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बुधवार, 29 सितंबर 2010

इतिहास की पुनरावृत्ति !

                        क्या हमें फिर से अतीत के इतिहास को दुहराने का जरूरत आ पड़ी है. इस विषय को नहीं छूना चाह रही थी लेकिन आज की इस घटना ने झकझोर दिया. अब इंसां की वहाशियत ने हदें पर कर दीं हैं और वह भी आँखों के सामने जब देखा तो रोना आ गया उस माँ के रोने पर जिसने बेटी को स्कूल ही तो भेजा था पढ़ने के लिए और लौट कर तो उसे बेटी की लाश ही मिली और वह भी दरिंदों की नोची हुई अपनी बेटी की लाश.
                       कानपुर नगर - अब अखबारों में इस काम के लिए बहुत चर्चित हो रहा है. कुछ दिन पहले एक नामी गिरामी डॉ. के नर्सिंग होम के आई सी यूं में भर्ती एक लड़की के साथ बलात्कार के बाद इंजेक्शन लगा कर उसे मौत की नीद सुला दिया गया क्योंकि एक दिन पहले ही उसने अपने माँ बाप से कहा था कि मुझे यहाँ से निकाल ले चलो नहीं तो मैं नहीं बचूंगी और नर्सिंग होम वालों ने छुट्टी नहीं दी. दूसरे ही दिन उन्हें बेटी के लाश मिल गयी.
                      पुलिस बलात्कार के जरूरी साक्ष्य भी नहीं जुटा पाई , पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट से पुष्टि के बाद साक्ष्य कहाँ से लाये? यद्यपि संचालिका अभी जेल में हैं लेकिन उन पर लगी धाराएँ पुलिस बदल कर हल्की कर रही है क्योंकि मालदार पार्टी है और बेटी किसी गरीब की.
                       कल स्कूल गयी १० वर्षीया दिव्या को लहूलुहान हालत में स्कूल कर्मियों द्वारा घर छोड़ा गया और जब माँ उसे अस्पताल ले गयी तो डॉक्टर ने मृत घोषित कर दिया. उस बच्ची के साथ जो व्यवहार किया गया है उसने अब तक के सारे वहशीपन के रिकार्ड तोड़ दिए थे. डॉक्टर खुद हतप्रभ थे कि इस नन्ही सी बच्ची के साथ क्या हुआ है?  डाक्टरी रिपोर्ट के अनुसार जो समय तय है उस समय बच्ची स्कूल में थी.
                       ये समाज क्या चाहता है , पहले तो इन मासूमों को होने से पहले ही ख़त्म करने की साजिश रची जाती है और अगर वह दुनियाँ में आ भी गयी तो दोयम दर्जे के व्यवहार का शिकार हो जाती है. अब तो उनकी उम्र का भी कोई लिहाज नहीं  बचा क्या फिर से बाल विवाह की प्रथा शुरू कर दी जाय या फिर उनकी शिक्षा को बंद कर दिया जाय. कोई भी माता पिता अपने बेटी के साथ साए की तरह से नहीं रह सकता है. उसको घर की देहलीज तो लांघ कर बाहर निकलना ही पड़ेगा.
                       पहले यही होता था न, कि किसी की सुन्दर बेटी पर अगर बूढ़े जमींदार की नजर भी पड़ गयी या सुल्तान की नजर पड़ गयी तो उसकी जिन्दगी उसकी नजर हो जाती थी. इसी लिए तो बेटियों को घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था या फिर जल्दी शादी करके उसको ससुराल वाली बना दिया जाता है और तब भी वह कम उम्र में ही माँ बनने के अभिशाप से ग्रसित होकर मृत्यु के मुँह में चली जाती थी. नसीब उसका मृत्यु  ही होती थी. या फिर बाल विधवा बनकर लोगों की इस गलत नजर का शिकार होकर अपनी अस्मिता को बचाने के लिए संघर्ष करती फिरती थी.
                         अब हमारे पास क्या रास्ता है? क्या करें हम? बेटियों को सिर्फ सीने से लगा कर रखे और विदा कर दें. अगर उनको घर से बाहर निकालेंगे तो फिर किसी वहशी की नजर न पड़ जाए. किसका विश्वास करें-- डॉक्टर, पड़ोसी, रिश्तेदार, स्कूल, रिक्शेवाला, बसवाला और फिर शिक्षक ? अगर किसी का नहीं तो फिर ये कौन सा जीवन जीने की हक़दार हैं?  इस बात को मैंने अपने एक लेख में पहले भी जिक्र किया था कि अब लड़कियों को खुद में इतना सक्षम बनाना होगा कि वे अपनी सुरक्षा खुद कर सकें. उनको मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग आरम्भ से देने की जरूरत अब आ पड़ी है. इसको स्कूल के स्तर पर ही अनिवार्य करना होगा. कम से कम वे संघर्ष कर अपना बचाव तो कर सकें. ये वहशी दरिन्दे कुछ भी नहीं सिर्फ मानसिक बीमारी से ग्रसित होते हैं. ये मनोविज्ञान की भाषा में सेडिस्ट होते हैं. दूसरे को कष्ट देने में इनको सुख मिलता है और इस बीमारी से ग्रसित लोग खुद बहुत मजबूत नहीं होते हैं. अब हर स्तर पर ये लड़ाई लड़ने की जरूरत है. बच्चियों को पूरी सुरक्षा मिले और उससे आप घर में भी स्कूल के माहौल के बारे में जानकारी लेती रहें. क्योंकि इस तरह के लोग किसी न किसी तरीके से बच्चियों पर पहले से ही नजर रखते हैं और मौका पा कर ऐसा कृत्य कर बैठते हैं.
                   घर में अच्छे संस्कार सिर्फ लड़कियों को ही देने की जरूरत नहीं होती है बल्कि अपने लड़कों को भी अच्छे संस्कार दें ताकि वे सोहबत में भी ऐसे घिनौने कामों में लिप्त न पाए जाएँ. अपने घरों से शुरू करेंगे तो बहुत से घर इस स्वस्थ माहौल को बनाने में सक्षम होंगे. हम अपने स्तर पर प्रयास कर सकते हैं और फिर पूरे समाज को सुधारना तो सबके वश में ही है क्योंकि ये वहशी भी किसी माँ बाप के बेटे होते हैं और पता नहीं उनको कम से कम कोई माता पिता तो ऐसी शिक्षा नहीं दे सकता है हाँ उनकी सोहबत ही उन्हें गलत रास्ते पर ले जा सकती है.

