डॉ अरविन्द मिश्र 
 रेखा जी, आपने तो मानो किसी टाईम मशीन में बैठने को कह दिया हो जो बचपन केदिनों की गर्मी  की छुट्टियों के किसी मौके पर ननिहाल में लैंड करने वाली हो ....अब भला ननिहाल से बेहतर गर्मी  कीछुट्टियां कहाँ बितायी जा सकती हैं -खूब जी भर के शैतानी और उधम करो मगर कोई डांटने वाला नहीं ...चहुँ ओर  स्नेहऔर वात्सल्य का वातावरण ...ऐसे में शैतानी को तो कल्पना के पंख लग जाने ही थे....मेरा ननिहाल    जौनपुर जिले केपास आज भी अचर्चित से गाँव आमदहां में है ...और आज से ४०-४५ वर्ष पहले वह किसी चम्बल के बीहड़ से कम न थाऊंचे ऊंचे टीले ,नीचे तरह तरह की  झाड़ियाँ - वनस्पतियाँ और उनसे निकल कर स्वच्छंद विचरण करते जंगली जीवजंतु ...शेर बाघ  भले ही वहां उस समय नहीं थे शायद (क्योकि हमें तो दिखे नहीं ) मगर बिलावों की कई प्रजातियाँ ,साहीहिरन लकडबग्घा ,सियार ,लोमड़ी आदि तो खूब दिख जाती थी, वनौषधियों की तो जमात ही थी जिनकी पहचान मैंकाफी बाद में कर पाया ...आज भी ऐसे परिक्षेत्र को हमारे यहाँ बोल चाल की भाषा में नार खोर(ravines -बीहड़ ) कहते हैंमैं बच्चों की एक भीड़ की अगुआई  करते हुए बिना नाना नानी या मामा मामी को बताये घर के पिछवाड़े तक आ धमकेउसी उसी नार खोर में चल पड़ते थे-काफी देर लुका छिपी ,मटरगश्ती ,छोटे जानवरों की धर पकड़ और जंगली फूलों ,फलोंको चुनने का काम होता और थक हार कर यह टीम दोपहर होते होते खाने के वक्त वापस आ  जाती ..आज मैं सोचता हूँ वहसब किसी दुस्साहस से कम नहीं था ...अगर भेडिया और लकडबग्घा का कोई भी आक्रमण होता तो बड़ी दुर्घटना होसकती थी --मगर शायद वन्य पशु भी मासूमियत को भांप जाते हैं ..कभी कोई अप्रिय घटना नहीं घटी ..मेरे ननिहाल केसबसे घने दोस्त प्रमेश से तो एक लम्बे अरसे के बाद अभी बीते दिनों ही मुलाकात हुई .इस समय वे कोटा में हैं भारतीयरेलवे से जुड़े एक प्रतिष्ठान  में उच्च  पद पर हैं ..वे भी किसी डेयर डेविल से कम न  थे..उनके साथ तो अक्सर बीहड़ों की सैरहो जाती थी....और हम ढेर सारी लाल लाल घुमचियाँ इकठ्ठा करके लाते थे....
     ..  ,   ...       मैंने अपने जीवन की पहली रेल यात्रा भी ननिहाल जाने के लिए ही की थी..यद्यपि तब आवागमन के दीगर साधनों केहिसाब से वह एक बहुत पिछड़ा इलाका था मगर एक जौनपुर से इलाहाबाद को जोड़ने वाली एकमात्र रेलवे लाईन बगलसे गुजरती थी और उसपर इकलौती  ट्रेन ऐ जे पैसेंजर सुबह शाम आती जाती थी....सल्खापुर रेलवे स्टेशन से मेराननिहाल बस पंद्रह मिनट की तेज पदयात्रा पर था .....मुझे याद है कि कई  बार तो कोई मुझे जौनपुर के मुख्य रेलवेस्टेशन भंडरिया से ऐ जे में बैठा देता और मैं छुक छुक गाडी से ननिहाल के आधे घंटे की सैर पर चल पड़ता ..मगर उनदिनों तो वही आधा घंटा मानो युग जैसा लगता .....इतनी व्यग्रता जो रहती बाल -टीम से मिलने की ...     
