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शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन (१३)



संघर्ष में ये और वे कभी कभी कहीं भी हो सकते हें क्योंकि उम्र के लिहाज से यशवंत की आयु के लोग वे नहीं ये ही कह सकते हें क्योंकि अभी अभी तो जीवन के उस पक्ष में पाँव धरे हें जहाँ से अपने को कुछ सिद्ध करने के लिए सफर आगे बढाया हैये संघर्ष जो आज तुम्हारा है वह कई और लोगों का bhi है लेकिन ये जज्बा जो तुम्हारा है वह सभी का बना रहे क्योंकि ये समय कभी स्थिर नहीं रहता हैइसीलिए तो सभी लोगों से संस्मरण लेकर चल रहे हें कि किससे और कौन कहाँ प्रेरणा लेकर अपने संघर्ष के प्रति और दृढ प्रतिज्ञ होकर आगे चट्टान की तरह से खड़ा होकर एक मिसाल बन जाता हैआज की कहानी है युवा ब्लॉगर यशवंत माथुर की:




यशवंत
माथुर :


संघर्ष भरे वो दिन के बजाय अगर मैं कहूँ तो कि संघर्ष भरे ये दिन...? क्योंकि मेरा मानना है कि संघर्ष जीवन का एक अहम हिस्सा हैं और अपनी अपनी समझ के हिसाब से हम हर समय संघर्षरत हैं। फुटपाथों पर और कूड़े के ढेरों मे खुद को तलाशने वालों से ले कर आलीशान बंगलों मे रहने वाले गर्व से यह कह सकते हैं कि वो संघर्षशील जीवन जी रहे हैं। तो फिर मेरे जैसा इंसान अगर खुद को आज भी संघर्षरत कहता है क्या बुरा है ? बचपन से ले कर आज तक कहीं कहीं यह एहसास मन मे रहा भी है। रेखा आंटी ने टोपिक भी ऐसा दे दिया है कि सोच रहा हूँ अपने आज के बारे मे लिखूँ या बीते कल के बारे मे लेकिन कुछ लिखना तो है ही।
मई
2010 मे मैंने बिग बाज़ार की अच्छी ख़ासी और मनपसंद नौकरी से इसलिए त्यागपत्र दे दिया क्योंकि किदवई नगर (कानपुर) से हर उस स्टाफ का लखनऊ (आलमबाग) ट्रांसफर किया जा रहा था जो ट्रांसफर का इच्छुक नहीं था। और मैं तथा मेरे जैसे कुछ लोग जो इच्छुक थे नाक रगड़ कर रह जा रहे थे। चूंकि वहाँ के कस्टमर सर्विस से मेरे द्वारा किए जाने वाले इन स्टोर अनाउंसमेंटस को सुनकर कस्टमर्स और सीनियर बॉस लोगों का कहना था कि मुझे अब रेडियो के लिये ट्राई करना चाहिए और मैंने किया भी। नौकरी छोडने के बाद अपना साइबर कैफे खोला ब्लोगिंग मे आया अपनी आवाज़ रिकॉर्ड की और भेजनी भी शुरू की संपर्क होने के बाद आकाश वाणी मे कार्यरत एक ब्लॉगर से भी मदद लेनी चाही लेकिन 4- 5 मेल्स का कोई जवाब मिलने पर उस तरफ से अब मन ही हट गया है।
हांलांकी
कैफे खोलने के बहाने से मैं ब्लॉग की दुनिया से जुड़ा ,रश्मि प्रभा आंटी के स्नेह से 'एक सांस मेरी' के सम्पादन मे सहयोग करने का अवसर मिला लेकिन Fixed monthly income के लिहाज से अभी कुछ भी फिक्स नहीं है जो थोड़ा बहुत है वो पास के हॉस्टल मे रहने वाले स्टूडेंट्स पर निर्भर है।
इस
लिहाज से कहूँ तो आत्मनिर्भर होने की राह पर संघर्ष अभी जारी है।

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

चुनौती जिन्दगी की:(संघर्ष भरे वे दिन (१२)




