है और किसी का तो मरद ही जीते जी मार देता है। "</span></p><p><span style="font-size: large;"> फिर गंतव्य आ गया और चल दी दोनों। <br /></span></p><p><span style="font-size: large;"> </span><br /></p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-56147801367559006202023-06-19T19:25:00.002-07:002023-06-19T19:25:59.251-07:00नौटंकी !<p> <span style="font-size: large;">नीति ने सुबह उठकर मोबाइल उठाया तो उसमें एक स्टोरी देख कर उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गयीं। वो थी उसकी ही सहेली मीता के द्वारा डाली गयी अपने ससुर की तस्वीर - आज पितृ दिवस के उपलक्ष्य में। अभी कल ही उनका गाँव में निधन हुआ है। </span></p><p><span style="font-size: large;"> पिछले कई सालों से वह अपने पैतृक गाँव में छोटे भाई के सहारे रह रहे थे क्योंकि मीता और उनके पतिदेव को तो उनको रखना ही नहीं था। माँ के निधन के बाद कुछ ही महीनों में उनको गाँव भेज आये थे क्योंकि माँ थीं तो उनके सारे काम समेटे रहती थी। अब कौन करेगा और क्यों? </span></p><p><span style="font-size: large;"> उनके निधन पर जरूर गाँव गए थे लेकिन उनके भाइयों ने खुद ही उनका अंतिम संस्कार किया। बेटा अपना हक़ तो पहले ही खो चुका था। अंतिम समय कई बार कहा भी कि मुझे यहाँ से ले जाओ मैं अपने ही घर में मरना चाहता हूँ लेकिन वह घर तो अब बेटे के अनुसार ढल चुका था। </span></p><p><span style="font-size: large;"> स्टोरी के साथ गाना लगा था - "चिट्ठी न कोई सन्देश। ...... " और कैप्शन था - "पापाजी आप इतनी जल्दी क्यों चले गए? आपके बिना हम अनाथ हो गये।" </span></p><p><span style="font-size: large;"> मीता ने मोबाइल उठा कर पटक दिया। कोई इतनी बड़ी नौटंकी कैसे कर सकता है? शायद अपने फ्रेंड सर्किल में या दूर के रिश्तेदारों में अपनी छवि बनाने के लिए ? </span><br /></p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-25457191375436977112023-06-14T19:17:00.007-07:002023-06-14T19:17:59.444-07:00पुरुष विमर्श - 4<p><span style="font-size: large;">पुरुष विमर्श -4 <br /></span></p><p> </p><p> <span style="font-size: large;"> नारी विमर्श का एक दूसरा पहलू है पुरुष विमर्श। सदियों से शोषित नारी ने भी रूप बदला है या संविधान और कानून ने जब उसकी रक्षा और अधिकारों के प्रति सजगता दिखलाई तो उसका दुरूपयोग भी शुरू हो गया। इसमें कानून के साथ उस स्त्री के साथ खड़े परिवार वालों ने भी सारी सामाजिकता और नैतिकता को ताक पर रख दिया। परिणाम सामाजिक संस्थाएँ खतरे में ही नहीं आ गयीं हैं बल्कि उसका विद्रूप रूप भी सामने आने लगा है। अब इतना अधिक आतंक हो चुका है कि लोग लड़कियों से ज्यादा लड़कों की शादी के लिए सशंकित रहने लगे हैं। </span></p><p><span style="font-size: large;"> गिरीश एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार और सुलझे हुए माता-पिता का इंजीनियर बेटा, जिसे घर और परिवार से अधिक दुनिया जहाँ में कोई रूचि न थी। उसकी एक सेमिनार के दौरान नमिता से मुलाकात हुई और बात हुई कुछ अधिक बात बढ़ी बस। फिर सब अपनी अपनी जगह। सामान्य बातचीत होती रही। </span></p><p><span style="font-size: large;"> एक दिन नमिता के पिता मिस्टर सिन्हा, जो आईएएस अधिकारी थे, ने गिरीश के पिता को फ़ोन किया कि वे उनसे मिलना चाहते हैं। दोनों अलग अलग प्रदेशों के रहवासी थे, यहाँ तक कि बहुत फर्क था दोनों की भाषा और संस्कृति में भी। राय साहब को समझ नहीं आया कि उनका ऐसा कोई परिचय भी नहीं है फिर कोई अनजान व्यक्ति क्यों मिलना चाहता है। सिन्हा साहब अपने रुतबे के अनुकून लाव लश्कर के साथ आ गए और उनका भी समुचित आदर सत्कार किया गया। </span></p><p><span style="font-size: large;"> "अपनी बेटी नमिता का रिश्ता आपके बेटे गिरीश से करना चाहता हूँ , वे दोनों भी एक दूसरे को पसंद करते हैं आशा करता हूँ कि आपको कोई आपत्ति नहीं होगी।"</span></p><p><span style="font-size: large;"> ये बात सुनकर राय साहब कुछ अचकचा गए और बोले "गिरीश ने तो मुझसे ऐसा कुछ भी नहीं बताया, फिर एकाएक शादी की बात कैसे पैदा हो गयी।" उनको सिन्हा साहब का रुतबा और स्टेटस देख कर संकोच तो हो ही रहा था। </span></p><p><span style="font-size: large;"> "मुझे नमिता ने बताया और लड़की के पिता होने के नाते में खुद प्रस्ताव लेकर आया। आपको कोई आपत्ति तो नहीं। "</span></p><p><span style="font-size: large;"> "जी मुझे क्या आपत्ति होती अगर गिरीश की मर्जी है तो। "</span></p><p><span style="font-size: large;"> "तब आप एक बार मेरे निवास पर आइये, आपकी नमिता से भी मुलाकात हो जायेगी, हमारे परिवार भी आपस में मिल लेंगे। "</span></p><p><span style="font-size: large;"> सब कुछ सही रहा और कुछ महीने के अंतराल में विवाह सम्पन्न हो गया। सिन्हा साहब ने अपने स्तर के अनुसार शादी की और सारा सामान गिरीश की पोस्टिंग के अनुसार हैदराबाद में भिजवा दिया। नमिता एक सप्ताह ससुराल में रही और फिर उसके पापा ने हनीमून टिकट दिया ही था सो वे बाहर निकल गए। लौटकर नमिता सीधे मायके निकल गयी और गिरीश घर आकर अपनी नौकरी पर चला गया। </span></p><p><span style="font-size: large;"> कुछ एक सप्ताह के बाद नमिता अपने एक नौकर को लेकर हैदराबाद पहुँच गयी। वह उसके साथ ही रहने वाला था और पिता ने अपनी बेटी को पूरी सुख सुविधा का ध्यान रखते हुए ये व्यवस्था की थी और कुछ बड़े घरों के बच्चों की जिंदगी के अनुरूप भी किया। यहाँ भी वह सिर्फ एक सप्ताह सामान्य रही और फिर एक दिन - गिरीश ऑफिस से वापस आया तो ड्रांइंग रूम में कैंडल लाइट में नमिता शार्ट पहने मेज पर दोनों पैर फैलाये ड्रिंक करती मिली, वह तो ऊपर से नीचे गिरा क्योंकि वह तो ड्रिंक तो क्या कोई भी व्यसन नहीं करता था। वह अपने पर काबू नहीं रख पाया तो उसने आते ही सवाल किया - "नमिता ये क्या ?" </span></p><p><span style="font-size: large;"> "कुछ नहीं जानू , बहुत दिन हो गए थे , अब तो इससे दूर नहीं रखा जाता आखिर कब तक मैं नाटक कर सकती हूँ आओ न दोनों मिलकर पिएंगे। "</span></p><p><span style="font-size: large;"> "नहीं मेरे घर में ये सब नहीं चलेगा।"</span></p><p><span style="font-size: large;"> "क्या कहा तेरा घर? अरे में मेरा भी घर है और इसमें मेरी ही चलेगी। तुम मर भुक्के हो ये मैं जानती थी और इसी लिए पैग बनाने और बाकि सामान लाने के लिए पापा ने राजू को साथ भेजा है।"</span></p><p><span style="font-size: large;"> "नमिता होश में बात करो, ये घर है कोई होटल नहीं और मेरे साथ तो ऐसे बिलकुल भी नहीं चलेगा। "</span></p><p><span style="font-size: large;"> "तुम्हारे साथ चलाना भी किसे है? वो तो उस एक्सीडेंट से मेरे ब्रेन में कुछ गड़बड़ हो गया था और ये कभी भी उभर सकता है ये बात पापा जानते थे। इसीलिए न तुमसे शादी की नहीं तो तुम्हारी औकात क्या है ? मेरे लिए आईएएस और आईपीएस लड़कों की कमी नहीं थी। अब शादी की है तो उसका भी मजा लो न। "</span></p><p><span style="font-size: large;"> गिरीश एकदम सकते में आ गया और समझ गया कि अब जीवन नर्क होने वाला है। दूसरे ही दिन उसने अपने पापा से सारी बात बतलाई और पूछा कि अब क्या करूँ ? लेकिन पापा भी कुछ नहीं सकते थे। कुछ दिन ऐसे ही गुजरे उसने अब उसकी हरकतों और गालियों, जो कि रोजमर्रा का रूटीन बन चुका था, के वीडियो बनाना शुरू कर दिया क्योंकि वह कर कुछ नहीं सकता था। फिर एक दिन जब वह ऑफिस से आया तो घर में ताला लगा था और वह नौकर सहित जा चुकी थी। उसने चारों तरफ फ़ोन घुमाये तो पता चला कि वह फ्लाइट पकड़ कर अपने पापा के घर पहुँच चुकी है। उसने अपने ससुर को फ़ोन किया तो उनका उत्तर था - "अब वह तुम्हारी वाइफ है और उसको कैसे रखना है ? ये तुम्हें पता होना चाहिए। मैं इस विषय में कोई सहायता नहीं कर सकता हूँ। "</span></p><p><span style="font-size: large;"> सिर्फ एक हफ़्ते के अंदर उसके खिलाफ घरेलू हिंसा का केस कर दिया गया और उसके घर सम्मन भेजा गया। इधर उसको नौकरी से भी निकलवा दिया गया। वह वहाँ से घर भागा, लेकिन कानून की पेचेदगी में उसे फँसा लिया गया था। सब कुछ पूर्व नियोजित था क्योंकि उसके ससुर को पता था कि नमिता की दिमागी हालत आज नहीं तो कल उबरेगी ही और फिर क्या होगा ? उनका भेजा हुआ नौकर उनका गवाह बन गया। उसने घर आकर अपने ही हाथ से दीवार पर सिर मार कर गुमला बना लिए , चूड़ियां तोड़ कर हाथों पर भी खरोंच के निशान बना कर मेडिकल करवा कर सुबूत बनवा लिए। जो उसके पिता के लिए कोई बड़ा काम नहीं था और मारा गया बेचारा सीधा सादा परिवार। समाज के सामने परिवार ख़राब होने का एक सर्टिफिकेट नमिता को मिल गया और अब मनमर्जी के लिए वह स्वतन्त्र थी। वैसे भी बड़े घरों में ये सब कोई बड़ी बात नहीं होती। <br /></span></p><p><span style="font-size: large;"> वारंट निकाला गया किसी शुभचिंतक ने इसकी सूचना दे दी और उन्हीं ने आकर पूर्व जमानत ले लेने की सलाह दी। पिता ने भाग दौड़ करके वह भी ली। गिरीश घर में आकर बैठा था और फिर घर का माहौल तनावपूर्ण हो गया। सब तरफ से वे लोग सशंकित रहते , घर का दरवाजा भी खटकता तो डर लगा रहता। </span></p><p><span style="font-size: large;"> इसी बीच गिरीश की माँ को ब्रेन हैमरेज हुआ और तीन महीने वह जीवन मृत्यु के बीच झूलती रहीं, आखिर में चल बसी। घर का एक स्तम्भ ढह गया, सारा घर मानसिक रूप से बिखर गया। माँ के जाने से पिता भी असहाय महसूस करने लगे थे। उनका मन उचाट हो गया और वे वहां से भागने की सोचने लगे। </span></p><p><span style="font-size: large;"> तारीखों का सिलसिला शुरू हो गया, साथ ही जान का खतरा भी लगने लगा क्योंकि ऐसे रुतबे वाले लोगों के लिए कुछ भी असंभव न था। गिरीश भी न नौकरी कर रहा था और न उसको मानसिक शांति थी। पिता का स्वास्थ्य भी गिरने लगा था, कोई रोग न भी था तो चिंता उनको खाये जा रही थी कि मेरा सीधा सादा लड़का किस मुसीबत में फँस गया। </span></p><p><span style="font-size: large;"> उन्होंने अपना घर और सारी जायदाद बेच कर अपना शहर छोड़ने की सोच ली और वे रातोंरात जो भी मिला बेच कर अपने भाई के पास चले गए और वहीँ सेटल होने की सोची। भतीजे ने अपनी ही कंपनी में गिरीश को जॉब दिलवा दी। उसके पीछे होने से कोई समस्या खड़ी नहीं हुई। पिता और बेटे ने अपने मोबाइल नंबर भी बदल दिए। धमकियों का सिलसिला बंद हो और उनका पता न मिल सके। उन्होंने सभी से अपने संपर्क तोड़ लिए। अब अकेले ही सब झेलना था, एक भाई का परिवार उनके साथ था। </span></p><p><span style="font-size: large;"> इसके साथ ही गिरीश के साढ़ू, जो उससे अपने उत्पीड़न की घटनाएं शेयर करता था, की तरफ से एक मुकद्दमा उसके खिलाफ लगा दिया गया। उसका सम्मान पुराने आवास पर भेजा गया लेकिन वापस हो गया। मुकदमा दर्ज है और वारंट भी, लेकिन जिस कोर्ट में ये सब चल रहा है वहां पर तारीख पर तारीख अब सालों में पड़ रहीं हैं और इनके कभी वहाँ न पहुंचने से आगे बढ़ जाती है। </span></p><p><span style="font-size: large;"> एक मानसिक यंत्रणा का शिकार एक होनहर इंजीनियर का भविष्य एक गलत निर्णय ले गया। जिससे मुक्ति अब संभव है या नहीं किसी को नहीं पता है। </span><br /></p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-71850715472620430212023-04-21T21:46:00.001-07:002023-04-21T21:46:58.457-07:00अक्षय तृतीया !<p> <span style="font-size: x-large;"><b>अक्षय तृतीया का महत्व </b></span><br /></p><p> <br /></p><div>
<span style="font-size: large;"><b>'न माधव समो मासो न कृतेन युगं समम्। </b><b>न च वेद समं शास्त्रं न तीर्थ गंगयां समम्।।'</b></span></div>
<div><span style="font-size: large;">
</span></div><div><span style="font-size: large;">
वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं हैं, वेद के
समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। उसी तरह
अक्षय तृतीया के समान कोई तिथि नहीं है।</span></div>
<div><span style="font-size: large;">
</span></div><div><span style="font-size: large;"> वैशाख मास की विशिष्टता इसमें आने वाली अक्षय तृतीया के कारण अक्षुण्ण
हो जाती है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाए जाने वाले इस पर्व का
उल्लेख विष्णु धर्म सूत्र, मत्स्य पुराण, नारदीय पुराण तथा भविष्य पुराण
आदि में मिलता है। </span><span style="font-size: large;"> इस दिन भगवान नर-नारायण सहित परशुराम और हयग्रीव का अवतार हुआ था।<br /></span>
<span style="font-size: large;">* इसी दिन ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का जन्म भी हुआ था। कुबेर को<br />
खजाना मिला था।</span><span style="font-size: large;"> *</span></div><div><span style="font-size: large;">इसी दिन बद्रीनारायण के कपाट भी खुलते हैं। जगन्नाथ भगवान के सभी रथों<br />
को बनाना प्रारम्भ किया जाता है।<br /> * इसी दिन भगीरथ जी के अथक प्रयासों के बाद शिव जी की जटाओं मां गंगा का पृथ्वी अवतरण भी हुआ था।<br /></span>
<span style="font-size: large;">*इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था कि आज<br />
के दिन इसके नामानुसार संसार में किये गए आध्यात्मिक, सांसारिक और पुण्यात्मक कार्यों का अक्षय पुण्य प्राप्त होगा। </span></div><div><span style="font-size: large;">*इसी दिन सुदामा भगवान कृष्ण से मिलने पहुंचे थे। </span></div><div><span style="font-size: large;">*प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेवजी भगवान के 13 महीने का कठीन उपवास का पारणा इक्षु (गन्ने)<br />
के रस से किया था।</span><span style="font-size: large;"><br />
*इसी दिन सतयुग और त्रैतायुग का प्रारंभ हुआ था और द्वापर युग का समापन<br />
भी इसी हुआ।</span><span style="font-size: large;"><br /> * अक्षय तृतीया के दिन से ही वेद व्यास और भगवान गणेश ने महाभारत ग्रंथ<br />
लिखना शुरू किया था। आदि शंकराचार्य ने कनकधारा स्तोत्र की रचना की थी।</span><span style="font-size: large;"><br /> * इसी दिन महाभारत की लड़ाई खत्म हुई थी।<br /> * अक्षय तृतीया के दिन ही वृंदावन के बांके बिहारी जी के मंदिर में श्री<br />
विग्रह के चरणों के दर्शन होते हैं।<br /></span>
<br /> <br /><div class="ii gt" id=":p5"><div class="a3s aiL " id=":sd"><div dir="auto"><div dir="auto"><span style="font-size: large;"> अक्षय
तृतीया हम बचपन में तभी जानते थे जब माँ से सुनते आ रहे हैं कि ये बिना
पूछे शादी की साइत होती है और कुछ दान पुण्य के काम भी समझ में आने लगते थे। तब हमें इन सब कामों से मतलब नहीं ही होता है और हम अपने मतलब की बात याद रखते थे और करते थे। </span></div><div dir="auto"><span style="font-size: large;"> सबसे बड़ा
काम हम दोस्तों के संग अपनी गुड़ियों का ब्याह रचाते थे। बाकायदा वरपक्ष में लडके और वधुपक्ष में लड़कियाँ होती थीं. मुँह से बैंड की आवाज निकालते हुए बारात आती थी। बारात का खाना पीना और फिर शादी के बाद विदाई तक का कार्यक्रम संपन्न होता था। <br /></span></div><div dir="auto"><span style="font-size: large;"> </span></div><div dir="auto"><span style="font-size: large;">
अब तो व्यापार और बाजारीकरण के इंटरनेट के
साथ झलकती प्रभाव से हम इसका सही अर्थ तो भूलते ही जा रहे हैं। बड़े
अक्षरों में ज्वैलर्स के विज्ञापन, सोने और हीरे के जेवरातों में मिली छूट
का आकर्षण लोगों को खींच लेता है। अक्षय का अर्थ शाब्दिक के साथ आर्थिक भी बन चुका है। हो भी क्यों नही? इसी के
लिए सोना खरीद तो बढ़ती ही रहेगी। दुकानदारों की चाँदी जरूर हो जाती है कि
वह पूरे साल में ज्यादा से ज्यादा कमाई करते हैं, कम से कम पूरे साल की
कमाई सिर्फ एक दिन में कमाई कर लेते हैं। </span></div><div dir="auto"><span style="font-size: large;">
जब इसका वास्तविक अर्थ समझें तो ये है कि भौतिक वास्तु का क्षरण
सुनिश्चित है फिर इस दिन दी गई वस्तु को अक्षय मान कैसे मान सकते हैं ?
