आज के युवा जो अपने भविष्य निर्माण के लिए पढ़ रहे हें और माँ बाप जिन्हें अपने घर गाँव से दूर , चाहे वे खुद नमक रोटी खा लें लेकिन बेटे के लिए खर्च पूरा ही भेजना पड़ेगा उसे कोई कमी न हो, वे मेहनत कर सकते हें और अपने खर्चों में कटौती कर सकते हें लेकिन बेटे की पहरेदारी नहीं कर सकते हें । आज ही जब अखबार में पढ़ा कि एक ट्रक को लूटकर उसके ड्राइवर और क्लीनर को बाँध कर फ़ेंक दिया और ट्रक में लदे माल को बेचने के बाद भी वह लुटेरों का गैंग पकड़ा गया। ये एक महज खबर समझ कर पढ़ ली गयी लेकिन उन माँ बाप की स्थिति को किसी ने सोचा जो गाँव से बच्चे को पढ़ाई के लिए पैसे भेज रहे हें। कोई इंजीनिरिंग पढ़ने के लिए आया है, कोई मेडिकल के तैयारी कर रहा है और कोई पोलिटेक्निक कर रहा है। सारे बच्चे १८ -२२ वर्ष के बीच के हें। ये समस्या उनकी है जिनके बच्चे हें , इसके बारे में समाज की दृष्टि से सोचने के लिए किसी के पास समय कहाँ है? इसके कारणों को खोजने की जरूरत कहाँ हें? पुलिस ने पकड़ लिया और जेल भेज दिया अब घर वाले करते रहें उनके लिए भाग दौड़।
इसको अगर हम समाज की दृष्टि से देखें तो शायद बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा से ही नैतिक शिक्षा और उनके मनोवैज्ञानिक विकास के दिशा निर्देश कहीं नहीं मिलता है। ये बच्चे क्यों भटक जाते हें? सिर्फ यही क्यों आज कल तो बाइक पर सवार बगल से गुजरने वाले हर लड़के को देख कर डर लगता है कि पता नहीं कब से पर्स छीन लें या फिर धक्का देकर कान की बाली या जंजीर छीन कर भागते बने। वैसे अब ये तो फैशन में शामिल हो चुका है कि बच्चों को बाइक लेना माता पिता के सामाजिक स्तर को बढ़ाने में सहायक होता है और बच्चे क्या करते हें?
मेरी एक परिचित विधवा हें - बच्चे किशोर भी नहीं थे कि उनके पति का आकस्मिक निधन हो गया। पति की नौकरी उन्हें नहीं मिली और बच्चे इतने छोटे थे कि उनको भी नौकरी नहीं मिल सकती थी। उन्हें पेंशन मिल रही है। किसी तरह से बेटे को इंटर तक पढ़ाया फिर जैसा कि आज कल ट्रेंड बन चुका है उसको इंजीनियरिंग ही करनी थी बगैर ये देखे कि हमारे बच्चे में कितनी क्षमता है? कम्पटीशन में उन्हें कहीं भी आना ही नहीं था। सो रेंक इतनी दूर थी कि सोचा नहीं जा सकता था कि कहीं एडमिशन हो सके फिर सोचा कि कानपुर में ही किसी प्राइवेट कॉलेज में करवा दें ताकि घर में रह कर पढ़ाई होती रहे। उसने ऐलान कर दिया कि जहाँ दोस्त पढेंगे वहीं पढ़ेगा अगर यहाँ एडमिशन करवाया तो वह पढ़ेगा ही नहीं। बागी तेवर देख कर माँ ने बगैर किसी की सलाह के उसको भोपाल में एडमिशन करवा दिया। वह भी डोनेशन के साथ। पिछले दो साल में उसकी सिर्फ बैक ही आई एक भी सेमेस्टर उसने पास नहीं किया। वह विधवा माँ इस आशा में पैसे दे रही है कि दो साल बाद उसका बेटा कमाने लगेगा।
इस प्रकार की परिस्थितियां ही बच्चों को अपने रास्ते से भटका देती हें। इसके सिर्फ वे ही जिम्मेदार हों ऐसा नहीं है बल्कि इसके उनकी शिक्षा , अभिभावकों का बच्चे की क्षमता का न पहचानना, शिक्षा का स्तर और शिक्षकों का अपने दायित्वों के प्रति लापरवाही।
शिक्षा में आरम्भ से ही नैतिक शिक्षा और उनके मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के लिए शिक्षक की नियुक्ति होनी चाहिए। आज कल तो प्राथमिक शिक्षा के लिए भी उच्च शिक्षित शिक्षक उपलब्ध हें। अगर समाज के इस स्वरूप पर अंकुश लगाना है तो इस काम को प्राथमिक स्तर से ही सुधरा जाना आवश्यक है ताकि उनकी नीव में ही नैतिकता, आत्म संयम का विकास किया जा सके। हम कितने ही प्रगतिशील हो जाएँ, आधुनिकता की कितनी सीढियां चढ़ लें लेकिन नैतिक मूल्यों के महत्व को नकार नहीं सकते हें। जीवन जो हमें समाज में ही जीना है उसके मूल्यों का पालन करना है और नहीं करना है तो फिर हम खुद को भले ही एक सफल मानव समझ लें लेकिन ऐसा किसी भी दृष्टि से संभव नहीं है।
