ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जब भी और जहाँ भी ये अनुभव होता है कि इसको तो सबसे बांटने और पूछने का विषय है, सब में बाँट लेने से कुछ और ही परिणाम और हल मिल जाते हैं. एकस्वस्थ्य समाज कि परंपरा को निरंतर चलाते रहने में एक कण का क्या उपयोग हो सकता है ? ये तो मैं नहीं जानती लेकिन चुप नहीं रहा जा सकता है.
शनिवार, 23 जुलाई 2011
सी बी आई की उपयोगिता !
आख़िर क्या कुसूर है? रामदेव बाबा और बालकृष्ण का यही कि ये देश के भविष्य के लिए सरकार से कुछ चाहने लगेऔर कुछ पूछने का दुस्साहस कर बैठे। क्या सी बी आई के पास ऐसे ही केस सुलझाने का काम बचा है। देश मेंआतंकवाद कैंसर की तरह से अपनी जड़ें फैलता चला जा रहा है और हमें खबर तक नहीं है। अपने देश में कितने विदेशीफर्जी पासपोर्ट पर रह रहे हैं , इसको जानना जरूरी नहीं है। घोटालो के लिए सी बी आई जांच कराये ऐसा विचार तो उन्हेंआता ही नहीं है। जो फाँसी की सजा पाए देशद्रोही या आतंकवादी बैठे है उन पर विचार करने के लिए गृह मंत्रालय केपास समय नहीं है और ऐसे गैर जरूरी कामो के लिए वह बहुत सक्रियता से काम करवा रही है। इतनी सक्रियता अगरदेश के अन्य मामलों को सुलझाने में दिखाई होती तो शायद विदेशो में संचित धन देश के काम आ रहा होता।कबूतरबाजी, हवाला धन, मानव तस्करी जैसे कामो के लिए सी बी आई का प्रयोग नहीं किया जा सकता है और अगरहोता है तो प्रभावशाली लोगो का नाम आते ही मामला ठन्डे बस्ते में चला जाता है।
खुद दिल्ली में ही हो रहे जघन्य अपराधो का हल नहीं मिल रहा है और जन दमन में व्यस्त है सरकार। अपने ही देश मेंनफरत के बीज बोने कि तैयारी में व्यस्त सरकार ये भूल रही है कि स्वयंभू सरकार अपने इतिहास को दुहराने जा रहीहै। जो उन्हें तख़्त पर बिठा देते हैं वही १९७७ की तरह से जमींदोश करने में देर नहीं लगते है।
गुरुवार, 14 जुलाई 2011
गर्मियों की छुट्टिय और अपना बचपन (२२)
पवन मिश्रा
दीदी मेरी गर्मियों की छूट्टियाँ जानना चाहेंगी तो भद्दर गाँव के एक लड़के की गर्मियों की छुट्टियों के बारे में ही जानने को मिलेगा फिर भी मै कुछ ब्यौरा दे रहा हूँ
मंगलवार, 12 जुलाई 2011
सांप्रदायिक हिंसा निषेध बिल
अब तक तो सबके संज्ञान में आ चुका सांप्रदायिक हिंसा निषेध बिल जिसकी तैयारी हमारी मौजूदा सरकार कर रही है .वह सारी धर्म निरपेक्षता और समानता के संविधान के नियमों को ताक में रख कर अपना नया ही इतिहास रचने जा रही है , इतिहास क्या ये औरंगजेबी फरमान जारी होने के लिए तैयार खड़ा है. इसके विषय में कुछ न कुछ तो सभी ने सुना ही होगा लेकिन इसके औचित्य को आज तक हम समझ नहीं पाए. हमारे संविधान निर्माताओं का तो एक है सपना था कि हम किसी भी तरीके से गुलामी से आजाद हों और एक ही झंडे तले चैन और अमन के साथ रह सकें . किसी को देश छोड़ने के लिए बाध्य नहीं किया गया. जिसे जहाँ रहना था रहे. अगर कुछ अलगाववादी तत्वों की बात छोड़ दें तो देश में अमन और चैन में आज भी कोई कमी नहीं है. लेकिन इसके विपरीत जिस घातक कदम को उठाने का काम सरकार कर रही है, वह देश में नहीं बल्कि देश वासिओं के दिलों में एक दीवार खींचने का काम करने की तैयारी में है लेकिन ये है किस लिए ? इस बात का को भी उत्तर किसी के पास नहीं है.