ये जिन्दगी भी कितने रंग दिखलाती है और हर एक के जीवन में ये रंग अलग अलग होते हें लेकिन नाम तो इनका एक ही है न - संघर्ष ! ये जीवन इसके बिना संभव ही नहीं है और मुझे ख़ुशी होती है जब कुछ लोगों ने ये उत्तर मिला कि मैंने अपने जीवन में संघर्ष जैसी कोई चीज देखी ही नहीं है वाकई वे बहुत भाग्यशाली कहे जायेंगे। लेकिन जो हम संघर्ष करके जीवन में पाते हें न उसका स्वाद कुछ और ही होता है । सबसे अलग रंग में संघर्ष है रवींद्र प्रभात जी का:





चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन




कमोवेश संघर्ष और उससे उत्पन्न चुनौतियों का सामना जीवन में हर कोई करता है, क्योंकि संघर्ष का ही दूसरा नाम जीवन है चुनौती नहीं तो जीवन कैसा ? इस तरह की बातें मैं खूब किया करता था छात्र जीवन में, किन्तु जब जीवन और जीविका के बीच तारतम्य बिठाने का समय आया तो समझ में आया कि यह क्षण कितना कष्टदायी होता है



बात उन दिनों की है जब मैं एक डिग्री कॉलेज में भूगोल पढाता था पढाई ख़त्म करने के बाद उसी शहर के एक कॉलेज में पढ़ाने लगा था जिस शहर में मेरे पिताजी भी कार्यरत थे वित्त रहित शिक्षा निति के तहत मेरा कॉलेज के साथ जुड़े रहना उन्हें अच्छा नहीं लगता था । वे चाहते थे कि मैं सिविल सर्विसेज की तैयारी करूँ । खैर अध्यापन का कार्य करने से मुझे एक फ़ायदा तो यह था कि मैं स्वतंत्र लेखन से पूरी तरह जुडा था और पत्रकारिता से भी संलग्न रहता था । पर आर्थिक तंगी मुझे लगातार विचलित कर रही थी । मेरी शादी भी हो गयी थी और एक बिटियाँ भी, खर्च बढ़ गया था घर वाले हर बात पे मेरी पत्नी को ताना दिया करते थे कि क्या बुढापे में तनख्वाह मिलेगी तुम्हारे पति को ?



बिटिया रश्मि जब जन्मी तो काफी कमजोर थी, डॉक्टर ने उसका ख़ास ख्याल रखने को कहा । पैसे की तंगी न हो इसलिए मैं कवि सम्मेलनों में जाना शुरू कर दिया । महीने दो-चार कवि सम्मलेन से दो-चार हजार रुपये आ जाते थे और अखबारों में स्वतंत्र लेखन से भी एक-दो हजार और इतना ही ट्यूशन से भी । इसप्रकार जैसे-तैसे महीने में पांच-छ: हजार की व्यवस्था हो जाती और काम चल जाता । पिता जी की भी कमाई अच्छी थी इसलिए कभी भी कष्ट का आभास नहीं हुआ । पर मेरी श्रीमती जी ऐसी कमाई से कतई संतुष्ट नहीं थी । बार-बार ताना मारती कि अभी समझ में नहीं आ रहा जब उम्र बीत जायेगी नौकरी की तब महसूस होगी



मैं अपनी नौकरी से इसलिए संतुष्ट था कि मुझे साहित्य सृजन और पत्रकारिता के लिए काफी समय मिल जाते थे, किन्तु मेरी श्रीमती जी मेरी इन गतिविधियों से लगातार कुंठित रहती थी । उनकी यह कुंठा धीरे-धीरे अवसाद में बदलती चली गयी और उसके बाद का हर क्षण मेरे लिए कष्टकारक होता चला गया । स्थिति बिलकुल मेरे लिए अनियंत्रित हो गयी । नन्ही बिटिया रश्मि को संभालने के साथ-साथ मुझे श्रीमती जी को भी संभालना पड़ता था । यह क्रम कई महीनों तक चला । मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ । कैसे इन बिपरीत परिस्थियों से बाहर निकलू । कई मित्रों से भी इस विषय पर सलाह ली मगर कोई रास्ता नहीं दिखा । काफी परेशान रहता था कि क्या करूँ क्या न करूँ ?



