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शनिवार, 21 सितंबर 2013

पांच वर्ष ब्लोगिंग के !

                                      जीवन में लेखन के तो लगभग  पांच दशक होने वाले हैं।  वह बचपन की बाल जगत की कहानियों और कविताओं के काल से जोड़ रही हूँ।   छोटी जगह का आदमी अधिक जानकारी भी नहीं रखता है।  हाँ घर में पिता पढ़ने के  शौक़ीन थे सो सारी पत्र पत्रिकाएं घर में आती थीं।  लिखने की कला तो  विरासत में मिली और प्रोत्साहन भी मिला लेकिन ये मुझे बहुत बाद में पता चला कि  पापा भी लिखते थे लेकिन उनका लिखा कभी पढने  को नहीं मिला।  
                                      लिखने और छपने का काम भी जल्दी ही शुरू हो गया था। लेकिन पत्र पत्रिकाओं में छपने का मजा भी कुछ और ही था क्योंकि तब और कुछ तो था नहीं। मध्यमवर्गीय परिवार में बगैर नौकरी के अर्जन  आपने आप में एक  अलग सुख था। लेकिन तब इतना नहीं जानती थी कि  ये अपनी लिखी हुई हर चीज संभालकर रखनी चाहिए सो काफी  छपा हुआ इधर उधर हो गया और जो शादी के बाद साथ लायी थी वो मेरी अनुपस्थिति में रद्दी की भेंट चढ़ गया।  मेरी अप्रकाशित रचनाएँ भी।  तब मुक्तक नहीं भेजती थी ढेर  सारे मुक्तक और शेर सब कुछ।  
                                     जब ब्लॉग बनाया तो इतना रोना आया कि  काश मेरी सारी डायरी होती तो पता नहीं कितना डालने को मेरे पास होता।  खैर जो भी बचा था और जो भी फिर लिखा गया वह तो ब्लॉग में है।  ऐसा नहीं है मेरी बहनें  अब भी कहती हैं कि  क्या ब्लॉग पर लिखा करती हो ? पत्रिकाओं में क्यों नहीं भेजती ? पहले कितना अच्छा था ? सच तो ये है की पत्रिका उन्हें आसानी से हासिल हो जाती है और ब्लॉग पर जाना और पढना अभी तक सबको आता नहीं है और फिर समय भी नहीं है।  लेकिन अब भेजने में झंझट लगने लगा है क्योंकि ब्लॉग पर तुरंत लिखो और तुरंत प्रकाशित  कर दिया।  अभिव्यक्ति का एक अलग माध्यम है , जिसमें किसी संपादक की पसंद या नापसंद का कोई झंझट ही नहीं ( संपादक बंधुओं से क्षमा याचना सहित ) . वैसे प्रिंट मीडिया में भी अपनी अलग राजनीति होती है।  अब वो जमाना नहीं है - पहले मैंने कभी संपादक को कवर लैटर भी नहीं लिखा।  अपनी रचना लिफाफे में बंद की और सीधे भेज दी।  वहां से स्वीकृति पत्र मिला बस और उसके बाद चेक।  इसमें कुछ भी न सही लेकिन सब कुछ अपने हाथ में है।  लिखो डालो और पब्लिश कर दो.  ढेर सारे  मंच भी  हैं जहाँ अपने और साथियों की रचनाओं के विषय में जानकारी  मिलती रहती है।  
                                  आज अपने पांच वर्ष पूरे करने पर मैं ब्लॉग के बारे अधिक जानकारी देने के लिए अपनी मित्रों रश्मि रविजा , रचना सिंह , संगीता स्वरूप को धन्यवाद कहना चाहूंगी , जिनसे मैंने बहुत कुछ सीख कर आगे कदम रखे।  फिर लेखन में और मेरी श्रृंखलाओं में मेरे सभी मित्रों ने समय समय पर मेरे विषय को लेकर जो अपने विचार या अनुभव दिए उन सबके को भी मेरा हार्दिक धन्यवाद ! 
                                 मेरी कविताओं को लेकर अपने संपादन में छपने वाले संग्रह में स्थान देने के लिए मुकेश कुमार  सिन्हा,सत्यम शिवम् और रश्मि प्रभा जी को मेरा हार्दिक धन्यवाद ! 
                                
