बुधवार, 18 सितंबर 2024

श्राद्ध और श्रद्धा !

 

                   श्राद्ध और श्रद्धा !

 

                                   हर बार श्राद्ध के पंद्रह दिनों में खूब चर्चा होती है कि जीते जी माता-पिता की सेवा कर लेनी चाहिए फिर श्राद्ध का कोई महत्व नहीं है। ऐसा नहीं है, ये पंद्रह दिन अगर शास्त्रों में विशिष्ट माने गए हैं तो हैं, कितने माता-पिता संतान को बचपन में ही छोड़कर चले जाते हैं तो क्या उनका श्राद्ध ही होना चाहिए क्योंकि बच्चे सेवा कर ही नहीं पाते हैं।

                                 श्राद्ध के इन दिनों की आलोचना किसी भी रूप में हो, होती जरूर है और  करने वाले होते हैं वही जिनके मत में श्राद्ध को महत्व दिया जाता है। ये आलोचना क्यों? जो करता है अपनी श्रद्धा और विश्वास के साथ , आप नहीं करते हैं तो मत करिये और मत मानिये। ये अवश्य है कि जो जीते जी माता-पिता को सम्मान न दे पाया, सेवा का मौका तो बहुत बाद में आता है,  उसको न श्राद्ध करने की जरूरत है और न ही आलोचना करने की। ये उनके कर्म हैं कि उन्होंने ऐसी संतान को जन्म दिया। 

                               पुनर्जन्म के बाद भी आत्माएँ श्राद्ध कर्मों का फल पाती हैं। हर आत्मा को जन्म भी अपने कर्मो के अनुसार मिलता है। मनुष्य योनि सबको मिले जरूरी नहीं है, फिर इस जन्म में अगर उनके अंश श्राद्ध करते हैं और वह जिस भी योनि में हों उनको भोजन मिलता है। अगर नहीं मिलता होता तो ये परम्पराएँ यूँ ही न बनी रहती। इसकी मैं खुद अनुभवी हूँ कि पितृ होते हैं और अपनी संतान से कुछ चाहते हैं। अनुभव फिर शेयर करूँगी। इतने विश्वास के साथ इसीलिए लिख रही हूँ।

                              पूर्वजों के लिए हर धर्म और मत में एक दिन या कई दिन निश्चित होते हैं। अगर पूर्वजों की आत्मा का अस्तित्व न होता तो फिर वे क्यों ? हाँ तरीका सबका अलग अलग होता है। ईसाई धर्म में " SOUL'S DAY" मनाते हैं किस लिए अपने पूर्वजों के सम्मान में या याद में। उनका अस्तित्व वे भी स्वीकार करते हैं। 

                              इस्लाम में भी एक दिन ऐसा होता है जबकि "शब-ए -बारात" ऐसा ही मौका होता है , जबकि सब लोग अपने पूर्वजों की कब्र पर जाकर रौशनी करते हैं और घर में पकवान बना कर उनको अर्पित करने की भावना से सबको खिलाते हैं और बाँटते भी हैं। पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ ये काम किया जाता है लेकिन कभी भी उन सबके बीच इस पर टीका टिपण्णी या आलोचना नहीं होती है। 

                              अगर किसी को श्रद्धा और विश्वास नहीं है तो आप मत कीजिये लेकिन आलोचना, ब्राह्मणों पर लांछन या फिर लूटने जैसे आरोप मत लगाइये। आप अपनी श्रद्धा से जो भी दान कर सकते हैं और कितने तो अपनी सामर्थ्य के अनुसार सिर्फ "सीधा" जिसे कहते हैं वह निश्चित तिथि पर निकाल कर दान कर देते हैं। कौन कहता है कि आप पूरी दावत कीजिये। 

                            भगवन के लिए आलोचना मत कीजिये। सब अपने अपने विचार और मत के अनुसार काम करिये और करने दीजिये।

शनिवार, 14 सितंबर 2024

हिन्दी का स्वरूप !

                     

                                                  हिन्दी  का स्वरूप !  

 

              हिन्दी दिवस पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है और शायद इसी विषय में हम भी लिखने जा रहे हैं। बात वही है कि हिंदी के अस्तित्व को किस तरह बचा सकते हैं। जो प्रयास सरकारी तौर पर किये जा सकते हैं वे तो फाइलों और दस्तावेजों की शोभा बढ़ा रहे हैं।  ऐसा नहीं है कि सब जगह मात्र फाइलों में ही दबे पड़े हों, फिर भी बहुत सारे क्षेत्रों में इसको प्राथमिकता दी जा रही है और प्रगति भी हो रही है, लेकिन इसके स्वरूप को भी हम ही संरक्षित कर सकते हैं। देवनागरी में  के हिन्दी अतिरिक्त और भी कई भाषाएँ और बोलियाँ  भी हैं, जिनके अस्तित्व के लिए भी संघर्ष अभी जारी है और शायद जारी रहेगा भी। 

                         एक सबसे अलग मुहिम जो हमें जारी रखनी है, वह है हिंदी भाषा के स्वरूप के लिए लड़ाई। ये मेरा अपना व्यक्तिगत विचार भी हो सकता है लेकिन ये स्वरूप हम से ही रचा जाता है, भले ही इसका उद्गम संस्कृत से हुआ हो लेकिन संस्कृत से ही इसकी व्याकरण भी ली गयी है और उसके स्वरूप को निश्चित किया गया है। जब हम कागज़ और कलम से लिखते थे तब भी यही भाषा थी और आज भी वही भाषा है।  अगर बदला है तो सिर्फ इतना कि हमने कागज़ कलम की जगह पर कम्प्यूटर को अपने लेखन का साधन बना लिया है। इसके लिए कंप्यूटर को भी बहुत कुछ सिखाया गया है , भले ही सिखाने वाले हम ही हैं। हमने रोमन से देवनागरी को लिखने का एक सशक्त तरीका चुन लिया है। अपनी सुविधाओं के अनुसार हम इसके स्वरूप को बदलने लगे और फिर कहने लगे कि यही हमें कंप्यूटर से मिलता है। 

