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शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

स्वतंत्रता के योद्धा : लाला लाजपत राय !

                             


   हम स्वतंत्रता में ही पैदा हुए और उसकी खुली हवा में सांस ली. गुलामी कि घुटन और जुल्म की  छाया भी तो हमने देखी नहीं लेकिन सुनी है और उसी सुने हुए को और उन महान योद्धाओं के सहे हुए जुल्मों से अवगत हो कर उनके प्रति नमन तो कर ही सकते हैं. तब अपना व्यक्तिगत कुछ भी न था सिर्फ वतन था और उसकी आजादी थी.
                               आज पंजाब का शेर कहे जाने वाले लाला लाजपत राय का जन्मदिन है - २८ जनवरी १८६५ में लुधियाना  जिले के जगरांव में उनका  जन्म हुआ था. आरम्भ में पेशे से वकील बने . पहले जगरांव , फिर हिसार और उसके बाद लाहौर में वकालत का कार्य किया. उन्हें १८९२ में पंजाब में वकालत के पेशे में उच्च स्थान मिला. इस साथ ही वे आर्य समाज में भी काम करने लगे जिससे उनमें निस्वार्थता , निर्भीकता और सेवा के गुणों का विकास हुआ. उनके जीवन दर्शन को थोड़े से वाक्यों में पूर्ण रूप से समझ जा सकता है -
"मेरा धर्म - हकपरस्ती ,
मेरा विश्वास - कौम्परास्ती,
मेरा न्यायालय - मेरा अंतःकरण,
मेरी संपत्ति - मेरी कलम
मेरा मंदिर - मेरा ह्रदय
मेरी उमंगें - सदा जीवन,
मेरी माता - आर्या समाज 
मेरे धर्मपिता - स्वामी दयानंद." 
                          सबसे पहले वे आर्य समाज से ही जुड़े थे और उसके बाद लाला साईंदास और पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी के सानिंध्य में आने के बाद उनमें देशभक्ति की भावना का उदय हुआ, जो दिन प्रतिदिन गहरी होती चली गयी. वे अपने को देश के हित के लिए प्रस्तुत करते चले गए.
                         लाला जी वीर योद्धा तथा पक्के राष्ट्रवादी थे, किन्तु वे आक्रामक क्रांतिकारी ढंग के राष्ट्रवादी न थे. उनकी राष्ट्रवाद की  अवधारणा १९वी शताब्दी के इटली के राष्ट्रवादियों कि धारणा से मिलती जुलती थी. वे इस सिद्धांत को मानते थे कि हर राष्ट्र को अपने आदर्शों की निश्चित और कार्यान्वित करने का मूल अधिकार है. उसके इस अधिकार में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करना अन्यायपूर्ण है. इसी लिए उन्होंने आग्रह किया था कि भारत को शक्तिशाली स्वतन्त्र राजनीतिक जीवन का निर्माण करके अपने को सबल बनाना चाहिए और यह उसका अधिकार है. शासितों की सम्मति किसी भी सरकार का एकमात्र तर्कसंगत और वैध आधार है..
                           लाला लाजपत राय ने १९१६ में अमेरिका में 'यंग इण्डिया' नामक पुस्तक लिखी. उसमें उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की व्याख्या प्रस्तुत की. उन्होंने बतलाया कि भारत को अंग्रेजों ने तलवार के बल पर नहीं बल्कि सिद्धान्तहीन, कुटिल राजनीतिक चालों के द्वारा विजय किया था. उनके विचार में १८५७ की क्रांति का स्वरूप राजनीतिक तथा राष्ट्रीय दोनों  ही था. वे भारतीय राष्ट्रवाद को एक गंभीर   तथा बलशाली  शक्ति  मानते थे. उनका कथन  था कि राष्ट्रवाद  शहीदों  के रक्त  से फलता  -फूलता  है. दमन  से उसको  और शक्ति  मिलती है. अतः  कहा  जा सकता है कि भारतीय राष्ट्रवाद  को लिटन , कर्जन , सिडनहम आदि  से विरोधी  प्रतिक्रिया  की प्रक्रिया  द्वारा महत्वपूर्ण  सहायता  मिली  है. इन  क्रूर  तथा स्वेच्छाचारी  शासकों  ने ही भारतीय राजनीति  में हिंसात्मक  तथा आतंकवादी  कार्यवाहियों  के लिए उत्तेजित  किया था.
                 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके कार्यों और भूमिका इतनी लम्बी है कि विस्तार से प्रस्तुत करने पर एक पुस्तक  ही लिखी जायेगी फिर भी राष्ट्र के लिए उनकी भूमिका का संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत करना सामयिक होगा.
                  लाला जी ने राजनीति में प्रवेश अपने कुछ पत्रों के प्रकाशन के बाद किया और वे पत्र उनके सैयद अहमद खां  के विचारों की  आलोचना करते हुए लिखे थे. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के स्थापना के ३ वर्ष बाद वे १८८८ में इसमें सम्मिलित हो गए. पहले पहल उन्होंने १८८८ में इलाहबाद में कांग्रेस के मंच पर पदार्पण किया और उर्दू में भाषण दिया. उसमें उन्होंने शैक्षिक तथा औद्योगिक मामलों पर समुचित विचार करने की  जरूरत पर बल दिया. उस कांग्रेस में उन्होंने प्रतिनिधियों में 'सर सैयद अहमद खां को खुला पत्र' की प्रतियाँ वितरित की.
