
अनीता कुमार
संघर्ष के अलग अलग स्वरूपों को हम देख रहे हें औरों की आँखों और अनुभवों से , कभी तो लगाने लगता है कि कहीं ये हमारी कहानी ही तो नहीं है क्योंकि जिन्दगी के कुछ पहलू ऐसे होते हैं जो सामने से एक जैसे ही होते हैं वह उनके रंग अलग हो जाते हैं। कभी वे रंग बहुत गहरे और कभी बहुत हल्के होते हैं लेकिन ये संघर्ष के पल इंसान की परीक्षा लेते हैं - उनसे लड़ने की क्षमता तो वह ईश्वर ही देता है और हम उसके सामने नत होते हैं।
रेखा जी ने अनुरोध किया कि कुछ लिखूं इस नये स्तंभ के लिए और मैं तब से पीछे मुड़ कर जिन्दगी को देख रही हूँ, सोच रही हूँ कि क्या बताऊं? जो मेरे लिए संघर्ष रहा वो शायद नितांत व्यक्तिगत है, उसके बारे में कुछ कहना मुश्किल है और जो मेरे लिए एक हादसा था वो शायद संघर्ष की परिभाषा में आता ही नहीं। फ़िर भी एक ऐसी घटना जिसने मेरे जीवन पर बहुत प्रभाव डाला वो आप के साथ बांट रही हूँ, अगर वो संघर्ष की परिभाषा में न बैठता हो तो रेखा जी से अग्रिम माफ़ी मांग रही हूँ।
बात उन दिनों की  है जब कॉलेज में नौकरी लगे एक  दो साल हुए थे, बेटा चार पांच साल  का था। कई साल इंडस्ट्री में  काम करने के बाद हम अध्यापन  क्षेत्र में आये थे और आते ही  समझ गये थे कि अगर इस क्षेत्र  में आगे बढ़ना है तो पी एच डी  करनी चाहिए, जरूरी नहीं था लेकिन  कैरियर के लिए अच्छा था। सो  हमने पी एच डी करना शुरु कर दिया।  काम लगभग पूरा होने को आया।  डेटा एकत्र कर लिया गया था और  अब उसका विश्लेषण करना बाकी  था। उन दिनों कंप्युटर इतने  आम नहीं थे। किसी के घर में होना  तो दूर बहुत कम दफ़तरों में भी  कंप्युटर पाये जाते थे। मेरे  पिता के एक मित्र ने हमारी सहायता  करने का वादा किया और अपने एक  दोस्त को फ़ोन किया। तय ये हुआ  कि इतवार के दिन मैं और मेरे  अंकल उस व्यक्ति के दफ़तर जायेगें  और वहां काम करेगें ताकि उसके  दफ़तर की आम रूटीन में भी खलल  न पड़े। 
उस इतवार हम खुशी  खुशी अपना पूरा डेटा समेटे  डबल डेकर बस में सवार हो लिए, घर  से करीब 25 कि मी की दूरी पर वो  दफ़्तर था जहां हमें जाना था।  बम्बई की सड़कें तब भी हमें चांद  पर होने का एहसास दिलाती थीं  और आज भी। खैर हाथी जैसी भारी  भरकम बस के ऊपरी तल पर बैठे ऐसे  हिचकोले खा रहे थे जैसे हाथी  पर ही बैठे हों।  दो घंटे लगे  हमें उस सफ़र पार करने में। 
 
काम शुरु हुआ, कुछ  हमने समझाया कि हम क्या करना  चाहते हैं कुछ उन लोगों ने समझाया  कि कंप्युटर क्या कर सकता है।  आधा घंटा भी न गुजरा होगा कि  हमें लगा जैसे कुर्सी की सीट  गीली हो रही है। हम आश्चर्यचकित  रह गये और तुरंत अपनी सीट से  उठ खड़े हुए। हमने पूछा क्या  यहां बाथरूम है? और हाँ सुनते ही उस  तरफ़ दौड़ लिये।  आधा घंटा गुजर  गया, अंकल  परेशान कि हम बाथरूम से बाहर  नहीं आये, अब आगे क्या काम करना  है वो कैसे निश्चित हो, जिस व्यक्ति का दफ़तर  है उसे भी खाना खाने घर जाना  है उसे इतवार के दिन इस तरह रोकना  ठीक नहीं, पर हमें भी कैसे आवाज  दे इसी उपापोह में थे कि इतने  में दफ़तर मालिक की पत्नि वहां  आ गयी। उन दोनों की जान में जान  आयी और उन्हों ने उसे पता करने  भेजा कि हम बाथरूम से बाहर क्युं  नहीं आ रहे। 
 