सोमवार, 27 सितंबर 2010

लगेंगे हर बरस मेले (शहीद भगत सिंह )!

           आजादी जिनके सिर पर जूनून बन कर बोली , वे उसकी तमन्ना में फाँसी पर झूल गए  और फिर गुलामी की  कड़ियों को एक के बाद एक शहीद अपनी शहादत से कमजोर करते चले गए. जब आजादी मिली तो शहीदों की कहानी इतिहास लिख चुकी थी और आजादी का सेहरा बांध कर जश्न कुछ और लोगों ने मना लिया और देश के भाग्य विधाता बन गए. इतिहास आज भी ये प्रश्न उठाता है कि अगर कुछ लोग चाहते तो भगत सिंह और कुछ लोगों की  फाँसी को रोका जा सकता था लेकिन उन लोगों ने नहीं चाहा.
                                   इस भारत के लाल का जन्म अखंड भारत के लायलपुर जिले के बंगा गाँव में २७ सितम्बर १९०७ को हुआ था. (अब पाकिस्तान में है.) उनका परिवार क्रांतिकारियों का ही परिवार था , घर में चाचा और पिता में कोई न कोई जेल में ही बना रहता था. भगत सिंह के पिता किशन सिंह और माता विद्यावती थी. उनकी रगों में देशभक्ति लहू बन कर दौड़ रही थी.
                   भगत डी ए वी कॉलेज में पढ़ रहे थे, तभी लाला लाजपत राय, रास बिहारी बोस के संपर्क में आये. उनके संपर्क में आने का मतलब था कि देश के अतिरिक्त कुछ सोचना ही नहीं था. १९१९ में जब जलियाँवाला काण्ड हुआ तब भगत सिंह मात्र  १२ बरस के थे और इस गोलीकांड ने उनको इतना विचलित कर दिया था कि वे अगले दिन जलियाँवाला बाग़  जाकर उसकी मिट्टी उठा कर लाये और अपने जीवन में उसको यादगार के रूप में रखे रहे. इस काण्ड ने ही उनके मन में अंग्रेजों को भारत से भागने की भावना को दृढ बनाया.
                        गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से प्रेरित हो कर हो उन्होंने स्कूल छोड़ा और आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने लगे, किन्तु चौरी-चौरा काण्ड के बाद जब गाँधी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो वे क्षुब्ध हुए और तब उन्हें लगा कि ये अहिंसा का सिद्धांत उनके मनोबल और लड़ाई को कमजोर बनाने वाला है. इसके बाद उन्होंने आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष को अपना लक्ष्य बना लिया कि इसके बगैर वे अंग्रेजों को यहाँ से नहीं निकाल सकते हैं.
                     उन्होंने लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित नॅशनल स्कूल , लाहौर  में प्रवेश लिया और अपनी शिक्षा जारी रखी. ये स्कूल मात्र शिक्षा का केंद्र ही नहीं था अपितु वह क्रांतिकारी गतिविधियों का गढ़ था. वही उनकी मुलाकात भगवती चरण बोहरा, सुखदेव आदि से हुई.
                     विवाह से बचने के लिए वे घर से भाग कर कानपुर आ गए और यहाँ पर उनकी मुलाकात गणेश शंकर विद्यार्थी से हुई. क्रांति का आगे का पाठ  उन्होंने यही पढ़ा और पारिवारिक कारणों से घर वापस लौट गए. वहाँ पर उन्होंने "नौजवान भारत सभा" का गठन किया और  क्रांति का सन्देश फैलाना आरम्भ कर दिया. १९२८ में उनकी मुलाकात दिल्ली में चन्द्र शेखर आजाद से हुई और दोनों ने मिलकर "हिंदुस्तान  समाजवादी प्रजातंत्र संघ" नाम की संस्था का गठन किया और इसका उद्देश्य सशस्त्र क्रांति से देश को आजादी दिलाना रखा.
                     जब साइमन कमीशन भारत आया तो उसके विरोध में पुलिस द्वारा उसमें लाला लाजपत राय के ऊपर जो बेरहमी से लाठी चार्ज किया गया. भगत उसके साक्षी थे और उसमें घायल होकर ही बाद में वे स्वर्ग सिधार गए. उन्होंने चन्द्र शेखर , राजगुरु, सुखदेव से मिलकर इस काण्ड के पुलिस प्रमुख स्कॉट को मारने कि योजना बनाई लेकिन भूलवश वह उसके सहायक सांडर्स को मार बैठे और लाहौर  से भाग निकले. इसके बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली का ध्यानाकर्षित करने के लिए बिना किसी को नुक्सान पहुंचाए असेम्बली में बम फोड़ा और इन्कलाब जिंदाबाद के नारे लगाये . इस अपराध में उनको गिरफ्तार कर लिया गया.भगत सिंह के कुछ गद्दार मित्रों ने सांडर्स काण्ड के लिए पुलिस के साथ मिलकर इन लोगों के खिलाफ गवाही दी. भगत सिंह और उनके मित्र चाहते थे कि उनको गोली मार दी जाय लेकिन उन्हें राजगुरु और सुखदेव के साथ फाँसी की सजा सुनाई गयी  और २३ मार्च १९३१ को उन लोगों को  फाँसी दी गयी.
                       वे अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित थे और अपनी मातृभूमि  के लिए शहीद हो गए. जब तक इस भारत भूमि का अस्तित्व है, वे सदैव नमनीय रहेंगे. आज उनके १०३ वें जन्म दिन पर हमारी उनको श्रद्धांजलि के रूप में ये लेख अर्पित है.