खैर कुछ दिन बाद इसका हल मेरी श्रीमती जी का इलाज कर रहे डॉक्टर ने निकाल ही लिया । उन्होंने मुझसे कहा कि यदि यह मुफ्त की नौकरी आप छोड़ दें तो आपकी पत्नी ठीक हो सकती हैं । मैंने कहा यह कैसे संभव है ? जबतक दूसरी नौकरी नहीं मिल जाती मैं यह नौकरी कैसे छोड़ सकता हूँ ? उन्होंने कहा कि यह मैं नहीं जानता मगर आपको ऐसा करना होगा । मैं राजी हो गया । एक रोज डॉक्टर मेरे घर आये और मेरी श्रीमती जी का चेक अप करते हुए मुझसे कहा कि गए नहीं आप ? मैंने कहा- कहाँ ? उन्होंने कहा - ज्वाइन karane ? मैं निरुत्तर था इसलिए चुप हो गया । तभी वे मेरी श्रीमती जी से मुखातिब होते हुए कहा कि इन्होनें आपको कुछ बताया कि नहीं ? मेरी श्रीमती जी ने ना में अपना सर हिला दिया । डॉक्टर जो मेरे पिता जी के मित्र भी थे उन्होंने मेरी श्रीमती जी से झूठ बोला कि पता है रवीन्द्र को एक अखबार में अच्छी नौकरी मिल गयी है । यह सुनते ही मेरी श्रीमती जी की आँखों से आंसू और चहरे पर मुस्कान एक साथ तैर गयी और वह समय के साथ धीरे-धीरे ठीक होने लगी । पर बार-बार वह यही प्रश्न करती कि कहाँ जाना है, कब जा रहे ज्वाइन करने ? मैं यही कहकर टाल जाता कि तुम ठीक हो जाओ फिर जाऊंगा


झूठ बोलने का यह क्रम चलता रहा और मैं इस झूठ के लिए अपने-आप में शर्मिन्दा भी होता रहा । पर मुझे क्या पता था कि यह झूठ एक दिन अचानक सच में परिवर्तित हो जाएगा । मैं श्रीमती जी के साथ इसी विषय पर बात कर रहा था कि उसी अख़बार के दफ्तर से मुझे फोन आया, जहां मैं विभिन्न विषयों पर फीचर लिखा करता था) कि संपादक जी ने आपको बुलाया है खैर मैं गया और मुझे नौकरी भी मिल गयी । मगर मैंने सोचा कि जब रचनात्मक कार्यों से अलग होकर नौकरी ही करनी है तो फिर अच्छी पगार वाली नौकरी की जाए । मैंने प्रयास जारी रखा और मुझे एक बड़े व्यावसायिक संस्थान में प्रवन्धक की नौकरी मिल गयी और मैं पत्नी और बच्चों को लेकर वाराणसी आ गया । फिर पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा ।आज जब उन दिनों की चुनौतियों के बारे में सोचता हूँ तो सिहर जाता हूँ पूरी तरह

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन (११)


यह वह समय होता है जब कि हम अपने विश्वास के साथ चल रहे होते हें और शेष एक प्रश्न चिह्न लिए सबसे नज़ारे चुराया करते हेंउस समय खुद को क्या महसूस होता है? ये तो वही जन सकता है जो भुक्तभोगी होता है लेकिन हाँ मंजिलें मिल जाती हें तो सब अपनी पीठ ठोकने लगते हें कि मैंने ही ही प्रेरणा दी थेखैर आज सुनिए दास्ताँ समीर लाल जी से:


समीर लाल :

सुख भरे दिन आये रे भईया....

तब ११ वीं कक्षा के बाद कालेज में चले जाते थे. बी एस सी, बी ए आदि तीन साल के होते थे और इंजीनियरिंग ५ साल का होता था.

पूरा खानदान इंजीनियरों का था. पिता जी, सारे चाचा, बड़ा भाई सभी इंजीनियर और मेरी जिद कि इंजीनियरिंग नहीं करुँगा. ११वीं तो गणित और विज्ञान लेकर पास कर ली मगर किसी सी ए को देख मन में ९वीं से ही सी ए बनने की इच्छा ने घर बना लिया था.

हमारे जमाने में जिसका किसी जगह दाखिला नहीं होता था वो या तो बी ए करने लगता था और शेखी जताता था कि कॉम्पटिशन की तैयारी कर रहे हैं. आई ए एस बनेंगे. या फिर बी कॉम कि सी ए बनेंगे. समय कट जाता था और कुछ कोशिश कर लेने के बाद, समय गुजार लेने के बाद एक समय में क्लर्क वगैरह बैंक या अन्य विभागों में लगकर जीवन चलाने लगते थे. यह लगभग ९५% लोगों की कहानी थी.