                  १९०५ में अखिल भारतीय कांग्रेस ने उन्हें ब्रिटिश लोकमत के समक्ष भारतियों की मांगों और शिकायतों को प्रस्तुत करने के लिए इंग्लॅण्ड भेजा. वे गोपाल कृष्ण गोखले के साथ प्रतिनिधि मंडल के सदस्य बन कर गए. इस प्रतिनिधि मंडल का उद्देश्य ब्रिटिश नेताओं को बंग - भंग के प्रस्ताव को कार्यान्वयन  से रोकना था. किन्तु वे शासक होकर अपने अधीन देश के प्रस्तावों से सहमत नहीं हुए.
                 १९०७ में लालाजी को सरदार अजीतसिंह के साथ १८१८ के विनिमय ३ के अंतर्गत निर्वासित करके मांडले जेल भेज दिया गया. इस अनुचित कार्य से भारत में अंग्रेजी शासकों कि दमनकारी नीति की स्पष्ट रूपरेखा दिखाई देने लगी. इस जेल से लालाजी का एक विशेष राष्ट्रीय वीर के रूप में मान मिला. ७ सितम्बर १९०७ को वे रिहा कर दिए गए.
                 १९२० में लाला लाजपत राय  ने कलकत्ता में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन का सभापतित्व किया. उसी अधिवेशन में असहयोग पर प्रस्ताव पास किया गया. वे संवैधानिक कार्य प्रणाली तथा उदारवादी आन्दोलन के विशेषज्ञ  रह चुके थे. १९०७ के बाद वे राष्ट्रवादी दल की स्वराज, स्वदेशी, बहिष्कार तथा राष्ट्रीय शिक्षा की चार मांगों का समर्थन करने लगे थे. तिलक की भांति वे भी गाँधी जी की असहयोग प्रणाली तथा क़ानून की अहिंसात्मक अवज्ञा से सहानुभूति नहीं रखते थे. १९२० में सियालकोट राजनीतिक सम्मलेन के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जनता से विद्रोही हुए बिना असहयोग का मार्ग अपनाने की सलाह  दी. ३ दिसंबर १९२२ को उन्हें कारागार में डाल दिया गया. १९२२ के बाद गाँधीवादी दर्शन के विरोधी हो गए.
                    अपने पत्र 'दी  पीपुल' के प्रथम अंक में ही उन्होंने लिखा :   "राजनीति में अतिशय भावुकता और नाटकीय आचरण के लिए स्थान नहीं है. कुछ समय से हम ऐसी योजनाओं का प्रयोग करते आये जिन्हें मानव स्वभाव में तत्काल और उग्र परिवर्तन किये बिना कार्यान्वित करना संभव नहीं है. राजनीति के सम्बन्ध प्रथमतः  और तत्ववः राष्ट्र के जीवन  के तथ्यों से है और उसमें यह देखना पड़ता है की उन तथ्यों के आधार पर उसकी प्रगति की क्या संभावनाएं हैं. मानव स्वभाव को महीनों और वर्षों में नहीं बदला जा सकता . उसकी बदलने के लिए दशकों बल्कि शताब्दियों की आवश्यकता हो सकती है. पैगम्बर, स्वप्नद्रष्ट   तथा कल्पनाविहारी  पृथ्वी का लावण्य होते हैं. उनके बिना संसार फीका पड़ जायगा. किन्तु किसी राष्ट्र की मुक्ति का आंदोंलन मनुष्य स्वभाव को शीघ्र बदलने के प्रयत्न पर आधारित नहीं किया जा सकता है, विशेषकर जबकि वह शासन तलवार के बल पर थोपा गया हो और तलवार के ही बल पर कायम हो."
                                  ३० अक्टूबर , १९२८ को लालाजी ने साइमन कमीशन का बहिष्कार करने वाले जुलूस का नेतृत्व किया. एक ब्रिटिश सार्जेंट ने उन पर लाठी से आक्रमण कर दिया. कुछ सप्ताह उपरांत७ नवम्बर १९२८ को  उन चोटों के कारण ही लालाजी का स्वर्गवास हो गया.  जिस दिन लालाजी को चोटें लगी उसी दिन लौहार में एक विशाल सार्वजनिक सभा हुई जिसमे पुलिस के कार्य की घोर निंदा की गयी. लाजपत राय ने स्वयं उस सभा का सभापतित्व किया. अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने ब्रिटिश सरकार  को चेतावनी दी कि यद्यपि भारत ने स्वराज्य के शांतिमय अहिंसात्मक संघर्ष का रास्ता अपनाया है, किन्तु यह भी संभव है कि क्रोध के आवेश में आकर भारतीय तरुण सरकार के पाशविक अत्याचारों के विरुद्ध हिंसा और आतंक के तरीकों का प्रयोग करने लगें. उन्होंने कहा कि यदि इसी बीच में मेरी मृत्यु हो गयी और भारतीय नवयुवकों ने अनिच्छा से उस मार्ग को अपना लिया तो मेरी आत्मा उन्हें आशीर्वाद देगी.  इसके साथ ये भी कहा था की 'मेरे शरीर पर पड़ी हुई एक एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत की कील सिद्ध होगी. 
                       हम आज ऐसे देश के महान सपूत को स्मरण करके अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. 

