कुछ लिखने का मन हुआ और फिर आज कल 27 अगस्त को हुए परिकल्पना द्वारा संचालित ब्लोगर मीट के विषय में चर्चा गर्म है . हम तो उसमें गए नहीं या नहीं जा पाए लेकिन कुछ ऐसा महसूस किया कि जो अपनी कलम से ऊँचाइयों को छू चुके हैं अगर उन्हें बार बार सम्मानित किया भी जाए तो वे उस स्थिति तक पहुँच चुके हैं कि किसी परिचय या सम्मान के मुंहताज नहीं है। अपने हाथ से अपने ही मस्तक पर तिलक लगाने से जो सम्मान होता है वह आत्ममुग्ध होने के लिए तो ठीक है लेकिन कहीं न कहीं आलोचना का विषय बन जाता है। इससे बेहतर तो होता कि नवोदित लोगों को पुरस्कृत किया जाए तो विचारों की नयी और ऊँची उड़ान और ऊँची जायेगी . वरिष्ठों को ख़ुशी होती है .
वैसे घटना को इससे सम्बंधित ही लिखने जा रही हूँ। कैसे अपने सम्मान को बनाये रखते हुए लोग अपने बच्चों को लाभान्वित करते रहते हैं वैसे ये गलत है लेकिन अपनी अपनी सोच है। आज वे नहीं है जिनके विषय में मैं लिख रही हूँ। मैंने जब 1986 में आई आई टी ज्वाइन किया था तो उनके साथ ही काम शुरू किया था . वे समाजशास्त्र विषय के वरिष्ठ प्रोफ़ेसर थे। उनकी टीम में 3 महिलायें थी। सिर्फ तीन ही थे हम। जिनमें एक उनकी विवाहिता पुत्री थी, जो दो बच्चों की माँ थी और एक गृहिणी मात्र थी। । दो हम और थे। पुत्री उनकी कभी ससुराल और कभी यहाँ बस उनकी नौकरी इसलिए चल रही थी क्योंकि उनकी बेटी ही थी। हम लोग तो नियमित काम करने वाले थे। काम करने के दौरान ही एक काम और सामने आने लगा कुछ अन्य विषय की प्रश्नावली भी हम लोगों को भरने के लिए दी जाने लगी और फिर उनका मूल्याङ्कन। जिस विषय पर आई आई टी का प्रोजेक्ट था वह अलग ही था।
उनमें मैं ही एक मात्र थी जिसने रिसर्च में विशेष अध्ययन किया हुआ था . आखिर एक दिन उन्होंने ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और बोले - 'देखिये मैं आपको बता दूं, ये दूसरी प्रश्नावली नीलम की
पी एच डी के लिए भरवा रहा हूँ। मैं सोचता हूँ कि मुझे तो जो बनना था मैं बन चुका अब मैं चार छः पेपर और पब्लिश करवा ही लूँगा तो मुझे कौन सा नया इन्क्रीमेंट मिलने वाला है। मैं अपनी सेलरी की हाईट तक पहुँच गया तो फिर क्यों न अपना समय और मेहनत को अपने बच्चों के लिए प्रयोग करूं तो उनका भी भविष्य बन जाएगा . उन्होंने अपने दोनों बेटियों की थीसिस खुद लिखी और लिखी क्या अपनी एक किताब से विषय लेकर उसको कानपूर विश्वविद्यालय में रजिस्टर करवा कर डिग्री अवार्ड करवा ली और फिर दोनों बेटियां डॉ बन गयी। दूसरी तो इसके लिए डिजर्व करती थी और आज वह एक डिग्री कॉलेज में प्रोफेसर है। लेकिन बड़ी बेटी तो एकदम से घरेलु थी और उसका डॉ होना उचित भी नहीं लगा। हो सकता है की वह भी कहीं डिग्री कॉलेज की शोभा बढ़ा रही हों। । ये काम तो गलत था लेकिन इसमें सन्देश था कि ऊँचाइयों के छू लेने के बाद अगर उसे सम्मान मिलता भी रहे तो उसके लिए उसकी कोई कीमत नहीं होती लेकिन अगर ये नए लोगों को मिले तो उनमें नयी उर्जा और उत्साह भरेगा .
वैसे घटना को इससे सम्बंधित ही लिखने जा रही हूँ। कैसे अपने सम्मान को बनाये रखते हुए लोग अपने बच्चों को लाभान्वित करते रहते हैं वैसे ये गलत है लेकिन अपनी अपनी सोच है। आज वे नहीं है जिनके विषय में मैं लिख रही हूँ। मैंने जब 1986 में आई आई टी ज्वाइन किया था तो उनके साथ ही काम शुरू किया था . वे समाजशास्त्र विषय के वरिष्ठ प्रोफ़ेसर थे। उनकी टीम में 3 महिलायें थी। सिर्फ तीन ही थे हम। जिनमें एक उनकी विवाहिता पुत्री थी, जो दो बच्चों की माँ थी और एक गृहिणी मात्र थी। । दो हम और थे। पुत्री उनकी कभी ससुराल और कभी यहाँ बस उनकी नौकरी इसलिए चल रही थी क्योंकि उनकी बेटी ही थी। हम लोग तो नियमित काम करने वाले थे। काम करने के दौरान ही एक काम और सामने आने लगा कुछ अन्य विषय की प्रश्नावली भी हम लोगों को भरने के लिए दी जाने लगी और फिर उनका मूल्याङ्कन। जिस विषय पर आई आई टी का प्रोजेक्ट था वह अलग ही था।
उनमें मैं ही एक मात्र थी जिसने रिसर्च में विशेष अध्ययन किया हुआ था . आखिर एक दिन उन्होंने ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और बोले - 'देखिये मैं आपको बता दूं, ये दूसरी प्रश्नावली नीलम की
पी एच डी के लिए भरवा रहा हूँ। मैं सोचता हूँ कि मुझे तो जो बनना था मैं बन चुका अब मैं चार छः पेपर और पब्लिश करवा ही लूँगा तो मुझे कौन सा नया इन्क्रीमेंट मिलने वाला है। मैं अपनी सेलरी की हाईट तक पहुँच गया तो फिर क्यों न अपना समय और मेहनत को अपने बच्चों के लिए प्रयोग करूं तो उनका भी भविष्य बन जाएगा . उन्होंने अपने दोनों बेटियों की थीसिस खुद लिखी और लिखी क्या अपनी एक किताब से विषय लेकर उसको कानपूर विश्वविद्यालय में रजिस्टर करवा कर डिग्री अवार्ड करवा ली और फिर दोनों बेटियां डॉ बन गयी। दूसरी तो इसके लिए डिजर्व करती थी और आज वह एक डिग्री कॉलेज में प्रोफेसर है। लेकिन बड़ी बेटी तो एकदम से घरेलु थी और उसका डॉ होना उचित भी नहीं लगा। हो सकता है की वह भी कहीं डिग्री कॉलेज की शोभा बढ़ा रही हों। । ये काम तो गलत था लेकिन इसमें सन्देश था कि ऊँचाइयों के छू लेने के बाद अगर उसे सम्मान मिलता भी रहे तो उसके लिए उसकी कोई कीमत नहीं होती लेकिन अगर ये नए लोगों को मिले तो उनमें नयी उर्जा और उत्साह भरेगा .