सी ए बनने का सपना पाले जब मैने बी कॉम करने की घर वालों से बात की तो इंजीनियरों की उस दुनिया में मानो भूचाल आ गया. सब तरफ विरोध ही विरोध. हालात ऐसे कि खुद के घर में सब मान बैठे कि खानदान की नाक कटवाने को एक क्लर्क को कैसे जन्म दे दिया मेरी माँ ने.

अपनी बात पर अडिग रहना और अड़ जाना शुरु से स्वभाव रहा चाहे दुनिया खड़ी हो जाये विरोध में तो भी अड़े रहें. सबने समझौता कर लिया कि चलो, घर में एक क्लर्क भी सही. घर में स्पष्ट झलक मिलने लगी कि लोग किफायत बरत रहे हैं कि एक क्लर्क की भला क्या कमाई रहेगी अतः उसके परिवार के लिए कुछ जमा पूँजी छोड़ चलने की जिम्मेदारी मेरे माँ बाप पर मानो उसी वक्त आन पड़ी.

खैर मैं बी कॉम करने लगा और परिवार के मित्रों में या रिश्तेदारी में जब कोई मेरे परिवार से मेरे बारे में जानना चाहता तो सब बुझे मन से बताते कि बी कॉम कर रहा है- आगे देखो क्या होता है? कोई यह न कहता कि सी ए करने का विचार है इसका.

सी ए का रिजल्ट सब जानते थे- पूरे भारत से २०००० लोग तैयारी करते और मात्र ४०० पास होते. शायद इसी से उसकी कीमत रही हो.

समय के साथ बी कॉम अच्छे नम्बरों और विश्व विद्य़ालय में मेरिट के साथ हुआ और फिर तय पाया कि मैं सी ए करने मुंबई, तब बम्बई ही था, जाऊँगा. एक बड़ी कम्पनी में आर्टकिलशीप मिल गई और शुरु हुआ सिलसिला सी ए करने का.

सी ए का ऐसा पढ़ाई का क्षेत्र है कि जहाँ फेल होना नार्मल है क्यूँकि सब फेल हो गये और पास होना अचंभा क्यूँकि मात्र २ पास हुए पूरे हॉस्टल के १०० लोगों में जो परीक्षा देकर आये थे. पहली परीक्षा का जब परिणाम आया तो घर में सूचित किया कि पहला हिस्सा पास कर लिया है तो घर वाले जैसे मानने को तैयार ही न थे. मुझसे कहा गया कि पुनः जाओ और इन्सटिटयूट में रिजल्ट देखकर आओ. सब मन बना कर बैठे थे कि फेल तो होना ही है. खराब तो लगा मगर गये और फिर चैक किया. वाकई पास थे. तब भी घर वालों ने मार्क शीट मेल से आ जाने का इन्तजार करने की बात कही. वो भी आई और तब जाकर सबकी नजरों में पास घोषित हुए.

फिर फाईनल करने की मशक्क्त भी कुछ ऐसी ही. इस बीच भाई नौकरी करने लगा इंजीनियर बन कर. सारे दोस्त इंजीनियर हो गये और नौकरियों में लग गये और मैं कि सी ए करता रहा. मुझे हमेशा दिखाया जाता रहा कि देखो इंजीनियरिंग करते तो अब तक फलाँ होते या और कुछ नहीं तो पिता जी तुम्हें विद्युत विभाग में तो लगवा ही देते कह सुन कर.

खैर समय रहते फाईनल भी कर लिया. सी ए बन गये. परिवार ने पैतरा बदल लिया. मैं अनुकरणीय हो गया. लोगों को मेरा उदाहरण दिया जाने लगा कि लगन हो तो इन जैसी. मेहनत कर आदमी क्या नहीं बन सकता.

शहर में प्रेक्टिस चल निकली और धीरे धीरे शहर की सबसे बड़ी सी ए फर्म बन गई. परिवार की आने वाली पीढ़ी का रुझान इन्जिनियरिंग से हट सी ए की तरफ होने लगा. मैं सबका हीरो सा बनने लगा.

अब कठिन समय समाप्त था और सुख के बादल छा गये थे.