अगर ये औरंगजेबी फरमान पास हो गया तो संवैधानिक दृष्टि से , न्याय की दृष्टि से इस बिल में घोषित 'समूह' - जो सिर्फ हिन्दू है, कहीं भी किसी भी हिंसा में दोषी करार कर दिए जायेंगे और उसके बाद इस अपराध की कोई भी जमानत नहीं होगी यानि कि वर्ग विशेष के लोग सत्यापित आतंकवादी करार दिए जायेंगे.
भारत एक हिन्दू राष्ट्र है नहीं इसको धर्मनिरपेक्ष का जामा पहना कर सांप्रदायिक हिंसा निषेध बिल को कानूनी अधिकार प्रदान कर रही है और इस बात से सभी वाकिफ है कि ये हिंसा फैलाने वाले किसी भी आस्था या विश्वास के अनुयायी नहीं होते,. इनकी कोई जाति नहीं होती यहाँ तक कि ये लोग तो मानव भी कहलाने लायक नहीं होते.
फिर इस बिल को तैयार करने वालों की सोच क्या है? अन्य वर्ग मुस्लिम , सिख , इसाई अगर इसमें लिप्त पाए गए तब भी दोषी हिन्दू ही माने जायेंगे यानि कि सांप्रदायिक हिंसा को खुला निमंत्रण और हिन्दुओं के लिए जेल का खुला फरमान. ये किस संविधान में लिखा है? हमने तो अपना दामन इतना बड़ा रखा कि सारी दुनिया को इसमें समां लिया और हम अपने घर में नजरकैद किये जाने वाले हैं. दहशत की बेड़ियों का इंतजाम अगर आपकी गर्दन भी दल दें तो चुप रहिये क्योंकि आख़िर में आपकी कटी गर्दन के साथ आपके घर वाले भाई विरादरी ही जेल की सलाखों के पीछे होंगी.
इस बिल को लाने वाले इसका मसौदा तैयार करने वालों की सोच क्या है? आज तक स्पष्ट नहीं हियो - यह तो फिर किसी नाथूराम गोडसे को जन्म देने वाली पृष्ठभूमि बन रही है फिर एक नहीं कई नाथो राम गोडसे तैयार होंगे क्योंकि अगर मर मर कर जीना है तो फिर एक बार मर कर सदियों तक जीना बेहतर है.
शनिवार, 9 जुलाई 2011
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vaise vishvas to nahin hota hai lekin aagar koi site aisa kah rahi hai to aisa hi hoga.
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सोमवार, 4 जुलाई 2011
गर्मियों की छुट्टियाँ और अपना बचपन (२१)
उन्हीं यादों को समेटे खड़ी हैं अनीता कुमार जी।

वो बचपन की यादें ........
बहुत दिन के बाद ब्लॉग पर आई हूँ और आपका संस्मरण पढ़ कर मजा आह गया । वो कहते हैं न कि खरबूजेको देख कर खरबूजा रंग बदलता है वैसे ही संस्मरण पढ़ कर यादों का काफिला चल निकला तो सोचा कि इसको मंजिल तक पहुंचा ही दूं सो ये आपके लिए........