उस महिला ने आकर  पूछा हमने अपना हाल बताया उसने  सोचा कि अचानक महिला को जो इमरजेंसी  आन पड़ती है वो आन पड़ी होगी,  उसने  कहा वहीं आले में सेनिटरी नैपकिन  रखें हैं ले लो। हमने कहा कि  बात उस से कहीं आगे बढ़ चुकी है  और हमारे पूरे कपड़े भीग चुके  हैं और हम बाहर नहीं आ सकते, हमारे  घर फ़ोन लगाया जाये और पति देव  से कहा जाये कि वो दूसरा जोड़ा  कपड़ों का ले कर आयें और अगर हो  सके तो काली साड़ी ले कर आयें  तब उस महिला के कान खड़े हुए उसने  पूछा कि क्या बात है? दरअसल मेरी प्रेंगनेंसी  का तीसरा महीना था और माहवारी  होने का तो कोई सवाल ही नहीं  उठता था।  उन दिनों मोबाइल नहीं  हुआ करते थे। एक घंटे में हम  अस्पताल पहुंच गये। डॉक्टर  ने कहा बस के झटके लगने से नुकसान  तो हुआ है लेकिन ऐसा नहीं कि  बचाया न जा सके। शर्त ये थी कि  हम कम से कम सात दिन अस्तपताल  में सीधे लेटे रहें करवट भी  न बदलें। 
 
उसी समय पता चला कि मेरे ससुर जो रूटीन चैक अप के लिए अस्पताल गये थे उन्हें वहीं भर्ती कर लिया गया है।( यहां मैं बताती चलूं कि मेरे ससुर आर्मी में थे और बहुत ही छोटी उम्र में उनका एक फ़ेफ़ड़ा दूसरे विश्वयुद्ध की बली चढ़ गया था। आठ गोलियां लगने के बावजूद उन्हें आर्मी डॉक्टर्स ने बचा तो लिया था लेकिन उन्हें सेवानिवृत होना पड़ा था।)
अब ससुर उस समय  भर्ती थे नेवी अस्पताल में  कोलाबा में और मैं पड़ी थी चैम्बूर  के अस्पताल में। पति देव के  लिए अपना दफ़तर और दोनों अस्पताल  के चक्कर काटना बहुत भारी पड़  रहा था। हमने कहा आप ससुर जी को देखिये  मेरे पास मेरे माता पिता हैं  ही। पर इस तरह बिना कुछ किये  बिस्तर पर पड़े रहना मेरे लिए  बहुत ही असहनीय था। खास कर तब  जब अस्पताल से छुट्टी देते  समय डॉक्टर ने कहा कि और पंदरह  दिन घर पर भी ऐसे ही लेटे रहना  पड़ेगा। हम अपनी माँ के घर पर  थे। पांच साल के बेटे को बड़ा  अजीब लगता था कि मां हर समय लेटी  रहती है, वो चाहता था कि हम  उसे घुमाने नीचे ले कर जायें  उसके साथ खेलें…इतने में हमारे घर  कुछ मेहमान भी आ गये और माँ पर  बोझ दोहरा हो गया। अब हमसे लेटा  नहीं जा रहा था। 
 
हमने एक रात माँ से कहा कि चाहे कुछ भी हो जाये कल हम ससुर को देखने जरूर जायेगें वो अपने मन में क्या सोचते होगें, आखिरकार प्रेगनेंसी कोई बिमारी थोड़े है जो मुझे देखने भी न आयी और अपनी मां के घर जा कर बैठ गयी। माँ ने हलका सा विरोध किया और तय हुआ कि कल डॉकटर को फ़ोन किया जायेगा। हम सब सो गये।
रात तीन बजे फ़ोन की घंटी घनघना उठी। हड़बड़ा कर मेरे पिता ने फ़ोन उठाया। दूसरी तरफ़ मेरे पति थे, कह रहे थे कि अभी अभी मेरे ससुर का देहांत हो गया है और ये खबर वो अपनी मम्मी को फ़ोन पर नहीं देना चाहते। उन्हें अस्पताल से निकलने में काफ़ी समय लगेगा और वो चाहते हैं कि मैं खुद जा कर ये खबर अपनी सास को सुनाऊं। अब तो कुछ सोचने का समय ही नहीं था। मैं, मेरे माता पिता तीनों झटपट सड़क पर आ गये और टेक्सी तलाशने लगे। करीब पौने चार बजे हम खार( मेरी ससुराल) पहुंचे। उस दिन विशु का पर्व था, मलयालियों का नववर्ष, उस में ग्रहणी सुबह अंधेरे मुंह साल भर घर में काम आने वाला सारा सामान एक जगह सजाती है, दीप जलाती है और फ़िर घर के एक एक सदस्य को नींद से उठा कर सबसे पहले उन सब चीजों का दर्शन कराती है। मेरी सास उसी की तैयारी कर रही थीं। दरवाजे की घंटी बजी तो उन्हें लगा शायद मेरे पति अस्पताल से लौटे होगें। जैसे ही उन्हों ने दरवाजा खोला और हम तीनों को देखा तो उन्हें समझते और फ़िर बेहोश होते वक्त नहीं लगा। पूरे घर में हाहाकार मच गया।