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

व्यावसायिक चिकित्सा पद्धति (३) !

                   मनोरोग और मानसिक अपंगता दोनों अलग अलग व्याधियां है. इनके बारे में हम सामान्य व्यक्ति नहीं जान पाते हैं और हम इसके इलाज के लिए गलत जगह या गलत व्यक्ति के संपर्क में आकर अपना समय और धन दोनों नष्ट करते हैं और हमें उससे फायदा कुछ भी नहीं मिलता है.
                 एक मनोरोगी वह स्वस्थ व्यक्ति होता है , जो मानसिक और शारीरिक दोनों  दृष्टि से सामान्य होता है और उसके शरीर के सम्पूर्ण अवयव सही ढंग से काम करते हैं. अपने स्वभाव और वातावरण के अनुरुप वह मनोरोग से ग्रसित हो जाता है - जैसे यदि वह अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाला है तो वह अपनी बात किसी से शेयर नहीं करता और अंदर ही अन्दर सोचता रहता है . उसके जीवन में तमाम ऐसी स्थितियां आती है कि वह उनसे अकेले लड़ नहीं पाता है और किसी को वह साझीदार बना नहीं पाता है. जिसका परिणाम ये होता है कि वह किसी न किसी प्रकार की मानसिक व्याधि से ग्रसित हो जाता है. एक कमजोर व्यक्तित्व वाला व्यक्ति अपनी परिस्थितियों  से भी नहीं लड़ पाता है और वह जीवन के उतार चढाव में आने वाले तनावों से अनिद्रा, अवसाद, कुंठा का शिकार हो जाता है और कई बार इनसे बचने के लिए वह नशीले पदार्थ तक लेने लगता है. ऐसे लोग मनोरोगी कहे जाते हैं . उनकी इन व्याधियों  का इलाज मनोचिकित्सक के पास होता है,  वे उसे काउंसलिंग, व्यावहारिक चिकित्सा  और विभिन्न दवाओं के द्वारा सामान्य स्थिति में ले आते हैं. ऐसे मनोरोगी ही आत्महत्या या दूसरों की हत्या करने तक का कृत्य कर डालते हैं.
                     मानसिक अपंगता वह स्थिति है , जब व्यक्ति अपनी उम्र के अनुसार कृत्य  नहीं कर पाता है. ये जन्मजात भी हो सकती है और किसी दुर्घटना के बाद भी. अक्सर इन लोगों की शारीरिक और मानसिक उम्र बराबर नहीं होती. जिसको हम I .Q के द्वारा चेक करते हैं. चाहे वे जन्मजात अपंगता के ग्रसित हो, किसी दुर्घटना के कारण या फिर पक्षाघात के बाद . इन लोगों को उनकी अधिकतम क्षमता तक पहुँचाना व अपने दैनिक कार्यों के लिए आत्मनिर्भर बनाना ही व्यावसायिक चिकित्सक का कार्य होता है.  उसके कार्य में धैर्य और सहानुभूति प्रमुख आधार होती है क्योंकि ऐसे रोगियों में सुधार बहुत धीमी गति से होता है और यही धैर्य और रोगी में आने वाला सुधार उनकी सफलता का द्योतक होता है.
                    इस विषय में जानकारी के अभाव में बच्चे के माता पिता या परिजन डॉक्टर के पास जाते हैं क्योंकि चिकित्सा की  ये शाखा अभी प्रत्येक अस्पताल में उपलब्ध नहीं है , हाँ इसके लिए विशेष अस्पताल या एन जी ओ अवश्य ही  कार्य कर रहे हैं. कुछ लोग उनको मनोचिकित्सक  के पास भेज देते हैं और मनोचिकित्सक भी अपने स्वार्थवश और पैसे की चाह में उन्हें भ्रमित कर देते हैं . ये मामला मेरे संज्ञान में आया है इसलिए उल्लेख कर रही हूँ. एक बच्चे को जो हाइपर एक्टिव था, मनोचिकित्सक ने उसको ब्लड प्रेशर लो करने की दवा देनी शुरू कर दी और उससे वह बच्चा सुस्त हो गया. जो सारे दिन घर में दौड़ता और तोड़ फोड़ करता था उसके सुस्त हो जाने से माता पिता को लगा कि मेरे बच्चे में सुधार आ रहा है जो  कि ये उनकी भूल थी क्योंकि वे इस बात से वाकिफ ही नहीं थे कि उनके बच्चे के साथ क्या हो रहा है? ऐसे ही बच्चों को व्यावसायिक चिकित्सक नियंत्रित करते हैं. जब उस बच्चे को और उसके पर्चे और दवा को एक व्यावसायिक चिकित्सक ने देखा तो बताया कि इसको गलत दवा दी जा रही है बस सिर्फ इस लिए कि माता पिता इस भुलावे में रहें कि  बच्चा अब कम परेशान कर रहा है और उसका इलाज जारी रखें.
                      इसका एक और उदाहरण भी सामने आया कि एक मनोचिकित्सक ऐसे रोगियों की बुलाती है और माता पिता को बाहर निकाल कर बच्चे  को कमरे में छोड़ देती है और वह अपनी गतिविधियाँ करता रहता है. आधे घंटे बाद वह माता पिता को बुलाती है और कहेगी कि आज मैंने ये observe किया है, दो दिन बाद फिर आइयेगा तब और देखूँगी. इसको बिहेवियर थेरेपी की जरूरत है. इस तरह से एक दिन के observation पर चार बार फीस वसूल लेती है. इसी बहाने होम विजिट पर भी आने की बात करेगी और उसकी फीस और अधिक होती है. माँ बाप इससे अनभिज्ञ होते हैं  और बच्चे के लिए कुछ भी करने को तैयार होते हैं. इलाज के लिए वह अपने साथ व्यावसायिक चिकित्सक को रखती है और फिर उससे पूछ कर माता पिता को संतुष्ट कर देती है बस उसका इलाज नहीं कर पाती है हाँ पैसे जरूर ऐंठ लेती है.
                   इसको बताने का मेरा सिर्फ यह आशय है की ये व्याधियां तो इंसां के वश की बात नहीं है, जो मिली हैं उनसे मुक्ति या राहत के लिए सही दिशा में जाकर ही निदान मिल सकता है. आप हों या आपके परिचित हों, उन्हें सही दिशा का भान कराइए कि  उनको कैसे और कहाँ इसकी चिकित्सा के लिए प्रयास करना चाहिए.
                  ऐसे कई सेंटर भी होते हैं जहाँ पर ऐसे बच्चों को रखा जाता है और उनके चिकित्सा भी दी जाती है लेकिन अपने बच्चे को डालने से पहले वहाँ का वातावरण और वहाँ बच्चों के देख रेख के लिए रखे गए लोगों के विषय में जानकारी जरूर ले लें क्योंकि इस बारे में भी लोग मूर्ख बना कर पैसे ऐंठते रहते हैं. मेरे एक परिचित अपने बच्चे को एक डे  केयर सेंटर में रखते हैं और भरोसा उनको इसलिए हुआ क्योंकि उस सेंटर के संचालिका एक डॉक्टर हैं और उसमें उनका बच्चा भी रहता है. वे दिन में खुद अपने क्लिनिक जाती हैं और उनके सेंटर को कोई दूसरी लड़की देखती है. इस सेंटर में वह और भी बच्चों को रखती हैं. प्रति बच्चे वे कोई ३ हजार रुपये लेती हैं और एक लड़की रखी हुई है जो मात्र बी. ए पास है. उसको १ हजार रुपये देती हैं क्योंकि उन्होंने खुद कहा कि मैं Occupation Therapist को नहीं अफोर्ड कर सकती हूँ. हाँ ये उनकी एक आमदनी का साधन भी है और अपना बच्चा भी ठीक से रहता है.

