मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
क़ानून की ढाल तले अति - ये कैसा क़ानून !
क़ानून अंधा होता है - उसको सबूत चाहिए. ये हम रोज सुना करते हैं लेकिन एक ऐसा भी क़ानून बना है जिसमें किसी सबूत जरूरत नहीं होती और उसकी आड़ में ब्लैकमेल भी आसानी से किया जा सकता है. क़ानून हमारे समाज को मर्यादित और संयमित बनाकर सबको सामान्य एवं शांतिपूर्ण जीवन देने के लिए बनाये गए हैं तथा काल और परिवेश के अनुसार इनका पुनर्निर्माण , संशोधन और नवनिर्माण भी होता रहता है.
हो सकता है कि मेरे इस लेख का नारी समूहों द्वारा विरोध भी किया जाय लेकिन सत्य सदैव सत्य है और गलत कोई भी करे उसको इंगित कोई भी कर सकता है. ऐसा नहीं है कि नारियां गलत नहीं कर रही हैं लेकिन उनके लिए महिला आयोग है . उनसे त्रसित लोगों के लिए क्या मानवाधिकार आयोग कुछ भी नहीं कर सकता है.
मैं दहेज़ उत्पीड़न निरोधक क़ानून के विषय में चर्चा कर रही हूँ. इसके लिए कोई सबूत नहीं चाहिए. इसके साथ ही इसका उपयोग वास्तव में त्रसित कितनी महिलायें कर पाती हैं? इसके आंकड़े भी बताते हैं कि क़ानून अंधा होता है.
मेरे बराबर वाले फ्लैट में एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर रहता है - एक साल पहले शादी हुई, बड़े सपने सजाये थे. पहले तो घर में जाकर सबको अपने अनुरूप चलाने की कोशिश की , जब सही और गलत सब नहीं चला तो मायके जाकर बैठ गयी. फिर उसने वहीं से उसको परेशान करना शुरू कर दिया. उसकी शर्तें थीं:
--अपने परिवार से कोई रिश्ता नहीं रखोगे.
--जब भी यहाँ रहोगे तो मेरे घर ही रहोगे, अपने घर नहीं जाओगे.
--भाई - बहनों के लिए कुछ नहीं करोगे.
--होली दिवाली भी मेरे ही घर में होगी क्योंकि मेरा भाई विदेश में रहता है और मेरी माँ अकेली है.
लड़के को ये शर्ते मंजूर न थीं उसने दूसरी कंपनी में नौकरी ले ली और यहाँ आ गया. दिन भर अपनी कंपनी में काम और रात में पत्नी के तमाशे में पिसता रहता है. इससे पहले वह किराए से रहता था तो पत्नी के तमाशे से तंग आकर मकान मालिक ने मकान खाली करवा लिया. जहाँ वह शादी से पहले से रहता चला आ रहा था.
रोज रात का तमाशा बना रहता है. पड़ोसियों कि नींद हराम अलग से. बालकनी खोल कर रात को चिल्लाना शुरू कर देती है -
--मारो मारो - मेरा भाई तुम्हें और तुम्हारे घर वालों को दहेज़ में जेल में सडवा देगा.
--देखती हूँ तुम्हारी बहन कि शादी कैसे होती है?
--तुम्हारे ७० साल के बाप को जेल की चक्की न पिसवा दी तो मेरा नाम नहीं.
जब मन होता है आ जायेगी और जब मन होगा माँ के घर चली जाती है. अब तो उसकी शक्ल से ही डरता है वो, कई कई दिन घर नहीं आएगा. कभी कंपनी में ही और कभी किसी दोस्त के घर सो जाता है.
रीना - सिर्फ १५ दिन ससुराल रही और घर के अनुरूप खुद को न पाकर मायके जाकर दहेज़ एक्ट लग दिया. सास, ससुर, पति सभी जेल कि सलाखों के पीछे पहुँच गए. फिर जमानत पर वापस आये.
इससे पहले फॅमिली कोर्ट में लिख कर दे चुकी थी कि मैं ही ससुराल वालों से अच्छा व्यवहार नहीं कर पायी - आगे से ठीक से रहूंगी. ससुराल आई भी नहीं और १५ दिन बाद दहेज़ उत्पीडन का मुकदमा कर दिया. स्वच्छंद जीवन जीने के लिए उसे आजादी चाहिए थी. मध्यस्थों से १० लाख रूपये कि मांग की कि सारे मुक़दमे वापस ले लूंगी. इतना पैसा मेरे एकाउंट में जमा करवा दो. अभी तक कोई निर्णय नहीं हो पाया है.