जीवन में हम कितना संग्रहण करके उसका सुख उठा सकते हैं। ये हमारे मन का
भ्रम है कि हमने इतना संग्रह कर लिया कि हमारी चार पीढ़ियाँ बैठ कर
खायेंगी। वास्तव में इस दिन यदि कोई व्यक्ति अच्छा काम करे तो वह पूरी तरह
से और निश्चित रूप से अक्षय हो सकता है। इस समय भीषण गर्मी का मौसम आ चुका
है और अगर करना है तो प्याऊ लगवाएं , गरीबों को सत्तू, शक्कर , छाता , पंखा
, सुराही आदि दान करना चाहिए। वह देकर जो आत्मसंतोष आपको मिलेगा वह अक्षय
होगा। गर्मी में चिड़ियों के लिए पानी के पात्र पेड़ पर टांगना,जानवरों के
लिए पानी भरवाना वह अक्षय होगा। आत्मा सभी में होती है और उस आत्मा की
संतुष्टि के लिए जो भी प्रयास किया जाय, वह अक्षय है और अक्षय तृतीया इसी
का पर्याय है। इससे प्राप्त संतोष भी आपके लिए अक्षय ही होगा। <br /></span></div><div dir="auto"><span style="font-size: large;"> पुराणों में लिखा
है कि इस दिन पिण्डदान करके भी अपने पितरों को संतुष्ट करना अक्षय फल प्रदान करता
है। </span></div><div dir="auto"><span style="font-size: large;"> इस दिन गंगा स्नान करने का भी विधान है, हमारी आस्था सदा से धर्म कर्म
से जुडी है गंगा न उपलब्ध हों तो किसी भी पवित्र नदी , तालाब या पोखर में भी गंगा जी का स्मरण करते हुए स्नान करना भी अक्षय फल देने वाला होता है। इस दिन भगवन विष्णु और माँ लक्ष्मी का पूजन भी विशेष रूप से करने की बात सामने आती है। इसलिए कहा जाता है कि भगवत पूजन से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
यहाँ तक कि इस दिन किया गया जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो
जाता है।</span></div></div><div class="adL">
</div></div></div><div class="gA gt acV"><div class="gB xu"><div class="ip iq"><div id=":pj"><table class="cf wS" role="presentation"><tbody><tr><td class="amq"><span style="font-size: large;"> </span></td><td class="amr"><span style="font-size: large;"><br /></span></td></tr></tbody></table></div></div></div></div><div class="nH bkK"><div class="nH"><div class="nH"><div class="nH ar4 z"><div class=""><div class="AO"><div class="Tm aeJ" id=":3" style="height: 515px;"><div class="aeF" id=":1" style="min-height: 325px;"><div class="nH"><div class="nH" role="main"><div class="nH g id"><table cellpadding="0" class="Bs nH iY bAt" role="presentation"><tbody><tr class="aTN"><td class="Bu"><div class="nH a98 iY"><div class="nH aHU"><div class="nH hx"><div class="nH" role="list"><div aria-expanded="true" class="h7 ie nH oy8Mbf" role="listitem" tabindex="-1"><div class="Bk"><div class="G3 G2"><div><div id=":rm"><div class="gA gt acV"><div class="gB xu"><div class="ip iq"><div id=":pj"><table class="cf wS" role="presentation"><tbody><tr><td class="amr"><span style="font-size: large;"><br /></span></td></tr></tbody></table></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div><div class="nH"></div><div class="nH"></div></div></div><div class="nH"><div class="nH l2" style="padding-bottom: 0px;"></div></div></div><br /></td></tr></tbody></table></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div><div class="brC-aT5-aOt-bsf-Jw"><br /></div>
</div><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div><div><span style="font-size: large;"><br /></span></div>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-37777698228084215692023-03-22T04:33:00.003-07:002023-03-22T04:33:38.142-07:00विश्व जल दिवस!<p> रहिमन पानी राखिये , बिन पानी सब सून,</p><p>पानी गए न ऊबरे मोती मानस चून।</p><p><br /></p><p>रहीम जी ने वर्षों पहले ये लिखा था, शायद उन्हें आने वाले समय के बारे में ये अहसास था कि ये विश्व एक दिन इसी पानी के लिए विश्व युद्ध की कगार पर भी खड़ा हो सकता है।</p><p>इस एक दिन हम विश्व जल दिवस के रूप में मना लेते हें, कुछ भाषण दिए जाते हें। कुछ लेख लिखे जाते हें लेकिन आने वाले समय में जल विभीषिका के बारे में किसी ने सोचा ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि आज इस पानी के लिए लोग तरस नहीं रहे हें ।</p><p>मैं किसी को दोष नहीं दे रही लेकिन वो हम ही हैं न कि सड़क पर लगे हुए सरकारी नलों की टोंटी तोड़ देते हें ताकि पानी पूरी रफ्तार से आ सके और फिर अपना पानी भर जाने पर उससे उसी तरह से बहता हुआ छोड़ देते हें। हमें किसी को दोष देने का अधिकार नहीं है लेकिन सबसे ये अनुरोध तो कर ही सकती हूँ कि पानी की एक एक बूँद में जीवन है - एक बूँद जीवन दे सकती है तो एक बूँद के न होने पर जीवन जा भी सकता है। ये प्राकृतिक वरदान है जिसे हम खुद नहीं बना सकते हें और हमारा विज्ञान भी इसको बना नहीं सकता है। हम अनुसन्धान करके खोज तो कर सकते हें लेकिन प्रकृतिदत्त वस्तुओं का निर्माण नहीं कर सकते हैं।</p><p>शहरों में सबमर्सिबल लगा कर हम पानी का गहराई से दोहन कर रहे हें और जल स्तर निरंतर गिरता चला जा रहा है। नदियों के किनारे बसे शहरों में भी आम आदमी बूँद - बूँद पानी के लिए जूझ रहा है। लेकिन ये नहीं है कि वह इसके लिए दोषी नहीं है बल्कि एक आम आदमी जो पानी के लिए परेशान है लेकिन पानी आने पर वह इस तरह से बर्बाद करने से नहीं चूकता है।</p><p>--घरों में नलों के ठीक न होने पर उनसे टपकता हुआ पानी सिर्फ और सिर्फ पानी की बर्बादी को दिखाता है जिसके लिए हम जिम्मेदार हैं। इस तरह से बहते हुए।</p><p>- आर ओ हम जीवन का अभिन्न अंग बना चुके हैं लेकिन उससे उत्सर्जित पानी को बहने के लिए छोड़ देते है। उसका उपयोग हो सकता है, कपड़े धोने में, गमलों में डालकर, घर की धुलाई में। </p><p> आज भी लोग मीलों दूर से पानी लाते हैं। बढ़ती आबादी के साथ खपत तो बढ़ती है लेकिन जल स्रोत नहीं। जो हैं उन्हें संरक्षित कीजिए और जल दिवस रोज मानकर चलिए।</p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-87913849918968751472022-08-04T05:32:00.000-07:002022-08-04T05:32:01.084-07:00पागलपन !<p><span style="font-size: large;"> <b><span>पागलपन</span> !</b></span></p><p><span style="font-size: medium;"> <span style="font-size: large;">मनुष्य की एक दिमागी हालत जिसके लिए वह खुद जिम्मेदार नहीं होता है। फिर जिम्मेदार कौन है ? <span>उसकी मस्तिष्क संरचना. हालात या फिर उसका परिवेश (जिसमें परिवार भी शामिल है) मंदबुध्दि को लोग पागल करार दे देते हैं, बगैर जाने कि कारण क्या हो सकता है ? ऑटिज्म वाले लोगों को भी बगैर उसके मर्ज से वाकिफ हुए उसको आधा पागल बोलते रहते हैं और सीज़ोफ्रेनिया के मरीजों को तो पूरा पागल या भूत प्रेत का साया वाला कह कर उपेक्षा करते हैं, उससे दूर भागते हैं बजाय इसके। कि उनकी समस्या के लिए मनोचिकित्सक से सलाह लें। कई लोग तो अवसाद या तनाव की स्थिति में अंतर्मुखी लोगों को अगर मनोचिकित्सक के पास ले जाने पर उसको पागल समझने लगते हैं। यहाँ तक कि वह व्यक्ति भी उस स्थिति में कहने लगता है कि मैं कोई पागल हूँ, जो मनोचिकित्सक के पास जाऊँ ? आम लोगों की दृष्टि में मनोचिकित्सक पागलों का डॉक्टर होता है। </span></span></span></p><p><span style="font-size: large;"> समस्या यहीं तक नहीं है बल्कि समाज की एक विकृत मानसिकता का शिकार होने वाली महिलायें, लड़कियाँ और बच्चे भी होते है। वे जिन्हें पागल समझकर घर से निकाल दिया जाता है और सड़कों पर घूमने के लिए छोड़ दिया जाता है , वे हवस का शिकार होती हैं, गर्भवती होती हैं और सड़क पर घूमती रहती हैं. बच्चों और बड़ों के पत्थरों का शिकार होती हैं। उन्हें तो घर वाले ही पागलखाने में भर्ती कराने की जहमत तक नहीं उठाते हैं बल्कि उसकी पहचान तक अपने से नहीं जोड़ना चाहते हैं और न ही सामाजिक संस्थाएँ क्योंकि हमारे संविधान के अनुसार पागल और दिवालिया कुछ अधिकारों से वंचित होते हैं। उनका कोई आधार कार्ड, पेन कार्ड या फिर वोटर कार्ड नहीं होता है तो उनकी कोई पहचान नहीं होती हैं। वे किसी भी अस्पताल में भर्ती होने के अधिकारी नहीं होते हैं तभी तो सड़कों पर घूमा करते हैं। </span></p><p><span style="font-size: large;"> वह परिवार वाले जिनमें ऐसे बच्चे जन्म लेते हैं या फिर बाद में मानसिक बीमारी का शिकार हो जाते हैं, उनके पास प्रमाण होते हैं उनके नागरिक होने के, माता-पिता के और स्थान के। जन्म प्रमाणपत्र तो हैं ही न। अगर नहीं पालना है तो उसको पागलखाने में भर्ती कर दीजिये। बहुत हैं तो सड़क पर मारी मारी घूमते फिरने से अच्छा है कि उन्हें आप ख़त्म कर दीजिये ? इस बात पर आपत्ति की जाएगी क्यों? दहेज़ के नाम पर मार देते हैं, भ्रूण हत्या कर दी जाती है , दुष्कर्म करके मार दी जाती है, ऑनर किलिंग के नाम पर भी मारी जाती है - वह तो पढ़ी-लिखी स्वस्थ कमाऊ भी होती है न। तब कोई आपत्ति क्यों नहीं है? वो कुछ दिनों का विरोध या प्रदर्शन किसी हत्या के प्रति न्याय नहीं है। समाज से निकली हुई, परिवार से छोड़ी हुई महिलाओं या पुरुषों का बाहर सड़क पर नग्न या अर्धनग्नावस्था में घूमते हुए देख कर हमको शर्म नहीं आती क्योंकि हमारी शर्म के मायने बदल गए हैं। जब होश वाले लोग, स्वस्थ लोग अर्ध्यनग्न या पूर्ण नग्नावस्था में अपने फोटोशूट करवाकर सार्वजनिक कर सकते हैं और पत्रिकाएं उनको प्रायोजित करके प्रकाशित कर सकती हैं तो उनका घूमना तो सिरफिरों या हवस के मारों के लिए एक सुनहरा अवसर बन जाता है। कभी कभी तो परिवार वाले उनसे छुटकारा पाना ही चाहते हैं और अगर किसी संस्था द्वारा या पुलिस द्वारा उन्हें परिवार तक पहुँचा ही दिया गया तो वे अपनाने से साफ इंकार कर देते हैं। </span></p><p><span style="font-size: large;"> सवाल इस बात का है कि पागलखाने में कौन रहता है ? वे कौन से पागल है, जिन्हें अस्पताल की सुविधाएँ प्राप्त होती हैं , जिन्हें घर वाले स्वयं छोड़ आते हैं या फिर छुटकारा पाना चाहते हैं, जिनके ठीक होने संभावना होती है तो फिर उनके ठीक होने की संभावनाओं पर बगैर परीक्षण के प्रश्नचिह्न क्यों लग जाता है? </span></p><p><span style="font-size: large;"> यह मानवीय संवेदनाओं पर उभरता हुआ सवाल है और इसको मानवाधिकार के क्षेत्र में लाना चाहिए और इस पर भी उसी तरह से विचार करना चाहिए जैसे कि अन्य समस्याओं पर किया जाता है। इसका निदान कौन खोज सकता है ? सामूहिक प्रयासों से ही खोजा जा सकता है। अगर इसका उत्तर हाँ में है तो फिर मिलकर खोजें न - व्यक्तिगत प्रयासों से तो ये संभव नहीं है, कोई एक धनाढ्य मिल सकता है कि सबको प्रायोजित करके संस्था आरम्भ करे लेकिन समग्र के लिए होना संभव नहीं है क्योंकि एक व्यक्ति की अपनी सीमाएँ होती हैं। सरकारी प्रयासों की जरूरत है क्योंकि ढेरों योजनाओं की तरह से इनके लिए भी आवास, भोजन और देखरेख के लिए लोगों की भी जरूरत होगी। </span></p><p><span style="font-size: medium;"><span style="font-size: large;"> जैसे आवारा जानवरों के लिए आश्रय स्थल बनाये गए हैं , गायों गौशाला खोले गए हैं तो इन बेचारे को भी इस समाज में एक सुरक्षित शरण स्थल की दरकार है , भले जन्मदाता उन्हें छोड़ दें लेकिन मानवता के नाते इस मुद्दे पर भी विचार जरूरी है। एक मुहिम ऐसी भी शुरू की जाय। </span><br /></span></p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-67763918563246160412022-06-28T22:44:00.000-07:002022-06-28T22:44:20.906-07:00शाश्वत धर्म!<p> <span style="font-size: large;">शाश्वत_धर्म</span> !</p><p><br /></p><p> हम धर्म की परिभाषा पंथ में खोजने में लगे हैं और पंथ अपने अपने धार्मिक ग्रंथों की दिशा में जा रहे हैं। वे शाश्वत तभी है , जबकि वे हर तरह से निष्पक्ष विद्वजनों द्वारा स्वीकार किये जा रहे हों। धर्म को तो सनातन धर्म में अलग -अलग पृष्ठभूमि में व्याख्यायित किया गया है। हिन्दू, इस्लाम , ईसाई , सिख, जैन , बौद्ध और पारसी धर्म नहीं हैं बल्कि ये तो पंथ हैं और सारे पंथों का एक ही धर्म होता है वह है सनातन धर्म। जिसकी परिभाषा अवसरानुकूल नहीं बदलती है और हर पंथ के द्वारा स्वीकार की जाती है। </p><p><span style="font-size: large;">मानव_धर्म</span> :- </p><p> यह सभी को स्वीकार है कि अगर हम पंथ कट्टरता से मुक्त है तो इसको कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता है। ये सम्पूर्ण मानव जाति के द्वारा सम्पूर्ण प्राणि जगत के प्रति निभाए जाने वाला धर्म है। जो धर्म राष्ट्र के प्रति , समाज के प्रति जो निष्काम भाव से निर्वाह किया जाता है, वही मानव धर्म है और ये तन, मन और धन तीनों ही तरीकों से निभाया जाता है। इस बात को हर पंथ स्वीकार करता है और यही सर्वोच्च धर्म है।</p><p><br /></p><p> इस मानव धर्म के अंतर्गत ही आता है जीवन दर्शन के कुछ और धर्म , जिनसे किसी भी पंथ के द्वारा इंकार नहीं किया जा सकता है। </p><p> <span style="font-size: medium;">मातृ_धर्म</span> :- माँ इस सृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण होती है और उसके बिना ये सृष्टि संभव ही नहीं है। गर्भाधान से लेकर प्रसव तक की क्रिया स्वाभाविक होती है और इसी कारण माँ का स्थान सर्वोच्च है। चाहे वह एकल हो , निर्धन हो , धनी हो लेकिन अपने बच्चों के पेट भरने लिए वह काम करती है , मजदूरी करती है या फिर घर घर जाकर काम करे या फिर अपने घर में रहकर काम करे। उसकी इस महानता के लिए उसके प्रति अपने धर्म को निभाना संतान का मातृ धर्म है और इसको सभी पंथ स्वीकार करते हैं। </p><p> <span style="font-size: medium;">पितृ_धर्म</span> :- सृष्टि के निर्माण में मातृ और पितृ दोनों की भूमिका समान होती है , एक के बिना ये संभव ही नहीं है। वह माँ की तरह ही घर से बाहर रहकर उसके जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए , उसके भविष्य को बनाने के लिए दिन रात परिश्रम करता है। समाज के लिए एक अच्छा नागरिक बनाने के लिए सुसंस्कृत सुसंस्कारित बनाने के लिए भी सम्पूर्ण प्रयास करता है। एक सुरक्षित भविष्य देने के लिए अपने वर्तमान को गिरवी रख देता है। इस धर्म को कोई भी पंथ नकार नहीं सकता।</p><p> <span style="font-size: medium;">संतति_धर्म</span> :- सारे धर्म में संतति धर्म भी उतना ही महत्वपूर्ण है। खासतौर पर पुत्र धर्म लेकिन पुत्री भी इससे अछूती नहीं है। अगर पुत्र नहीं है तो पुत्री वह सारे कार्य पूर्ण करे जो पुत्र करेगा, अन्यथा जिस परिवार में वह अपने विवाह के बाद जायेगी, उसे परिवार में पुत्री या पुत्रवधू होने का धर्म पूर्ण करेगी</p><p><span style="font-size: large;">राष्ट_धर्म</span> :- </p><p> अगर माँ जन्मदात्री है तो मानव शरीर का निर्माण जिस प्राकृतिक अंश से बना है , वह पृथ्वी है और इस पृथ्वी जिस पर रहते हैं वह किसी न किसी देश या राष्ट्र की होती है, अपने राष्ट्र के प्रति हर निवासी का एक धर्म होता है। इसकी संपत्ति हमारी है , इसके जंगल , धरती , हवा और पानी सब से ही जीवन चलता है और इसकी रक्षा करना भी किसी भी पंथ का व्यक्ति हो, उसकी जिम्मेदारी है। शाश्वत धर्म इसको आचरण में लाने के लिए बात करते हैं। </p><p> <span style="font-size: large;">जीव_धर्मः</span>- </p><p> सारे जीव जिनमें जीवन है जिनमें मानव सर्वश्रेष्ठ माना जाता है उसका धर्म है कि वह पशु, पक्षी, वृक्ष और जल के स्रोतों के प्रति मानवीय धर्म को पूरा करें। जिन्हें प्रकृति ने जीवन दिया है, वे आपका भी पोषण कर रहे हैं , उनहें उजाड़ो मत। उनका जीवन हरण मत करो अन्यथा हमारा जीवन दूभर हो जायेगा।</p><p> ये सारे पंथ किसी भी रूप में उपरोक्त धर्मों से इंकार नहीं कर सकते हैं। क्योंकि कोई भी पंथ मानव धर्म से परे नहीं है क्योंकि पंथ मानव के हित के लिए बने हैं उनके द्वारा किसी का अहित होता है तो वो पंथ अनुकरणीय नहीं है। खून खराबा, जीव, हत्या,अत्याचार , राष्ट्र की संपत्ति का विनाश किसी भी पथ में स्वीकार्य नहीं है। </p><p> इन सबसे अलग एक शाश्वत धर्म ही हमको स्वीकार करना होगा , अन्यथा न कोई पंथ रहेगा और न धर्म।</p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-62626974762332134952022-06-15T01:42:00.000-07:002022-06-15T01:42:40.252-07:00विश्व वयोवृद्ध दुर्व्यवहार निरोधक दिवस ! <p><span style="font-size: medium;"> <span>हमारे देश में तो संयुक्त परिवार की अवधारणा के कारण आज जो वृद्धावस्था
में है अपने परिवार में उन लोगों ने अपने बुजुर्गों बहुत इज्जत दी होगी
और उनके सामने तो घर की पूरी की पूरी कमान बुजुर्गों के हाथ में ही रहती
थी। मैंने देखा है घर में दादी से पूछ कर सारे काम होते थे। खेती से मिली नकद राशि उनके पास ही रहती थी। लेकिन उनके सम्मान से पैसे
के होने न होने का कोई सम्बन्ध नहीं था। </span><br /></span>
<span style="font-size: medium;"><br /></span> <span style="font-size: medium;">1 .