सोमवार, 20 सितंबर 2010

व्यावसायिक चिकित्सा पद्धति ! (२)

                   बच्चे के जन्म की सूचना हमें उसके रोने से ही मिलती है क्योंकि उस समय हम सब तो बाहर ही होते हैं .बच्चे के इस रोने के कारण और इसके महत्व को मैंने खुद कभी इतनी गंभीरता से नहीं समझा था. हम तो यही समझते थे कि बच्चा जन्मते ही बाहर के वातावरण का आदी  नहीं होता है इसलिए वो रोता है. जब इस डगर चले तो पता चला कि ऐसा नहीं है . इस रोने से बच्चे का सारा जीवन जुड़ा होता है. जब तक शिशु माँ के गर्भ में  रहता है वह सारी जीवनी शक्तियां माँ से ही ग्रहण करता है. जन्म लेते ही वह तेजी से रोता है क्योंकि बाहर के वातावरण से उसका पहला स्पर्श होता है. इस रोने की क्रिया से ही शिशु के फेफड़े खुलते हैं और वह आक्सीजन ग्रहण करता है. उसके मस्तिष्क की जितनी भी नसें होती हैं वे आक्सीजन से ही सक्रिय होती हैं और उनमें रक्त संचार आरम्भ होता है. यह एक स्वस्थ शिशु के लिए अत्यंत आवश्यक होता है , इसमें ही उसके शारीरिक विकास और सक्षमता का राज छिपा होता है. इसके विपरीत अगर बच्चा नहीं रोता है तो डॉक्टर उसको तुरंत मार कर रुलाने का प्रयास करती है क्यों? क्योंकि उसका तुरंत रोना आवश्यक होता है और यदि इसके बाद भी बच्चा नहीं रोता है तो उसको वेंटिलेटर पर रख दिया जाता है या उसको यथाशक्ति  शीघ्र  आक्सीजन देने की व्यवस्था की जाती है  . अगर इस प्रक्रिया में ५ मिनट की भी देरी हो जाती  है तो शिशु के पूर्ण रूप से स्वस्थ होने की संभावना पर प्रश्न चिह्न लग जाता है. ऐसा इसलिए होता है कि अगर मष्तिष्क की नसों में रक्त संचार तुरंत नहीं हुआ तो कृत्रिम साधनों से दी जाने वाली आक्सीजन से सारी नसे नहीं खुल पाती हैं और जो इस बीच चिपक जाती हैं, उनको फिर नहीं खोला जा सकता है और वे जिन अंगों तक मष्तिष्क की निर्देशन तरंगों को ले जाने वाली होती है - वह अंग विकलांगता के शिकार हो जाते हैं. ये जन्मजात शारीरिक विकलांगता का  कारण होता है.
                        इसके अतिरिक्त इस प्रक्रिया के बाधित होने से मानसिक विकलांगता भी होती है, जिसमें शिशु शारीरिक रूप से पूर्ण रूप से स्वस्थ होता है किन्तु उसका मष्तिष्क किसी दृष्टि से अक्षम होता है. इसको सामान्य व्यक्ति नहीं समझ सकता है .
और इस कमी के बारे में बचपन में पता भी नहीं चलता है, जब बच्चा बड़ा होता है तब उसकी शारीरिक और मानसिक क्रियाओं से ये स्पष्ट हो पाता है.
                      विगत कुछ वर्षों में संचार के साधनों ने इस तरह के कुछ बच्चों या व्यक्तियों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए कुछ फिल्मों और टीवी सीरियल का निर्माण किया गया है. इस लिए कुछ प्रारंभ में रोगों के बारे में उनके अनुसार ही बताती हूँ ताकि सभी समझ सकें कि हाँ ऐसा क्यों होता है?
                 तारे जमीं पर -- इस फ़िल्म में मुख्य पात्र 'डिस्लेक्सिया' नामक रोग से ग्रसित होता है. जिसमें पीड़ित अध्ययन के दौरान अक्षरों के बीच भेद नहीं कर पाता है. वह ' b ' को 'd ' पढता है और 'p ' को 'q ' समझ सकता है. इसको माता - पिता सामान्य  त्रुटि मानते हैं और उसकी लापरवाही मान कर उसको प्रताड़ित करते हैं. वास्तव  में यह एक मानसिक अक्षमता है. फिर यदि ऐसे बच्चों के लिए समुचित व्यवस्था की जाय तो वे उसके अनुसार शिक्षित किये जाते हैं.
                 माई नेम इज खान --  इस फ़िल्म का नायक शाहरुख़ खान 'एस्पर्जास सिंड्रोम' का शिकार था. जिसमें पीड़ित  गुरुत्वाकर्षण की असुरक्षा का शिकार होता है. जिसमें वह जमीं पर देख कर चल सकते हैं क्योंकि उनकी मानसिकता ऐसी होती है के अगर वे नीचे देख कर नहीं चलेंगे तो गिर जायेंगे. किसी स्थिति में उनको झूला झूलने से ही डर लगता है और किसी स्थिति में वह तेज तेज झूलना ही पसंद करता है. इसमें एक स्थिति के दोनों ही रूप संभव होते हैं.
                  आपकी अंतरा --  यह एक TV सीरियल आया था, जिसमें की बच्ची को 'स्पेक्ट्रम डिसआर्डर   ' का शिकार दिखाया गया . इसमें जो भी क्रिया होती है वह दोनों ही रूपों में हो सकती है. जैसे कि अंतरा  बिल्कुल चुप और निष्क्रिय  रहती थी और कभी बच्चा इसके ठीक विपरीत अतिसक्रिय भी हो सकता है जैसे कि वह सारे घर में दौड़ता ही रहे या फिर बहुत शोर मचने वाला भी हो सकता है. इन बच्चों को यदि कहा जाय कि ये बिल्कुल ठीक हो सकते हैं ऐसी संभावना बहुत कम होती है लेकिन इनको संयमित किया जा सकता है और इनके व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सकता है.
                    इन बच्चों के लिए ही इस प्रकार की चिकित्सा पद्धति का प्रयोग किया जाता है. इस प्रकार के बच्चों को मनोचिकित्सक इलाज नहीं कर सकता है, क्योंकि मनोरोग और मानसिक अपंगता दो अलग अलग स्थितियां हैं और इसके बारे में अगली किश्त में ............
                                                                                                                       (क्रमशः)