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

मित्र बनाओ बनाम ...........!

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                                       ये बानगी है कुछ विज्ञापनों की -----रोज करीब करीब हर दैनिक अख़बार में निकला करते हैं. इनसे आने वाली बू सबको आती है और सब इस बात को समझते हैं. अख़बार वाले भी और असामाजिक गतिविधियों में लिप्त लोगों को सही दिशा देने वाली संस्थाएं भी लेकिन क्या कभी इस ओर किसी ने प्रयास किया कि  इनकी छानबीन की जाय ? लेकिन आख़िर की क्यों जाय? 
              अभी कानपुर में एक सेक्स रैकेट पकड़ा गया बहुत सारी धर पकड़ हुई , शहर से बाहर की लड़कियों को बुलाया जाता था और जब पकड़ गयीं तो उनके पास कोई उत्तर नहीं है कि वे कैसे और क्यों यहाँ आयीं थीं और अब इसके बाद उनका क्या इरादा है? इन सबके पीछे काम करने वाली महिला आज भी पकड़ से बाहर है. लोकतंत्र में ये नितांत निजी मामला है कि हम कब और किसके साथ कैसे समय बिताएं लेकिन इस समाज में रहने के लिए भी कुछ मर्यादाएं हैं जिन्हें हर सामाजिक प्राणी से पालन करने की अपेक्षा रखी जाती है. परिवार संस्था पहले भी थी और आज भी है, बस उसके नियम और कायदे कुछ उदार हो गए हैं. पहले बेटे और बहू परिवार के साथ ही रहते थे और वहीं पर कोई नौकरी कर लेते थे. उस समय मिल जाती थीं. घर और परिवार की मर्यादा का पालन होता रहता था. मुझे अपना बचपन और जीवन का प्रारंभिक काल याद है. घर से बाहर जाने पर अकेले नहीं जा सकते  थे कोई साथ होना चाहिए. स्कूल भी अकेले नहीं बल्कि साथ पढ़ने वाली कई लड़कियाँ इकट्ठी हो कर जाती थीं. भले ही स्कूल घर से २० कदम की दूरी पर था. समय के साथ ये सब बदला और बदलते बदलते यहाँ तक पहुँच गया कि लड़कियाँ और लड़के दोस्ती के नाम पर जिस्म फरोशी का धंधा चलने लगा है. जिसमें यहाँ से लड़कियों को लेकर विदेशों में तक पहुँचाने वाले रैकेट मौजूद हैं. कहीं कभी कोई वारदात सामने आ गयी तो हंगामा मच जाता है लेकिन खुले आम आने वाले इन विज्ञापनों को क्या कोई नहीं पढ़ पाता है ? 
                 सिर्फ ये ही क्यों? मसाज सेंटर के नाम पर निकलने वाले विज्ञापनों में भी आप इस तरह के कामों की महक पा सकते हैं. हमारी सरकार या फिर पुलिस  किस इन्तजार में रहती है कि ऐसे लोगों पर छापे मारने के लिए कोई बड़ी वारदात जब तक न हो जाए तब तक उनकी नींद खुलती ही नहीं है. इन विज्ञापनों में फ़ोन नो. ईमेल एड्रेस सभी कुछ होता है. इसके लिए कोई आपरेशन क्यों नहीं चलाया जाता है? समाज में सेक्स के भूखे भेडिये बेलगाम घूम रहे हैं जिनसे बच्चियों से लेकर युवतियां ही नहीं बल्कि उम्र दराज महिलायें भी सुरक्षित नहीं है. जिसमें ऊँची पहुँच वाले लोगों को तो अब संयम जैसे गुण से कोई वास्ता ही नहीं रह गया है या फिर इनके साए तले पलने वाले लोग भूखे भेडिये बन कर घूम रहे हैं. 
                मीडिया वाले नए नए मामलों को लेकर टी वी पर रोज पेश करते रहते हैं लेकिन उनकी नजर इन पर क्यों नहीं पड़ती है कि वे ऐसे लोगों तक पहुँचने के लिए अपने जाल बिछा कर इनका खुलासा करें. जो खुल गया उसको पेश करके कौन सा कद्दू में तीर मार रहे हैं. अभी हम आदिम युग की ओर फिर प्रस्थान करने लगे हैं तो फिर अपने प्रगति के दावों को बखानना बंद करें नहीं तो अंकुश लगायें इस तरह की संस्थाओं और विज्ञापनों पर जिनसे समाज का भला नैन होता है. इस दलदल में फंसाने के बाद अगर कोई बाहर निकलना भी चाहे तो नहीं निकाल सकता है. अपना भंडा फूटने के डर से इनसे जुड़े लोगों को इस तरह से अनुबंधित कर लिया जाता है या फिर उनको ऐसे प्रमाणों के साथ बाँध दिया जाता है कि वे उससे निकलने का साहस नहीं कर पाते हैं. इससे समाज सिर्फ और सिर्फ पतन कि ओर जा रहा है. इस पर अंकुश लगाना चाहिए चाहे जिस किसी भी प्रयास से लगे.