सबके संस्मरण पढ़ते हुए एक बात मेरे दिमाग में ये कौंधी थी कि गर्मियों की छुट्टी में सभी गाँव की ओर कूच करते थे और देहात की प्राकृतिक सम्पदा का मजा लूटते थे। हम इस मामले में गरीब ही रहे , शहरी जो ठहरे। फिर भी गर्मी की छुट्टियाँ हमारे लिए कुछ काम रोमांचक न होती थीं। हर गर्मियों की छुट्टी में दो ही जगह जाना होता था या तो दिल्ली (ददिहाल) या फिर मुरादाबाद (नौनिहाल) दोनों ही जगह के अपने मजे थे।
मुरादाबाद में मेरे नाना का सिनेमा हाल था और घर और सिनेमा हॉल के बीच में एक छोटा सा मैदान था। गाना शुरू होता तो आवाज घर तक आती थी। सिनेमा हाल में नाना जी ने एक कमरा सिर्फ अपने परिवार के लिए बनवाया हुआ था। जिसमें बड़ा सा सोफा झूले के रूप में लगा हुआ था। इधर पिक्चर शुरू हुई और उधर हम नाश्ता पानी सब छोड़ कर भागे चले जाते थे। कभी फैमिली बॉक्स में झूले पर बैठ कर और कभी प्रोजेक्टर रूम में ओपेरटर की नाक में दम करके पिक्चर देखा करते थे। मुरादाबाद छोटा शहर था एक ही सड़क पर ५ थियेटर थे।
सभी थियेटरों में हमें विशेषाधिकार प्राप्त थे। पांच छः बरस के रहे होंगे. एक लेमन वाला (मेरा मतलब सिर्फ कोल्ड ड्रिंक ही बेचा करता था) जिसकी दुकान नाना के सिनेमा हाल के पास थी. घर आता था और मेरी जिद पर अपने साथ ले जाता था. एक हाथ गाड़ी और उसपर बोरी से ढकी रखी बर्फ की सिल्ली और उस पर बैठ कर मैं पूरे शहर का नजारा देखा करती थी.उसी के साथ जाकर पहली बार बर्फ बनाने की फैक्टरी देखी. उस अँधेरे कमरे में ऊँचाई से गिरती पानी की रिमझिम बूँदें आज भी जेहन में ताजा हैं. मेरी नानी जैसे पराठे तो कोई बना ही नहीं सकता था. जिस दिन घर में मांस बनता हम बच्चों के लिए बड़ा रोमांचक होता था. नानी शुद्ध शाकाहारी, नाना मीट बनाने का काम करते थे. वो भी रसोई के बाहर - उन्हें एक अंगीठी जला कर दे दी जाती थी. और जब वे मसाले माँगते तो नानी उन्हें मसालादानी में हाथ नहीं लगाने देती और हम बच्चों से मसाले की कागज की पुडिया बनाकर भेजी जाती. नानी और नाना के शाकाहारी और मांसाहारी होने की तनातनी देखने में बड़ा मजा आता था.
हर साल गर्मियों की छुट्टी में दिल्ली जाना तय था. अलीगढ से दिल्ली पापा के चाचा के घर जाने के लिए हम छुट्टियाँ होते ही पीछे पद जाते. हमारा ददिहाल वही था. जैसे ही हमारा स्कूटर कोठी के गेट पर रुकता शशि दीदी जल्दी से नीचे उतर कर आती और हमें बाँहों में भर लेती. शशि दीदी यूँ तो पापा की चचेरी बहन थीं लेकिन वे हमारी हमउम्र थीं. उनका छोटा भाई राहुल जिसे हम आज भी काके कहकर बुलाते हैं गजब का उधमी था. उसका जोड़ मेरे छोटे भाई के साथ था. रात को बिस्तर छत पर लगते थे और छत पर पानी डाल कर उसको ठंडा करना मुझे बहुत अच्छा लगता था. रात में जिद करके हम और शशि दीदी एक ही बिस्तर पर सोते थे. देर रात तक हम लोग न जाने क्या खुसुर पुसुर किया करते थे और बीच बीच में चाची की आवाज सुनाई देती अब सो जाओ सुबह सैर को जाना है. सुबह उठते ही हम बच्चे और घर के मर्द पांच बजे अजमल खां रोड की ओर चल पड़ते थे. इतबार को दुकान बंद रहती थी सो उस दिन नाश्ता छोले और पूरी का होता था. हम बच्चों को भेजा जाता था स्टैण्डर्ड की दुकान से छोले और पूरी और दही लाने के लिए.घर पहुँचाने तक हम बच्चे दही के ऊपर की मोटी मलाई चट कर चुके होते थे. दोपहर से फेरी वाले फेरी लगाने लगते और मजाल है की कोई फेरी वाला हमारे घर रुके बिना चला जाए -- फालसे, उबली हुई मसालेदार छल्ली, और न जाने क्या क्या? गर्मियों के दिन होते - दिल्ली में ये रिवाज था की सभी गृहणियां तंदूर पर रोटी लगवाने भिजवा देती. शाम पड़ते ही मैं और दीदी परत में आता गीले कपड़े से और फिर थाली से ढाका हुआ लेकर तंदूर पर रोटी लगवाने के लिए लेकर जाते. वहाँ बहुत भीड़ होती थी ज्यादातर बच्चे ही आते थे आता लेकर. फिर क्या था की तंदूर वाले को बता कर की कितनी रोटी बनानी और हम झूले पर चढ़ जाते और तब तक झूलते रहते जब तक की तंदूर वाला आवाज न दे की अपनी रोटियां ले जाओ. लाल बहादुर शास्त्री का जमाना था. देश में अज्ज की किल्लत थी. शास्त्री जी के कहे अनुसार रविवार की रात को खाना नहीं बनता था. घर के बड़े लोग एक वक्त का फाका करते थे लेकिन बच्चे कब मनाने वाले थे सो बच्चों के लिए ढेर सारे फल ,चाट पकौड़ियों का इंतजाम किया जाता था.