अच्छा लगता है जब सूखे के बाद बारिश हो वरना बारिश का आनन्द ही न पता लगे.

तो कठिन समय की भी अपनी अहमियत है. बुरे दिनों के बाद जब अच्छे दिन आते हैं तो उनका आनन्द उससे कहीं ज्यादा होता है बनिस्बत कि यदि हर वक्त सुख ही सुख होता.

चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन (१०)



वंदना दुबे :

जिन्दगी के किस पक्ष में हम संघर्ष करते हें ये हमारे लिए अलग मायने रखता हैसंघर्ष तो संघर्ष है कभी अपने सपनों को पूरा करने के लिए , कभी खुद को स्थापित करने के लिए और कभी कभी अपने वजूद को तलाशने और उसको दूसरों की नजर में एक स्थान दिलाने के लिएये हमारी लड़ाई है और इसको हम ही लड़ते हैं, जब जीत जाते हैं तो फिर लगता है कि हमें मंजिल मिल गयी और संघर्ष करके पायी हुई वस्तु या मुकाम पर खड़े होकर जब हम पीछे देखते हैं तो लगता है कि क्या वाकई हम इतना सब झेल कर यहाँ खड़े हैंआज का संस्मरण है वंदना अवस्थी दुबे का:

सच्ची लगन हो तो मंजिल मिलती ही है.....