                                  चेहरा तो मेरा मेरे पास था जन्म से ही ,
                                  भाव भरे मन में विधाता ही था शायद ,
                                  थामी कलम इन हाथों में वो पिता ने दी ,
                                  तराशा किसी ने नहीं , बस जो लिखा था 
                                  उसी तरह पन्नों पर उतरा और रख दिया। 
                                   ये वक़्त ही था  पहले पन्ने से पन्नों पर 
                                   फिर पन्नों से इस मंच तक चली आई। 
                                    पढ़ा, सराहा या फिर पोस्ट मार्टम किया
                                   साथ रहे मेरे सभी मित्र और बहन- भाई।  


                    बस आपके साथ , स्नेह और सहयोग से शेष जीवन में ब्लॉग पर लिखने की प्रेरणा देते रहें और आलोचना या समालोचना हो भी  निःसंकोच अपने विचार हम तक जरूर भेजें।

शनिवार, 14 सितंबर 2013

हिंदी दिवस : औपचारिकता भर !

                                      १४ सितम्बर हिंदी  दिवस  घोषित किसने किया -  हमारी सरकार ने क्योंकि  आजादी के इतने वर्षों बाद भी सरकारी स्तर पर उसको उसकी जगह दिला पाने में असमर्थ रही  है  और रही  नहीं है बल्कि आज भी है. तभी अपनी नाकामी पर परदा डालने के लिए हिंदी माह , हिंदी पखवारा , हिंदी सप्ताह और हिंदी दिवस अपने प्रयासों को प्रदर्शित करने का एक प्रयास मात्र है।जब कि देश को राजभाषा की दुर्दशा पर कहने का एक  अवसर प्रदान किया जाता है।  
                                      सरकारी प्रयासों से इसमें कुछ  होने वाला नहीं  है ,  वह सिर्फ एक औपचारिकता मात्र है। अभी पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय  ने किसी जानकारी को हिंदी में देने से इनकार  कर दिया ,  आखिर क्यों ?  क्या हमारे लिए अपनी राजभाषा में कोई सरकारी  सूचना प्राप्त करने की मांग करना न्यायसंगत  नहीं है।  जब हमारे सरकारी तंत्र में यह रवैया चल रहा है  फिर इस हिंदी के दिवस , सप्ताह , पखवारा या माह का क्या औचित्य है ?
                           आज के दिन  हिंदी की वकालत  करते हुए हिंदी में  काम  करने को बढ़ावा देने की बात करते हैं और दिवस के गुजरते ही  सब बातें एक साल के लिए दफन कर  जाती है। जब हमारी सरकारी  नीतियां ऐसी हैं  हिंदी की दुर्दशा के लिए किसी और को दोषी कैसे  कह सकते हैं ? कम वाले आमदनी वाले अभिभावक भी बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढाना पसंद करते हैं और फिर उसके लिए ट्यूशन भी रखने के लिए मजबूर  होते हैं।   क्यों करते हैं ऐसा क्योंकि वे अंग्रेजी के महिमा मंडन से  परिचित होते हैं।  अंग्रेजी माध्यम से  बुरा  नहीं है लेकिन स्कूल में हिंदी की उपेक्षा और पाठ्यक्रम में उसके विषयवस्तु का ठीक से चयन न करना ही इसका सबसे बड़ा कारण है .  जब संसद में हिंदी  भाषी प्रदेश के सांसद अंग्रेजी में बोल कर अपने आपको विद्वान सिद्ध करने की कोशिश करते हैं और प्रधानमंत्री अपनी मेधा से हिंदी में  भाषण देने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं  तो फिर हिंदी भाषी लोग अपने लिए कहाँ जगह खोजें ? आम आदमी चिल्लाता रहे कि  हिंदी को  आगे लाओ लेकिन सरकारी तंत्र आज भी अंग्रेजों का मुंहताज है।  जहाँ तक मुझे पता है की करीब करीब सभी संस्थानों में हिंदी प्रभाग और हिंदी अधिकारी का पद होता है लेकिन वहां वह हिंदी को बढ़ावा देने के लिए होता है यह तो वहां  पता चल सकेगा ?
                        सरकार क्या कर रही है और उसके क्या करना चाहिए ?  बस इतना कि अपने बच्चों को घर में हिंदी ही बोलने को कहें और उनको इसा भाषा में अपने ज्ञान को भी बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें।  वे स्कूल या कॉलेज के अलावा घर में अधिक सुधारे जा सकते हैं।  
                        स्कूल में हिंदी ज्ञान के  नाम पर  चुटकुला नहीं कहेंगे बल्कि ये वास्तविकता है कि प्राइमरी स्कूल में कुछ अधिकारी औचक निरीक्षण के लिए गए तो वहां पर बच्चे मातृभूमि शब्द शुद्ध नहीं लिख पाए और फिर जब  शिक्षिका जी ने लिखा तो वह भी गलत था।  अधिकारी ने  खुद लिख कर कहा - मैडम आप तो सही  जानकारी रखिये नहीं तो इन बच्चों को क्या पढ़ाएंगी? 
                       ये हमारी शिक्षा  के नाम पर  एक बदनुमा दाग के अलावा कुछ भी नहीं है।  

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

भिक्षुक एक वर्ग !