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

व्यावसायिक चिकित्सा पद्धति !

                सबसे पहले मैं ये बता दूं कि ये मेरा क्षेत्र बिल्कुल भी नहीं है लेकिन जब घर के सदस्य इससे जुड़े होते हैं तो कलम उसमें दखल जरूर देने लगती है. उसके ज्ञान को लेकर इस कलम से आप सब तक तो मैं पहुंचा ही सकती हूँ. जो बच्चे या रोगी आज के जीवन में समस्या बने हुए हैं और परिवार परेशान है और इस विषय में उनको अधिक जानकारी नहीं है, वे अपने बच्चों को डॉक्टर के पास लेकर दौड़ते रहते हैं और डॉक्टर कई बार अपने स्वार्थ के लिए गलत दिशा दिखा कर पैसे ऐंठते रहते हैं. 

                          सबसे पहले मैं इस चिकित्सा पद्धति के बारे में परिचय दूं उसके बाद उससे सम्बंधित जानकारी देती रहूंगी. व्यावसायिक चिकित्सा की यह शाखा जो मानसिक विकलांगता या शारीरिक विकलांग से जुड़ी है और ऐसे लोगों के पुनर्वास के सतत प्रयत्न करते हैं कि वे अपने जीवन में आने वाली परेशानियों से मुक्त हो सकें या फिर कम से कम अपने कार्यों के लिए किसी पर निर्भर तो न ही रहें. इस को औक्यूपेशनल   थेरपी के नाम से जाना  जाता  है. इससे सम्बद्ध डॉक्टर इन विकलांग लोगों को उनकी बीमारी के अनुरुप दैनिक जीवन में अपने कार्य हेतु सक्षम बनाने , उन्हें आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने की दिशा में कार्य करते हैं. इसके लिए उनको वैकल्पिक या कृत्रिम  साधनों का विकास करना ताकि वे अपने जीवन में दूसरों पर आश्रित होने से बचें. इस में जन्मजात विकलांगता या दुर्घटना से आई विकलांगता के शिकार लोगों के लिए सकारात्मक बदलाव लाने के लिए चिकित्सा देते हैं. आम तौर पर इनकी शिक्षा में न्युरोलौजी, एनौटामी , मेडिसिन, सर्जरी , आर्थोपीदिक्स  और साइकोलॉजी शामिल होती है और इसके पूर्ण अध्ययन के साथ   व्यावहारिक ज्ञान (internship )  के बाद ही चिकित्सा के लिए अनुमति दी जाती है.  आमतौर ये आर्थोपीडिक , न्यूरोलौजिकल और साइकोलॉजिकल समस्याओं से ग्रस्त लोगों के इलाज से जुड़े होते हैं. इस तरह के रोगों से ग्रस्त व्यक्ति का सामान्य डॉक्टर के पास इलाज नहीं होता है. इस दिशा में जुड़े लोगों की  समाज सेवा और रोगियों के प्रति पूर्ण सहानुभूति ही उनकी सफलता का द्योतक होता है. 
                                                                                                                                         (क्रमशः)

बुधवार, 15 सितंबर 2010

अच्छा है विकल्प !