शाम को खाना खाने के बाद सब बैठक में बैठ कर गपियाते थे. मेरी मम्मी चाचा जी के सामने घूंघट किये रहती थी. अगर चाचा जी कमरे में होते तो बहुत धीमी आवाज में बोला करती थी. चाची जी अक्सर कहा करती थी की निर्मला छड परे हुन ए घूंघट वूंघट पर मम्मी उनकी बात टाल जाया करती थीं. हम सब बच्चों के लिए मम्मी का घूंघट खींचना एक खेल हो जाता था. जब हम ज्यादा परेशान करते तो चाचा जी खुद उठ कर छत पर सोने चले जाया करते थे. मेरे पापा के छोटे चाचा भी उसी मकान के ऊपरी हिस्से में रहते थे. उनकी पत्नी मलयाली थी ( हाँ पचास के दशक में उनके चाचा ने लव मैरिज की थी.) छोटी चाची हम सब बच्चों की सबसे चहेती आंटी थी - अनीता आंटी. मुझे उनका नाम इतना पसंद था की मैंने जिद की की मेरा नाम भी अनीता होना चाहिए मुझे क्या पता था की नियति अपना खेल खेल रही है और आज मैं भी एक मलयाली की पत्नी हूँ. अनीता आंटी के घुंघराले बाल चाँदी सा रंग और सुरीला गला आज भी मेरे जेहन में उतना ही ताजा है जितना की उस समय हुआ करता था. उनके हाथों का बन राइ और जीरे के तड़के वाला आम का अचार का स्वाद आज भी मेरी जिव्हा पर है. और मैं कभी वैसा अचार नहीं बन पायी. इतवार के दिन हमारे घर सुबह से ही लोगों के आने का तांता शुरू हो जाता . हमारे छोटे चाचा सत्संग के लिए मशहूर थे. हम सबको हिदायत रहती की दो घंटे किसी की हंसी की आवाज नहीं निकालनी चाहिए. हम हाल में बैठे सत्संग के अंत में अनीता चाची के भजनों में इतना डूब जाते की शैतानी का सवाल ही नहीं उठता था. इतवार छोड़ कर बाकी सब दिन हम बच्चों का घर पर राज रहता था. बरामदे में एक तरफ एक हौज में हैंडपंप लगा हुआ था. नहाने के नाम पर हम बच्चे हौज की नाली में कपड़ा फंसा कर बारी बारी से हैंडपंप चला कर हौज को पानी से भर लेते और फिर उसमें नहाने में स्विमिंग पूल की कमी न लगती. बड़ी चाची हमें झूठा गुस्सा दिखा कर जब एक डेढ़ घंटे तक बाहर आने के लिए कहती रहती और हम उनकी बात न सुनते तो वे हमें धमकी देती की फिर जब उनको लगता की ये नहीं मानेगे तो आखिरी हथियार फेंका जाता की मैं अभी ऊपर से अनीता चाची को बुलाती हूँ. हम अनीता चाची से जितना प्यार करते थे उतना डरते भी थे.वे मरती नहीं थी लेकिन कह देती की ऊपर नहीं आना और अगर हम ऊपर नहीं जायेंगे तो फिर गाना कैसे सुनेंगे और केरल के किस्से कैसे सुनेंगे? और उनके हाथ का डोसा कैसे छोड़ देते सो हम एक एक करके बाहर आ जाते. बरामदे के दूसरे तरफ सीमेंट का डिब्बा बन हुआ था वो शायद कचरे के लिए बनाया गया था. हम उस पर खड़े होकर दूर गंदे नाले के ऊपर से जाती हुई रेलगाड़ी देखा करते थे. बचपन में हम सब बच्चों को गंदे नाले की तरफ जाने की मनाही थी. नाला भी एक नहर जितना बड़ा था. उस गंदे नाले के उस पार कौन लोग रहते हैं इस रहस्य को न तब किसी ने खोला और न आज तक हमें पता चल पाया. अजीब अजीब कल्पनाएँ मन में उठती थीं. नाले की विशालता देख कर हमारा बाल मन भयभीत हो जाया करता था. दोपहर को गेंद , गोते और कैरम खेलते और शाम को चाट पकौड़ी उड़ाते महिना कब गुजर जाता हमें पता ही नहीं लगता था. हमारे वापस जाने के दिन आ जाते और हमारे साथ सभी लोग उदास हो जाते . चाची हमारे साथ ढेरों समान बांध देती.
