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सोमवार, 11 मई 2015

पहला और आखिरी मदर्स डे !

मैं और मेरी माँ ( पिछला मदर्स डे )
                      माँ  पहला शब्द होता है जो बच्चा बोलता है और जिसका पहला अहसास बच्चा करता है  वो माँ ही होती है। वह सिर्फ एक होती है और वह सब कुछ देती है जो इस दुनियाँ में कोई नहीं दे सकता है। वह होता है, जीव को उसका अस्तित्व प्रदान कर इस धरती पर लाना।
                          ये मेरी माँ के साथ तस्वीर पिछले मदर्स डे पर ली गयी पहली और आखिरी तस्वीर है। मैं भी नहीं जानती थी कि , सिर्फ इस दिन के लिए बगैर उन्हें सूचित किये उनके पास पहुंची थी, उनके साथ मैं अपना पहला और आखिरी मदर्स डे मना  रही हूँ.
                           माँ मैंने तुमसे जीवन में संघर्ष , सेवा ,त्याग और समर्पण का पाठ पढ़ा है  और उसको निभाते हुए मैंने जीवन की लम्बी लड़ाई सफलतापूर्वक लड़ते हुए जीत ली है और मेरी जीत देख कर ही तुम्हें परम संतोष मिला था।उससे पहले जब भी तुम्हारे पास जाती तो वही चिंता भरे सवाल और मेरे लाख आश्वस्त करने के बाद भी कहीं संशय पालती रहती थी। मेरे बाद तुम छोटी बहनों से पूछती। सब वही उत्तर देते और फिर मेरी दोनों बेटियों को अपनी मंजिल तक पहुंचा देख तुम कितनी खुश हुई थीं? उसके बाद दोनों की शादी देख कर तुम्हें लगा कि अब तुम्हारी आत्मा सब तरफ से निश्चिन्त हो चुकी थी.  सबसे ज्यादा मेरी चिंता रहती थी न  तुम्हें. अब कोई चिंता करने वाला नहीं रहा और पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि सारे लोगों की चिंता मुझे दे गयी हो। 

                           अब माँ उस घर और उस कमरे में जाने का कभी मन नहीं करता घर तो जाऊँगी  ही लेकिन उस कमरे की हर चीज में मुझे तुम ही नजर आती हो। वही तुम्हारी साड़ियां , कपडे सब उसी तरह से अलमारी में रखे हुए। उन्हें छू कर तुम्हारे होने का अहसास होता है लेकिन तुम तो हमेशा अपनी बच्चों के साथ हो और हमेशा रहोगी ।

शुक्रवार, 8 मई 2015

अभिव्यक्ति की अवसर !

                                             कुछ दिन पहले हमने पढ़ा था कि एक लडके ने अपनी आत्महत्या का लाइव वीडियो अपनी गर्ल फ्रेंड को भेजा और खुद फाँसी पर लटक गया। ये अपनी निजी जिंदगी का ही नहीं बल्कि औरों की नजर में दूसरों का भी अपमान कहा जाएगा.
            अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें संविधान में प्रदान की गयी है लेकिन एक हमारा अपना नैतिक और भावात्मक दायरा होता है। ये जरूरी नहीं है कि  जिसे हम लिखें या बोलें वो सबको पसंद ही हो. लेकिन अगर हम सोशल मीडिया या सोशल प्लेटफॉर्म पर अपनी निजी बातें डालें तो सभी को पसंद ही आए या पसंद भी आएं तो हमें संवेदनहीन करने वाली तो न हों। खुशियां तो हम सभी से बाँट सकते हैं लोग खुश होते हैं। हम एक दूसरे से जुड़े होते हैं और ऐसी यादें और पल हम खुद संचित करके रखना चाहते हैं। 
                          शादी , सगाई , या जन्मदिन की यादें अपने बच्चों के बचपन की तस्वीरें हम सभी रखते हैं और समय समय पर फेसबुक जैसे मंच पर शेयर भी करते हैं। एक दूसरे को बधाई देते हैं शुभकामनाएं भी देते हैं। लेकिन अपने किसी बहुत करीब की मृत्यु की घोषणा या उसका आँखों देखा हाल हम खुद ही डालने लगें क्या ऐसा संभव है ? 
                    मृत्यु चाहे जिसकी भी हो अगर वह बहुत नजदीकी है तो इंसान अपने आप को खुद नहीं संभाल पाता है और फिर वह उसका सजीव चित्रण खुद कर रहा हो तो उसकी संवेदनाओं का अनुमान लगाया जा सकता है। वह भी जब किसी के भाई , बहन , माँ या पिता के निधन हो चूका हो। ऐसा करना तो लगता है जैसे कि सहानुभूति को तौलने का प्रयास किया जा रहा हो ? दोस्ती या शुभचिंतको को अपनत्व की कसौटी पर कसा जा रहा हो। ऐसे अवसरों पर अगर कोई दूसरा भी फ़ोन पर तेज तेज आवाज में बात करता सुनाई देता है तो सुनाने वाले को बुरा लगता है और अगर कोई बेटा , बेटी , भाई या बहन मोबाइल पर अपना स्टेटस अपडेट करे या कर रहा हो तो उसे हम क्या कहेंगे?              
                        यादें हमेशा सुखद संजो कर रखी जाती हैं ताकि जब उन्हें देखें तो पुराने समय की याद कर सकें। लेकिन पार्थिव शरीर की तस्वीर या उसके साथ खिंचवाई गयीं तस्वीरें सिर्फ और सिर्फ कष्ट देने वाली होती हैं।यादों में हमेशा अच्छे पल ही संजोये जाने चाहिए। 

