२२ सितम्बर कैंसर से जीतने की हिम्मत रखने वालों के लिए एक दिन - उस पर एक हिम्मतवाले इंसान से परिचय।
कैंसर एक ऐसा रोग जिसके बारे में पता चलते ही उससे पीड़ित और उसके घर वाले मानसिक तौर पर टूटजाते हें और उन्हें सिर्फ मौत सामने दिखलाई देती है। जब इंसान अन्दर से टूट जाता है तो फिर उसके और उसकेघर वालों को उसके लिए एक दृढ इच्छाशक्ति बनाये रखने में सहयोग देना चाहिए। भय का भूत ही इंसान कोकमजोर कर देता है।
इस रोग से लड़ते हुए एक इंसान को मैं पिछले १० सालों से देख रही हूँ और वह इंसान कोई और नहींमेरे बॉस हें। बहुत साल पहले जब वे मेरे बॉस नहीं थे तब उन्हें आँतों में कैंसर हुए था और उससे लड़े और मुक्तहोकर वापस लौटे और पहले की तरह से अपनी क्लास और प्रोजेक्ट का काम संभाल लिया। दुबारा उन्हें गले मेंकैंसर हुआ और वह कई महीनों तक बिस्तर पर रहे, अपनी पूरी जिजीविषा से उससे लड़ते रहे और फिर उसकोअपना गुलाम बना लिया । जब वे लौट कर आये तो उन्हें अधिक बोलने से मना किया गया था लेकिन उस समयप्रोजेक्ट की conference चल रही थी। उन्होंने सभी मेहमानों का स्वागत किया । फिर धीरे धीरे खुद को इस काबिलबना लिया। खाना पीना एकदम से प्रतिबंधित और काम के घंटे उतने ही। अपनी षष्ठी पूर्ति के बाद भी वे काम केघंटे उतने ही बनाये हुए हें। आई आई टी में सिर्फ एक विभाग नहीं बल्कि कंप्यूटर साइंस और इलेक्ट्रिकलइंजीनियरिंग दोनों विभागों में प्रोफेसर का काम देख रहे थे । आज भी उनके काम करने और करवाने की लगन देखकर लगता है कि कोई कह नहीं सकता कि ये इंसान कैंसर से लड़कर अपनी इच्छाशक्ति के बल पर ही मशीनअनुवाद में विश्व स्तर पर अपना अलग स्थान बनाये हुए है।
ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जब भी और जहाँ भी ये अनुभव होता है कि इसको तो सबसे बांटने और पूछने का विषय है, सब में बाँट लेने से कुछ और ही परिणाम और हल मिल जाते हैं. एकस्वस्थ्य समाज कि परंपरा को निरंतर चलाते रहने में एक कण का क्या उपयोग हो सकता है ? ये तो मैं नहीं जानती लेकिन चुप नहीं रहा जा सकता है.
बुधवार, 21 सितंबर 2011
बुधवार, 14 सितंबर 2011
हिंदी के आँगन में - विदेशी फुलवा !
आज हिंदी दिवस है क्योंकि इसको संविधान में १४ सितम्बर १९४९ को sअम्वैधानिक रूप से राजभाषा घोषित किया गया था। संविधान के अनुच्छेद ३४३ के अंतर्गत यह प्राविधान किया गया है कि देवनागरी लिपि के साथ भारत की राजभाषा hogi ।
हमारे राजनेता बात बात में संविधान की दुहाई देते हें कि ये करना संविधान की अवमानना होगी. हमारे कितने राजनेता राजभाषा को सम्मान देते हें अगर नहीं देते हें तो unake लिए कोई दंड क्यों नहीं है? वे दशकों से संसद में जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हें और उन्हें हिंदी बोलना नहीं आता और जिन्हें आता भी है वे उसको बोलने में अपने पिछड़ा हुआ नहीं कहलाना चाहते हें. माननीय प्रधानमंत्री जी अपने वक्तव्य अंग्रेजी में देते हें , kya उन्हें हिंदी बिल्कुल नहीं आती उनसे बेहतर तो उनकी पार्टी की अध्यक्षा हें जो विदेशी मूल की होते हुए भी हिंदी बोलना सीखी और जब भी जनता ke बीच होती हें तो हिंदी बोलती हें.
