बुधवार, 1 मई 2024

श्रमिक दिवस !

              

                                                          श्रमिक दिवस !

 

                    विश्व में सभी को एक दिन का सम्मान दिया जाता है , वह सम्मान चाहते हों या न हों ।​​ इसी क्रम में श्रमिक हमसे कभी भी अपनी आशाओं के लिए अपेक्षा नहीं करते , कभी हमारा बोझ अपने कन्धों पर उठाते हैं , कभी हमें रिक्शे में बैठा खुद सारथी बन कर मंजिल तक पहुँचाते हैं ।​​ आज उन्हें सम्मान देने वाला दिन है ।         

          आज विश्व श्रमिक दिवस है । मैं चिलचिलाती धूप में पसीने से लथपथ  खुद को काम में झोंके हुए उन सभी श्रमिकों को सलाम करती हूँ, जिन्हें हमने ये दिन दिया ।​ पर सिर्फ इस सम्मान के  समर्पण से ही हम उनके परिश्रम की कीमत का आकलन कर पाते हैं।​  हाथ ठेला गाड़ी में टनों लोहे को लादकर खींचते हुए - वे पूरे कार्य के लिए अपने क्षीण शरीर का उपयोग करते हैं , लेकिन हाथ की लकीरों में जरूर कुछ अंतर तो लेकर आते हैं। हम उन्हें हेय समझते हैं , फिर भी उनके फैले हुए हाथों पर कुछ न कुछ कभी तो रख ही देते हैं और उस पर भी मोल तोल लेते हैं कि यह इतना नहीं होता है, वे ज्यादा माँग रहे हैं । 
 
           ये उनके हक के पैसों खुद रख लेने या फिर जिस पैसे को बचाने की हमारी नीयत रहती है। हम उससे कुछ पीना चाहते हैं या फिर धुएँ में उड़ाते हैं, सब पर लागू नहीं होता है लेकिन अगर हम किसी को भाड़े पर लेकर सेवा करवा रहे हैं तो हम इतने सम्पन्न होने हैं कि उनके परिश्रम की पूरी कीमत अदा कर सकें। अगर आप चाहें तो शायद वे नमक के साथ रोटी खाने की जगह पर किसी भी सब्जी से खाने की सोच सकते हैं । 
   
              पूरी दुनिया की बात तो नहीं होती लेकिन अगर हम सिर्फ अपने नगर कानपुर की ही बात करें तो कभी भारत का मैनचेस्टर कहा जाता था ।​ आज से चालीस साल पहले यहाँ पर कपड़ों की कई मिलों का धुआँ आकाश में उड़ता था और लाखों की संख्या में मजदूर अपने परिवार पालते थे। वे दो दो पाली में काम करके अपने परिवार को आराम से पाल रहे थे।  
              धीरे -धीरे सब बंद हो गईं,  मिलों की बड़ी- बड़ी बिल्डिंगें आज भी खंडहर बन कर खड़ी हैं, लेकिन वे मजदूर आज भी आशा रखते हैं कि वे शायद चल पड़े और जो उस समय के युवा थे वे आज खत्म हो गए हैं और उनके नन्हे - मुन्ने बच्चे युवा हो गए हैं । उनके बच्चे भी श्रमिकों का ठप्पा लिए जगह - जगह घूम रहे हैं क्योंकि न तो उनके पास पढ़ने के लिए पैसे थे और न ही सरकार के पास उनके लिए कुछ सार्थक पहल थी , न है कि वे जीवनयापन के लिए कुछ कर सकें। सारी सरकारी घोषणाओं में सिर्फ कागजों में होती हैं, उनका क्रियान्वयन नहीं होता, अगर हुआ भी तो फ़ायदा कोई और उठाता है वे तो तब भी बिकते हैं। संगठित मजदूरों की कितनी संख्या है ? सभी असंठित मजदूर हैं और उनके बहते हुए पसीने की कमाई का सिर्फ कुछ प्रतिशत ही दे दें ।​​ सरकार की ओर से पंजीकृत कंपनी होने के बाद भी वे इस बात से सहमत नहीं हैं और वे जी तोड़ मेहनत करते हैं।  समय से पहले बूढ़े हो जाते हैं और कभी -कभी अशक्त हो जाते हैं और कभी-कभी किसी बीमारी का शिकार होकर एडियां रांगते हुए मर जाते हैं । वे पीढ़ी दर पीढ़ी श्रमिक बने ही रहते हैं । इनमें मिलने वाली सुविधाएँ तो कोई और खा रहा है । हम औरों तक क्यों जाएँ ?​ क्या हमने से किसी ने अगर आपके यहाँ कुछ काम करने वाले लोग हैं तो आज की  छुट्टी दे दी है , क्या हमने कुछ अच्छा खाने के लिए दिया है या आज के दिन के लिए कुछ अतिरिक्त पैसे दिए हैं ?

               शायद नहीं - हम इतना कर ही नहीं सकते ।​ हमारी सोच तो अपने से ऊपर किसी को देखती ही नहीं है  है ? फिर क्या फायदा इस दिन को सलाम का ? अरे कुछ सरकार ही ऐसे काम कर सकती हैं, जिससे आज का दिन विशेष बन जाएगा।​ हम भी तो कर सकते हैं अगर हम अपनी तरह से इंसान समझ कर कुछ कर सकें तो दिन सार्थक भी हो।​​​ आज तो चले गए आगे के लिए कुछ संकल्प कर लें कि हम उन्हें कुछ ऐसा देंगे कि वे भी अनुभव करें कि उनके लिए विश्व में कोई भी दिन है जिस दिन वे काम के बिना भी कुछ अलग व्यवहार प्राप्त कर सकते  तभी ये दिन उनके लिए सार्थक होगा ।

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