                   आज के अख़बार में एक कॉलम में ऐसी विज्ञप्ति देखी, जो कम से कम इससे पूर्व मेरी दृष्टि से कभी नहीं गुजरी थी. लोकतंत्र के लिए एक अच्छा विकल्प लगा.
          विज्ञप्ति थी  -------

                                                             भारतीय संसद 

                                                               राज्य सभा सचिवालय 
                          यातना निवारण विधेयक , २०१० सम्बन्धी
                                       राज्य सभा की प्रवर समिति 
                    इस विधेयक के सम्बन्ध में सुझाव आमंत्रित करती है.
                               ( सम्पूर्ण विवरण के लिए दैनिक जागरण ( १५ सितम्बर २०१० ) का पृष्ठ ९ पर देखें .)


                किसी अधिनियम के लिए इस तरह से जन मानस से मत संग्रह संसद के स्तर पर मेरी दृष्टि में पहली बार आया है. इसके अपवाद भी हो सकते हैं अतः  इसको विवाद का विषय न बनाया जाय. क्या इसी तरह से लोगसभा के स्तर पर जन प्रतिनिधि जहाँ अपनी जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए जाते हैं और वहाँ प्रतिनिधित्व करने में अक्षम है या अक्षम नहीं भी हैं तो वे सिर्फ दल के झंडे तले सिर्फ हाथ उठाने भर का कार्य करने की क्षमता रखते हैं. जो जनहित से जुड़ा है वह राष्ट्र हित से भी जुड़ा होगा और इस तरह के विषयों पर जन का भी अधिकार होता है. संचार माध्यम से या व्यक्तिगत तौर पर राष्ट्रीय निर्णयों पर जन सामान्य की भागीदारी से उनकी देश की राजनीति या अन्य गतिविधियों के प्रति उदासीनता है उसको कम करेगा. अपनी बात जो वह ऊपर तक लाना चाहता है, उसको अगर प्रतिनिधि नहीं लाता है तो लोकसभा प्रश्न काल  में कुछ समय ऐसा होना चाहिए कि देश की जनता मूक या अकर्मठ प्रतिनिधियों के चलते मामलों को संसद के पटल पर रख सके. उन्हें उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए जितना कि किसी मंत्री या सांसद के प्रश्न को.
                ऐसा एक प्रकोष्ठ स्थापित होना चाहिए  जो कि जनप्रतिनिधियों के निरंकुश आचरण , अनाचार या अत्याचार के प्रति विरोध दर्ज करने के बाद उनको निष्पक्ष विचार के लिए सदन के समक्ष प्रस्तुत कर सके . इसके लिए जन प्रतिनिधि को उत्तर देने के लिए बुलाया जाय. ये कार्य मात्र केंद्र स्तर पर ही नहीं अपितु राज्य स्तर पर भी होना चाहिए.
                 लोकतंत्र जो अब सिर्फ कुछ दलों, पूंजीपतियों या खानदानों में सिमट कर रह गया है. उसमें लोक की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए. छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक जो विकास निधि प्रदान की जाती है, वह कार्य वर्ष समाप्त होने पर वापस हो जाती है. क्षेत्र नरक का नरक बना रहता है और निधि वापस हो जाती है ऐसा किस लिए होता है?  छोटे स्तर पर पार्षद कहीं और व्यस्त होते हैं, उन्हें ठेकेदारों से समुचित कमीशन नहीं मिल पता है तो विकास कार्य में रूचि ही नहीं लेते हैं. ऐसे ही विधायकों और सांसदों  की निधि  जब वापस जाती है तो इसका मतलब ये समझा जाता है कि उनका क्षेत्र पूर्ण रूप से विकसित और सुवयावस्थित है. इस विषय में उनसे लिखित तौर पर मांगना चाहिए कि इस निधि की वापसी का पर्याय क्या है?
                 इस तरह से कुछ तो समस्याओं, अन्याय और प्रतिनिधित्व के प्रति न्याय की एक आशा जाग्रत होगी. देश की मौजूदा हालात  में कुछ तो सुधार होगा. एक संतोष जन मानस में होगा कि जो पांच साल के लिए दल के नाम पर प्रतिनिधि चुना है , उसकी कार्यविधि पर हम सवाल उठा सकते हैं और फिर उसका उत्तर भी मिलेगा. पार्टी के नाम पर बिठायीं गयी कठपुतलियाँ भी इसके तहत नाचना शुरू कर देंगी सिर्फ मत बढ़ाने के लिए ही संसद में नहीं बैठी रहेंगी.

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

हार्दिक शुभकामनाएँ !

                                                                                   ईद       


                                                                                  और


                                                                           गणेशोत्सव 



                                                               के सुखद संयुक्त संयोग पर 

                              सभी लोगों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं.

बुधवार, 8 सितंबर 2010

अधिनियम निर्माण और अनुप्रयोग !