कविता ने माँ - बाप के दबाव में आकर शादी कर ली और फिर अपनी आदतों से ससुराल वालों को परेशान कर दिया. जब ससुराल में घर पर कोई न था, तो अपने बॉय फ्रेंड के द्वारा पुलिस को बुलाकर सारा सामान लेकर चली गयी. घर वालों ने ससुराल वालों पर आरोप लगाकर मुकदमा कर दिया. उसने समाज के लिए शादी तो की थी. ससुराल अच्छी नहीं मिली और वह अपने बॉय फ्रेंड के साथ रहने लगी. जब समाज ने उंगली उठाना शुरू किया तो सारे मुकदमे उठा कर तलाक के लिए अर्जी दे दी और फिर बॉय फ्रेंड से शादी कर ली. इस एक लड़की के घर वालों के कदम ने ससुराल वालों को कितना अपमान , तनाव झेलना पड़ा. इसके लिए कोई क़ानून नहीं है.
अलका मानसिक रोगी थी, माँ -बाप ने बिना बताये शादी कर दी. जब तक वह दवा खाती रही ठीक थी, किन्तु दवाएं भी सब से छुपा कर खाती थी. जब मायके जाये तो लेकर आती थी. एक बार अधिक दिन रहना हुआ और दवाएं ख़त्म हो गयी - उसकी असामान्य हरकतें शुरू हो गयी. मायके वालों को खबर की तो उसको ले गए और दहेज़ उत्पीड़न का मुकदमा कर दिया कि हमारी लड़की तो अब तुम्हें रखना नहीं है हम तुम्हें भी चैन से नहीं रहने देंगे. वह तो सामान्य जीवन नहीं जी सकती. वह लड़का आज भी इस मुक़दमे के चक्कर में न शादी कर सकता है और न ही मानसिक तौर पर निश्चिन्त रह पाता है.
हम नारी उत्पीड़न की बात को स्वीकार करते हैं, इस क़ानून कि उपयोगिता को भी किन्तु इस बार नारी द्वारा किये जा रहे उत्पीड़न के पीछे क्या इस क़ानून की ढाल नहीं है? यद्यपि इस प्रकार कि महिलाओं कि संख्या २० प्रतिशत है किन्तु सम्पूर्ण नारी जाति पर प्रश्न चिह्न खड़ा नहीं हो जाता है. ऐसे उत्पीड़ित लोगों का कहना है कि सारे क़ानून सिर्फ महिला संरक्षण के लिए ही बने हैं - तथ्य या सत्य की कोई नहीं सुनता है - न पुलिस और न क़ानून. अब तो लड़कों कि शादी करने से डर लगता है कि ये घर की लक्ष्मी आ रही है या फिर बरबादी.
इस सारे कथन का पर्याय ये है कि हमारा अंधा क़ानून कब तक एक ही दिशा में चलता रहेगा. क़ानून बनना सही है किन्तु उसके दुरूपयोग की दिशा में भी कठोर दृष्टि रखनी चाहिए. महिला आयोग इस बात से वाकिफ नहीं है ऐसा भी नहीं है किन्तु महिला आयोग है तो उसके खिलाफ बोलना उसके नियमों और नाम के विपरीत हो जाएगा. इस के लिए मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग को आपस में मिलाकर इस तरह के मामलों के लिए समवेत हल सोचने होंगे. किसी को भी बिना कुछ सुने सीधे जेल में डाल देना और फिर जमानत भी नहीं होना किस क़ानून की दृष्टि में सही है. जब कि वास्तव में जो दहेज़ के लिए उत्पीड़ित करते हैं, वे इस शिकंजे में फंसते ही नहीं है. पहले ही क़ानून को खरीद कर अपनी जेब में डाले रहते हैं. मुझे इस बारे में आप सभी से सुझाव चाहिए कि इसका हल क्या हो? जब कि यह समस्या भयावह रूप लेती जा रही है. सारे मामले मैंने बहुत बहुत करीब से देखे हैं.