                        


              भिक्षा वृत्ति सबसे निकृष्ट और हेय रही है लेकिन फिर भी हम माँगने वालों को पालते ही  रहते हैं ( वैसे मैं शारीरिक रूप से सक्षम , युवा वर्ग और बच्चों को कभी  भीख नहीं देती ) . हम ही उन्हें इस वृत्ति के लिए बढ़ावा  देते हैं।  उनकी कमाई एक मेहनतकश से कई गुना ज्यादा है।  उन्हें वो सारी चीजें सहज उपलब्ध है जिन्हें एक मेहनतकश पूरे माह  के बाद भी हासिल नहीं कर पाता है।
                                कानपुर में ७ भिक्षुक गृह है और वे सारे के सारे खाली हैं।   सरकारी सहायता बदस्तूर मिल रही है लेकिन वह जा कहाँ रही है ? इसके बारे मे  मुझे पता नहीं है लेकिन एक बात बता दूं कि ये भिक्षुक अपने अपने घरों में रहते हैं और इनके घर कोई  झोपड़ी नहीं है बल्कि अच्छे खासे मकान  हैं और वह भी सारी  सुख सुविधाओं से युक्त भी हैं।ऐसे ही नहीं जागा ये विचार --  कई घटनाओं और लोगों को देखने के बाद सोचा कि कैसा है ये वर्ग जो औरों की मेहनत या फिर किसी भी तरीके  किये गए पैसे पर ये लोग ऐश कर रहे हैं। 