एक बार शशि दीदी ने जिद पकड़ ली की वे भी हमारे साथ अलीगढ जायेंगी. चाचा जी ने बहुत समझाया की तुम कभी घर से दूर नहीं रही हो तुम नहीं रह सकोगी. (हमारे अलीगढ के किराये के मकान और कोठी में बहुत अंतर था. ) पर हमारे साथ कुछ और दिन बिताने के लालच में वे बोली की मैं एडजस्ट कर लूंगी हम लोग अलीगढ आ गए . अलीगढ में हमारा मकान पहले माले पर था. दो कमरे और बीच में बड़ा सा आँगन आगन के दूसरे छोर पर टायलेट . सुबह जब उनको जाना था तो वे उसको देख कर डर गयी क्योंकि दिल्ली में तो पाश्चात्य टाइप का टायलेट था और अलीगढ में ऊपर के माले पर टायलेट के नाम पर एक छेद था और ग्राउंड फ्लोर पर एक छोटे से पतले से कमरे में एक बड़ा सा घड़ा रखा होता था. ग्राउंड फ्लोर के कमरे का दरवाजा गाली में खुलता था. और मेहतर हाथगाड़ी में मैला खाली करके ले जाते थे. लेकिन जब कोई उस शौच को इस्तेमाल करता था तो नीचे घड़े से इतनी जोर की आवाज आती थी जैसे कोई बम फूट रहा हो. शशि दीदी ने उसी दिन वापसी की गाड़ी पकड़ ली. ) ही ही ही ही ..........
ये यादें तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही हैं और मुझे तो कहीं न कहीं रुकना ही है न.................
गर्मियों की छुट्टियाँ और अपना बचपन (२०)
वाणी गीत :
शरारत मंहगी पड़ी
स्कूली बच्चों के लिए ग्रीष्म ऋतु का बड़ा आकर्षण स्कूल की लम्बी छुट्टियाँ हुआ करती है . ना सुबहजल्दी स्कूल जाने की किचकिच ,ना होम वर्क की टेंशन . खूब सारा खेलना ,टी वी देखना , कंप्यूटर पर गेम खेलना . भरीदुपहरी में कूलर या ए.सी. की ठंडी हवा में कलेजे तक ठंडी कुल्फियों के साथ आम ,खरबूजे और तरबूज के स्वाद का लुत्फ़फिर भी बच्चे और बड़े शिकायत करते मिल जायेंगे , उफ़ , कितनी गर्मी है .
हमलोगों के बचपन के उन दिनों में कूलर और ए. सी. हर घर की शोभा नहीं होते थे , ना ही टीवी और कंप्यूटर , ना कोईहौबी क्लास जाने की आवश्यकता और ना ही छुट्टियाँ मनाने हिल स्टशन जाने की रवायत ही थी .भरी गर्मी में पसीने सेतर खेलते रहने के कारण पूरे शरीर में अलाईओं के दाने से बेपरवाह बच्चों के लिए छुट्टियों में नानी या दादी का घर हीकिसी पर्वतीय स्थल से भी बड़ा आकर्षण हुआ करता था ...बच्चे पूछ लेते हैं कई बार , जब इतना कुछ नहीं होता था तोआप लोंग छुट्टियों में करते क्या थे . सोचा मैंने भी कि ढेर सारा खेलने के बाद भी गर्मी की दुपहरियां कितनी बड़ी लगतीथी .आज कल बच्चों से से पूछ लो तो झट कह देंगे ." दिन कितनी जल्दी दिन बीत जाता है ".