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आप की बात से पूर्णत: सहमत। ऐसी कई घटनाएं देख चुका हूँ और स्वंय भी भुगत भोगी हूँ...।वास्तव मे इन कानूनो की आड़ मे बहुतों को लूटने की प्रक्रिया भी चल रही है....भले ही ऐसे लोगों की संख्या अभी ज्यादा नही है..लेकिन ऐसा ही चलता रहा तो ना जाने आने वाला समय कैसा होगा\
जवाब देंहटाएंअसहमति की तो कोई गुन्जाइश ही नहीं. बहुत से ऐसे मामले मैने भी देखे हैं. दहेज-उत्पीडन का मामला दायर कर देना तो एक हथियार सा बना लिया गया है.
जवाब देंहटाएंपूर्णत: सहमत है.
जवाब देंहटाएंshekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
मुझे नहीं लगता कि इस कानून में कोई दोष है। दोष यदि है तो वह पुलिस का है जो अचानक पक्षधऱ बन जाती है। दोष सरकार का भी है जो पारिवारिक मामलों के लिए पर्याप्त अदालतें स्थापित नहीं करती। हम ने देखा है कि मुकदमे के अंत मे ऐसी औरतें हार जाती हैं। यदि मुकदमों के फैसले साल भर के अंदर होने लगें तो कानून का सही स्वरूप सामने आ जाएगा।
जवाब देंहटाएंइस कानून के बावजूद भी परेशान होने वाले पुरुषों की संख्या दमन का शिकार होने वाली स्त्रियों की संख्या के सामने नगण्य ही है।
आपका कहना बिलकुल सही है...इस क़ानून का गलत फायदा उठाते भी देखा गया है...मैंने भी कुछ ऐसे उदाहरण देखे हैं...जहाँ पुरुष आजीवन पिसता रहता है..
जवाब देंहटाएंपर दोष कानून का नहीं...जांच परख करने वालों का है...हर केस के पीछे सत्यता की अच्छी तरह जांच की जाए तो ऐसी बेइंसाफी ना हो...पर हर जगह दबंग लोगों का ही पलड़ा भरी रहता है...अगर लड़की वाले अमीर हो,पहुँच वाले हों तो लड़के को परेशान कर डालते हैं और नहीं तो उल्टा होता है
दिनेश राय जी,
जवाब देंहटाएंआपका कहना सच है की पारिवारिक मामलों के लिए अलग अदालतों का गठन होना चाहिए और कानपुर में ऐसा पुलिस अधीक्षक के प्रयास से ऐसी अदालत काम करती थी . जिसमें वह , कुछ सामाजिक कार्यकर्ता, गणमान्य व्यक्ति , वकील और डॉक्टर को शामिल किया गया था , रीना का केस ऐसे ही अदालत में चला था और वहाँ से उसको जब दोषी करार दिया गया और उसने गलती भी स्वीकार कर लिखित दिया . किन्तु दहेज़ का मुकदमा लगते ही ससुराल वाले बिना किसी सुनवाई के जेल भेज दिए गए. उस अदालत की कार्यवाही को कोई भी महत्व नहीं दिया गया. फिर न्याय कहाँ? हाँ नारी अधिक पीड़ित हैं लेकिन उस कानून का स्वरूप न्यायपूर्ण होना चाहिए . पुलिस की भूमिका पर तो कुछ कहना ही बेकारहै.
अच्छी जगह ध्यान खीचा है आपने। मुझे तो खबर ही नही थी कि ऐसा भी कानून है.. बाप रे!!
जवाब देंहटाएंसही लिखा आपने। ऐसे किस्से आजकल बहुत देखने-सुनने में आते हैं! कानून का दुरुपयोग होने से रोकने के लिये कौन प्रयास करेगा?
जवाब देंहटाएंअनूप जी,
जवाब देंहटाएंपहल तो हमको ही करनी पड़ेगी. इन कानूनों की अन्धता को कम करना होगा. एक अकेले व्यक्ति की यह हिम्मत नहीं है बल्कि इसको उठाना होगा मानवाधिकार आयोग के द्वारा. आखिर यह जिसके भी पक्ष में हो है तो मानव शोषण ही. जैसे विवाह के अधिकार की आयु संशोधित करकेबढाई जा चुकी है वैसे ही इसकी धाराओं में भी संशोधन आवश्यक है.