शुक्रवार, 1 मई 2015

मज़दूर दिवस ! (आज कानपुर के मजदूरों के नाम)


                 आज का दिन  कितने नाम से पुकारा जाता है ? मई दिवस , मजदूर दिवस और महाराष्ट्र दिवस।  अगर विश्व के दृष्टिकोण  देखें तो मजदूर दिवस ही कहा जाएगा।  हम कितने उदार हैं ? हमारा दिल भी इतना बड़ा है कि हमने पूरा का पूरा दिन उन लोगों के नाम कर दिया।  सरकार ने तो अपने कर्मचारियों को छुट्टी दे दी लेकिन क्या वाकई ये दिन उन लोगों के लिए नहीं तय है जो अनियमित मजदूर हैं।  इस दिन की दरकार तो वास्तव में उन्हीं लोगों के लिए हैं - चाहे वे रिक्शा चला रहे हों या फिर बोझा ढो रहे हों।   आज के दिन मैं कानपुर की बंद मिलों और उनके मजदूरों की याद कर उनके चल रहे संघर्ष को सलाम करना चाहूंगी।         
               कभी कानपुर भारत का मैनचेस्टर कहा जाता था और यहाँ पर पूरे उत्तर भारत से मजदूर काम करने आते थे और फिर यही बस गए। कहते हैं न रोजी से रोजा होता है। यहाँ पर दो एल्गिन मिल, विक्टोरिया मिल , लाल इमली , म्योर मिल , जे के कॉटन मिल , स्वदेशी कॉटन मिल , लक्ष्मी रतन कॉटन मिल , जे के जूट मिल और भी कई मिलों में हजारों मजदूर काम करते थे। रोजी रोटी के लिए कई पालिओं में काम करते थे। सिविल लाइन्स का वह इलाका मिलों के नाम ही था। रोजी रोटी के लिए यहाँ पर काम करने वाले मजदूर या बड़े पदोंपर काम करने वाले अपने गाँव से लोगों को बुला बुला कर नौकरी में लगवा देते थे। जिस समय शाम को मिल का छुट्टी या लंच का हूटर बजता था तो मजदूरों की भीड़ इस तरह से निकलती थी जैसे कि बाँध का पानी छोड़ दिया गया हो। ज्यादातर मजदूरों का प्रयास यही रहता था कि मिल के पास ही कमरा ले लें।वह समय अच्छा था - मेहनत के बाद पैसा मिलता तो था कोई उसमें बिचौलिया तो नहीं था। 

बंद पड़ी एल्गिन मिल

                            वह मिलें बंद हुई , एक एक करके सब बंद हो गयीं। वह सरकारी साजिश थी या कुछ और मजदूर सड़क पर आ गए कुछ दिन उधार लेकर खर्च करते रहे इस आशा में कि मिल फिर से खुलेगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वे अपनी लड़ाई आज भी लड़ रहे हैं , कितने दुनियां छोड़ कर जा चुके हैं और कितने उस कगार पर खड़े हैं। मजदूरों की पत्नियां घरों में काम करके गुजर करने लगीं। कभी पति की कमाई पर बड़े ठाठ से रहती थीं। 
                            इन सब में लाल इमली आज भी कुछ कुछ काम कर रही है और मजदूर काम न सही मिल जाते जरूर हैं। इस उम्मीद में कि हो सकता है सरकार फिर से इन्हें शुरू कर दे. इनका कौन पुरसा हाल है।



एल्गिन मिल खंडहर हो रही है और सरकार उसकी बिल्डिंग को कई तरीके से प्रयोग कर रही है लेकिन उस बंद मिल के मजदूर आज भी क्रमिक अनशन पर बैठे हुए हैं। कितनी सरकारें आई और गयीं लेकिन ये आज भी वैसे ही हैं। यह चित्र बयान कर रहा है कि उनके अनशन का ये 3165 वाँ दिन है।बताती चलूँ मैंने भी  इस मिल के पास सिविल लाइन्स में कुछ वर्ष गुजारे हैं। वर्ष १९८२-८३ का समय मैंने इन मजदूरों के बीच रहकर गुजारा है। तब उनके ठाठ और आज कभी गुजरती हूँ वहां से सब कुछ बदल गया है। 

कभी जवान थे वक्त ने हड्डी का ढांचा बना के रख दिया
                              

          
वीरान पड़ा म्योर मिल का प्रवेश द्वार