                उत्तर प्रदेश सरकार 'माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण अधिनियम २००७ ' को लागू करने जा रही है. इसके लिए प्रत्येक जिले में ट्रिब्यूनल और अपीलिएत ट्रिब्यूनल गठित किया जाएगा.
                  इसके लागू होने पर पीड़ित व्यक्ति को ट्रिब्यूनल में  एक आवेदन पत्र देना होगा और ट्रिब्यूनल उनके बेटे बेटियों , नाती , पोतों का पक्ष सुनकर भरण पोषण का आदेश देगा और आदेश पालन न करने पर उन्हें एक माह की जेल व  जुरमाना देना पड़ेगा.
               इतिश्री अधिनियम कथा.
                   व्यक्ति को सामाजिक  व्याधियों और उत्पीड़न व अन्याय से बचाने के लिए ही क़ानून और दंड का प्रावधान किया गया था. ये कानून और दंड का मानव जाति के स्वभाव के अनुसार सदियों पुरानी व्यवस्था है. कालांतर में जब अपराध और उत्पीड़न का स्वरूप बदलने लगा और आचरण की दिशाएं बदल गयीं जिससे नए प्रकार कि घटनाएँ देखने को मिलने लगीं. क़ानून व्यवस्था इस ओर से जागरुक हुई और उनके मद्देनजर नए अधिनियम बनाने लगे. हमने अधिनियम बनाये और उनके विपरीत आचरण अपराध कहलाया गया. सरकार सिर्फ अधिनियम बनाएगी , उनको घर घर जाकर लागू  नहीं करेगी. अगर बहुत आगे बढे तो एक अपराध की एक ही सजा होगी. फिर वे मुक्त वैधानिक और नैतिक दोनों दायित्वों से. जुरमाना देकर और सजा भुगत कर वैधानिकता से , समाज की दृष्टि में अपमानित और तिरस्कृत होकर नैतिकता से भी.
                   अगर वरिष्ठ नागरिक ट्रिब्यूनल में जाते हैं तो क्या इसके बाद उनके बहू और बेटे या नाती और पोते उनके प्रति उत्तरदायी रहेंगे. वे उनको घर में रखेंगे - नहीं , तब हमारी सरकार के पास कोई दूसरा विकल्प होना चाहिए कि ऐसे लोगों को वह शरण देगी. यदि परिजन खर्च देने को तैयार है रखने को नहीं तो सरकार के पास क्या व्यवस्था है? क्या कोई दूसरा विकल्प है? अगर नहीं तो वे बुजुर्ग इसके बाद क्या करेंगे? कहाँ जायेंगे? मुझे संदेह है कि इससे पहले बुजुर्ग घर में जो भरण पोषण या आश्रय पाते रहे थे इसके बाद भी वे पा सकेंगे. पैसा हर मर्ज की दवा नहीं होती है.
                 अगर सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन हो रहा है तो क्या हम पश्चिम की नक़ल हर बात में कर रहे हैं सरकार उसके लिए खुद कुछ करें. इसमें संतान पक्ष ही दोषी हो ऐसा नहीं है? कितने बुजुर्ग ऐसे होते हैं जो अपने कार्यकाल में जिस शान से जिए हैं खाया पिया है उसी शान से रहना चाहते हैं और ये भूल जाते हैं कि उनके बच्चे जब पढ़ रहे थे तब कितना खर्च था और आज के बच्चे पढ़ रहे हैं तो कितना खर्च है? उनके बेटे घर के बजट को सही ढंग से चलाने ने के लिए बराबरी से मेहनत कर रहे हैं और तब भी वो नहीं खा और खिला सकते हैं जिसे उनने अपने जीवन में सामान्य समझ कर ग्रहण किया था. उनकी पत्नी घर में रहती थी और उनकी फरमाइश के अनुसार उनको बनाकर खिला सकती थीं और खिलाया भी. लेकिन वह बहू जो सुबह पूरा खाना बनाकर काम पर जाती है और शाम ६ बजे लौट कर आप उससे कहें कि चाय के साथ भजिये भी होने चाहिए और न करने पर अपशब्द या दूसरे के सामने अपमानित करें तब दोष किसे देंगे?
                यहाँ पर दोनों ही दोषी हो सकते हैं, कहीं बहू सुबह तैयार होकर ऑफिस चली गयी और दिन का खाना घर में मौजूद महिला बना रही है. शाम को उनके लौटने पर उन्हें चाय और नाश्ता भी तैयार मिलना चाहिए नहीं तो पतिदेव के कान भर कर नया नाटक तैयार होता है. उनके बच्चे स्कूल से आते हैं तो घर में दादी माँ और बाबा जी देखते हैं.
              इसके लिए एकतरफा निर्णय नहीं होता है. इसके लिए क़ानून के साथ साथ अस्थायी शरण स्थल भी बनाने चाहिए. अगर हम इसके बारे में मनोवैज्ञानिक , समाजसेवियों और काउंसलर के साथ विचार विमर्श करें तो पायेंगे कि इस स्थिति को सुधार  जा सकता है बगैर सजा के प्राविधान के - बस अस्थायी शरण स्थल हों. शिकायत के बाद बुजुर्गों जहाँ शरण मिल सके. अधिकतर तो ये होगा कि अपने घर में रहकर जिसे वे अपनी उपेक्षा समझते हैं या जो अपेक्षाएं करते हैं वो जब यहाँ पूरी नहीं होंगी तो उन्हें अपने घर से तुलना करना पड़ेगा और तब घर और अपने बच्चों के व्यवहार की कीमत पता चलेगी.
                           इसका दूसरा पक्ष जो बहूरानी सुबह सब कुछ सास या अन्य महिला या पुरुषों पर छोड़ कर चल देती हैं , जब उस घर के बुजुर्ग घर से हट जायेंगे और उन्हें सुबह से काम पर जाने तक सब कुछ तैयार करना होगा, घर में ताला डालना होगा और स्कूल से बच्चों को लौटकर ठन्डे खाने और खुद लेकर खाने कि जहमत उठानी पड़ेगी या फिर काम से लौट कर खुद ताला खोल कर अपने हाथ से चाय और नाश्ता बनाकर लेना पड़ेगा तो वे बुजुर्ग बहुत याद आयेंगे और तब अपनी गलती और उनके त्याग की कीमत पता चलेगी.
                        ये अस्थायी अलगाव उनके भ्रम को तोड़ने के लिए काफी हो सकता है और जो समस्या जेल और हर्जाने के द्वारा हमेशा के लिए घर के दरवाजे बंद करने का काम करेगा लेकिन इस विकल्प से वापस प्रेम और सौहार्दता का वातावरण स्थापित कर सकता है. 
                          मैं इस बात से इनकार नहीं करती कि कुछ प्रतिशत मामले ऐसे होते हैं जहाँ वाकई उत्पीड़न और उपेक्षा की हदें पर हो जाती हैं ऐसे स्थानों पर स्थायी शरण स्थलों की व्यवस्था पहले हो जानी चाहिए ताकि वे घर से बेघर किये गए बुजुर्ग किसी दूसरे के दरवाजे के  मुहताज न हो जाएँ. उनके मिलने वाले खर्चे और बाकी सरकारी सहायता से इन शरण स्थलों कि व्यवस्था होनी चाहिए. ऐसे शरण स्थलों में यही बुजुर्ग एक दूसरे के सहारे और दुःख सुख के साथी बन जाते हैं. 
                       इस तरह से इस अधिनियम को लागू करने के पहले उसके अन्य व्यवस्थाओं को बना लेना चाहिए ताकि उचित परिणाम प्राप्त कर सकें और समस्या का समाधान भी.