बचपन से लेकर आज तक, मेरे बुज़ुर्गों और ईश्वर के आशीर्वाद से संघर्ष तो मुझे नहीं करना पड़ा, लेकिन अपनी संस्था को खड़ा करने के लिये मैने जो मेहनत की है, उसे शायद संघर्ष की श्रेणी में रखा जा सके. तो आज मैं अपने उसी वक्त को याद करूंगी, जब मैने अपना विद्यालय संचालित करने का सपना देखा.
१९८९ से लेकर २००१ तक मैं जिस प्रतिष्ठित अखबार में उपसम्पादक के रूप में कार्य कर रही थी, मैनेजमेंट की तमाम खामियों के चलते उस अखबार पर सन २००१ में ताला पड़ गया. पहले रेडियो में और फिर अखबार में काम करने की वजह से किसी और काम को करने की मेरी इच्छा ही नहीं होती थी. शिक्षण-कार्य तो मैं बिल्कुल करना ही नहीं चाहती थी. कारण? मेरे घर में मेरे माता-पिता मेरी बड़ी बहने सभी अध्यापन-कार्य से जुड़े हैं. इस क्षेत्र की बिडम्बना ये है कि आप चाहे प्राचार्य हों या प्राध्यापक, कहलायेंगे मास्टर ही इतना ही नहीं "बेचारेका तमगा भी साथ में लोग लगा देते थे, सो मेरा मन एकदम उचाट था. दूसरा कारण मेरी खुद की दिलचस्पी मीडिया में होने का भी था. मेरे ग्रैजुएशन के बाद पापाजी बी.एड. का फ़ॉर्म ले आये थे कि पहले बी.एड. कर लो फिर पीजी करना, लेकिन मैने वो फ़ॉर्म अखबारों के बंडल के नीचे गहरे छुपा दिया ताकि पापा का ध्यान उस पर से हट जाये. मुझे मालूम था कि बी.एड. करने के बाद शिक्षक बन ही जाना था :) खैर मैने बी.एड नहीं किया बल्कि आकाशवाणी में अस्थायी उद्घोषिका बन गयी.
शादी के बाद पत्रकारिता का काम किया ये भी मेरी पसंद का काम था. लेकिन दुर्भाग्य से उस नामचीन अखबार पर ताला पड़ गया. हमेशा व्यस्त रहने वाली मैं अब बेहद खाली हो गयी थी. विधु मेरी बेटी उस वक्त साल की थी. स्कूल जाने लगी थी. निजी विद्यालयों की भारी-भरकम फ़ीस और शिक्षा का स्तर देख के मेरा मन एक ऐसा स्कूल खोलने का होने लगा था, जहां आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चे भी अंग्रेज़ी माध्यम की बेहतर शिक्षा पा सकें. अखबार के बन्द होने के बाद मैने अपनी इस इच्छा को उमेश जी के सामने ज़ाहिर किया. उन्होंने सहर्ष सहमति जतायी. स्कूल शुरु करने जैसा बड़ा काम बिना उमेश जी की मदद के हो भी नहीं सकता था. अब मैने इस दिशा में काम शुरु किया. मेरे घर के बाजू में रहने वाली तारा आंटी (सुश्री तारा तिवारी) जो कि खुद भी प्रधानाध्यापिका थीं, ने मेरा उत्साह बढाया और स्कूल की जानकारी लोगों तक पहुंचाने का जिम्मा भी उठाया. स्कूल के पम्पलेट छपवाये गये और अखबार के साथ घर-घर पहुंचाये गये. कुछ जगहों पर मैं खुद तारा आंटी के साथ गयी.
इतना सब करने के बाद भी नतीजा कुछ बहुत संतोषजनक नहीं था. ले दे के पांच एडमिशन हो सके. उमेश जी ने ढांढस बंधाया और मैने मन को मजबूत किया कि आज नहीं तो कल, बच्चे तो आयेंगे ही. हमारे घर के ऊपर ही लम्बा-चौड़ा एरिया खाली पड़ा था, वहां केवल एक हॉल था, मैने इस एक कमरे में ही अपना स्कूल नर्सरी क्लास से लगाना शुरु कर दिया. साल के मध्य तक कुल दस बच्चे हो गये. एक टीचर, मैं और एक आया बस. हमने खूब मेहनत शुरु की बच्चों के साथ. बच्चे भी बहुत खुश हो के घर जाते. लेकिन बहुत से लोग ऐसे थे, जो मज़ाक बनाने से नहीं चूकते. व्यंग्य के लहजे में पूछते- और, आपका कॉलेज कैसा चल रहा है? कुछ कहते- कहां मुसीबत मोल ले रही हैं, कुछ नहीं होगा. इतने स्कूल हैं, बच्चे मिलेंगे ही नहीं. लगभग रोज़ कोई कोई हतोत्साहित करने वाला मिल ही जाता. लेकिन इतनी बातों के बीच भी उमेश जी बराबर मेरा हौसला बढाते रहते थे. मैंने भी ठान लिया था कि अब इस स्कूल को खड़ा करके दिखाउंगी ही.
अगले सत्र में दस और एडमिशन हो गये, ये सारे बच्चे मेरे पुराने बच्चों के अभिभावकों द्वारा की गयी तारीफ़ के चलते ही आये थे और एडमिशन करा गये.अगले ही साल हमने ऊपर तीन कमरे और बनवाये. बस. उसके बाद निरन्तर बच्चों की संख्या बढती गयी. आज हमारा स्कूल कक्षा आठ तक हो गया है यानि माध्यमिक स्तर तक. .मैने अपने स्कूल की पढाई के स्तर से कभी समझौता नहीं किया ही बच्चों को भर्ती करते चले जाने की परम्परा को अपनाया. निर्धन छात्रों को नि:शुल्क पढाने का अपना सपना भी अब मैं पूरा कर पा रही हूं.
दस बच्चों और नर्सरी कक्षा से शुरु होने वाले इस विद्यालय में आज ढाई सौ बच्चे और १८ लोगों का स्टाफ़ है. जिनमें से चालीस बच्चे नि:शुल्क शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं.
तो बस इतना ही. मुझे लगता है कि यदि किसी काम के प्रति लगन हो, और हम हौसला रख सकें तो कोई भी काम मुश्किल नहीं है. हां दृढ इच्छाशक्ति ज़रूरी है. अध्यापन के कार्य से दूर भागने वाली मैं, आज पूरे दिन अध्यापन कार्य ही करती हूं और बहुत खुश हूं बच्चों के साथ.

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

चुनौती जिन्दगी की: संघर्ष भरे वे दिन (९)






प्रियंका श्रीवास्तव (सोनू)

ये संघर्ष जिसका है वो मेरी बेटी है लेकिन लिखा उसकी कलम से ही गया हैमैं उसके संघर्ष की क़द्र करती हूँ क्योंकि मन तो सिर्फ उसको संभाल रहे थे वह दर्द और कष्ट तो उसने ही सहा है और कितने बार तो वह बताती भी नहीं थीरात में मैं सोयी होती तो वह बिल्कुल भी आवाज नहीं निकालटी थी क्योंकि उसे पता होता था कि मुझे सुबह से फिर उन्हीं कामों में जुटना हैमैं अपनी बेटी पर गर्व करती हूँ