हमारी गर्मी की छुट्टियाँ बिहार , राजस्थान और आंध्रा के बीच झूलती रहती थी .भरी दुपहरी में माँ या दादी /नानी केआँख लगते ही चुपके से दरवाजे खोल कर निकल जाना और मित्र मंडली के साथ कॉलोनी के आम के पेड़ों से कच्चीअमिया तोड़ कर उन पर कई तरह के एक्सपेरिमेंट करना , कभी पना बना कर तो कभी पतली फांकों पर नमक लगा करचटखारे लेना , दांत खट्टे हो रहे हैं अभी तो सोच कर. कभी फालसे , शहतूत के पेड़ों के नीचे डेरा जमाना . राजस्थान मेंनानी के घर छुटियाँ बिताने जाते तो छाछ- राबड़ी छक कर बेरों की झाड़ियाँ हमारा निशाना बनती थी . राजस्थान में दिनकी भयंकर गर्मी में रेत जितनी तपती है , रात में उतनी ही ठंडी हो जाती है . ठंडी रातों में देर तक रेत के लड्डू या घरबनाने में महारत हासिल करते कौन किसी इन्जिनीअर से कम समझते रहे होंगे .
वहीं बिहार में कॉलोनी के बीचों बीच बना मिल मालिक के बंगले में लगे सुन्दर फूलों और फलों के पौधे /पेड हमें बहुतलुभाते थे ,जिसके गेट पर खड़ा सिक्योरिटी गार्ड हमें हमारा सबसे बड़ा दुश्मन नजर आता था . सायं- सांय करतीसुनसान दुपहरियों में जब सब बड़े मीठी नींद के झोंके ले रहे होते , हम हैरान होते कि इन गार्ड्स को नींद क्यों नहीं आती . जरा उसकी आँख चुके तो घुस जाएँ बंगले में , और हनुमान जी के समान अशोक वाटिका के फूलों और फलों का सौन्दर्यआँखों और जीभ तक गटक लें . इन दुपहरियों में सारे बच्चे मिलकर कभी गुड्डे- गुड़ियों की शादी रचाते तो कभीरामलीला का नाटक खेलते. अब नहीं दिखते हैं कभी भी बच्चे इस तरह खेलते .
एक दुपहरी में भी ऐसे ही आँख बचाकर निकले घर से फालसों के पेड़ों को निशाना बनाने . छोटी चंचल बहन भी साथ थी . एक पेड के नीचे काला कुत्ता सुस्ता रहा था . छुटकी ने आव देखा ना ताव , घर के बाहर लगी हेज़ से तोड़ी एक डाल औरउसके कान में घुसा दी . कुत्ते को अपनी नींद में व्यवधान बर्दाश्त नहीं हुआ , उसने छुटकी के पंजे में अपने पूरे दांत गडादिए . हम छोटे बच्चों का उस कुत्ते से उसका हाथ छुडाना बड़ा मुश्किल हो गया . छुटकी के रोने और हमारे चीखने कीआवाज़ सुन कर गार्ड दौड़ा और बड़ी मुश्किल से उसका हाथ छुड़ाया , मगर जब तक कुत्ते महाशय उसकी हथेली में चारदांत आर- पार कर चुके थे और दर्द और दहशत से छुटकी बेहोश हो चुकी थी . हमारा दुश्मन देवदूत ही नजर आ रहा थाउस समय . जल्दी से मम्मी और पापा को खबर की . उन दिनों उस छोटे कस्बे में चिकित्सा सुविधाएँ इतनी नहीं थी , फटाफट हलकी ड्रेसिंग कर छुटकी को गाडी में लेकर पास के बड़े कस्बे में डॉक्टर के पास ले जाया गया .उस दिन माँ सेपड़े चांटे और भगवान् के सामने मत्था टेकती छुटकी के ठीक हो जाने की फ़रियाद करती माँ आज भी अच्छी तरह याद हैछुटकी के पेट में चौदह बड़े इंजेक्शन और उसके लिए अपने आपको कुसूरवार मानते हम भाई -बहन , नतीजन कुछदिनों तक डरते सहमते गर्मी की छुटियाँ घर में कैद हो कर बिताने को मजबूर होना पड़ा . , .