वृद्ध माँ आँखों से भी कम दिखलाई देता है , अपने पेट में एक बड़े
फोड़े होने के कारण एक नीम हकीम डॉक्टर के पास जाकर उसको ऑपरेट करवाती है।
उस समय पास कोई अपना नहीं होता बल्कि पड़ोस में रहने वाली होती है। वह
ही उसको अपने घर दो घंटे लिटा कर रखती है और फिर अपने बेटे के साथ हाथ
कर घर तक छोड़ देती है। </span></p><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: medium;"> </span><span style="font-size: medium;"><br />
<span>2 .
74 वर्षीय माँ घर में झाडू पौंछा करती है क्योंकि बहू के पैरों में
दर्द रहता है तो वो नहीं कर सकती है। उस घर में उनका बेटा , पोता और पोती
3 सदस्य कमाने वाले हैं किसी को भी उस महिला के काम करने पर कोई
ऐतराज नहीं है। एक मेट आराम से रखी जा सकती है लेकिन ?????????? </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: medium;"><span> </span><br />
<span>3. बूढ़े माँ - बाप को एकलौता बेटा अकेला छोड़ कर दूसरी जगह मकान लेकर रहने लगा
क्योंकि पत्नी को उसके माता - पिता पसंद नहीं थे और फिर जायदाद वह सिर पर
रख कर तो नहीं ले जायेंगे . मरने पर मिलेगा तो हमीं को फिर क्यों जीते जी
अपना जीवन नर्क बनायें। </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: medium;"><span> </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: medium;">4 . पिता अपने बनाये हुए घर में अकेले रहते हैं क्योंकि माँ का निधन हो चुका है। तीन बेटे उच्च पदाधिकारी , बेटी डॉक्टर। एक बेटा उसी शहर में रहता है लेकिन अलग क्योंकि पत्नी को बाबूजी का तानाशाही स्वभाव पसंद नहीं है। आखिर वह एक राजपत्रित अधिकारी की पत्नी है। <span><br /></span><br />
<span>
आज हम पश्चिमी संस्कृति के जिस रूप के पीछे
भाग रहे हैं उसमें हम वह नहीं अपना रहे हैं जो हमें अपनाना चाहिए। अपनी
सुख और सुविधा के लिए अपने अनुरूप बातों को अपना रहे हैं। आज मैंने में पढ़ा
कि 24 शहरों में वृद्ध दुर्व्यवहार के लिए मदुरै सबसे ऊपर है और
कानपुर दूसरे नंबर पर है। कानपुर में हर दूसरा बुजुर्ग अपने ही घर में
अत्याचार का शिकार हैं। एक गैर सरकारी संगठन कराये गए सर्वे के अनुसार
ये परिणाम हैं। </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: medium;"><span> </span><br />
<span>
हर घर में बुजुर्ग हैं और कुछ लोग तो समाज के डर से
उन्हें घर से बेघर नहीं कर हैं, लेकिन कुछ लोग ये भी कर देते हैं। एक से अधिक संतान वाले बुजुर्गों के लिए अपना कोई घर नहीं होता है
बल्कि कुछ दिन इधर और कुछ दिन उधर में जीवन गुजरता रहता है। उस पर भी
अगर उनके पास अपनी पेंशन या संपत्ति है तो बच्चे ये आकलन करते रहते हैं
कि कहीं दूसरे को तो ज्यादा नहीं दिया है और अगर ऐसा है तो उनका जीना
दूभर कर देते हैं। उनके प्रति अपशब्द , गालियाँ या कटाक्ष आम बात मानी जा
सकती है। कहीं कहीं तो उनको मार पीट का शिकार भी होना पड़ता है। </span><br />
<span>
इसके कारणों को देखने की कोशिश की तो पाया कि आर्थिक
तौर पर बच्चों पर निर्भर माता - पिता अधिक उत्पीड़ित होते हैं। इसका
सीधा सा कारण है कि उस समय के अनुसार आय बहुत अधिक नहीं होती थी और
बच्चे 2 - 3 या फिर 3 से भी अधिक होते थे। अपनी आय में अपने माता - पिता
के साथ अपने बच्चों के भरण पोषण में सब कुछ खर्च देते थे। खुद के लिए
कुछ भी नहीं रखते थे। घर में सुविधाओं की ओर भी ध्यान देने का समय
उनके पास नहीं होता था। बच्चों की स्कूल यूनिफार्म के अतिरिक्त दो चार
जोड़ कपडे ही हुआ करते थे। किसी तरह से खर्च पूरा करते थे , पत्नी के लिए
जेवर और कपड़े बाद की बात होती थी। घर में कोई नौकर या मेट नहीं हुआ करते
थे, सारे काम गृहिणी ही देखती थी। सरकारी नौकरी भी थी तो बहुत कम पेंशन
मिल रही है और वह भी बच्चों को सौंपनी पड़ती है। कुछ बुजुर्ग
रिटायर्ड होने के बाद पैसे मकान बनवाने में लगा देते हैं। बेटों में
बराबर बराबर बाँट दिया। फिर खुद एक एक पैसे के लिए मुहताज होते हैं और
जरूरत पर माँगने पर बेइज्जत किये जाते हैं। </span><br />
<span>
आज जब कि बच्चों की आय कई कई गुना बढ़ गयी है ( भले ही
इस जगह तक पहुँचाने के लिए पिता ने अपना कुछ भी अर्पित किया हो ) और ये
उनकी पत्नी की मेहरबानी मानी जाती है। </span><br />
<span>-- आप के पास था क्या ? सब कुछ हमने जुटाया है। </span><br />
<span>-- अपने जिन्दगी भर सिर्फ खाने और खिलाने में उडा दिया। </span><br />
<span>-- इतने बच्चे पैदा करने की जरूरत क्या थी ? </span><br />
<span>-- हम अपने बच्चों की जरूरतें पूरी करें या फिर आपको देखें। </span><br />
<span>-- इनको तो सिर्फ दिन भर खाने को चाहिए , कहाँ से आएगा इतना ?</span><br />
<span>-- कुछ तो अपने बुढ़ापे के लिए सोचा होता , खाने , कपड़े से लेकर दवा दारू तक का खर्च हम कहाँ से पूरा करें ? </span><br />
<span>-- बेटियां आ जायेंगी तो बीमार नहीं होती नहीं तो बीमार ही बनी रहती हैं। </span><br />
<span>-- पता नहीं कब तक हमारा खून पियेंगे ये , शायद हमें खा कर ही मरेंगे। </span> <br />
<span>
</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: medium;"><span> अधिकतर घरों में अगर बेटियां हैं तो बहुओं को
उनका आना जाना फूटी आँखों नहीं सुहाता है। अपनी माँ - बाप से
मिलने आने के लिए भी उनको सोचना पड़ता है। </span><br />
<span>
बुजुर्गों का शिथिल होता हुआ शरीर भी उनके लिए एक
समस्या बन जाता है। अगर वे उनके चार काम करने में सहायक हों तो बहुत
अच्छा, नहीं तो पड़े रोटियां तोड़ना उनके लिए राम नाम की तरह होता है।
जिसे बहू और बेटा दुहराते रहते हैं। अब जीवन स्तर बढ़ने के साथ साथ
जरूरतें इतनी बढ़ चुकी हैं कि उनके बेटे पूरा नहीं कर पा रहे हैं। घर से
बाहर की सारी खीज घर में अगर पत्नी पर तो उतर नहीं सकती है तो माँ -बाप
मिलते हैं तो किसी न किसी रूप में वह कुंठा उन पर ही उतर जाती है। </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: medium;"><span> </span><br />
<span>
वे फिर भी चुपचाप सब कुछ सहते रहते हैं , अपने ऊपर हो
रहे दुर्व्यवहार की बात किसी से कम ही उजागर करते हैं क्योंकि कहते हैं - "चाहे जो
पैर उघाड़ो इज्जत तो अपनी ही जायेगी न।" फिर कहने से क्या फायदा ? बल्कि
कहने से अगर ये बात उनके पास तक पहुँच गयी तो स्थिति और बदतर हो जायेगी .
हम चुपचाप सब सह लेते हैं कि घर में शांति बनी रहे। ज्यादातर घरों में
बहुओं की कहर अधिक होता है और फिर शाम को बेटे के घर आने पर कान भरने की
दिनचर्या से माँ बाप के लिए और भी जीना दूभर कर देता है। पता नहीं क्यों
बेटों की अपने दिमाग का इस्तेमाल करने की आदत क्यों ख़त्म हो चुकी है ? </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: medium;"><span> </span><br />
<span>
माता-पिता को बीमार होने पर दिखाने के लिए उनके
पास छुट्टी नहीं होती है और वहीं पत्नी के लिए छुट्टी भी ली जाती है और फिर
खाना भी बाहर से ही खा कर आते हैं। अगर घर में रहने वाले को बनाना आता है तो
बना कर खा ले नहीं तो भूखा पड़ा रहे वह तो बीमार होती है।</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: medium;"><span> </span><br />
<span>
हमारी संवेदनाएं कहाँ गयीं हैं या फिर बिलकुल मर चुकी
हैं। कह नहीं सकती हूँ , लेकिन इतना तो है कि हमारी संस्कृति पूरी तरह से
पश्चिमी संस्कृति हॉवी हो चुकी है। रिश्ते ढोए जा रहे हैं। वे भी
रहना नहीं चाहते हैं लेकिन उनकी मजबूरी है कि उनके लिए कोई ठिकाना नहीं है। </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: medium;"><span> </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: medium;"><span> आज वृद्धाश्रम इसका विकल्प बनते जा रहे हैं लेकिन क्या हर वृद्ध वहाँ इसलिए है क्योंकि वे अपने बच्चों के बोझ बन चुके हैं। हमें उनके</span> ह्रदय में अपने बड़ों के लिए संवेदनशीलता रखें और अब तो बुज़ुर्गों के प्रति दुर्व्यवहार करने वालों के लिए दण्ड का प्राविधान हो चूका है लेकिन वयोवृद्ध बहुत मजबूर होकर ही क़ानून की शरण लेते हैं। </span><span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"> </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"> </span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"> * सारे मामले मेरे अपने देखे हुए हैं। </span></span></div><p> </p><p> </p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-89490440665220765752022-02-14T03:58:00.000-08:002022-02-14T03:58:36.369-08:00पुरुष विमर्श - 3<p> पुरुष विमर्श - 3 </p><p><br /></p><p>निम्न मानसिकता </p><p><br /></p><p> आज की कहानी का एक छोटा सा हिस्सा मेरे गिर्द भी घट रहा था और मैं निर्विकार उसको समझ रही थी । तब तो इसे लिखने के बारे में नहीं सोचा था।</p><p> रमित चार भाई बहनोंं मेंं दूसरे स्थान पर था। अच्छी कम्पनी में मैनेजर था । सभी एक अच्छी लड़की की खोज में थे और एक रिश्तेदार ने उन्हें ये रिश्ता बताया ।</p><p> इसमें कोई दो राय नहीं थी कि लड़की खूबसूरत थी और डॉक्टर भी थी। लड़के के परिवार में बड़ी बहन को छोड़ कर सभी इंजीनियर थे और वे सभी खूबसरत थे। बड़े उत्साह से शादी की गई । करीब एक महीने दीपिका ने छुट्टी ली और ठीक से रही लेकिन आधा समय तो घूमने में गुजर गया और आधा इधर उधर जाने आने में ।</p><p> अब शुरू हुई उसकी सोच का दाँव पेंच में उतारना क्योंकि वह माँ बनने की स्थिति में आ चुकी थी और फिर बिस्तर से उठना गवारा नहीं था । सास ससुर, ननद और देवर को भी घर में आने वाले नन्हें मुन्ने के आने का उत्साह आ गया था । बहू और भाभी हाथों हाथ ली जा रही थी । वह तो सोच रही थी कि इसी समय कुछ लड़ने झगड़ने का मौका मिलेगा और वह यहाँ से भाग लेगी । उसकी नौकरी भी पति के नौकरी स्थल से कुछ घण्टे की दूरी पर थी ।</p><p> इस बीच उसने कई मौके खोजे , अपनी चीजों की चोरी का आरोप घर वालों पर लगाया लेकिन चीज बरामद होने पर गलत साबित हुई तो खिसियानी बिल्ली बन कर वह मायके चली गई । फिर वहीं पर बेटा हुआ और उसने घर आने से इंकार कर दिया तो सारे घर वाले मनाने पहुँच गये कि घर की पूजा वगैरह तो वहीं होंगी तो उसकी माँ ने भेजने से मना कर दिया ।</p><p> सब वापस लौट आये । रमित कुछ दिन वहीं रहा और घर वाले बच्चे के मोह में आते जाते रहे । एक दिन जब ये लोग पहुँचे तो घर में ताला बंद था और फोन भी बंद था। पता नहीं लग पाया । रमित ने पता किया तो उसने अपनी नौकरी ज्वाइन कर ली थी और बच्चे के लिए माँ को ले गई थी।</p><p> शनिवार और रविवार रमित वहाँ जाता रहता था कि कभी तो सही होगी, अब तो बच्चा भी हो गया है। वह छुट्टी में वहाँ जाने लगी । पाँच दिन अपनी नौकरी पर रहती । अपने घर का सपना पूरा करना चाह रही थी । ससुर पर दबाव डालने लगी कि मकान बेचकर आधा पैसा दो मैं अपना मकान लूँगी। ससुर ने मना कर दिया कि अभी मुझे अपनी बेटी और एक बेटे की शादी करनी है।</p><p> उसने पति को घर जाने से रोक दिया और जब भी गया उसने तमाशा खड़ा कर दिया। मैं और उसकी बहन एक साथ काम करते थे। दिल्ली में हम लोग कांफ्रेंस के लिए गए , हम लोग एक ही रूम को शेयर कर रहे थे। मैं सारी चीजों से वाकिफ थी। वह मुझसे बोली कि मैं भैया से मिलने जा रही हूँ और लौट कर आयी तो वह मेरे गले लग कर फूट फूट कर रोयी। मैंने उसे चुप कराया और पूछा बात क्या हुई ? </p><p> तब उसने बताया कि भैया मुझे घर नहीं ले गए बल्कि उन्होंने बताया कि जब मैं पिछली बार उनके घर गयी थी तो लौट कर उसने बहुत कहर बरपाया कि "तुम्हारी बहन मेरे घर में क्यों आयी थी ? इसी बैड पर बैठी होगी , उसने मेरे बेड को कैसे प्रयोग किया ? मेरी अनुपस्थिति में आने की जरूरत क्या थी ? आइंदा मेरे घर में आने की कोई जरूरत नहीं है।" </p><p> मैंने उसे बहुत समझाया और उसकी काउंसलिंग करके ठीक किया। भाभी उसकी शादी भी जहाँ बात चलती, गलत बातें फैला कर होने न देती बल्कि उसने चुनौती दे रखी थी कि बाकियों की मैं शादी न होने दूँगी। </p><p> उसके रोज रोज के बढ़ते अत्याचारों से एक दिन पति ने आत्महत्या की कोशिश की , लेकिन डोज़ कुछ कम थी और वह तीन दिन बेहोश रहकर ठीक हो गया। लेकिन अवसाद में इतना डूब चुका था कि उसने बगैर बताये होटल में कमरा लेकर रहने लगा। उसके जीवन से ऑफिस वाले भी अवगत थे क्योंकि वह बहुत ही सुलझा हुआ इंसान था। जब उसकी समस्या का कोई समाधान नहीं निकला तो उसने अपनी कंपनी में बात करके बाहर भेजने की बात की और कंपनी ने उसको बाहर भेज दिया। फिर वह न भाई की शादी में आया और न ही बहन की शादी में। वह आज भी बाहर ही है। उन्होंने किसी को नहीं बताया कि वह कहाँ है ? सब यहाँ से वहीँ शिफ्ट हो गए। <br /></p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-53050597377789845682022-02-09T06:23:00.001-08:002022-02-09T06:23:17.529-08:00झांसे का मनोविज्ञान ! <p> <b>झाँसे का मनोविज्ञान !</b></p><p> </p><p> झाँसा आज के युग में ही नहीं बल्कि ये प्राचीन काल से चला आ रहा है और इससे जुड़ा हुआ रहता कोई एक अपराध , जो कि इसका जनक होता है। कुछ सीधे सादे लोग और कुछ धूर्त और चालाक लोग इसका फायदा उठाने की नियत का शिकार हमेशा से होते रहे हैं। जब सत्य सामने आता है तो कोई न कोई सिर पीट कर रह जाता हैं या फिर क़ानून के लम्बे पचड़े में फँस कर घुट घुट कर जीने को मजबूर होते हैं। </p><p><b>विश्वास की हत्या :--</b></p><p> ये झाँसा किसी बहुत अपने द्वारा दिया जाता रहा है , तभी तो जल्दी विश्वास कर लिया जाया है और उन्हें पता नहीं होता है कि उनके विश्वास की हत्या हो रही है। जो झाँसा देने वाला होता है, उसको पूरा विश्वास होता है कि सामने वाला उसके ऊपर पूरा विश्वास करता है और उसके पास शक करने की कोई भी गुंजाइश नहीं है। हम कुछ भी कर सकते हैं। वह झाँसा देने में पूरी तरह से सफल होगा। अपने विश्वास को वह कई तरह से प्रयोग करता है - कभी बेटे और बेटी की शादी में - किसी भी तरह की कमी युक्त लड़के या लड़की का रिश्ता करवाना और असलियत को छिपा देना , नौकरी का झाँसा देकर रकम वसूल कर लेना , शादी का झाँसा देकर लड़की का दैहिक शोषण करते रहना , प्रमोशन के लिए लड़की या लडके को झाँसे में रख कर शोषण करना या फिर रुपये ऐंठना। कुल मिला कर विश्वास की हत्या ही होती है। </p><p><b>लालच की प्रवृत्ति :- </b></p><p> इस झाँसे का शिकार हमेशा लालच की प्रवृत्ति रखने वाले लोग होते हैं। बगैर मेहनत के कुछ पा लेने का लालच - कम समय में पैसे का दुगुना मिलना , सरकारी नौकरी का लालच , शादी का लालच (विशेषतौर पर बॉस या किसी पैसे वाले लडके के साथ सम्बन्ध करने का लालच) , विदेश में नौकरी का लालच , बच्चे को शहर से बाहर अच्छे काम दिलवाने के लालच में आना। अपनी कमिओं को कोई भी नहीं समझना चाहता है और बगैर किसी मेहनत के बहुत कुछ पा लेने का लालच की प्रवृत्ति ही इसके लिए जिम्मेदार होती है। असलियत से परिचित होने पर सिर्फ सिर पीट कर रह जाते हैं और कभी भी खोई हुई चीज वापस नहीं मिलती है। </p><p><b>पीड़ित खुद जिम्मेदार :- </b></p><p> झाँसे के लिए पीड़ित खुद जिम्मेदार होता है क्योंकि वह अपने स्वार्थ के लिए स्वयं समझौता करता है। वह समझौता चाहे पैसे का हो , रिश्ते का हो। इस जगह कोई भी जबरदस्ती नहीं होती है बल्कि लड़कियों के मामले में चाहे गरीबी हो , बड़े घर में शादी का मामला हो , प्रमोशन का मामला या फिर नौकरी का मामला हो। आपको कोई मजबूर नहीं कर सकता है , अगर आप खुद कहीं भी समझौता न करना चाहे तो ? आपको अच्छी नौकरी चहिए होती है, तो मालिक के झाँसे में आ सकते हैं , यह बात दोनों पक्षों पर लागू होती है। जो शिकायत लेकर आते हैं , वे खुद ही स्वार्थ में लिपटे हुए होते हैं और अगर आप सही रास्ते पर चलने वाले हों तो आपको कोई झाँसे में ले नहीं सकता है। </p><p><b>दण्ड का प्राविधान :-</b> <br /></p><p> अगर झाँसे देने वालों के लिए दण्ड का प्राविधान है तो फिर झाँसे के लालच में लिप्त होने वाले के लिए भी दण्ड का प्राविधान होना चाहिए। जब तक आपको अपने स्वार्थ सिद्धि की आशा रही आप शोषित होते रहे और जब सफल होते न दिखाई दिए तो क़ानून की सहायता लेने पहुँच गए , आखिर क्यों ? जब आप अपने स्वार्थ सिद्धि होते देख रहे थे तब तो आपने क़ानून से सलाह नहीं ली थी। आप दोषारोपण के लिए जब आते हैं तो उतने ही अपराधी होते हैं जितना कि दूसरा। </p><p> झाँसे का मनोविज्ञान है यही कि कोई फायदा उठा है और कोई किसी फायदे को अपनी स्वार्थसिद्धि की बैशाखी बना कर प्रयोग करता है। लालची हमेशा झाँसे में आने वाला होता। इस मनोविज्ञान को समझ कर दोनों ही आपराधिक श्रेणी में रखा जाना चाहिए। पहले तो इस झाँसे में आने की प्रवृत्ति को मन में पनपने नहीं देना चाहिए। <br /></p><p> </p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-392487891227078992022-02-07T06:42:00.000-08:002022-02-07T06:42:30.011-08:00पुरुष विमर्श - 2<p>बेटी की जगह !