अपने बच्चों को बाहर पढ़ाने के लिए भेज कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं समझनी चाहिए , बच्चों के कॉलेज में जाकर उसके शिक्षकों से मिल कर उसके बारे में जानकारी लेना भी उतना ही जरूरी होता है जितना कि उनको हर महीने पैसा भेजना। उनके भटकते हुए कदमों को थामा जा सकता है उनके दलदल में फँसने से पहले। सिर्फ अभिभावक ही नहीं शिक्षकों और संस्थान को भी उनके भविष्य के प्रति सचेत रहना होगा क्योंकि फीस लेने के बाद उनके बारे में वे भी जिम्मेदार होते हें। उनका अपने छात्र से रिश्ता सिर्फ उसकी फीस या फिर क्लास लेने तक ही नहीं होता है बल्कि उसके भविष्य के साथ भी जुड़ा होता है।
शिक्षक कहते हें कि पहले की तरह से बच्चे नहीं रह गए हें लेकिन क्या शिक्षक भी पहले की तरह से रह गए हें। अगर पहले की तरह से अनुशासन वाले हें तो फिर वे सभी लोगों के बीच टिक नहीं सकते हें। सभी एक जैसे नहीं होते न छात्र और न ही शिक्षक। देश जिनके बल पर प्रगति कर रहा है वे भी बच्चे ही हें और अपनी मेधा से आगे बढ़ गए लेकिन हर बच्चा एक जैसा नहीं होता तो हमारे लिए समस्या है ऐसे मध्यम स्तर के बच्चों की जिन्हें भटकने में देर नहीं लगती है और ऐसे ही बच्चों के लिए हर विद्यालय में शिक्षा के मानक इस तरह के हों कि बच्चे एक जिम्मेदार इंसान और नागरिक बन सकें।
पता नहीं देश की ऊर्जा किस ओर भागी जा रही है..
जवाब देंहटाएंअपने बच्चों को बाहर पढ़ाने के लिए भेज कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं समझनी चाहिए , बच्चों के कॉलेज में जाकर उसके शिक्षकों से मिल कर उसके बारे में जानकारी लेना भी उतना ही जरूरी होता है जितना कि उनको हर महीने पैसा भेजना।
जवाब देंहटाएं.... इस बात को कई अभिवावक गंभीरता से नहीं लेना चाहते ... मेरे पास एक लड़की रहती थी ... गार्जियन ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि मैं कौन हूँ , कैसी हूँ ! मजेदार बात ये कि मैंने अपने बच्चों की तरह अनुशासन में रखा तो उसकी माँ ना उसे दूसरी जगह भेज दिया ये कहकर कि आजकल के बच्चे स्वतंत्रता तो चाहते ही हैं ...
एक दम सही कहा आपने चाहे हम कितनी भी प्रगति क्यूँ ना करलें नैतिक मूल्यों को भूलाया नहीं जा सकता। बाकी तो आप खुद ही बहुत अनुभवि हैं और आपकी तुलना में मेरा अनुभव कुछ भी नहीं, किन्तु फिर भी मेरी ऐसी सोच है कि बच्चों को शुरू से ही घर परिवार में ऐसा माहौल मिलना चाहिए जिसके अनुसार वो आगे जाकर अच्छे और बुरे में फर्क कर सके। सही और गलत का निर्णय खुद ले सके। क्यूंकि यदि शुरू से ही बच्चा ऐसे माहौल में पालेगा और बड़ा होगा तो फिर आगे जाकर वो दुनिया के किसी कोने में भी क्यूँ ना रहे उसके नैतिक मूल्य उसे कभी रहा भटकने नहीं देंगे।
जवाब देंहटाएंइसका जीता जाता प्रमाण मेरे लिए मेरे पति है 12th के बाद से ही उन्होने अपने एंजिनियरिंग की पढ़ाई घर छोड़कर बाहर रहकर ही की मगर न तो वो बिगड़े, ना ही उनके कोई ऐसे दोस्त ही हैं जिनके बारे में मैंने कभी कुछ कभी ऐसा सुना हो...
आपका कहना सही है मगर जब बडों मे ही नैतिकता खत्म हो गयी तो बच्चों को कहां से देंगे और फिर अनहोनी हो जाती है तो सिर्फ़ कोसना जानते हैं ………ये हो गया है आज के समाज का रूप जब तक गंभीरता से नही सोचेंगे और कदम नही उठायेंगे ऐसा होता ही रहेगा।
जवाब देंहटाएंगंभीर चिंतन का विषय।
जवाब देंहटाएंसमाज की दिशा ही बदल गयी है। सभी व्यक्तिगत होते जा रहे हैं। मर्यादाएं और नैतिकता तो कहीं दिखायी देती नहीं तब ऐसा ही होगा।
जवाब देंहटाएंभावी पीढ़ी के लिए सार्थक चिंतन. समझ में नहीं आ रहा कि विकास को कैसे परिभाषित करें.संस्कार, मर्यादा ,नैतिकता को तो दकियानूसी विचार समझा जा रहा है
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