                    कानपुर का एक प्रसिद्ध मंदिर पनकी की बात कर रही हूँ।  जहाँ पर मंगलवार को हजारों की संख्या में दर्शनार्थी आते हैं और रोज भी जाते हैं।  इस मंदिर में सैकड़ों की संख्या में भिखारी बैठे होते हैं वह भी सपरिवार -   माँ - बाप , बेटे - बेटी , नाती - पोते सभी।   मेरी नजर एक लड़की पर पड़ी , वह नव विवाहिता  लेकिन कम उम्र की अच्छी साड़ी पहने , पूरे साज श्रृंगार से और एक छोटे के बच्चे को गोद में लिए बैठी भीख  मांग थी . वही पास में उसके घर के लोग थे।  चूंकि  लम्बी लाइन थी और दर्शन मुझे भी करने ही थे सो खड़े खड़े ये भी देख रही थी।  तब लगा कि  यहाँ आने वाला हर व्यक्ति तो नहीं लेकिन १० में से ४ तो  पैसे , प्रसाद , लंच पैक , कपडे आदि देते हैं।  मैं नहीं कहती कि  ये सब न किया जाय लेकिन दान या इस तरह की चीजें देने के लिए पात्रता भी  देखनी चाहिए।  इन सभी भिखारियों में करीब करीब ८० प्रतिशत बिलकुल स्वस्थ और कार्य करने की दशा में होते हैं लेकिन वे कार्य नहीं करना चाहते क्योंकि अगर उनको एक जगह पर बैठे हुए एक दिन में कई सौ रुपये , आटा , फल , मिठाई और अन्य खाद्य पदार्थ मिल रहे हैं तो फिर -- 'अल्लाह दे खाने को तो ठेंगा जाय कमाने को ' यह  कहावत चरितार्थ होती है. 
                  नवरात्रि में माता जी के हर मंदिर में लाखों लोग रोज दर्शन करते हैं , जहाँ पर करोड़ों का प्रसाद रोज बिकता है और वही पर लाखों भिखारी भी अपनी थैली भर रहे होते हैं।  ऐसे एक मंदिर के बाहर माँगने वाले सड़क के  दोनों और बैठे होते हैं।   बच्चे बूढ़े और जवान सभी होते हैं , ऐसा नहीं है उनमें अपाहिज ,  कुष्ठ रोगी , अत्यंत वृद्ध और असमर्थ बेसहारा लोग भी होते हैं।  इनके घर में बाकायदा खाना पका कर आने वाले सदस्य और उनके स्थान को घेर कर पहले से बैठे हुए लोग होते हैं। एक परिवार का वार्तालाप ऐसे ही माहौल में  मैंने सुना था -- 
लड़की - चल तू जा , मैं खाना कर रख आई हूँ तब तक मैं यहाँ बैठती हूँ। 
 लड़का - कहे की तरकारी बनायीं है ?
लड़की - आलू   टमाटर की। डब्बा में रोटी और चावल रखा है , जल्दी खा कर आ फिर बप्पा जइहें। 
                                  उस लड़की की उम्र २० साल की रही होगी और जाने वाले लड़के की १५ साल।  उनके बप्पा किस उम्र के होंगे ? यानि की सभी के सभी मेहनत करके कमाने काबिल लेकिन जब उनको दूसरे की कमाई  का सुख लेना ही नसीब में हो तो फिर क्यों हाथ पैर हिलाए जाएँ।  
                      ऐसा नहीं है इनके  घूम घूम कर भीख मांगने वालों के बीच भी इलाके का करार होता है कि  ये हमारा इलाका है और इसमें इन दिनों में हम भीख माँगने हम ही जायेंगे।  कोई दूसरा नहीं जा सकता है।  इनके साथ आता रखने के लिए अलग थैला , चावल रखने के लिए अलग और कभी कभी तो ये  आलू दे दो कह कर सब्जी का भी इंतजाम कर लेते हैं।  जितना आटा  एक आदमी एक महीने में खाता होगा उतनी इनकी एक दिन की कमाई हो जाती है।  वर्षों से सुनती आ रही हूँ - एक भिखारी सड़क से निकलेगा - बेटा रूपया दो रुपया दे इस गरीब को।  धीरे धीरे ये माँगने की सीमा अब ५ से १० रुपये की हो गयी है।  हम तो घर में बैठे ही उनकी आवाज सुना करते हैं।  वैसे भाई मंहगाई का जमाना है तो उनकी मांग भी तो बढ़ेगी न , नहीं तो गुजर कैसे होगी ? 
                           सच कहूं इनको भिखारी हमने बनाया है , जिनकी रोज की आमदनी एक मजदूर से या कहो की एक बाबू से अधिक हो तो वह क्यों परिश्रम करेंगे ? हमारी धार्मिक भावनाओं का फायदा उठा कर ये हरामखोरी की आदत का  शिकार हो गए हैं।  रोज ही दिन में एक आध बार जवान औरतें , अधेड़ औरतें अपने बच्चों के भूखे होने का हवाला देकर रोटी मांगती हैं , पैसे मांगती हैं लेकिन अगर उनसे कहा की कुछ काम क्यों नहीं करती ? तो इस विषय में कुछ भी नहीं बोलना होता है काम के नाम पर चुपचाप अपना झोला उठा कर चल देंगी।  इनमें गैरत जैसी कोई चीज होती ही नहीं है , नहीं तो कितने बूढ़े और बच्चों को रिक्शा चलते देखा है , बोझ ढोते देखा है। इस मुफ्त की खाने वाले वर्ग के प्रति तो सोचने की जरूरत है - किसी और से क्यों कहें ? सिर्फ हम अपने को ही इसा दिशा में जागरूक बना लें।  अगर कुछ देना ही है तो फिर ऐसे व्यक्ति को दें जो कमाने के काबिल न हो।  चलने फिरने में लाचार हो , अत्यंत बूढा , अपाहिज हो।  बच्चों को तो भीख कभी न दें।  इनमें से बहुत  से बच्चे गिरोह द्वारा अपहृत करके उनको भीख मंगवाने का काम करवाते हैं।  वे लोग तो और उच्च कोटि के भिखारी हैं जो दूसरों को प्रयोग करके खुद आलिशान घरों में रहकर हमारी भावनाओं का फायदा उठाया करते हैं।  इस तरफ भी सजग होकर कुछ सामाजिक दायित्वों के प्रति जिम्मेदार बनें।  लोगों को भीख देकर अकर्मण्य न बनायें बल्कि उनको अगर काम के लिए प्रोत्साहित किया जाय तो समाज में कुछ तो  परिवर्तन लाया जा सकता है।  लोगों की खून पसीने की कमी दूसरे तो न खाएं ( वैसे खिलाने वाले हम ही होते हैं। )