</p><p> </p><p> परिवार उससे जुड़ा था, जिसने दोनों को मुझसे मिलवाया। सीमा भी गई थी लड़की वालों के यहाँ गोद भराई में। बहुत बड़ा समारोह नहीं किया गया था। रिश्ते की नींव ही झूठ और फरेब पर रखी गई थी। शायद लड़की कुछ मानसिक रूप से स्वस्थ भी न थी और माँ-बाप दूर के रिश्तेदार का वास्ता देकर प्रस्ताव लेकर आये। </p><p> लड़के के परिवार में सिर्फ माता-पिता और दो भाई थे। सम्पन्न परिवार और दोनों बेटे पत्रकारिता से जुड़े थे। जब लड़के वाले आये तो उसको भी बुलाया गया था । कोई बात नहीं सहजता से बातचीत हुई । कोई माँग नहीं। लड़की की माँ नौकरी में थीं, पिता रिटायर्ड। तीन भाइयों में सबसे छोटी और माँ की दुलारी होना भी चाहिए ।</p><p> गोद भराई के बाद माँ अपना घर दिखाने ले गईंं । ऊपर का पोर्शन दिखा कर बोली - "ये बिल्कुल खाली है, चाहें तो रवि यहीं रहकर अपना काम करें , कौन सी नौकरी में आफिस ही जाना है। ये बात उसी समय आभास दे गई कि कल कुछ गलत भी हो सकता है ।</p><p> शादी हुई, घर में बेटी नहीं थी सो बेटी की तरह ही रखा गया । कुछ दिन रही फिर भूत प्रेत का नाटक शुरू हो गया और माँ को सूचित किया गया । माँ आकर जम गईंं , धूप, धूनी करना शुरू कर दिया और फिर बोली कि हम ले जा रहे हैं । ठीक हो जायेगी तो ले जाइएगा। वह बेटी को लेकर चली गयी। </p><p> फ़ोन संपर्क चलता रहा लेकिन न उसने आने की बात कही और न उसको बुलाने की कोशिश की गयी। लड़का बराबर कुछ अंतराल में जाता रहा। उस पर दबाव डाला जा रहा था कि वह वहीँ जाकर रहे ताकि माँ बाप की देख रेख में बेटी बनी रहेगी। उसके पीछे भी कुछ कारण रहे होंगे लेकिन लड़के ने जाने से इंकार कर दिया। </p><p> कुछ हफ़्ते बाद कोर्ट से नोटिस आ गया दहेज़ उत्पीड़न का , जब तक ये लोग कानूनी सलाह ले पाते। वह पुलिस के साथ आ धमकी और उसके सिर में चोट जैसे निशान भी थे। उसमें उसने माता पिता , पति और देवर को नामित किया था और इतने ही लोग घर में रहते थे। लड़के को पुलिस ने तुरंत ही गिरफ़्तार कर लिया, लेकिन सास ससुर की उनके वकील मित्र ने तुरंत ही जमानत करवा दी और उनको जेल जाने से राहत मिल गयी। देवर ने अपनी जॉब की वजह से बाहर रहने की स्थिति दिखा दी। </p><p> बहुत मुश्किल के बाद एक महीने के बाद लड़के को जमानत मिली। </p><p> मामला फैमिली कोर्ट में गया और उसमें सुनवाई शुरू हो गयी। हर उपस्थिति में वह नया ही बयान देती जैसे कि वह किसी के सिखाये हुए बोल रही हो। वह अपने साथ किसी परिवार के सदस्य के बजाय भाई के किसी मित्र के साथ आती थी। एक दिन उसने लिख कर दिया कि उसने गलत आरोप लगाए हैं और वह परिवार के साथ रहना चाहती है। परिवार ने विश्वास नहीं किया और उसको फिलहाल अपने स्थानीय भाई के यहाँ रहने को कहा। कोर्ट ने कहा कि लड़का वह जाकर उसका ध्यान रखेगा। तभी पता चला कि वह गर्भवती है और यह उसे लड़के की पहली गलती थी। जिस पर विश्वास न किया जा सके उसको कैसे ?</p><p> इस बात के जानने के बाद वह भाई के घर से अपने घर चली गयी। उसको खर्च भेजने का दायित्व परिवार निभा रहा था क्योंकि वह गर्भवती थी और सुरक्षित प्रसव के लिए घर पर ही रहने दिया गया। एक रात फ़ोन आया कि बेटा हुआ था और तुरंत ख़त्म हो गया। पहले से या फिर उसके आने का कोई भी इन्तजार नहीं किया गया और उसको दफना दिया गया। जब तक वह पहुंचा सब ख़त्म हो चुका था। </p><p>\ रिकवरी के लिए वही छोड़ दिया गया और फिर एक महीने बाद भरण पोषण का मुकदमा लगा दिया गया और एक नया मुक़दमा चलने लगा। पूरे दस साल वह चलता रहा। तारीख पर तारीख पड़ती रहीं। रवि मानसिक तौर पूरी तरह से टूट चुका था , न काम करने का मन करता और न वह करता था। आखिर दस साल बाद उसका वकील आपसी सहमति के बाद तलाक़ का प्रस्ताव लेकर आया। लेकिन इस पक्ष के वकील को बिलकुल भी विश्वास नहीं था क्योंकि वह कई रूप देख चुका था। आखिर दोनों वकीलों ने एक सहमति बनाई और दस लाख रुपये लेकर उसने तलाक़ देने का प्रस्ताव रखा। </p><p> रवि पूरी तरह से वकील और माँ बाप पर निर्भर हो गया। कुछ लतें भी लग गयीं। ये दस साल किसी की जिंदगी को तहस नहस करने के लिए बहुत थे। वह कई नशों का आदी हो चुका था। जिन्हें वह आज तक नहीं छोड़ पाया। एक अच्छे खासे लड़ के का जीवन पूरी तरह से तबाह हो चुका है। </p><p> </p><p><br /></p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-52504612729071060872022-02-03T07:10:00.002-08:002023-07-04T04:20:09.351-07:00पुरुष विमर्श - 1<p> पुरुष विमर्श - 1</p><p><br /></p><p> अभिशाप !</p><p><br /></p><p> ऋषि ने अपने पिता से प्रस्ताव रखा था , अपनी पसंद की शादी का । मध्यम वर्गीय पिता ने एक बार समझाया था कि कहाँ वो एक राजपत्रित अधिकारी की बेटी और कहाँ हम ? </p><p> लेकिन कुछ भाग्य होता है और कुछ भवितव्यता । बेटे की इच्छा के आगे वह भी झुक गये । हमारा क्या ? आज हैं कल तो उसे जीवन बिताना है, पसंद की है तो सुखपूर्वक जीवन चलेगा । माँ ने भी समझाया ।</p><p> सब कुछ विधिवत हुआ । लड़की विदा होकर घर आ गई । पिता ने लड़के को उसकी हैसियत समझा दी । एक नौकर भी साथ भेजा , जो उसका पूरा ध्यान रखेगा। बेटी को लाड़ प्यार से पाला है तो कोई कष्ट न हो ।</p><p> बेटी की खुशी सभी चाहते हैं लेकिन नौकर भेजना ऋषि को अपना अपमान लगा। कंचन उसके साथ पढ़ी थी , जॉब उसने नहीं की थी क्योंकि जितना वेतन मिलता उससे ज्यादा उसका जेबखर्च था।</p><p> ये सब बातें तो ऋषि को बाद में समझ आईं। अपनी पसंद के द्वारा माँ बाप का अपमान न हो , वह कंचन को लेकर अपनी जॉब पर चला गया। </p><p> अभी एक महीना भी नहीं बीता था कि ऋषि ऑफिस से आया तो उसकी आँखें फटी की फटीं रह गईं। कंचन शॉर्ट पहने ड्रिंक कर रही थी , ऋषि तो शुद्ध शाकाहारी ब्राह्मण परिवार का बेटा था।</p><p> उसने जो प्रक्रिया दिखाई, ऋषि अवाक् । कंचन ने सीधे गालियाँ शुरू कर दीं - वह गालियाँ जो सभ्य परिवार की महिलाएं क्या पुरुष भी नहीं देते। </p><p> कुछ संवाद तो लिखे ही जा सकते है - 'साले भिखमंगे मेरे बाप की दौलत पर निगाह रखते हो , वह सब कुछ मेरा है । यह सब कुछ कभी देखा था अपने बाप के घर में।'</p><p> उसको शराब उसका नौकर लाकर देता और वह बैठ कर पीती। कुछ दिन घुट घुट कर जिया । मार भी खाई और उसकी हरकतों की वीडियो भी बनाया लेकिन उसकी औकात उसके परिवार से टक्कर लेने की नहीं थी।</p><p> एक दिन ऑफिस से लौटा तो घर में ताला बंद था , वह अपने बाप के पास उड़ गई थी, अपने नौकर सहित। घर पूरा तहस नहस कर गई थी। ऋषि ने फोन किया तो ससुर ने उठाया और बोले - 'अब वह तुम्हारी पत्नी है, उसको कैसे रख सकते हो , तुम जानो।'</p><p> वह बेचारा क्या जाने ?</p><p> पिता के घर साजिश रची और दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा का मुकदमा कर दिया । अपने प्रभाव का प्रयोग करके नौकरी से भी निकलवा दिया और ऋषि वापस घर आ गया। पिता मुकदमे की पैरवी के लिए बार बार भागने लगे । हृदय रोग और उच्च रक्तचाप के मरीज पिता बार बार भागते सो शारीरिक और मानसिक रूप से टूट रहे थे , लेकिन बेटे को तनाव और अवसाद से बचाने के लिए खुद ही भाग रहे थे और अपने को मजबूत भी दिखा रहे थे।</p><p> आखिर में वकील को सौंप कर घर में बैठ गये। वह तलाक देने को तैयार न थी और ऋषि साथ रख पाने में असमर्थ था।</p><p> परिवार का हर सदस्य मानसिक तनाव में था । एक दिन माँ को ब्रेन हैमरेज हो गया । एक महीने तक जीवन और मृत्यु के बीच झूलते हुए वे विदा हो गईं। पिता की आधी शक्ति जाती रही। । बिल्कुल टूट गये और बच्चे भी।</p><p> किसी तरह ऋषि को नौकरी मिल गई और वो पिता सहित गृहनगर छोड़कर नौकरी वाले शहर में जाकर बस गया । संब कुछ बिखर चुका था । पिता की लेखनी सूख गई, जिंदगी इतने टुकड़ों में बिखर चुकी थी कि भावनाओं के टुकड़े इधर उधर बिखर गए।</p><p> ऋषि एक मुखौटा ओढ़े पिता को सांत्वना देता एक लड़ाई लड़ रहा है , एक अंतहीन लड़ाई ।</p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-17211138244989535542022-01-02T01:44:00.001-08:002022-01-02T01:44:48.937-08:00अनियोजित नववर्ष !<p> </p><p> जब से होश सँभाला तब से हर वर्ष , वर्ष के पहले दिन का एक नियोजन बना कर रखती थी। मेरा विश्वास है कि जैसा वर्ष का पहला दिन गुजरेगा और जो करेंगे उसकी पुनरावृत्ति पूरे साल बार बार होती रहती है। मेरे विचार से हर बार ही होता था। अब जब जीवन के ६६ + होने पर अब सब कुछ वैसा ही करूंगी जैसा कि हो रहा है। अनियोजित सा सामने आता जाएगा तो करती जाउंगी। उठूंगी अपने मन से और काम करूंगी अपने मन से। </p><p> बहुत चल लिए दूसरों और वक्त की रिद्म पर और मैं चलूंगी अपनी ही रिद्म पर। उठे तो मन से धीरे धीरे काम शुरू किया। सोचा मैं आज के दिन किसी को विश नहीं करूंगी , नेटवर्क नहीं मिलता है और देखती हूँ कि जिन्हें मैं हर बार करती रही , मुझे कौन कर रहा है ? मन में कोई रोष लेकर नहीं बल्कि अपने मन की करने की सोच कर। दिन अच्छा शुरू हुआ नाश्ता भी रोज से हट कर बनाया। धूप भी कई दिन बाद निकली तो उसका भी फायदा उठाना भी था। लंच भी रोज की तरह से दाल रोटी नहीं बनाई। पालक की कचौड़ी और मिक्स वेज बनायीं और खाकर रजाई में घुस गए तीन बजे। </p><p> अभी सोये भी नहीं थे कि जिनके जिगरी दोस्त रवि भाई साहब </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgVxWLhgeZZOdsUtE957zpLndR0o60pYTGroStuFf-Tc3GUPvrtnCdkSNM-Y2sSKk93psatbN3QEWM99KHJ7qbk4Sf3JeA9hPufudTRcng3OGqk7g-oaSWHMKav6fCgMJFo293N6Pv9-EfLdGqPSXCnDlv9yc7cMeAEAYxExILr4WtR_6OMMvrhGHRY=s4608" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4608" data-original-width="3456" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgVxWLhgeZZOdsUtE957zpLndR0o60pYTGroStuFf-Tc3GUPvrtnCdkSNM-Y2sSKk93psatbN3QEWM99KHJ7qbk4Sf3JeA9hPufudTRcng3OGqk7g-oaSWHMKav6fCgMJFo293N6Pv9-EfLdGqPSXCnDlv9yc7cMeAEAYxExILr4WtR_6OMMvrhGHRY=s320" width="240" /></a><br /></div><br />का फोन आया कि शाम को रोटी साथ ही खाते हैं और बात ख़त्म। मैं सोचूँ ये क्या बात हुई ? मेरे लिए न पूछा और न कहा। मैंने इनसे पूछा कि सुमन भाभी नहीं है तो ये बोले मैंने तो ये पूछा ही नहीं। '<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiC32NrDh7u4C7XL05MCU8_n6IhsQek6-3_7RslQWatxjZmLOtR1rjel_nisXuaWIn2zoccIWqGogn-l3urvMTKlokteA63FIp5thxuo1UANcSaMU8JbU2MTzLv1xa6IaYnXV3Hq1IAbQLjBZQe6n71HHYnENMgpdsqPQbpNQIuMSYnWFXkgvpVs7QL=s4608" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4608" data-original-width="3456" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiC32NrDh7u4C7XL05MCU8_n6IhsQek6-3_7RslQWatxjZmLOtR1rjel_nisXuaWIn2zoccIWqGogn-l3urvMTKlokteA63FIp5thxuo1UANcSaMU8JbU2MTzLv1xa6IaYnXV3Hq1IAbQLjBZQe6n71HHYnENMgpdsqPQbpNQIuMSYnWFXkgvpVs7QL=s320" width="240" /></a></div><p></p><p> रवि भाई साहब ने सुमन भाभी को बताया कि आदित्य हमारे साथ रात में डिनर लेंगे। वो बोली कि भाभी नहीं है , उन्होंने भी कह दिया कि मैंने पूछा नहीं। उन्होंने मुझे फ़ोन करके पूछा कि आप कहाँ है ? मैंने कहा कि मैं तो घर पर ही हूँ। तब उन्होंने कहानी बताई और कहा कि हम भी साथ ही डिनर ले रहे हैं। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjin192aLRpXyOtgDqh8IHZ2S6Ey2qzN-UR1r3HLy_LxZxZEgxNmMSCe92Vo59PWLuqHtlKB8jUHP3olyYpc_IGabLgZ-jD-9Y5dO3F3cT6gLcDhLyNgfCK9ZHMr9n_LJXQtfEuIZgRWupaxmJn6KZBPFAP8SplbkSJbN7XnnKkEWZUHU7auiQmqizn=s4608" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3456" data-original-width="4608" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjin192aLRpXyOtgDqh8IHZ2S6Ey2qzN-UR1r3HLy_LxZxZEgxNmMSCe92Vo59PWLuqHtlKB8jUHP3olyYpc_IGabLgZ-jD-9Y5dO3F3cT6gLcDhLyNgfCK9ZHMr9n_LJXQtfEuIZgRWupaxmJn6KZBPFAP8SplbkSJbN7XnnKkEWZUHU7auiQmqizn=s320" width="320" /></a></div><br /><p></p><p> यह भी अनियोजित सा डिनर हुआ कि पहले सोचा ही नहीं था और दोनों ही दो ही लोग हैं। </p><p> रात में जब पहुंची तो भाभी बोली कि हम तो गले मिलेंगे एक मुद्दत गुजर गयी गले मिले हुए। ये बोले सोच लीजिए - 'कोरोना फिर से पैर पसार रहा है। ' </p><p> हम लोगों ने कहा - ' ऐसे की तैसी कोरोना की , हम तो गले ही मिलेंगे।' एक मुद्दत बाद हम गले मिले शायद दो साल बाद। </p><p> खाते पीते जब दस बज गए तो रात्रि कर्फ्यू का ध्यान आया और हम वहां से सवा दस बजे चल दिए और ११ बजे घर। </p><p> इति वर्ष के प्रथम दिवस की कथा. <br /></p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-7480454191287138652021-01-06T18:10:00.000-08:002021-01-06T18:10:19.160-08:00वर्क फ्रॉम होम : सुखद या दुखद !<p> वर्क फ्रॉम होम : सुखद या दुखद !