आज अंग्रेजी की महत्ता को इतना बढ़ा दिया गया है कि एक ऑफिस का चपरासी बच्चे को अंग्रेजी मध्यम के स्कूल में ही पढ़ना चाहता है चाहे खुद उसकी किताबों में कुछ भी न जानता हो लेकिन बच्चे को अंग्रेजी के चार शब्द बोलता हुआ देख कर फूला नहीं समाता है. ये है हमारी मानसिक गुलामी की हदें. फिर पढ़े लिखे भी अगर अंग्रेजी कमजोर है तो उसके लिए स्पीकिंग कोर्स ज्वाइन करवा देंगे लेकिन हिंदी में फेल भी तो कोई चिंता नहीं है. जब आम आदमी की सोच ये है तो फिर दूसरे क्यों न हिंदी बोलने पर हँसेंगे? कहीं हमने kisi भी राज्य में हिंदी स्पीकिंग कोर्स चलाते नहीं देखा. इस बात को मानती हूँ कि अब कुछ हद तक हिंदी की पैठ विभिन्न संस्थानों में बढती जा रही है. इस दिवस को रोज ही हिंदी दिवस समझ कर माना जाना चाहिए. सविधान की सिफारिस को प्राथमिकता अभी भी उस रूप में नहीं दी जा रही है जिस रूप में संविधान निर्माताओं ने चाहा था.
हमारे राजनेता बात बात में संविधान की दुहाई देते हें कि ये करना संविधान की अवमानना होगी. हमारे कितने राजनेता राजभाषा को सम्मान देते हें अगर नहीं देते हें तो unake लिए कोई दंड क्यों नहीं है? वे दशकों से संसद में जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हें और उन्हें हिंदी बोलना नहीं आता और जिन्हें आता भी है वे उसको बोलने में अपने पिछड़ा हुआ नहीं कहलाना चाहते हें. माननीय प्रधानमंत्री जी अपने वक्तव्य अंग्रेजी में देते हें , kya उन्हें हिंदी बिल्कुल नहीं आती उनसे बेहतर तो उनकी पार्टी की अध्यक्षा हें जो विदेशी मूल की होते हुए भी हिंदी बोलना सीखी और जब भी जनता ke बीच होती हें तो हिंदी बोलती हें.
आज अंग्रेजी की महत्ता को इतना बढ़ा दिया गया है कि एक ऑफिस का चपरासी बच्चे को अंग्रेजी मध्यम के स्कूल में ही पढ़ना चाहता है चाहे खुद उसकी किताबों में कुछ भी न जानता हो लेकिन बच्चे को अंग्रेजी के चार शब्द बोलता हुआ देख कर फूला नहीं समाता है. ये है हमारी मानसिक गुलामी की हदें. फिर पढ़े लिखे भी अगर अंग्रेजी कमजोर है तो उसके लिए स्पीकिंग कोर्स ज्वाइन करवा देंगे लेकिन हिंदी में फेल भी तो कोई चिंता नहीं है. जब आम आदमी की सोच ये है तो फिर दूसरे क्यों न हिंदी बोलने पर हँसेंगे? कहीं हमने kisi भी राज्य में हिंदी स्पीकिंग कोर्स चलाते नहीं देखा. इस बात को मानती हूँ कि अब कुछ हद तक हिंदी की पैठ विभिन्न संस्थानों में बढती जा रही है. इस दिवस को रोज ही हिंदी दिवस समझ कर माना जाना चाहिए. सविधान की सिफारिस को प्राथमिकता अभी भी उस रूप में नहीं दी जा रही है जिस रूप में संविधान निर्माताओं ने चाहा था.
शनिवार, 10 सितंबर 2011
मंत्रीजी के कथन पर !