                      आज जो चलन है वह सदियों पहले नहीं था। साहित्य अकादमी पुरस्कार आरम्भ हुए १९५५ से और आज तक मिल रहे हैं। वे श्रेष्ठ सृजन के लिए ही दिए गए हैं, लेकिन धीरे धीरे साहित्य में हम भाषा के मानकों को पूर्ण करते आ रहे हैं ऐसा कह नहीं सकते हैं, हाँ इतना जरूर है कि जितना हम हिंदी में व्याकरण के साथ शिथिलता बरतने लगे हैं क्योंकि अब हमें सुविधा अधिक दिखलायी देती है और उसी के अनुरूप हम उसको स्वीकार करने लगे हैं।  रही सही कसर तो मोबाइल ने पूरी कर दी है क्योंकि उसके की पैड के अनुसार ही हमें शब्दों का सृजन उचित लगने लगा है। 

                    एक बार नहीं बल्कि हर बार देखती हूँ कि पत्रिका के विषय में हर बार लिखा जाता है कि वर्तनी सम्बन्धी त्रुटियों का विशेष ध्यान रखें। फिर भी हर जगह ये त्रुटियांँ नजर आ ही जाती हैं। हम लिखने वाले तो ये कर भी सकते हैं लेकिन क्या संपादक मंडल या विभाग इस बात को जरा सा भी तवज्जो नहीं देता है कि पत्रिका या पुरस्कृत पुस्तक में क्या जा रहा है? हम भी बढ़ चढ़ कर उसको सोशल मीडिया के जरिये स्व-प्रशस्ति में शामिल करके लोगों को अवगत कराते ही रहते हैं। अगर कभी प्रश्न उठता है तो इन त्रुटियों के पैरोकार कहने लगते हैं कि हमें शुद्ध हिंदी नहीं चाहिए कि 'रेल' को 'लौहपथगामिनी' लिखें। इसमें कोई शक नहीं है कि सर्वप्रचलित शब्द चाहे किसी भी भाषा के हों हम समय समय पर अपनाते रहते हैं , हम ही क्यों ? कैंब्रिज और ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी भी अन्य भाषाओं के वैकल्पिक शब्द न मिलने पर जस का तस अपना कर अपने शब्दों में शामिल कर लेते हैं। ये उचित भी है क्योंकि भाषा समृद्ध भी तभी होती हैं। हिंदी में हम कितने उर्दू, फारसी अंग्रेजी और अन्य देशी विदेशी भाषाओं के शब्द शामिल करते रहते हैं और आम आदमी उसको ही समझता है। भाषा की क्लिष्टता उसके विस्तार को अवरुद्ध कर सकती है इसीलिए इसमें औदार्य की आवश्यकता भी है। 

                      अगर सबसे अधिक त्रुटि हम पाते हैं तो वे हैं  - विरामादि चिन्हों को लेकर। लेखक की अपनी एक शैली होती हैं जैसा कि मैंने सुना है कि हम वाक्य का अंत किसी भी तरह से करें , हमारी मर्जी है। अवश्य है लेकिन हम जो लिखते हैं वह सिर्फ अपनी सुविधा और पढ़ने के  लिए नहीं लिखते है बल्कि उसके पाठक दूसरे ही होते हैं। किसी को वो गलत चिह्न खलते हो या नहीं मुझे बहुत खलते हैं और वही अगर पत्र -पत्रिकाओं द्वारा स्वीकृत कर लिए जाते हैं तो भाषा के साथ मजाक है। 

                          सम्पूर्ण कोई भी नहीं होता है और अक्सर हम अपनी त्रुटियों को खुद नहीं सँभाल या पकड़ पाते हैं, अगर पकड़ पाएं तो खुद ही ठीक कर लें लेकिन इसके लिए हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं और विद्वजन हैं  ही इसलिए कि अपने साथियों या नवोदित  कलमों को सही दिशा दे सकें। इसमें साहित्यिक संस्थाओं, साहित्यिक पत्र और पत्रिकाओं का दायित्व बनता है कि प्रकाशन से पूर्व स्वयं सम्पादित करवायें और इस विषय में लेखन को भी एक बार इंगित करें। 

                        ये बहुत बड़ा काम नहीं है लेकिन हिंदी के स्वरूप को देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी व्याकरणिक रूप से प्रस्तुत करने के लिए जरूरी है। अगर हम कुछ कम जानते हैं और कोई हमें सही करता है तो इसमें अपनी साख पर दाग नहीं समझना चाहिए बल्कि उसके प्रति शुक्रगुजार होना चाहिए कि एक त्रुटि के विषय में बताया और फिर ये निश्चित है कि वह त्रुटि हम दुबारा नहीं करेंगे।  अगर इसको प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेंगे तो आने वाले समय में हिंदी भाषा का स्वरूप न हिंदी का रहेगा और न ही अंग्रेजी का बल्कि ये सोशल मीडिया की भाषा या फिर हमारे बोल कर लिखेी जा रही सामग्री में आने वाली सभी त्रुटियों को भाषा का ही एक अंग मान लिया जाएगा। सिर्फ आकर्षित करने के लिए लिखी जा रही संक्षिप्त सामग्री ही आने वाली पीढ़ी की भाषा बन कर रह जायेगी।