वैसे तो मेरी माँ मेरे सभी संघर्षों की भागीदार रही हें लेकिन जब मैंने अपनी दृष्टि से देखा तो पाया कि मेरी नजर में कौन सा वक़्त सबसे अधिक कठिन रहा और मैंने उसको पीछे छोड़ कर अपने को इस मुकाम पर पहुँचाया वैसे मेरा संघर्ष अभी ख़त्म नहीं हुआ है लेकिन इस के साथ जीने की आदत तो डालनी ही होगी क्योंकि ये प्रकृतिदत्त कष्ट है और इसको एक कोने में रख कर आगे बढ़ना है मुझे फाइब्रोमाइलीजिय नामक रोग है और जिसका दवा से कोई इलाज संभव नहीं हैविभिन्न क्रियाएं ही इसमें आराम दिला पाती हें
यह बात २००५ - की है , मैं अपने कॉलेज की प्रेसिडेंट थी और अचानक मुझे क्या हुआ कि मैं भीषण दर्द की शिकार होने लगी इतनी भयंकर पीड़ा होती थी कि बस जान ही नहीं निकलती थी माँ मुझे अपने आगोश में दबा कर कस कर बैठ जाती थी जिससे कुछ आराम मिलता था लेकिन पूरा तो कभी ही नहीं पापा सारा काम छोड़ कर मुझे डॉक्टर को दिखाने के लिए दौड़ते रहते अब तो एक काम यह भी हो गया था कि मुझे वे कॉलेज छोड़ें और फिर छुट्टी के समय लें शाम को एक्यूप्रेशर के लिए ले जाएँ जहाँ जिसने जो बताया वह किया शायद ही कोई ऐसी थेरेपी बची हो जो पापा ने मेरे ऊपर अपने होमंदिर मस्जिद और गुरुद्वारे पर भी जाकर दुआ मांगी लेकिन मेरा रोग जैसा था वैसा ही रहाउसका पता भी कई महीनों बाद संजय गाँधी संस्थान में लगा कि मुझे रोग क्या है? और उसका कोई भी स्थायी निदान नहीं हैपेन किलर भी इसमें कोई राहत नहीं दे सकती है

मेरी पढ़ाई तो बिल्कुल ही डूबने लगी थी मन में एक बात ये भी थी कि अगर इंटर में मार्क्स अच्छे आये तो मेरी तो सारी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी मुझे याद है कि मेरे दर्द में तड़पते देख कर जब माँ भी रोने लगती तो मैं उन पर चिल्ला देती कि क्म से क्म तुम तो मत रोया करो मुझे कैसे समजाओगी लेकिन वो माँ का दिल मैं सब समझती थी लेकिन मुझे आज भी अपनी माँ की आँखों में आंसूं अच्छे नहीं लगते हें मैं सहन नहीं कर पाती हूँ
जब मेरे एक्जाम का समय आया तो पढ़ाई बहुत जरूरी थी माँ मुझे अपने गोद में दबा कर बैठ जाती और मैं किताब खोल कर लेटे लेटे पढ़ती लेकिन दर्द की तीव्रता में वह भी नहीं हो पाता माँ सारी रात बैठी रहती और मैं जितना संभव होता पढ़ लेती और फिर सुबह चल देती लेकिन दर्द क्या एक्जामिनेशन हाल में मुझे बख्श देता था नहीं मैं किस तरह से उस दर्द को पीकर पेपर देती सिर्फ मैं और मैं जानती हूँलेकिन उस समय मुझे सबसे अधिक सहारा दिया मेरी माँ पापा और मेरी दीदी की सहेली बेबी दीदी ने जिसने माँ के ऑफिस जाने पर मुझे माँ की तरह ही अपनी गोद में लिटा कर सुलाया हैजब माँ ऑफिस में होती तो वो मेरे दर्द बढ़ने पर मेरे पास होतीजब पापा माँ को फ़ोन करते कि जाओ सोनू को बहुत दर्द हो रहा है तो वो कहती नहीं आंटी को मत बुलाइए मैं संभाल लूंगी
मेरी जीत तब हुई जब मैंने यूं पी बोर्ड से ७७ प्रतिशत अंकों से इंटर की परीक्षा पास की