माननीय गृहमंत्री महोदय अपनी कुर्सी पर फेविकोल नहीं बल्कि फेविक्विक लगाकर चिपके रहना चाहते हैं और अपने विभाग की नैतिक जिम्मेदारी लेने के स्थान पर यह वक्तव्य .दे रहे हैं कि 'हर आतंकी हमले को रोका नहीं जा सकता।' मंत्री महोदय कृपया यह बताएं कि कितने हमले रोके गए हैं? देश के सारे मंत्रालय अपने कार्य को इतनी जिम्मेदारी से सम्पादित कर रहे हैं कि उसी के एवज में अन्ना की पर पूरा देश उठकर खड़ा हो गया और फिर भी सरकार अपने प्रति जनता के अविश्वास का अक्श देख कर भी अनजान बनी हुई है।
आतकी हमलों को रोकने की बात तो बहुत बादi में आती है , आज तक किसी भी हमले की गुत्थी को तो सुलझाया नहीं जा सका है। आतंकी हमलों को रोकने की कोई जरूरत ही नहीं है क्योंकि इससे देश की आबादी अपने आप काम हो रही है, आतंकियों को अगर पकड़ भी लेंगे तो उन्हें सुरक्षित और शानदार जीवन देने का बीमा तो आपके विभाग ने कर रखा है। अगर अदालत किसी प्रकार से इनपर अपना फैसला सुना भी देती है तो
फिर फाइल तो आपके मंत्रालय में दबा कर रखी जानी है। आपको इन्तजार होता किसी कंधार काण्ड का जिससेa कि उसे सुलझा कर आप देश के नाम पर खुद कलंक बन जाएँ। नहीं तो फाइल तब तक दबी रहेगी जब तक कि आतंकवादी जीवनदान के अधिकारी न बन जाएँ। अधिक समय होने पर राजीव गाँधी के हत्यारों की तरह से तमिलनाडु विधायिका उनके जीवनदान के लिए सिफारिश करने लगी है तो कल इनको भी कोई न कोई पैरोकार मिल ही जाएगा। हमले में हें रिक्शेवाले, फलवाले और आम आदमी - कभी कोई मंत्री या नेता भी मरा है?
आतकी हमलों को रोकने की बात तो बहुत बादi में आती है , आज तक किसी भी हमले की गुत्थी को तो सुलझाया नहीं जा सका है। आतंकी हमलों को रोकने की कोई जरूरत ही नहीं है क्योंकि इससे देश की आबादी अपने आप काम हो रही है, आतंकियों को अगर पकड़ भी लेंगे तो उन्हें सुरक्षित और शानदार जीवन देने का बीमा तो आपके विभाग ने कर रखा है। अगर अदालत किसी प्रकार से इनपर अपना फैसला सुना भी देती है तो
फिर फाइल तो आपके मंत्रालय में दबा कर रखी जानी है। आपको इन्तजार होता किसी कंधार काण्ड का जिससेa कि उसे सुलझा कर आप देश के नाम पर खुद कलंक बन जाएँ। नहीं तो फाइल तब तक दबी रहेगी जब तक कि आतंकवादी जीवनदान के अधिकारी न बन जाएँ। अधिक समय होने पर राजीव गाँधी के हत्यारों की तरह से तमिलनाडु विधायिका उनके जीवनदान के लिए सिफारिश करने लगी है तो कल इनको भी कोई न कोई पैरोकार मिल ही जाएगा। हमले में हें रिक्शेवाले, फलवाले और आम आदमी - कभी कोई मंत्री या नेता भी मरा है?
ये मरेंगे ही क्यों? क्योंकि बाहर रहे तो उनके आका हैं ही उनके लिए और अगर पकड़ भी गए तो सरकारी मेहमान बनकर जीना भी काम आरामदायक नहीं है. देश के आम आदमी से अधिक सुख -सुविधापूर्ण जीवन उनको दिया जाता है , इसलिए मंत्री जी बोलने से पहले सोच लीजिये कि ऐसा वक्तव्य किसी मंत्री को शोभा नहीं .