बुधवार, 1 सितंबर 2010

मी लोर्ड ! हम भूखे मर जायेंगे .

                      
हमारी  न्याय प्रक्रिया बहुत ही सुस्त है और इससे मुक्त होने के लिए कई प्रयास किये गए और इस दिशा में गुहार जारी भी है लेकिन इसका परिणाम नहीं निकाल पाता है. कभी ये कि हमारे पास जजों की संख्या कम है और लंबित मुकदमें अधिक है तो कार्य कैसे चलेगा? कुछ हमारे न्याय प्रणाली के रास्ते इतने उबड़ खाबड़ हैं कि उन्हें पार करने में वादी की जिन्दगी ही ख़त्म हो जाती है या फिर वह न्याय की आशा में दौड़ते दौड़ते पंगु हो जाता है. ये पंगुता पैसे से, स्वास्थ्य से, और शक्ति सभी से देखी जा सकती है. 
                         इस दिशा में एक विसंगति ये देखने को मिली जो कि अपने आप में एक मिसाल ही है. आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में सिविल न्यायलय में पिछले दिनों एक न्यायाधीश जे. वी. वी. सत्यनारायण मूर्ति ने एक दिन में रिकार्ड १११ मामले निबटाये . उनके कार्य कि गति को  देख कर वकीलों के एक वर्ग ने उनसे इस गति से कार्य न करने का आग्रह किया क्योंकि वकीलों को प्रति पेशी १०० से लेकर २०० रुपये फीस मिलती है. सालों चलने वाले मुकदमे उनकी स्थायी आमदनी का साधन है. न्यायाधीश ने उनकी इस दलील के बाद कहा कि वे आपराधिक दंड संहिता के अनुरुप काम कर रहे हैं और उन पर कोई भी सवाल नहीं उठा सकता है. वकीलों के मेहनताने की खातिर वादियों को कष्ट झेलने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है.
                      न्यायमूति ने अपने साढ़े तीन महीने के कार्य काल में ५०० मामले निपटाए है. और अभी १००० मामले उनकी अदालत में लंबित है. पूरे देश  में लगभग ३ करोड़ मामले लंबित हैं,.
                       यदि सभी नहीं तो सिर्फ कुछ प्रतिशत न्यायमूर्ति भी न्यायमूर्ति सत्यनारायण मूर्ति का अनुकरण करें तो इस बोझ को बहुत जल्दी काम किया जा सकता है.

                         हम न्याय प्रक्रिया के सुस्त होने पर किसको दोष देते हैं? हाँ इतना जरूर है कि वकीलों की इस भूमिका को कभी सोचा नहीं था.  क्या सिर्फ अपने स्वार्थ  के लिए वकील ये घिनौनी मानसिकता हैं रखते हैं ( इसमें सभी वकीलों को शामिल नहीं किया जा रहा है, खासतौर पर वे जो इस सोच के नहीं हैं.) वर्षों तक वादियों को लटका कर भटकते रहने के लिए मजबूर करना तो किसी भी कार्य की धर्मिता में नहीं आता है. वकील को फीस लेने का अधिकार होता है लेकिन सिर्फ पेशी पर तारीख  बढवा  देने पर या न्यायमूर्ति के अनुपस्थित होने पर भी अपनी फीस वसूल करना उचित है क्या? लेकिन ये होता है. गाँव से आने वाला वादी कभी कभी मीलों पैदल चलकर शहर तक आता है और अपने खाने के लिए नमक रोटी और हरी मिर्च और प्याज एक पोटली में बाँध कर लाता है लेकिन अपनी जेब में वकील की पूरी फीस के रुपये जरूर लाता है. इन तारीखों का सिलसिला वर्षों तक ख़त्म नहीं होता है और वादी इसी तरह हर पेशी पर फीस देकर चले जाते हैं. घर बिक जाते हैं, खेत बिक जाते हैं और घर के जेवर तक बिक जाते हैं और उन्हें न्याय नहीं मिल पाता है. कितने इन वकीलों की नीति के शिकार जेल में सड़ते रहते हैं और उनके पैरोकार भी चल बसते हैं 
                         ऐसे न्याय में जिसमें न्याय न हो रहा हो, इसको हम क्या कहेंगे? इन वकीलों को अपने भूखे मरने की बहुत चिंता है लेकिन उन परिवारों की चिंता नहीं होती , जो इस मुकदमेंबाजी के चक्कर में बर्बाद हो रहे हैं यहाँ  तक कि ये बिलम्ब उनकी बलि भी ले लेता है. इसके लिए क्या करना होगा? इसके लिए हमारी क्या नैतिक जिम्मेदारी है? इसको कैसे ख़त्म किया जाय?  हमें भी अपने विचार प्रस्तुत करने चाहिए.