</p><p><br /></p><p> आईटी कंपनी के लिए वर्क फ्रॉम होम एक अच्छा विकल्प था कि कर्मचारी को कभी आपात काल में घर में बैठ कर काम करने की सुविधा प्राप्त थी और वह इससे कुछ आराम भी महसूस कर सकता था। ये व्यवस्था हर कंपनी में थी और करीब करीब सबको दी जा रही थी और कर्मचारी ले रहे थे। लेकिन हद से ज्यादा कोई सुविधा भी अवसर की जगह गले की फांस बन जाती है। </p><p> कोरोना की दृष्टि से वर्क फ्रॉम होम एक सुरक्षित और सहज तरीका है , जिससे कार्य भी होता रहे और उनके कर्मचारी सुरक्षित भी रहें। अब वर्क फ्रॉम होम करते करते लोगों के लिए एक वर्ष पूर्ण होने जा रहा है और कंपनी के काम तो सुचारु रूप से चल रहा है लेकिन उसके कर्मचारियों के लिए एक गले की फाँस बन चुका है। ऑफिस के कार्य करने के वातावरण में और घर के वातावरण में अंतर होता है। अब जब कि बच्चे भी घर में ही अपनी पढाई कर रहे हैं और पत्नी भी कामकाजी है तो वह भी अपने काम को किसी न किसी तरीके से सामंजस्य स्थापित करके जारी रख रही है। </p><p> बच्चों के लिए स्कूल का वातावरण और घर में रहकर पढाई करने से सबके समय का तारतम्य बैठ नहीं पाता है। बच्चे अगर छोटे हैं तो माँ उन्हें साथ लेकर उनकी पढाई करवानी होती है। ऐसे समय में जब कि न सहायिकाएं बुलाई जा रही हैं और न कोई और साथ दे सकता है तब ये वर्क फ्रॉम होम भी गले की फाँस ही बना है। एक गृहणी घर , काम और बच्चे सब का सामान्य दिनों में प्रबंधन कर लेती हे लेकिन जब सारी जिम्मेदारियां एक साथ आ खड़ी हों तो पति , अपना और बच्चे की पढाई सामान्यतया संभव नहीं है। परिणाम ये होता है कि पति का काम समय से पूरा न हो तो वह भी इसकी जिम्मेदारी परिवार पर ही डालता है , पत्नी भी यही सोचती है लेकिन वह ही क्यों खट रही है , क्योंकि हर हाल में सब को सही वातावरण देकर स्वयं को अधिक काम के बोझ तले दबा हुआ देख कर वह अपनी झुंझलाहट किस पर उतार सकती है , बच्चों पर , पति पर न। इसके बाद घर का वातावरण तनाव पूर्ण ही बन जाता है। फिर सब एक दूसरे के ऊपर आरोप प्रत्यारोप लगाने लगते हैं। </p><p> स्थितियाँ इसके विपरीत भी बन रही हैं , अगर पति किसी व्यवसाय में है और पत्नी अन्य तरीके से कार्यरत है तो इसमें पति अवसाद का शिकार हो रहा है क्योंकि व्यवसाय लगभग बंद रहे हैं या फिर निश्चित समय के लिए ही खुल पा रहे हैं। अगर वह समझदार है तो वह पत्नी के कार्यों में सहभागिता करके परिवार को एक अलग ही वातावरण दे रहा है और समझदारी भी यही है। लेकिन जरूरी नहीं है कि वह जो चाहता है वह कर सके क्योंकि हर जगह की अलग कार्य शैली होती है। स्कूल में कार्य करने का समय अलग होता है , सरकारी कार्यालयों में अलग और आईटी कंपनियों में अलग होता है। </p><p> इसमें सबसे अधिक होता है कंपनियों की कार्य शैली में अंतर। मीटिंग्स और कार्य का कोई समय नहीं होता है क्योंकि आपका मैनेजर या फिर बॉस कभी भी मीटिंग रख लेता है और वर्क फ्रॉम होम में कभी भी करके आया काम सौप सकता है। अपने सम्पर्क में आये कई परिवारों के बच्चों के बारे में सुना है कि अब तो न कोई खाने का समय और न ही सोने का , हर समय लैपटॉप पर बैठे काम ही किया करते हैं। कभी कभी तो ३ बने तक भी काम होता रहता है। इससे कर्मचारी के ऊपर कितना दबाव बढ़ जाता है। ऐसे कठिन समय ें में जब कि कंपनियों में भी काम करने वालों को निकला जा रहा है, अपनी नौकरी बचने के लिए कर्मचारी हर शर्त और हर हाल में काम करने के लिए मजबूर है। कितने घंटे काम के होते हैं इसकी कोई भी सीमा नहीं होती है। </p><p> इससे पहले कर्मचारी का एक निश्चित कार्यक्रम होता था कि उसको इतने बजे ऑफिस में रिपोर्ट करना है और इतने बजे निकलना है। इसके बाद वह अपने परिवार के लिए समर्पित होता था। अब स्थितियां उसके लिए अपने अनुसार नहीं चल रही हैं। कंपनी का पूरा काम हो रहा है, कर्मचारियों को दी जाने वाली यातायात सुविधा की है लिहाजा उसके चालक या तो बेकार हो चुके हैं या फिर उसके मालिक को नुक्सान हो रहा है। ऑफिस के रख रखाव का पूरा पूरा व्यय अब उनके लिए बचत ही हो चुकी है। लेकिन वहीँ कर्मचारी के लिए सारे दिन वाई फाई का लोड और कई सारे व्यय बढ़ चुके हैं। </p><p> कंपनी का नजरिया भी कई तरह से ठीक है वह अपने कर्मचारियों की सुरक्षा को देखते हुए ये सुविधा प्रदान कर रही है और जो बच्चे माँ-बाप से दूर शहरों में काम कर रहे हैं , उन्हें घर आकर एक मुद्दत बाद उनके साथ रहने का मौका मिल रहा है। घर में बंद बच्चों को अपनों का साथ मिल रहा है और माँ-बाप को आंतरिक ख़ुशी भी मिल रही है। हर सुविधा के दो पहलू होते हैं सुखद और दुखद - ये हमारे ऊपर निर्भर करता है कि उसको हम अवसर के अनुकूल किस दृष्टि से देख रहे हैं। </p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-506821993683673582020-12-20T07:42:00.002-08:002023-07-04T04:13:50.255-07:00ये अनमोल रिश्ते !<p><span style="vertical-align: inherit;"><span style="vertical-align: inherit;"> ये अनमोल रिश्ता!</span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-mvPQNk0u4ws/X99wrPfaqsI/AAAAAAAB7c0/DZWB0nLs4PkviGHcWicZ_KYHq6AQdBMdQCLcBGAsYHQ/s442/IMG_20201220_205713.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="442" data-original-width="369" height="320" src="https://1.bp.blogspot.com/-mvPQNk0u4ws/X99wrPfaqsI/AAAAAAAB7c0/DZWB0nLs4PkviGHcWicZ_KYHq6AQdBMdQCLcBGAsYHQ/s320/IMG_20201220_205713.jpg" /></a></div><br /><p><br /></p><p><span style="vertical-align: inherit;"><span style="vertical-align: inherit;"> जीवन में कुछ रिश्ते तो जन्म से बन जाते हैं और कुछ रिश्ते बस भावात्मक रूप से बने होते हैं और वे रिश्ते जो कि मेरे जीवन में इस साल मिले तो मेरा मन गदगद हो गया है। </span><span style="vertical-align: inherit;">वो रिश्ता जो पापा और चाचा से जुड़े थे। </span><span style="vertical-align: inherit;">उसे पैतृक घर और स्थान से जुड़े थे। </span><span style="vertical-align: inherit;">जब मिला तो लगा कि पापा से ही मिल रही हूँ। </span></span></p><p><span style="vertical-align: inherit;"><span style="vertical-align: inherit;"> ये फेसबुक की ही कृपा कहूँगी कि मुझे श्री रामशंकर द्विवेदी चाचाजी से मिलवाया। </span><span style="vertical-align: inherit;">मैं उन्हें कितना जानती थी कि वे मेरे पापा पैतृक नगर जालौन में घर के पास ही रहते थे और आगरा विश्वविद्यालय के टॉपर थे। </span><span style="vertical-align: inherit;">उसे समय में जब वह उरई में आगरा विश्वविद्यालय में ही लगता है। </span><span style="vertical-align: inherit;">मैं बहुत छोटी थी - पापा ने ही बताया था कि घर के आगे से डिग्री कॉलेज जाते हैं कि ये कितने विद्वान हैं। </span><span style="vertical-align: inherit;">वह छवि अभी भी मेरी आँखों के सामने है। </span><span style="vertical-align: inherit;">धोती कुरता पहने हुए और एक हाथ में धोती का कोना पकड़े हुए जाते हुए वे कॉलेज के प्रोफेसर थे। </span><span style="vertical-align: inherit;">कभी उसे समय पर गहन परिचय नहीं मिला। </span><span style="vertical-align: inherit;">फिर फेसबुक पर मैंने उन्हें पाया और उनकी पूरी प्रोफाइल पढ़ी तो समझ गयी और मैंने उन्हें मैसेंजर पर बात की। </span><span style="vertical-align: inherit;">पापा का नाम सुनकर उन्होंने बहुत सारी बातें बता डाली पापा के बारे में और तय किया कि अबकी बार जब भी उरई आऊँगी जरूर मिलूंगी। </span></span></p><p> उस समय के बाद तो कभी न देखा न उनके बारे में जानकारी मिली। आज उनकी विद्वता के समक्ष सिर झुक जाता है , इस उम्र में भी उनका लेखन जारी है और अब तक उनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या अनगिनत है और उनकी सक्रियता और विद्वता देख कर लगता है कि अभी बहुत कुछ माँ सरस्वती के इस वरद पुत्र को लिखना शेष है। </p><p> ये सौभाग्य मिला नवम्बर २०२० में , घर के पास ही उनका घर है और कानपुर निकलने के ठीक पहले मैं उनसे मिलने गयी। मैं अपनी किताब उनको देने के लिए लेकर गयी थी। उनके घर पहुंची तो उनके बेटे से कह दिया वे घर पर नहीं है तो मैं अपनी किताब देकर चली आयी कि ये उनको दे दीजिएगा। वह घर पर ही थे और जैसे ही उनको किताब दी होगी उन्होंने पीछे से बेटे को भेजा कि उन लोगों को बुलाकर लाओ। हम वापस चल दिए और उन्हें देख कर अभिभूत हो गयी। पापा की याद आ गयी। </p><p> फिर तो मैं बहुत देर तक रही। उन्होंने अपने बचपन की यादें दुहराईं। वे मेरे छोटे चाचा के मित्र थे और कहें कि पास पास घर होने से और हम उम्र भी उन्हें के थे। वे बातें जो न कभी हमें पापा ने बतलायीं और न ही कोई औचित्य ही था। चाचा जी ने पापा और मेरे दोनों चाचाओं के विषय में ढेर से यादें खोल कर सामने रख दीं। अपने बचपन की यादें - साथ साथ रहने के समय कैसे वक्त गुजारते थे ? तब कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती थी और न ही आर्थिक स्तर की कोई दीवारें थी। एक लम्बे अरसे से वे चाचा लोगों से भी नहीं मिले थे। उनके मित्र चाचाजी का तो निधन हो चुका है लेकिन पापा से छोटे भाई बड़े चाचाजी का हाथ अभी हमारे सिर पर है। उनसे हमने वादा किया कि अगली बार उन्हें जरूर मिलवाएंगे। उन्होंने भी वादा किया कि जब वे कानपुर आएंगे तो मेरे घर जरूर आएंगे। </p><p> ये रिश्ता मेरे लिए अनमोल है और हम छोटे शहर वाले रिश्तों को जीते हैं , कोई अंकल , आंटी नहीं होता बल्कि चाचा, बुआ , भाई और भाभी होते हैं। हम चाहे फेसबुक पर हों या फिर किसी और तरह से जुड़े हों , मिले हों या न मिले हों लेकिन हमारे रिश्ते देश दुनियां में मिलते हैं और हम उतने ही अपनत्व से उनको स्वीकार करते हैं। हमें गर्व है अपनी संस्कृति और रिश्तों को प्यार देने वाले अपने बुजुर्गों , हमउम्र और छोटों पर। </p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-54977301709844820882020-12-06T05:05:00.003-08:002020-12-20T05:29:36.344-08:00कोरोना वैक्सीन !<p> कोरोना वैक्सीन </p><p><br /></p><p> विगत महीनों से कोरोना ने पूरे विश्व को अपनी अँगुलियों पर नचा रखा है और वह इंसान जिसने कि सम्पूर्ण प्रकृति से लेकर नक्षत्रों तक को अपने अनुसन्धान का विषय ही नहीं बनाया बल्कि उन पर अपनी सफलता भी दर्ज की। लेकिन एक वायरस के आगे कठपुतली बन गया। इसके लिए वैक्सीन सबसे बड़ी ढाल बनने जा रही है और उसके लिए पूरे विश्व में प्रयास चल रहे हैं। </p><p> सारे लोग उसके लिए बेसब्री से इन्तजार से इन्तजार कर रहे हैं। लोगों ने कोरोना का सही हल मान लिया है , कुछ लोगों विवाह जैसे कार्य आगे बढ़ा दिए कि वैक्सीन आ जाए तब करेंगे ताकि बड़े बुजुर्ग सभी शामिल हो सकें लेकिन ये भूल गए कि वह कोई अलादीन का चिराग नहीं है कि आते ही सबको सुरक्षित कर देगी। उसकी सफलता भी देश , वातावरण और स्थानिक स्थितियों पर भी निर्भर करेगा। हर व्यक्ति ये चाहता है कि वैक्सीन सफल हो और होगी भी लेकिन कितनी ये तो समय ही बताएगा। </p><p> अब जब कि वैक्सीन का ट्रायल शुरू हो चुका है तो उसके परिणामों का इन्तजार और अभी काम शुरू हुआ ही था कि एक झटका लगा आम आदमी की बात होती तो पता नहीं चलता लेकिन जब एक मंत्री को ये वैक्सीन लगी और उसके दूसरी खुराक के लगने से पहले ही वह कोरोना से ग्रसित हो गए। इन सबकी एक निश्चित प्रक्रिया होती है और उसके पूर्ण होने के पश्चात् उसकी सफलता आँकी जा सकती है। हम बेफिक्र कभी भी नहीं जी सकते हैं क्योंकि ये वायरस अपने रूप और लक्षणों को भी बराबर बदलते रहते हैं। कभी ये होने पर भी बराबर निगेटिव आता रहता है और इस गलतफहमी में मरीज मौत के मुंह चला जाता है। कभी तो ये मरीज के छूने या फिर संपर्क में आने पर ग्रस लेता है और कभी बराबर साथ रहने बाद भी सुरक्षित रह जाता है। कभी कभी पूरा का पूरा परिवार ग्रसित हो जाता है और ठीक भी हो जाता है। कभी कभी सारी सावधानी के बाद भी वह ग्रसित हो जाता है। विगत दिनों में 600 डॉक्टर्स के इस से ग्रस्त होकर मरने का आंकड़ा सामने है , इसके साथ ही कितने कोरोना योद्धा इससे ग्रस्त होने के बाद भी लोगों की सेवा में लगे लगे ही अपने जीवन की पारी हार गए। </p><p> इस वैक्सीन के भरोसे रहना अपने को भुलावे में डालने जैसा ही है। वातावरण में बढ़ता प्रदूषण , कोरोना के वायरस के बदलते स्वरूप ने अपने आधिपत्य को अभी भी कायम रखा है। परीक्षण में आज भी परिणाम सही प्राप्त ही हो रहे हैं ये हम पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकते हैं। वैक्सीन का तैयार होना और लगाने के लिए सबसे अधिक जरूरतमंद व्यक्तियों को चुनना भी एक कठिन कार्य है। हमें किसी भी भुलावे में नहीं रहना है। अपने को इससे बचाने के लिए वह सारी सावधानियां जो हम बरतते चले आ रहे हैं , उन्हें जीवन को सही तरीके से चलाते रहने के लिए मास्क , सैनिटाइज़र और सामाजिक दूरी का पालन हमेशा के लिए अपना कर चलना होगा। वैक्सीन की सफलता के बाद भी इन को अपनाना बुरा नहीं है। </p><p> ये भी कहते हुए लोगों को सुना है कि जितना सावधानी बरती जाती है , उतना ही इसका खतरा बढ़ता है , नहीं तो फेरी वालों , भिखारियों और रिक्शे वालों को कोरोना होते कभी न देखा गया है। अपना जीवन आपका अपने लिए और इसको कैसे जीना है ? ये आपकी अपनी जिम्मेदारी है। आपका परिवार आपका है और उसके लिए स्वयं को सुरक्षित रखना और उन्हें भी सुरक्षित रहना आपके ऊपर है। वैक्सीन मिल जाए तो बहुत अच्छा लेकिन इसके साथ ही आप अपनी सुरक्षा के लिए सतर्क रहें तभी बचाव है। वैक्सीन कोई गारंटी वाली चीज नहीं है कि वह आपको पूरी पूरी सुरक्षा देगी। जीवन शैली अपनाये रहना होगा कि हम सुरक्षित रहें और दूसरों को भी रहने की दिशा की और प्रेरित करें। </p><p> </p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-40644088544874142222020-09-15T03:25:00.001-07:002021-09-06T11:37:17.820-07:00 हिंदी दिवस और हमारे इरादे !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> <br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> हमने आज तक देखा कि हिंदी के प्रति बड़ी बड़ी बातें , बड़े
बड़े संगठनों और फिर दम तोड़ते उनके इरादे , वादे और हौसले। हिंदी की नींव
गीतों , कविताओं और कहानियों पर नहीं टिकी है। उसको अगर हम भाषा की जड़ों
में खाद पानी देने का कार्य आरम्भ करने की सोचे तो सिर्फ एक वर्ग विशेष के
नारे लगाने से हित नहीं हो सकता है। हमें अलग तरीके से पहल नहीं करनी
होगी। पहले तो पूरे देश में हिंदी को लागू करने से पहले सभी भारतीय भाषाओँ
का सम्मान और उनको समझने और समझाने की पहल करनी होगी। हम सिर्फ हिंदी की
ही बात क्यों करते हैं ? हमें अन्य भारतीय भाषाओँ को आत्मसात करने की बात
करनी चाहिए और तभी देश के सभी कोनों से हिंदी , संस्कृत और अन्य भाषाओँ के
प्रति रूचि नजर आएगी। <br />
हिंदी सिर्फ वर्ग विशेष या सरकार का प्रयास नहीं हो , बल्कि इसके सभी के सहयोग की जरूरत है। इस देश में रहने वाले क्यों भाषाई लकीरों को खींच कर अपने अपने पाले बनायें। सब एक साथ आएं और सबके पुनर्जीवन का प्रयास करें. चाहे वह आंचलिक भाषाएँ हों या फिर हिंदी। आंचलिक भाषाओँ को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा और तभी सभी हिंदी को आत्मसात कर पाएंगे। जब अपने स्तर पर ही सही विदेशों में बसे भारतीय हिंदी को स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं तो फिर देश में ही प्रशासनिक स्तर पर इतनी उदासीनता क्यों दिखलाई देती है ? निम्न मध्यम आय वर्ग के लोग बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने के लिए जी जान लगा रहे हैं। अपना पेट काट रहे हैं , ओवरटाइम कर रहे हैं लेकिन बच्चे को वहीँ पढ़ाना है। आखिर कब तक ? जब वे बड़ी कक्षाओं में पहुँचते हैं तो उनकी जरूरतों और बढ़ने लगती हैं <br />
इसमें सर्वप्रथम समस्त भाषाओँ के व्याकरण के समन्वयन से कार्य आरभ्य
हुआ और इसके लिए स्वर, व्यंजन , अंक प्रणाली से कार्य आरम्भ किया गया। हम
भूल चुके बारहखड़ी की प्रासंगिकता इस समय सिद्ध हुई की दक्षिण की भाषाएँ जो
देव नागरी लिपि में नहीं है , उनकी मात्रा प्रणाली से हमारा परिचय इसी
माध्यम से हो सकेगा। <br /> हम पूरे देश में
हिंदी थोपने की बात नहीं कर रहे है और न अंग्रेजी को भागने की बल्कि सभी को
हम साथ लेकर चलें तो देश में सर्वाधिक प्रयोग होने वाली हिंदी स्वतः आगे
बढ़ जाएगी और स्वीकार की जायेगी। हो सकता है कि इसमें समय लगे लेकिन आजादी
से लेकर आज तक जो समय हम खो चुके हैं उससे कम समय में हम हिंदी पर गर्व कर
रहे होंगे। </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> हर बार सवाल उठता है कि दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध होता है लेकिन ऐसा नहीं है , कई बार मैंने भी दक्षिण भारतीय लोगों के साथ काम किया है और वे सब टूटी फूटी ही सही हिंदी बोलते हैं और अपनी बात समझा सकते हैं। हाँ इस मुद्दे को राजनैतिक रंग लेकर भाषाई विवाद को हमेशा के लिए जिन्दा रखने वाले पूरे देश को एक होता हुआ देखना ही नहीं चाहते हैं। हमें पूरे देश में हिंदी के प्रति प्रेम और ग्राह्यता लाने के लिए पाठ्यक्रम में पूरे देश में हिंदी को अनिवार्य भाषा बनाने के लिए प्राथमिक स्तर से ही कदम उठाना होगा और एक भारतीय भाषा की अनिवार्यता भी रखनी होगी ताकि पूरे देश में ये भाव पैदा हो कि उसके साथ ही शेष भाषाओँ को भी प्राथमिकता दी जा रही है और वे हिंदी को बेझिझक अपना सकेंगे।<br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> एक बार हाथ तो बढ़ाएँ पूरा देश एकसूत्र में बँधा होगा ।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> <br /></div>
रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-67717699859071491252020-08-18T09:51:00.004-07:002023-07-08T02:36:29.260-07:00रास्ते खुद बनाने पड़ते हैं !<p> #रास्ते_खुद_बनाने_पड़ते_हैं !</p><p><br /></p><p> सच कहूँ अभी एक लेखिका बहन की आपबीती सुनी तो अपनी यादें भी फुदकने लगी और मन आया कि जिंदगी वक्त नहीं देगी , चल छीन लेते है और आज तो लिखना ही है । नहीं तो सोचते सोचते महीनों गुजर जाते हैं और फिर दिमाग के एक कोने में बसे बसे अपना अस्तित्व भी खो देती है। <br /></p><p> पैदा उरई जैसे कस्बे में हुई और अपने घर में तो सब शेर होते हैं । हमारा इण्टर कॉलेज और डिग्री कॉलेज ठीक घर के सामने था तो कदम उतने ही चले । तब लड़कियाँ अकेली कहीं नहीं जाती थीं , बाजार जाना है तो माँ के साथ या छोटी बहन के साथ । बाकी घर में पढ़ाई और लिखाई । स</p><p>यानी लड़कियों पर माँ बाप की ही नजर नहीं रहती थी बल्कि पास पड़ोस वाले सब सजग रहते थे। <br /></p><p> 1980 कानपुर में शादी हुई और ससुराल रही कानपुर विश्वविद्यालय का परिसर। एक तो विश्वविद्यालय ही शहर से दूर जंगल में बसा था । कैम्पस से जीटी रोड तक पैदल आओ । वैसे इनके पास दोपहिया वाहन था। पर जब कदम बाहर निकलने को हुए तो हम सड़क पर खड़े थे क्योंकि इनका टूरिंग जॉब था तो हमारे किसी भी मौके पर ये बाहर ही होते । बी.एड. में एडमीशन हुआ , हमें तो कॉलेज मालूम नहीं था । प्रवेश प्रक्रिया तो बगैर गए पूरी हो गयी क्योंकि उसी वक्त मेरी बड़ी बेटी का जन्म हुआ था। </p><p> एक महीने के बाद ही जिस दिन से कक्षाएँ शुरू होनी थी , इनका टूर था। अब नक्शा बनाकर दे गये GPS कहेंगे 1981 का । विश्वविद्यालय गेट से टैम्पो ली तो नक्शे के अनुसार चुन्नीगंज उतरे और तीर के अनुसार बाईं ओर मुड़कर सीधे जाना , जब तक दायीं ओर डीडब्ल्यूटी कॉलेज न दिख जाय । चलते चलते थक गये तब कॉलेज मिला और फिर तो रोज का रुटीन हो गया लेकिन ज्यादा दिन नहीं चल सका क्योंकि बी.एड. तो हमको करना ही नहीं था , तभी तो शादी से पहले उरई में मेरिट में नाम आने के बाद भी मैंने नहीं किया था। बेटी दो महीने की थी , जाना और आना पूरा दिन लग जाता । तय रहा कि वही पास में अस्थायी निवास खोजा जाय ताकि समय न लगे । </p><p> विक्टोरिया मिल के पास मिल मजदूरों के बीच एक कमरा बरामदा मिला , सासु माँ मेरे साथ चली और जेठ जी ससुर जी के पास विश्वविद्यालय निवास पर रहे । छोटी बच्ची को छोड़ कर जाना और कई बार क्लास में ही मेरा ब्लॉउज गीला होने लगता। लंच टाइम में लम्बे लम्बे डग भर कर घर आती बेटी को फीड कराती और तुरंत वापस कॉलेज । लंबा रास्ता छोड़कर शॉर्टकट खोजा और घर जल्दी आ जाती।</p><p> इसके बाद 1984 में हम इंदिरा नगर शिफ्ट हो गये और वह भी जीटी रोड से काफी दूर। कल्यानपुर तक पैदल आइये फिर शहर की ओर टैम्पो मिलता था । फिर नौकरी मिली जुहारी देवी गर्ल्स डिग्री कॉलेज में । पहले दिन फिर पतिदेव की मीटिंग नक्शा थमा कर चले गये । उस तरफ कभी जाना भी नहीं हुआ था । चल दिये GPS के साथ पूछते पाछते पहुँच ही गये। तारीफ की बात ये थी कि हाथ पकड़ कर चलने वाली उसी के सहारे कॉलेज भी पहुँच गयी और ज्वाइन कर लिया। कानपुर का एक कोना इंदिरानगर और दूसरा कोना जुहारी देवी कॉलेज था। <br /></p><p> छः महीने बाद ही आईआईटी में नौकरी मिल गयी । वह काफी पास था और कल्याणपुर से सीधे गेट तक टैम्पो और फिर रिक्शा । तो जिंदगी में सारे रास्ते खुद ही खोजने पड़ते हैं , चाहे जितनी भीड़ हो। ी हुई <br /></p><p> मंजिलें तो सबको मिलती हैं , कभी हथेली पर रखी और कभी पीछा करते करते छाले पड़ जाते हैं । हौसले बुलंद हों तो हार नहीं होती । </p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p>रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-18286411493574533222020-07-26T02:08:00.000-07:002020-07-26T17:29:55.943-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="mail-message expanded" id="m#msg-a:r2511966235706206813" style="font-family: sans-serif; font-size: 12.8px;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-IJdMaiIz940/Xx1H4hFLlmI/AAAAAAABunQ/WcHUbAy_KgY8MdQKnSysI6EXJll1KfS4wCLcBGAsYHQ/s1600/IMG-20200726-WA0038.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="384" data-original-width="384" height="320" src="https://1.bp.blogspot.com/-IJdMaiIz940/Xx1H4hFLlmI/AAAAAAABunQ/WcHUbAy_KgY8MdQKnSysI6EXJll1KfS4wCLcBGAsYHQ/s320/IMG-20200726-WA0038.jpg" width="320" /></a></div>
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</div>
<div class="mail-message-content collapsible zoom-normal mail-show-images " style="margin: 16px 0px; overflow-wrap: break-word; user-select: auto; width: 361.091px;">
<div class="clear">
<div dir="ltr">
<b>कारगिल विजय दिवस ! </b> <br />
<br />
भारत पाकिस्तान के बीच होने वाले युद्धों की शृंखला में 1965, 1971 के युद्धों में मुँह की खाने के बाद भी वह अपनी आतंकी गतिविधियों से बाज नहीं आया । घुसपैठ के नाम पर पाकिस्तान की नापाक गतिविधियां हमेशा चलती रहती हैं लेकिन शांति का छद्म आवरण ओढ़कर दोनों देशों के बीच फरवरी 1999 में लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए गये , जिसमें कश्मीर मुद्दे को दोनों पक्षों द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से हल करने का वादा किया गया था ।<br />
इसके बाद भी पाकिस्तान हर बार की तरह वादा खिलाफी करके अपनी नापाक हरकतों से बाज नहीं आया और उसने चोरी छुपे अपने सैनिकों को नियंत्रण रेखा के पार भेजने का दुस्साहस भी करने लगा और अपने इस काम को उन्होंने "ऑपरेशन बद्र" नाम दिया । उनका इस कार्य के पीछे की मंशा कश्मीर और लद्दाख के बीच की कड़ी को तोड़ना और सियाचिन ग्लेशियर से भारतीय सेना से हटा कर खुद कब्जा करने के बाद एक और विवाद खड़ा करके इसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की थी ।<br />
भारत ने इसे साधारण घुसपैठ मानकर सोचा कि इन्हें कुछ दिनों में ही पीछे धकेल दिया जायगा । जब नियंत्रण रेखा पर पहुँचने के बाद पता चला कि उनकी सीमा में साधारण घुसपैठ नहीं थी बल्कि एक बड़े युद्ध की तैयारी कर रखी थी । वास्तविकता से वाकिफ होने के बाद भारत सरकार ने ऑपरेशन विजय नाम से 2,00,000 सैनिकों को भेजा गया ।<br />
कारगिल युद्ध मई 1999 को आरम्भ हुआ और लगभग दो महीने बाद 26 जुलाई 1999 को हमारे लगभग 527 सैनिकों की शहादत और 1300 जवानों को घायल करने के बाद समाप्त हुआ । इन जवानों में सब नवयुवा सैनिक थे , जिन्होंने जीवन के छोटे सी अवधि में इतना सब कर डाला कि सम्पूर्ण विश्व में तारीफ की गई । इन सभी शहीदों ने भारतीय सेना की शौर्य या बलिदान की सदियों से चली आ रही परम्परा को कायम रखा , जिसकी सौगंध हर जवान वर्दी पहन कर राष्ट्रीय ध्वज के समक्ष लेता है । एक जुनून होता है इन वीरों में । जब दुश्मन इनके सामने होता है तो इनको सिर्फ करो या मारो की घुन सवार होती है और सिर पर कफन बाँध कर ही चलते हैं। सभी का जज्बा देखने काबिल होता है।<br />
इन सभी जवानों के सरहद पर जाने से पहले अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी बच्चों से जल्दी ही आने का वादा किया होगा , और वापस आये भी लेकिन तिरंगे में लिपटे हुए , जिसकी रक्षा करने हुए वे बलिदान हुए और नाम भारत के इतिहास में लिखवा कर अमर हो गये । हर भारतीय का रोम रोम उनका कर्जदार है और हमेशा रहेगा।<br />
<br />
श्रीमद्भगवद गीता के द्वितीय अध्याय के 37 वे श्लोक में कृष्ण का अर्जुन को दिया गया सन्देश :<br />
<br />
<b>हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।<br />तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।2.37।।</b><br />
<br />
(या तो तू युद्ध में बलिदान देकर स्वर्ग को प्राप्त करेगा अथवा विजयश्री प्राप्त कर पृथ्वी का राज्य भोगेगा।)<br />
<br />
गीता के इसी श्लोक को प्रेरणा मानकर भारत के शूरवीरों ने कारगिल युद्ध में दुश्मन को पाँव पीछे खींचने के लिए मजबूर कर दिया था।<br />
यह विजय दिवस उन शहीदों को याद कर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पण करने का है, जो अपना जीवन को दाँव पर लगा कर मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। हिमालय से ऊँचा था साहस उनका हम उनको शत शत नमन करते हैं। कुछ उन वीरों के विषय में संक्षिप्त में जान लेते हैं , जिन्होंने अपने को न्योछावर कर अपने परिवार, बटालियन , देश का नाम ऊँचा किया।<br />
<br />
<b>कैप्टेन</b><b> मनोज कुमार पांडेय :</b><br />
जन्म : 25 जून 1975, सीतापुर, उत्तर प्रदेश<br />
शहीद हुए : 3 जुलाई 1999 (24 वर्षीय)<br />
यूनिट : 11 गोरखा राइफल की पहली बटालियन (1/11 जीआर)<br />
मरणोपरांत परम वीर चक्र<br />
<strong>शौर्य गाथा:</strong><br />
<br />
1/11 गोरखा राइफल्स के लेफ्टिनेंट मनोज पांडेय की बहादुरी की इबारत आज भी बटालिक सेक्टर के ‘जुबार टॉप’ पर लिखी है। अपनी गोरखा पलटन लेकर दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में ‘काली माता की जय’ के नारे के साथ उन्होंने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए। अत्यंत दुर्गम क्षेत्र में लड़ते हुए मनोज पांडेय ने दुश्मनों के कई बंकर नष्ट कर दिए।<br />
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कारगिल युद्ध के दौरान 11 जून को उन्होंने बटालिक सेक्टर से दुश्मन सैनिकों को खदेड़ दिया। उनके नेतृत्व में सैनिकों ने जुबार टॉप पर कब्जा किया। वहां दुश्मन की गोलीबारी के बीच भी आगे बढ़ते रहे। कंधे और पैर में गोली लगने के बावजूद दुश्मन के पहले बंकर में घुसे। हैंड-टू-हैंड कॉम्बैट में दो दुश्मनों को मार गिराया और पहला बंकर नष्ट किया। उनके साहस से प्रभावित होकर सैनिकों ने दुश्मन पर धावा बोल दिया। अपने घावों की परवाह किए बिना वे एक बंकर से दूसरे बंकर में हमला करते गए।<br />
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गम्भीर रूप से घायल होने के बावजूद मनोज अंतिम क्षण तक लड़ते रहे। भारतीय सेना की ‘साथी को पीछे ना छोडने की परम्परा’ का मरते दम तक पालन करने वाले मनोज पांडेय को उनके शौर्य व बलिदान के लिए मरणोपरांत ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया।<br />
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<strong>राइफलमैन संजय कुमार </strong><br />
जन्म: 3 मार्च, 1976 को विलासपुर हिमाचल<br />
<strong></strong>यूनिट :13 JAK RIF<br />
<strong></strong>परमवीर चक्र<br />
राइफलमैन संजय कुमार का जन्म 3 मार्च, 1976 को विलासपुर हिमाचल प्रदेश के एक गांव में हुआ था। मैट्रिक पास करने के तुरंत बाद वह 26 जुलाई 1996 को फौज में शामिल हो गए। कारगिल युद्ध के दाैरान संजय 4 जुलाई 1999 को फ्लैट टॉप प्वाइंट 4875 की ओर कूच करने के लिए राइफल मैन संजय ने इच्छा जताई की कि वह अपनी टुकड़ी के साथ अगली पंक्ति में रहेंगे।<br />
संजय जब हमले के लिए आगे बढ़े तो एक जगह से दुश्मन ओटोमेटिक गन ने जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी और टुकड़ी का आगे बढ़ना कठिन हो गया। ऐसे में स्थिति की गंभीरता को देखते हुए संजय ने तय किया कि उस ठि<br />
राइफल मैन इस मुठभेड़ में खुद भी लहूलुहान हो गए थे, लेकिन अपनी ओर से बेपरवाह वह दुश्मन पर टूट पड़े। इस आकस्मिक आक्रमण से दुश्मन बौखला कर भाग खड़ा हुआ और इस भगदड़ में दुश्मन अपनी यूनीवर्सल मशीनगन भी छोड़ गया। संजय कुमार ने वह गन भी हथियाई और उससे दुश्मन का ही सफाया शुरू कर दिया।<br />
संजय के इस चमत्कारिक कारनामे को देखकर उसकी टुकड़ी के दूसरे जवान बहुत उत्साहित हुए और उन्होंने बेहद फुर्ती से दुश्मन के दूसरे ठिकानों पर धावा बोल दिया। इस दौर में संजय कुमार खून से लथपथ हो गए थे लेकिन वह रण छोड़ने को तैयार नहीं थे और वह तब तक दुश्मन से जूझते रहे थे, जब तक वह प्वाइंट फ्लैट टॉप दुश्मन से पूरी तरह खाली नहीं हो गया। इस तरह राइफल मैन संजय कुमार ने अपने अभियान में जीत हासिल की।<br />
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<strong>ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव </strong><br />
जन्म: 10 मई 1980, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर<br />
यूनिट : 18वीं ग्रेनेडियर्स<br />
ग्रेनेडियर, बाद में सूबेदार मेजर<br />
परमवीर चक्र<br />
सबसे कम आयु में ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त करने वाले इस वीर योद्धा योगेंद्र सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के औरंगाबाद अहीर गांव में 10 मई, 1980 को हुआ था। 27 दिसंबर, 1996 को सेना की 18 ग्रेनेडियर बटालियन में भर्ती हुए योगेंद्र की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सेना की ही रही है, जिसके चलते वो इस ओर तत्पर हुए। उनके पिता भी करन सिंह यादव भी भूतपूर्व सैनिक थे वह कुमायूं रेजिमेंट से जुड़े हुए थे और 1965 तथा 1971 की लड़ाइयों में हिस्सा लिया था।<br />
कारगिल युद्ध में योगेंद्र का बड़ा योगदान है। उनकी कमांडो प्लाटून 'घटक' कहलाती थी। उसके पास टाइगर हिल पर कब्जा करने के क्रम में लक्ष्य यह था कि वह ऊपरी चोटी पर बने दुश्मन के तीन बंकर काबू करके अपने कब्जे में ले। इस काम को अंजाम देने के लिए 16,500 फीट ऊंची बर्फ से ढकी, सीधी चढ़ाई वाली चोटी पार करना जरूरी था।<br />
इस बहादुरी और जोखिम भरे काम को करने का जिम्मा स्वेच्छापूर्णक योगेंद्र ने लिया और अपना रस्सा उठाकर अभियान पर चल पड़े। वह आधी ऊंचाई पर ही पहुंचे थे कि दुश्मन के बंकर से मशीनगन गोलियां उगलने लगीं और उनके दागे गए राकेट से भारत की इस टुकड़ी का प्लाटून कमांडर तथा उनके दो साथी मारे गए। स्थिति की गंभीरता को समझकर योगेंद्र ने जिम्मा संभाला और आगे बढ़ते बढ़ते चले गए। दुश्मन की गोलाबारी जारी थी। योगेंद्र लगातार ऊपर की ओर बढ़ रहे थे कि तभी एक गोली उनके कंधे पर और दो गोलियां जांघ व पेट के पास लगीं लेकिन वह रुके नहीं और बढ़ते ही रहे। उनके सामने अभी खड़ी ऊंचाई के साठ फीट और बचे थे।<br />
उन्होंने हिम्मत करके वह चढ़ाई पूरी की और दुश्मन के बंकर की ओर रेंगकर गए और एक ग्रेनेड फेंक कर उनके चार सैनिकों को वहीं ढेर कर दिया। अपने घावों की परवाह किए बिना यादव ने दूसरे बंकर की ओर रुख किया और उधर भी ग्रेनेड फेंक दिया। उस निशाने पर भी पाकिस्तान के तीन जवान आए और उनका काम तमाम हो गया। तभी उनके पीछे आ रही टुकड़ी उनसे आकर मिल गई।<br />
आमने-सामने की मुठभेड़ शुरू हो चुकी थी और उस मुठभेड़ में बचे-खुचे जवान भी टाइगर हिल की भेंट चढ़ गए। टाइगर हिल फतह हो गया था और उसमें योगेंद्र सिंह का बड़ा योगदान था। अपनी वीरता के लिए ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह ने परमजजवीर चक्र का सम्मान पाया और वह अपने प्राण देश के भविष्य के लिए भी बचा कर रखने में सफल हुए यह उनका ही नहीं देश का भी सौभाग्य है।<br />
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<strong>कैप्टन विक्रम बत्रा</strong><br />
जन्म: 9 सितंबर, 1974, पालमपुर, हिमाचल प्रदेश<br />