मेरे जैठ अस्पताल  भागे, मेरी  जैठानी सास को संभालने  में  जुट गयीं और सब को इत्तला करने  का सिलसिला शुरु हो गया। केरला  से मेरे ससुर के भाई का फ़ोन आ  गया कि उनके आने तक इंतजार किया  जाये, मतलब  ससुर जी के शरीर को करीब चौबीस  घंटे रखना होगा। आने वालों  का तांता लग गया। 
 
हमने अपनी जैठानी  से कहा कि वो मेहमानों को संभालें  क्युं कि हमें मलयालम बोलनी  नहीं आती और हम किचन संभालेगें।  तीन दिन तक कई कई घंटे खड़े रह  कर खाना बनाने से ले कर बर्तन  मांजने तक का काम हम अथक करते  रहे। तीसरे दिन मेरी मम्मी  ने बहुत हिचकते हुए हमारी हालत  का जिक्र किया। ये बात तो मैं  और मम्मी पहले दिन ही समझ गये  थे हमारा अजन्मा बच्चा भी उसी  दिन चला गया जिस दिन हमारे ससुर  गये थे। जैसे ही बात मेरे पति  की ताई तक पहुंची उन्हों ने  मेरे पति को आदेश दिया कि सब  काम छोड़ अभी का अभी हमें अस्पताल  ले कर जाया जाये। दूसरे दिन  सुबह हम अस्पताल पहुचें डी  एन सी करवाने। डॉक्टर ने खूब  फ़टकार लगायी और पति देव से कहा  कि अगर एक दिन की भी और देरी  होती तो जहर हमारे पूरे शरीर  में फ़ैल जाता और फ़िर हमें भी  बचाना मुश्किल हो जाता। 
उसके बाद दो महीने  आलम ये था कि ऐसा लगता था जैसे हमारे  शरीर में कोई नल लगा हुआ हो और  हम दो महीने तक जमीन पर सोते  रहे। दो महीने बाद जब कॉलेज  पहुंचे तो सब को लगा कि हमें  जोरदार पीलीया या टी बी हो गयी  है।
पति देव ने ऐसी तौबा की कि निश्चय कर लिया कि अब कभी मुझे ऐसी मुसीबत में नहीं डालेगें…:) बस, कुछ सिलसिला ऐसा बना कि हम अपनी पी एच डी भी पूरी न कर सके, अब छोटा सा परिवार मैं वो और मेरा एक पुत्र्…
खुशी की बात ये है कि अब वो भी पिता बनने जा रहा है :)
अनिता जी, आपके इस संस्मरण को पढ़कर मेरी आँखे भर आई, संघर्ष के दिनों को याद करना सचमुच काफी तकलीफदेह है !
जवाब देंहटाएंइस बार के मुम्बई प्रवास दौरान मेरी घोर व्यस्तता रही, आपसे मुलाक़ात न हो पाने का अफ़सोस है !
बहुत ही भावनात्मक आलेख वाकई आपकी ज़िंदगी का यह किस्सा भी संघर्ष ही तो है जिसका आपने बखूबी सामना किया।
जवाब देंहटाएंइसी का नाम जिन्दगी है और हम लोग ही इसको जीते चले आ रहे हें. इसी लिए कहा जाता है कि जो सहनशीलता भगवान ने नारी में दी है वह और किसी में नहीं दी. घर और परिवार के लिए खुद को न्योछावर करने की प्रवृत्ति से ही परिवार संस्था भारत में इतनी मजबूत है कि इसके लिए विदेश में भारत को आदर मिलता है. तुम्हारी हिम्मत और साहस को सलाम!
जवाब देंहटाएंरवीन्द्र प्रभात ने आपकी पोस्ट " चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन (७) " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंअनिता जी, आपके इस संस्मरण को पढ़कर मेरी आँखे भर आई, संघर्ष के दिनों को याद करना सचमुच काफी तकलीफदेह है !
इस बार के मुम्बई प्रवास दौरान मेरी घोर व्यस्तता रही, आपसे मुलाक़ात न हो पाने का अफ़सोस है !
Pallavi ने आपकी पोस्ट " चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन (७) " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावनात्मक आलेख वाकई आपकी ज़िंदगी का यह किस्सा भी संघर्ष ही तो है जिसका आपने बखूबी सामना किया।
बेटे को शुभकामनायें आपके साथ साथ... सही कहा कुछ बातें व्यक्तिगत होती हैं
जवाब देंहटाएंउफ़ रौंगटे खड़े हो गए मेरे तो..भगवान आपको और आपके परिवार को सलामत रखे.