 गणित उतनी ही कमजोर ....कारण पिता जी का कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम ऐ  होना था ...और उनका वहझन्नाटेदार थप्पड़ भी जब मैंने 'विनिमय' का अर्थ विनय सहित बता दिया था जबकि सही अर्थ है -अदला बदली -विचारविनिमय ...खैर था तो मैं सातवीं में मगर आठवीं नौवीं की हिन्दी के पाठ कंठस्थ थे....मामा के स्कूल के  आठवीं कीहिन्दी परीक्षा की कापियां आई हुई थीं - सौ सवा सौ रही होंगीं --मैंने एक दुपहरी को बीहड़ कार्यक्रम स्थगित करके प्रमेशके साथ उन सारी कापियों को मामा से चोरी छिपे जांचकर फाईनल नंबर भी दे दिए .....यह सब काम  दुबके दुबकेगोपनीय संपन्न हो गया ...सोचिये मामा जी का क्या हाल हुआ होगा जब उन्होंने यह कारस्तानी देखी होगी ..? सही सोचरहे हैं आप ..यह सब देखकर तो उन्हें काठ मार गया था कि यह सब हुआ कैसे ...मगर उन्हें यह समझने में देर नहीं लगीकि वह करतूत किसने की होगी ...हम तो यही भांप ही रहे थे..भाग कर नानी की सुरक्षित गोंद में जा पहुंचे  ..मामा जी कोबार बार यह   बात बतायी गयी कि भांजे को मारने पर बुढापे में हाथ कांपते हैं तो वे मार पीट तो नहीं पाए हाँ आग्नेय नेत्रोंसे मुझे घूरते रहे ..मगर उसी वक्त  मेरे छोटे मामा के स्नेहसिक्त हाथों ने  सर पर हाथ  फेर मानो   मुझे अभयदान दे दिया हो           .....
 कितनी ही ऐसी बचपन की छुट्टियों की यादें हैं जो आज हरी भरी सी हो आई हैं आपकी बदौलत .....आभार!
                                                                          (सफर अभी जारी है)
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जवाब देंहटाएंपूत के पाँव पालने में ही दिखायी दे जाते हैं। बहुत अच्छा संस्मरण।
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जवाब देंहटाएंमतलब, अरविन्द बचपन से ही खुराफाती रहे हैं? :-)
आपका आभार जिनके कारण उनके व्यक्तित्व को और जानने का मौका मिला !
निडर और स्पष्ट वादी विद्वान अरविन्द मिश्र अपनी बेबाकी के लिए ब्लॉग जगत और अपने मित्रों में खूब लोकप्रिय हैं ! मगर इस मज़बूत व्यक्तित्व के अन्दर एक बहुत कोमल और प्यारा दिल है जो मैंने अरविन्द के दिल्ली प्रवास में मिलने पर महसूस किया था !
आपके इस लेख से उनके व्यक्तित्व में रचा बसा पारिवारिक स्नेह और लगाव झलकता है ! आज ऐसा लगाव अपनापन और स्नेह ही दुर्लभ हो गया !
यकीनन वे उन लोगों में से हैं जिनके कारण ब्लॉग जगत में बने रहने का मन करता है
शुभकामनायें रेखा जी !
मामा का मान रख हिन्दी को एक नया विमा दे दी आपने। हिसाब किताब तो आने वाली पीढ़ियाँ कर ही लेंगी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर संस्मरण्।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संस्मरण।
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी की गुस्से वाली टिप्पणी....सही है इसीलिए हम भी इनसे डरते हैं...:)
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक संस्मरण!!!
रोचक संस्मरण।
जवाब देंहटाएंबचपन की, बचपन में की गई शैतानियां, फिर से करने को मन मचल उठा है। अब आगे कोई खुराफ़ाती टिप्पणी न कर दूं भागता हूं .... :)
बहुत अच्छा संस्मरण।
जवाब देंहटाएंरेखा जी आप की तरह हम भी अरविन्द जी से बहुत डरते थे लेकिन अब उनके बचपन के बारे में पढ़ कर थोड़ा कम डर रहे हैं। इन्हों ने भी बचपन में शैतानियां कीं होगीं?…॥:)
जवाब देंहटाएंमामा की कॉपियाँ जांच देने से उनकी क्या दशा हुई होगी मैं समझ सकती हूँ, हे भगवान्।
लेकिन इससे याद आ रहा है कि मेरे भतीजे महाराज ने मुझे कॉलेज से मिले पहले appointment letter पर अपनी चित्रकारी के जलवे दिखाये थे और अज भी वो लैटर जब मुझे कहीं दिखाना होता है तो शर्म से आखें नीची करनी पड़ती हैं।
बहुत अच्छा लगा ये बीहड़ का सफ़र
बहुत मजे दार संस्मरण।
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