शहीद हुए : 7 जुलाई, 1999 (24 वर्ष)<br />
यूनिट : 13 जेएंडके राइफल<br />
परम वीर चक्र<br />
<strong>शौर्य गाथा:</strong> इंडियन मिलिट्री एकेडमी से पासआउट होने के बाद 6 दिसंबर, 1997 को लेफ्टिनेंट के तौर पर सेना में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान उनकी बटालियन 13 जम्मू एंड कश्मीर रायफल 6 जून को द्रास पहुंची। 19 जून को कैप्टन बत्रा को प्वाइंट 5140 को फिर से अपने कब्जे में लेने का निदेश मिला। ऊंचाई पर बैठे दुश्मन के लगातार हमलों के बावजूद उन्होंने दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए और पोजीशन पर कब्जा किया। उनका अगला अभियान था 17,000 फीट की ऊंचाई पर प्वाइंट 4875 पर कब्जा करना। पाकिस्तानी फौज 16,000 फीट की ऊंचाई पर थीं और बर्फ से ढ़कीं चट्टानें 80 डिग्री के कोण पर तिरछी थीं।<br />
7 जुलाई की रात वे और उनके सिपाहियों ने चढ़ाई शुरू की। अब तक वे दुश्मन खेमे में भी शेरशाह के नाम से मशहूर हो गए थे। साथी अफसर अनुज नायर के साथ हमला किया। एक जूनियर की मदद को आगे आने पर दुश्मनों ने उनपर गोलियां चलाईं, उन्होंने ग्रेनेड फेंककर पांच को मार गिराया लेकिन एक गोली आकर सीधा उनके सीने में लगी। अगली सुबह तक 4875 चोटी पर भारत का झंडा फहरा रहा था। इसे विक्रम बत्रा टॉप नाम दिया गया। उन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।<br />
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<strong>कैप्टन अनुज नायर</strong><br />
जन्म : 28 अगस्त, 1975 दिल्ली<br />
शहीद हुए : 7 जुलाई, 1999 (24 वर्ष)<br />
यूनिट : 17 जाट रेजीमेंट<br />
<span style="text-align: justify;">मरणोपरांत महावीर चक्र</span><br />
<strong>शौर्य गाथा: </strong>इंडियन मिलिट्री एकेडमी से पासआउट होने के बाद जून, 1997 में जाट रेजिमेंट की 17वीं बटालियन में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान उनका पहला अभियान था प्वाइंट 4875 पर कब्जा करना। यह चोटी टाइगर हिल की पश्चिमी ओर थी और सामरिक लिहाज से बेहद जरूरी। इसपर कब्जा करना भारतीय सेना की प्राथमिकता थी। अभियान की शुरुआत में ही नैयर के कंपनी कमांडर जख्मी हो गए। हमलावर दस्ते को दो भागों में बांटा गया। एक का नेतृत्व कैप्टन विक्रम बत्रा ने किया और दूसरे का कैप्टन अनुज ने। कैप्टन अनुज की टीम में सात सैनिक थे, जिनके साथ मिलकर उन्होंने दुश्मन पर चौतरफा वार किया।<br />
कैप्टन अनुज ने अकेले नौ पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया और तीन दुश्मन बंकर ध्वस्त किए। चौथे बंकर पर हमला करते समय दुश्मन ने उनकी तरफ रॉकेट से चलने वाली ग्रेनेड फेंका जो सीधा उनपर गिरा। बुरी तरह जख्मी होने के बाद भी वे बचे हुए सैनिकों का नेतृत्व करते रहे। शहीद होने से पहले उन्होंने आखिरी बंकर को भी तबाह कर दिया। दो दिन बाद दुश्मन सेना ने फिर से चोटी पर हमला किया जिसका जवाब कैप्टन विक्रम बत्रा की टीम ने दिया। कैप्टन नायर को मरणोपरांत महावीर चक्र प्रदान किया गया।<br />
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<strong>कैप्टन नीकेजाकुओ कैंगुरूसे</strong><br />
जन्म: 15 जुलाई, 1974 नरहेमा, कोहिमा जिला, नगालैंड<br />
शहीद हुए : 28 जून, 1999<br />
यूनिट : 2 राजपूताना राइफल<br />
<span style="text-align: justify;">मरणोपरांत महावीर चक्र</span><br />
<strong>शौर्य गाथा:</strong> 12 दिसंबर, 1998 में सेना में भर्ती हुए। जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ, वे राजपूताना रायफल बटालियन में जूनियर कमांडर थे। उनकी दृढ़ता और दिलेरी के कारण उन्हें अपनी बटालियन के घातक प्लाटून का नेतृत्व सौंपा गया। 28 जून की रात कैप्टन कैंगुरूसे के प्लाटून को ब्लैक रॉक नामक टीले से दुश्मन को खदेड़ने की जिम्मेदारी मिली। टीले पर चढ़ाई के दौरान ऊपर से दुश्मन के लगातार हमले में कई सैनिक शहीद हुए और खुद कैप्टन को कमर में गोली लगी, लेकिन वे रुके नहीं।<br />
ऊपर पहुंचकर वे एक पत्थर की आड़ में टीले के किनारे लटके रहे। 16,000 फीट ऊंचाई और -10 डिग्री तापमान में बर्फ पर लगातार उनके जूते फिसल रहे थे। लौटकर नीचे आना ज्यादा आसान था, लेकिन वे अपने जूते उतारकर नंगे पैर टीले पर चढ़े और आरपीजी रॉकेट लांचर से सात पाकिस्तानी बंकरों पर हमला किया। दो दुश्मनों को कमांडो चाकू से मार गिराया और दो को अपनी रायफल से। दुश्मनों की गोलियों से छलनी होकर वे टीले से नीचे आ गिरे, लेकिन इतना कर गए कि उनके प्लाटून ने टीले पर कब्जा कर लिया। इस दिलेरी के लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।<br />
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<strong>स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा</strong><br />
जन्म: 22 मई, 1963 कोटा, राजस्थान<br />
शहीद हुए : 27 मई 1999<br />
यूनिट : गोल्डन ऐरोज, स्क्वाड्रन नंबर 17<br />
<span style="text-align: justify;">मरणोपरांत वीर चक्र</span><br />
<strong>शौर्य गाथा:</strong> नेशनल डिफेंस एकेडमी से पासआउट होने के बाद 14 जून, 1985 को फाइटर पायलट के तौर पर भारतीय वायु सेना में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान नियंत्रण रेखा के इस तरफ की स्थिति का जायजा लेने के लिए ऑपरेशन सफेद सागर लांच किया गया। इसमें शामिल फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता के मिग-27एल विमान के इंजन में आग लगने के बाद वह उसमें से बाहर कूदे।<br />
स्क्वाड्रन लीडर आहूजा अपने मिग-21एमएफ विमान में दुश्मन की पोजीशन के ऊपर उड़ान भरते रहे ताकि बचाव दल को नचिकेता की लोकेशन की जानकारी देते रहें। उन्हें अच्छी तरह पता था कि दुश्मन कभी भी उन पर सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल दाग सकता है। हुआ भी ऐसा ही, कुछ ही देर में उनके विमान पर एमआइएम-92 स्ट्रिंगर से वार हुआ। वे अपने विमान से बाहर कूदे। अब वायु सेना को एक नहीं दो बचाव अभियानों को अंजाम देना था। लेकिन वायु सेना को उनकी लोकेशन की जानकारी नहीं मिली। पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें बंदी बनाकर बेरहमी से उनकी हत्या कर दी। उनके पार्थिव शरीर पर कई गंभीर घावों के निशान दिखे। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।<br />
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<strong>हवलदार यश वीर सिंह तोमर</strong><br />
जन्म: 04 जनवरी, 1960 सिरसाली, उत्तर प्रदेश<br />
शहीद हुए : 13 जून, 1999<br />
यूनिट : 2 राजपूताना राइफल<br />
<span style="text-align: justify;">मरणोपरांत वीर चक्र</span><br />
<strong>शौर्य गाथा:</strong> कारगिल युद्ध के दौरान 18 ग्रेनेडियर्स को तोलोलिंग चोटी पर कब्जा करने का निर्देश मिला। ग्रेनेडियर्स के कई विफल प्रयासों के बाद राजपूताना रायफल की दूसरी बटालियन को हमले के लिए आगे किया गया। ग्रेनेडियर्स ने तीन प्वाइंट से राजपूताना को कवर दिया। मेजर विवेक गुप्ता के नेतृत्व में 90 सैनिक अंतिम हमले के लिए आगे बढ़े। इसी पलटन में यश वीर भी शामिल थे। यह पलटन प्वाइंट 4950 को अपने कब्जे में लेने के आखिरी चरण में थी।<br />
12 जून को पाकिस्तान की तरफ से भारी गोलाबारी के बीच जब भारतीय सैनिक एक एक कर शहीद हो रहे थे, तो हवलदार यश वीर सिंह ने ग्रेनेड लेकर पाकिस्तानी बंकरों पर धावा बोला। उन्होंने बंकरों पर 18 ग्रेनेड फेंके और दुश्मनों को मार गिराया। उनके साहस को देखकर दुश्मनों के छक्के छूट गए। उनके पैर उखड़ने शळ्रू ही हुए थे कि इस दौरान वे गंभीर रूप से जख्मी हुए और शहीद हो गए। जब उनका शरीर मिला तो उसके एक हाथ में रायफल और दूसरे में ग्रेनेड थे। तोलोलिंग फतह करने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।<br />
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<strong>कैप्टन सौरभ कालिया</strong><br />
जन्म: 29 जून, 1976 अमृतसर, पंजाब<br />
शहीद हुए : 9 जून, 1999<br />
यूनिट : 4 जाट रेजीमेंट<br />
<strong>शौर्य गाथा:</strong> कंबाइंड डिफेंस सर्विसेज के जरिए दिसंबर, 1998 में इंडियन मिलिट्री एकेडमी में भर्ती हुए। जाट रेजिमेंट की चौथी बटालियन में पहली पोस्टिंग कारगिल में मिली। जनवरी, 1999 में उन्होंने कारगिल में रिपोर्ट किया। मई के शुरुआती दो हफ्तों में कारगिल के ककसर लांग्पा क्षेत्र में गश्त लगाते हुए उन्होंने बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिकों और विदेशी आतंकियों को एलओसी के इस तरफ देखा।<br />
15 मई को अपने पांच साथियों- सिपाही अर्जुन राम, भंवर लाल बगारिया, भीका राम, मूला राम और नरेश सिंह के साथ लद्दाख की पहाड़ियों पर बजरंग पोस्ट की तरफ गश्त लगाने गए। वहां पाकिस्तानी सेना की तरफ से अंधाधुंध फार्यंरग का जवाब देने के बाद उनके गोला- बारूद खत्म हो गए। इससे पहले की भारतीय सैनिक वहां मदद लेकर पहुंच पाते, पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें बंदी बना लिया। पाकिस्तानी रेडियो स्कार्दू ने खबर चलाई कि कैप्टन सौरभ कालिया को बंदी बना लिया गया है। उन्हें 15 मई से 7 जून (23 दिन) तक बंदी रखा गया और घृणित अमानवीय बर्ताव किया गया। 9 जून को उनके शरीर को भारतीय सेना को सौंपा गया।<br />
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<strong>मेजर राजेश सिंह अधिकारी</strong><br />
जन्म: 25 दिसंबर, 1970 नैनीताल, उत्तराखंड<br />
शहीद हुए : 30 मई, 1999 (उम्र 28 वर्ष)<br />
यूनिट : 18 ग्रेनेडियर्स<br />
<span style="text-align: justify;">मरणोपरांत वीर चक्र </span><br />
<strong>शौर्य गाथा:</strong> इंडियन मिलिट्री एकेडमी से 11 दिसंबर, 1993 को सेना में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान 30 मई को उनकी यूनिट को 16,000 फीट की ऊंचाई पर तोलोलिंग चोटी पर कब्जा करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। यह पोजीशन भारतीय सेना के लिए बेहद अहम थी क्योंकि यहीं पर भारतीय सेना बंकर बनाकर टाइगर हिल पर बैठे दुश्मनों पर निशाना साध सकती थी। जब मेजर अधिकारी अपने सैनिकों के साथ लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे तो दुश्मनों ने दो बंकरों से उनपर हमला करना शुरू किया।<br />
12 जून को पाकिस्तान की तरफ से भारी गोलाबारी के बीच जब भारतीय सैनिक एक एक कर शहीद हो रहे थे, तो हवलदार यश वीर सिंह ने ग्रेनेड लेकर पाकिस्तानी बंकरों पर धावा बोला। उन्होंने बंकरों पर 18 ग्रेनेड फेंके और दुश्मनों को मार गिराया। उनके साहस को देखकर दुश्मनों के छक्के छूट गए। जब उनका शरीर मिला तो उसके एक हाथ में रायफल और दूसरे में ग्रेनेड थे। तोलोलिंग फतह करने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।<br />
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* शहीदों के विषय में जानकारी का स्रोत गूगल है।</div>
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रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-63866226207578300042020-07-23T10:57:00.001-07:002020-07-23T10:57:42.355-07:00हरियाली तीज !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://1.bp.blogspot.com/-fLpVyByZ51k/XxnPdiVJ2CI/AAAAAAABuI0/ou-zeTkJXco0ov2fQunmPP-cGZGJprvwwCLcBGAsYHQ/s1600/FB_IMG_1595526795163.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="928" height="320" src="https://1.bp.blogspot.com/-fLpVyByZ51k/XxnPdiVJ2CI/AAAAAAABuI0/ou-zeTkJXco0ov2fQunmPP-cGZGJprvwwCLcBGAsYHQ/s320/FB_IMG_1595526795163.jpg" width="309" /></a></div>
<b> </b> हरियाली तीज का उत्सव सावन के महीने में शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। यह नाग पंचंमी के दो दिन पहले होता है और यह उत्सव भी सावन के अन्य उत्सवों की तरह से महिलाओं का उत्सव है। सावन में जब सम्पूर्ण प्रकृति हरी हरी दिखलाई देती है और ऐसे में किसी का भी मन उस प्रकृति के बीच नाचने और गाने का करता है। इसमें स्वभाव के अनुसार महिलायें उल्लसित मन से इस तीज पर सज संवर कर , हाथों और पैरों में मेंहदी सजा कर अधिकतर हरी या रंग बिरंगी साड़ियों में और आभूषणों से सजी पेड़ों पर पड़े झूले पर झूलती हुई आपस में चुहल करती उत्सव को और हास परिहास से पूर्ण बनाती हैं।<br />
सुहागन स्त्रियों के लिए यह व्रत काफी मायने रखता है। आस्था, उमंग, सौंदर्य और प्रेम का यह उत्सव शिव-पार्वती के पुनर्मिलन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। चारों तरफ हरियाली होने के कारण इसे हरियाली तीज कहते हैं। रिमझिम फुहारों के बीच तन-मन जैसे नृत्य करने लगता है। महिलाएं झूला झूलती हैं, लोकगीत गाती हैं और खुशियां मनाती हैं। इस उत्सव में हर उम्र की महिलायें और लडकियाँ शामिल होती है। नव विवाहित युवतियां प्रथम सावन में मायके आकर इस हरियाली तीज में सम्मिलित होने की परम्परा है। हरियाली तीज के दिन सुहागन स्त्रियां हरे रंग का ऋृंगार करती हैं। नवविवाहिता लड़कियां अगर अपने मायके में होती है तो ससुराल से उनके लिए श्रृंगार का सामान , आभूषण , सजे हुए कपड़े और मिठाई आदि भेजी जाती है और अगर वह अपनी ससुराल में होती है तो मायके से उसके लिए यही सब सामान भेजा जाता है , जिसे वह अपनी सास या घर की अन्य बुजुर्ग महिलाओं को देकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। उत्तर प्रदेश में जो सामान वधु या बेटी के लिए भेजा जाता है उसे श्रावणी कहते हैं। <br />
हरियाली तीज के अनेक भागों में मनाई जाती है, परन्तु राजस्थान के जयपुर में इसका विशेष महत्त्व है। तीज का आगमन भीषण ग्रीष्म ऋतु के बाद पुनर्जीवन व पुनर्शक्ति के रूप में होता है। यदि इस दिन वर्षा हो, तो यह और भी स्मरणीय हो उठती है। लोग तीज जुलूस में ठंडी बौछार की कामना करते हैं। ग्रीष्म ऋतु के समाप्त होने पर काले - कजरारे मेघों को आकाश में घुमड़ता देखकर पावस के प्रारम्भ में पपीहे की पुकार और वर्षा की फुहार से आभ्यंतर आनन्दित हो उठता है। ऐसे में भारतीय लोक जीवन हरियाली तीज का पर्वोत्सव मनाता है।</div>
रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-12593622141566323042020-06-21T10:46:00.001-07:002020-06-21T11:15:24.085-07:00बालिका संरक्षण गृह क्यों संदिग्ध हैं ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आज फिर वही खेल सामने आया और यह कोई पहली बार नहीं हुआ है । पूरा इतिहास है हमारे सामने कि बाल संरक्षण गृह में रहने वाली नाबालिग बच्चियों में से 57 कोरोना पॉजिटिव पाई गयीं , ये कहीं जाती नहीं है फिर भी इससे लज्जाजनक बात तो ये है कि उन में से 2 नाबालिग बच्चियाँ गर्भवती है और इनमें कहा जा रहा है कि दोनों बच्चियाँ आने से पहले से गर्भवती थीं । उनमें एक एच आईवी पॉजिटिव है और दूसरी हेपेटाइटिस सी से ग्रसित है । संबंधित अधिकारी इस विषय में चुप्पी साधे हैं तो एक प्रश्नचिह्न खड़ा है ।<br />
ये कानपुर की ही घटना है । इन 57 बच्चियों के भी परीक्षण की जरूरत है कि उनमें से कितनी अन्य संक्रमण की शिकार नहीं है ? इनको कहीं भेजा जाता है या फिर उनके शोषण के लिए वहाँ किसी को बुलाया जाता है । कौन कौन शामिल है ? यहाँ बात कोरोना की ही नहीं है बल्कि इन बच्चियों के शोषण का है । संरक्षण गृह की संरक्षिका, वहाँ का स्टाफ या फिर रसूख वाले लोगों के दबाव में बच्चियों का.शोषण किया जाता है । सरकारी नियंत्रण का क्या है ?<br />