जवाब देंहटाएंकठिन परिस्थितियाँ जीवन को बहुत कुछ सिखा जाती हैं, हम हर बार तप कर निखरते हैं..
जवाब देंहटाएंप्रेरक संस्मरण है!
जवाब देंहटाएंज़िंदगी चुनौतियों का ही दूसरा नाम है समझ सकती हूँ किन हालात से गुजरी होंगी।
जवाब देंहटाएंchaliye...sab badhiya hua finally to no tension!! :)
जवाब देंहटाएंकभी-कभी जब हम पीछे मुड़ के देखते हैं तो खुद पर अचरज होता है,कि कितना कठिन समय गुज़ारा है हमने??
जवाब देंहटाएंजिंदगी में हर तरह के पडाव आते हैं....
जवाब देंहटाएंमेरी टिप्पणी कहाँ गई??
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंघूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच ।
लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज बुधवार के चर्चा मंच पर लगाई गई है!
कठिन दौर से गुजरना हुआ। बहुत कष्ट्दायी दिन बीत जाने के बाद यादागार दिन हो जाते हैं।
जवाब देंहटाएंआप अब नानी बनने जा रही हैं। आपकी बहू के लिये मंगलकामनायें। पूरे परिवार को शुभकामनायें।
अनीता जी की आप व्यथा पढ़ने के बाद ...मुझे मेरा अतीत भी याद आ गया ...क्यूंकि मैंने भी अपना एक बच्चा ऐसे ही खो दिया था ...बहुत हद तक हालत भी ऐसे ही थे ...तभी मैं अनीता जी का दर्द और उसकी यादे समझ पा रही हूँ ...पर अब अंत भला सो सब भला ....आभार
जवाब देंहटाएंरेखा
जवाब देंहटाएंमैं ने अभी देखा, हमेशा की तरह टिप्पणियां नहीं देख पा रही थी, खुलती ही नहीं। फ़िर अभी अभी मेरे दिमाग की बत्ती जली और फ़ायरफ़ोक्स के बदले इंटरनेट एक्सपलोरर में आप का ब्लोग खोला तो थोड़ा स्थिर हुआ और टिप्पणियां पढ़ सकी। लेकिन मेरी टिप्पणी फ़िर भी प्रकाशित नहीं कर सकी। इस लिए यहां लिख रही हूँ कृप्या मेरी तरफ़ से प्रकाशित कर दीजिएगा।
आप सभी के संवेदानत्मक शब्द मेरा मनोबल बड़ा रहे हैं। काश ये ब्लोगिंग की सुविधा अस्सी के दशक में भी होती तो शायद जिंदगी के अनुभव कुछ और ही होते।
जैसा मैं ने कहा टिप्पणी बॉक्स नहीं खुल रहा और मैं टिपिया नहीं पा रही लेकिन पहली कड़ी से इस स्तंभ की हर पोस्ट पढ़ रही हूँ। वंदना जी की पोस्ट बहुत प्रेरणादायी रही, रश्मि जी तो मुझ जैसे कइयों की मनपसंद लेखिका हैं उनकी पोस्ट बहुत फ़िलोसोफ़िकल रही जिसने मुझे लिखने के पहले ये सोचने को मजबूर कर दिया कि संघर्ष है क्या और यही उधेड़बुन मेरी पोस्ट की ओपनिंग रही। शास्त्री जी पर कच्ची उम्र में ही कितना बड़ा बोझ आन पड़ा और कितनी ही शामें उन्हों ने चिंता में गुजारी होगीं इसका अंदाजा है पर अंत भला तो सब भला।
प्रवीण जी का ब्लोग मैं नियमित पढ़ रही हूँ आशा है अब उनके गले की मोच ठीक हो गयी होगी।
isake upar vali tippani Anita Kumar kee hai.
जवाब देंहटाएंरेखा
जवाब देंहटाएंपता नहीं क्युं अभी भी टिपिया नहीं पा रही। कल मैं ने एक टिप्पणी आप को ई-मेल में भेजी थी वो भी नहीं दिख रही, प्लीज बताइये आप को मिली या नहीं। शिखा जी की टिप्प्णी क्या थी, उन्हों ने कहा कि उनकी भी नहीं प्रकाशित हुई।
शास्त्री जी को कहियेगा कि कल शाम को आप के ब्लोग पर आ नहीं पायी इस लिए पता नहीं चला चर्चा मंच का अभी देख रही हूँ। अनूप जी से कहिए नानी नहीं दादी बनने जा रही हूँ…:)
मैं नहीं मेरा कंप्युटर आप को तंग करने पर तुला है, सॉरी
सस्नेह
अनीता