अगस्त 2014 में मुज्जफरपुर आश्रय गृह के बाद , अपने इतिहास को दुहराता अगस्त , 2018 देवरिया आश्रय गृह का लड़कियों के होते यौन शोषण ने अब प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या ये संवासिनी गृह , अनाथालय , बालिका सुधार गृह , नारी कल्याण केंद्र , वृद्धाश्रम , बाल संरक्षण गृह सब के सब ऐसे यौन शोषण के ही अड्डे बने हुए हैं। एक बार हुई घटना के बाद क्यों नहीं सबक लिया जाता है। क्या गुनाह है उन लड़कियों का , वे सिर्फ अनाथ हैं या किसी जाने अनजाने अपराध में या साजिश में अपराधी घोषित हुईं , घर के अत्याचार से तंग आकर घर से भाग आईं , लेकिन उन्हें इन सबसे कोई सरोकार न था। रसूख के चलते बच्चियों की मेडिकल रिपोर्ट साफ सुथरी दिखाई गयीं ।<br />
कुछ साल पहले 2012 का इलाहबाद के बालिका संरक्षण गृह में नाबालिग बच्चियों के यौन शोषण की बात सामने आयी थी और उसके पीछे भी बहुत सारे प्रश्न खड़े हो गए थे लेकिन फिर आगे क्या हुआ ? इसके बारे में कोई भी पता नहीं है। वहां की वार्डेन अपने घर में रहती थी और बच्चियां पुरुष नौकरों के सहारे छोड़ दी जाती थीं। सरकारी संस्थाओं में ये हाल है कि वार्डेन के पद पर काम करने वाली महिला संरक्षण गृह से दूर अपने घर में सो रही है और बच्चियां पुरुषों के हवाले करके। जिम्मेदार लोगों को सिर्फ और सिर्फ अपने वेतन से मतलब होता है। शायद उनकी संवेदनाएं भी मर चुकी होती हैं। प्रश्न यह है कि बच्चियों की संरक्षा का दायित्व महिलाओं को क्यों नहीं सौप गया था ? ऐसा किस्सा कानपुर में भी हुआ था , जब संवासिनी आश्रम छोड़ कर भागने लगती हैं तो फिर खलबली मच जाती है। रसूखदार लोगों के चल रहे बाल गृह एक धंधा मात्र है सरकारी पैसे को हड़पने का और अपने काले धन को सफेद बनाने का।<br />
जून २०१६ को कानपु र के निकट रनियां में एक बाल संरक्षण गृह शांति देवी मेमोरियल संस्था द्वारा संचालित शिशु गृह एवं बाल गृह में से शिशु गृह में ५ बच्चियों की कुपोषण के कारण मौत हो गयी थी और तब उसको बंद करने का आदेश दिया गया था और बच्चियों को दूसरी जगह भेज दिया गया था।<br />
बाल गृह में भी 23 अगस्त 2016 को 7 वर्षीय मासूम की मौत हो गयी। यहाँ पर पालने वाले बच्चों के प्रति कौन जिम्मेदार होता है ? ये केंद्र बगैर निरीक्षण के कैसे चलते रहते हैं ? राज्य की भी कोई जिम्मेदारी होती है या नहीं। कितने आयोग चल रहे हैं ? मानव संसाधन मंत्रालय , महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और भी कई परियोजनाओं के अन्तर्गत इस तरह की संस्थाएं को अनुदान मिलता है लेकिन इसके बाद क्या कोई उत्तरदायित्व नहीं बनता है कि वे जाने इन में पालने वाले या संरक्षित किये जाने वाले बच्चों का हाल क्या है ? उनके रहने , खाने और चिकित्सा व्यवस्था कैसी है ? एक टीम को इसके लिए नियुक्त किया जाना चाहिए जो समय समय पर इनका निरीक्षण करे। बशर्ते कि वे भी इन संस्थाओं की तरह पैसा बनाने का काम न करते हों। <br />
<b>कैसा जीवन बिताती हैं ? --</b><br />
इन संरक्षण गृहों में वे कैसा जीवन बिताती हैं , ये जाने की न कोई महिला आयोग कभी जानने की कोशिश करता है और न ही सरकार का कोई भी विभाग ऐसा है। उनसे गृहों में साफ सफाई , बाकी घरेलू काम करवाए जाते हैं , जबकि सरकार की तरफ से इन गृह संचालकों को एक मोटी रकम मिलती है इनके भरण पोषण के लिए। वह कहाँ जाती है ? इसका कोई हिसाब किताब कहीं माँगा जाता है या फिर रसूख वाले और दबंगों को ये काम दिया जाता है। इस काम में सिर्फ पुरुष ही दोषी हों ऐसा नहीं है बल्कि महिलाये भी ऊपर के अफसरों को खुश करने के लिए और अपनी आमदनी बनाये रखने के लिए लड़कियों को प्रयोग करती हैं। <br />
आश्रम या गृह- समाज सेवा का प्रतीक माने जाते हैं जैसे -- सरकारी नारी कल्याण केंद्र , वृद्धाश्रम , बाल सुधार केंद्र या बालिका सुधार गृह , अनाथालय , संवासिनी गृह और बाल संरक्षण गृह का नाम सुनकर ये ही लगता है। लेकिन इनको चलाने वाले एनजीओ में होने वाली गतिविधियों से यही समझ आता है कि कुछ लोग जोड़ तोड़ कर सरकारी सहायता प्राप्त कर दुनियां का दिखावा करके एनजीओ खोल लेते हैं और फिर उसे बना लेते हैं अपनी मोटी आमदनी का एक साधन। सब कुछ कागजों पर चलता रहता है , जब तक कि कोई बड़ी वारदात सामने नहीं आती है। उसके पीछे का खेल एक दिन सामने आता है।एक एनजीओ को तो मैं भी अपने ही देखते देखते करोड़पति होने की साक्षी हूँ बल्कि कहें हमारे घर से दो किमी की दूरी पर है। वर्षों में उसी के सामने से ऑफिस जाती रही हूँ और वह सिर्फ ईंटों से बने स्कूल के मालिक ने कुछ ही सालों में इंटर कॉलेज , फिर डिग्री कॉलेज और साथ ही संवासिनी आवास तक बना डाले और फिर जब संवासिनी की मौत हुई और उसपर की गयी लीपापोती ने सब कुछ सामने ला दिया।<br />
ये सिर्फ एक एनजीओ की कहानी नहीं है बल्कि ऐसे कितने ही और मिलेंगे। ,ये तो निजी आश्रम तो बनाये ही इसी लिए जा रहे हैं कि वह इनके नाम पर सरकारी अनुदान लेने की नीयत होती है। साम दाम दंड भेद सब अपना कर पैसे वाले बनाने का काम बहुत तेजी से चल निकला है। इन तथाकथित समाज सेवकों के दोनों हाथ में लड्डू होते हैं , समाज में प्रतिष्ठा , प्रशासन में हनक और हर महकमें में पैठ। धन आने के रास्ते खुद बा खुद खुलते चले जाते हैं। इन पर सरकार का कोई अंकुश नहीं होता है क्योंकि मिलने वाले अनुदान में सरकारी विभागों का भी हिस्सा होता है और फिर कौन किससे हिसाब माँगेगा या फिर निरीक्षण करने आएगा। सारी खाना पूरी कागजों पर होती रहती है।<br />
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<b>अनुदान के बाद निरीक्षण </b><br />
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बाल संरक्षण गृह के नाम पर भी लोग अपना व्यवसाय चला रहे हैं। इसमें सभी शक के दायरे में नहीं आते हैं, लेकिन इन संरक्षण गृहो का जीवन अगर अंदर झांक कर कोई देखना चाहे तो संभव नहीं है और इसके लिए सहायक महिला आयोग , मानव संसाधन मंत्रालय , मानवाधिकार आयोग सब कहाँ सोते रहते हैं ? किसी की कोई भी जिम्मेदारी नहीं बनती है। अगर संरक्षण गृह खोले गए हैं तो उनका निरीक्षण भी उनका ही दायित्व बनता है। एक दिन न सही महीनों और सालों में तो उन पर दृष्टिपात करना ही चाहिए। वह हो इस लिए नहीं पाता है क्योंकि पहुँच ही सारी कार्यवाही कागजों पर पूरी करवा देती है और फिर ये संरक्षण गृह यातना गृह बने होते हैं। इनका रख रखाव और साफ सफाई , खाना पीना सब कुछ ऐसा कि जिसे आम आदमी के खाने काबिल भी न हो। सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार कहा था कि उत्तर प्रदेश में महिला आयोग जैसी कोई चीज है भी या नहीं क्योंकि हर जगह अराजकता के बाद भी इस आयोग को कभी सक्रिय होते नहीं देखा जाता है। निराश्रितों , संवासिनियों , अबोध बालिकाओं में संरक्षण किसका होता है ? इसके बारे में सिर्फ कागजात साक्षी होते हैं। <br />
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<b> सरकार का दायित्व </b><br />
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बीमार कर देने वाला वातावरण और बदबू और सीलन से भरे हुए कमरे जिनमें वह बच्चे कैसे जीते हैं ? ये जानने की कोई भी जरूरत नहीं समझता है। निजी एनजीओ की बात तो हम बाद में करेंगे पहले हम सरकारी सरंक्षण ग्रहों की बात कर लें। इनमें से आये दिन संवासनियां मौका मिलते ही भाग जाती हैं। बाल संरक्षण गृहों से भी बच्चों के भागने की खबर मिलती रहती है। अगर यहाँ पर उन्हें वह वातावरण मिलता है जिसके लिए उनको भेजा गया है तो वे अनाथ या संरक्षणहीन बच्चे क्यों भागेंगे ? सब जगह ऐसा होता हो ये मैं नहीं कह सकती लेकिन अव्यवस्था और विवादित रखरखाव् पर सरकार को दृष्टि तो रखनी ही चाहिए। किसी को तो ये सब चीजें संज्ञान में रख कर इनके प्रति जिम्मेदार होना चाहिए। <br />
इतनी सारी अनियमितताओं के बाद भी किसी की नींद खुलती नहीं है। सरकारें आती और जाती रहती हैं लेकिन ये सब उसी तरह से चलती रहती हैं क्योंकि सरकार इस बात से अवगत ही नहीं है कि कहाँ कहाँ और कितना अनुदान जा रहा है। विभागों में सब कुछ निश्चित है कि कितने अनुदान पर कितने प्रतिशत देना होगा। वहां से चेक जारी ही तब होता है जब आप अग्रिम राशि के रूप में उन्हें चेक दे दें।<br />
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रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-2168614474878860491.post-19838394451585610192020-06-12T06:58:00.000-07:002020-06-12T06:58:09.275-07:00कभी यही हमारा जीवन था !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जब से कोरोना वायरस का हमारे देश मेंं प्रवेश हुआ , एक साथ बहुत सारी चीजों के लिए सतर्क हो गए लेकिन हमारे ग्रामीण जीवन में किसी विशेष चीज को करने की आवश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि उन सब चीजों को उन्होंने पहले ही अपना रखा है । अपने बचपन में या युवावस्था में अपने घरों में, अपने गाँँवों में यह सब चीजें हमने पहले से ही देखी है । यह चीजें हमारी संस्कृति में शायद हमारे जीवन में शामिल थीं ऋऔर हमारे आचरण को एक अलग दिशा देती थी। इससे हमें किसी और चीज से बचने की परहेज करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, जिसे हम क्वॉरेंटाइन हैं।<br />
.. क्वॉरेंटाइन हमारे ग्रामीण जीवन में हमारे माता-पिता के जीवन काल से ही चला आ रहा है :--<br />
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व्यक्तिगत क्वॉरेंटाइन :--<br />
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हमारे घरों में प्रसव होने पर ही प्रसूता को सबसे अलग कर दिया जाता था। उसे इस नाम से कभी नहीं समझा जाता था, कहा जाता था कि इस घर में सूतक लगा है । प्रसूता को सबसे अलग रखा जाता था , उसको कोई छू नहीं सकता था , साफ सफाई के लिए साथ ही किसी भी प्रकार के संक्रमण से बचाने के लिए प्रसूता और बच्चे के कमरे में बराबर आग जला कर रखी जाती थी । विशेष कार्य के लिए अगर कोई प्रसूता के पास जाता , उसे छूना होता तो बाहर आकर नहाना होता था। हम जानते हैं ये अवधि किसी घर में 12 दिन , किसी घर में सवा महीने तक प्रसूता रसोई या पूजा आदि कार्य नहीं कर सकती थी । ऐसा उसको शारीरिक आराम देने के लिए , उसको किसी संक्रमण से बचाने के लिए पहले से ही ये व्यवस्था बनाई गई थी । प्रसूता को गरम जड़ी बूटियों वाला पानी ही दिया जाता था । खाने में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए गरम ड्राई फ्रूट गुड़ के साथ लड्डू और कतली बना कर दिया जाता था ।<br />
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परिवार का होम क्वॉरेंटाइन :-<br />
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इसी तरह किसी परिवार में मृत्यु होने पर उस परिवार के घर में खाना पीना बनना वर्जित होता है और आस पड़ोस के लोग उन लोगों के लिए खाने-पीने की सामग्री बनाकर देते थे । इस दिशा में वह लोग उनके घर से कुछ नहीं लेते थे बल्कि उस परिवार के लोग दूसरों के यहाँँ प्रवेश नहीं करते हैं । उस समय भी एक तरह से उस परिवार को क्वॉरेंटाइन कर दिया जाता था। मृत्यु के इस काल को भी सूतक काल कहा जाता है। शांति हवन या तेरहवीं के पश्चात ही वे लोग सामाजिक जीवन मैं शामिल हो पाते थे । चाहे जहाँँ भी, चाहे जिस तरह भी मृत्यु क्यों न हुई हो, घर में पूरी साफ सफाई की जाती थी - जैसे कोरोना के रोगी को छूने की अनुमति नहीं होती है , उसी तरह दिवंगत के कपड़े , बिस्तर आदि घर से बाहर फेंक दिया जाता है। घर की लिपाई पुताई शायद इसी उद्देश्य की जाती है कि किसी भी तरह का संक्रमण घर में ना रह जाए। दीवारों को चूने से पुताई की जाती थी और जमीन के कच्चे फर्श को गोबर और मिट्टी मिलाकर पोता जाता था जिससे सफाई बरकरार रहे पक्के मकानो में भी शव के हटते ही घर की धुलाई की जाती है ।<br />
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सोशल डिस्टेंसिंग :-<br />
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जो आज के समय में आवश्यक मानी जा रही है । वह हम सदियों से प्रयोग करते आ रहे हैं। अजनबी आने वाले व्यक्ति को अभिवादन करके स्वागत करने की प्रथा हमारे यहां थी, लेकिन तब दूर से ही 'राम-राम', पाँय लागूँ , जय राम जी की ' कहकर होता था । फिर नमस्कार, प्रणाम आदि भी दूर से ही किया जाता था । चौपाल पर भी गाँव के लोग दूर दूर ही बैठते थे । ये उनके जीवन चर्या का अंग सदैव रहता था।<br />
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व्यक्तिगत सफाई :-<br />
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कोरोना से बचने के लिए घर में घुसते ही सबसे पहले जूते चप्पल बाहर छोड़ना, फिर हाथ पैर मुंह धोना और बाहर की कपड़े उतार कर नहा कर ही अंदर प्रवेश करना जैसे आवश्यक है , उसी तरह से हमारे ग्रामीण परिवेश में आज भी और हमारे जीवन में पारंपरिक तौर पर कहीं से भी आने पर जूते चप्पल बाहर निकालना हाथ पैर मुंह धो के घर के अंदर प्रवेश करना आवश्यक है और इससे हमारी विभिन्न प्रकार के रोगों से बचत होती रही । जब पश्चिमी संस्कृति ने हमारे जीवन में कदम रखा और हमने अपने को सुशिक्षित और सुसंस्कृत कहलाने के लिए अपनी पुरानी परंपराओं को तोड़ना शुरू कर दिया ताकि हम आधुनिक कहला सकें । पैर में चप्पल हर समय रहती है । जबकि पहले चप्पल घर में हर समय पहनना आवश्यक नहीं था । अभिवादन नमस्कार की जगह हाथ मिलाने ने ले लिया । इस प्रकार के कार्य हमने जब करने छोड़ दिए और हम प्रगतिशील कहलाने लगे तभी एक झटका लगा कोरोना के आने से हमको अपनी प्राचीन संस्कृति ग्रामीण संस्कृति याद आने लगी और हम फिर हाथ जोड़कर नमस्कार करें , अपने जूते चप्पल को बाहर छोड़ने हाथ पैर धो कर घर के अंदर प्रवेश करने की परंपरा को अपनाने लगे। हमारे लिए कुछ नया नहीं बल्कि हम तो यह सदियों से देखते और करते चले आ रहे हैं , कभी भी बगैर हाथ पैर धोए खाना खाने के लिए नहीं बैठा जाता और भोजन भी रसोई के पास जमीन में चटाई पर बैठकर , चौकी पर बैठकर खाते थे। तब हमें कभी भी किसी भी निसंक्रमण जरूरत नहीं पड़ी । हम सुरक्षित है और हमारे पूर्वजों की आयु 100 वर्ष तक की होती थी और उन्हें इसी प्रकार की कोई गंभीर बीमारी नहीं देखी गई।<br />
कोरोना के कारण घर में कैद होकर रह गए , क्योंकि जिसे हम सामाजिक जीवन कहते हैं -- पार्टियाँँ , डाँस पार्टी, होटल और रेस्तरां में जाकर लंच डिनर लेना । मॉल में जाकर शॉपिंग करना और शाम को खाना खाते हुए घर आना। बाहर खाना खाते हुए भले ही हम चम्मच से खाएं लेकिन वहाँँ लोगों को कभी भी हाथ धोकर आते हुए नहीं देखा। टेबल पर अपने ऑर्डर को पूरा करने के लिए बैठे रहते हैं और फिर खाकर ही घर आते हैं । आज के लोगों का जीवन स्तर बन चुका था । लेकिन आज वह अपनों से मिलते हुए भी डरता है , पता नहीं कब क्या हो जाए ?<br />
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अंतिम क्रिया :--<br />
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हमारी यह कल्पना हमारा शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है और शव के शवदाह करने से शरीर उन्हें उन्हें पंचतत्व में विलीन हो जाता है और उसकी अस्थियों को जल में प्रवाहित करके अपना कार्य पूर्ण किया जाता था यह सिर्फ हिंदू संस्कृति की विशेषता और विश्वास था, लेकिन इसको कोरोना ही नहीं बल्कि मरीजों को के शवदाह करने की बात सामने आई तो जो लोग शवों को दफनाते थे , वे भी सबको शवदाह गृह में जाकर अंतिम संस्कार कर रहे हैं । बल्कि अब तो शव छूने या उसके पास जाने की अनुमति नहीं होती है और कहीं-कहीं तो शव को लेने से इंकार कर देते हैं यह विडंबना है उन लोगों की जो कि यदि अंतिम संस्कार सनातन धर्म के अनुसार नहीं होती है तो आत्मा भटकती रहती है।</div>
रेखा श्रीवास्तवhttp://www.blogger.com/profile/00465358651648277978noreply@blogger.com10