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

चुनाव आयोग की नजर में प्रत्याशिता !

        हमारा चुनाव आयोग अपनी सीमा में रहते हुए चुनावों की शुचिता को बनाये रखने के लिए वर्षों से प्रयत्नशील है. इस दिशा में सबसे अधिक सख्त और अनुशासन के लिए टी. एन. शेषन चर्चित हुए. इसके बाद से चुनाव आयुक्तों ने इसकी शुचिता को बनाये रखने में अपना प्रयास जारी रखा. हर बार चुनाव में सीमाओं को ऐसे निर्धारित किया जाने लगा की लोकतंत्र की अपेक्षाओं पर प्रश्न चिह्न कम लगें.
                        वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी ने जो सुझाव प्रस्तुत किया है - वह जन सामान्य की इच्छा को एक अधिकृत व्यक्ति द्वारा सामने लाया गया है और उनकी  बात मायने रखती है. राजनीति का अपराधीकरण पूर्णतया हो चुका है, यह था तो वर्षों से किन्तु जो स्वरूप आज सामने आ रहा है - वह इतने खुले रूप में पहले न था. अपराधियों को टिकट सिर्फ इस आधार पर दल के द्वारा दिया जाता है कि अभी अपराध साबित नहीं हुआ है और सत्ता में आने के बाद उसको साबित होना भी नहीं है. ऐसे लोगों को शरण देने वाले दल खुद प्रश्न-चिह्न के लायक बन जाते हैं किन्तु वे सशक्त दल है और संसद में उनकी छवि भी बहुत सशक्त होने की है. फिर कौन बोल सकता है? उनके लंबित मामले हमेशा ही लंबित रहेंगे. कितने अमरमणि त्रिपाठी संसद में भी बैठे होंगे लेकिन उन तक पहुंचना आसान नहीं है. 
                        प्रमुख चुनाव आयुक्त ने कोलकाता में एक वक्तव्य में कहा  - 'यह विडम्बना है कि जेल में बंद व्यक्ति मुकदमा लंबित रहने के दौरान चुनाव लड़ने के आजाद है जबकि वह मतदान का हक़दार नहीं है. किसी को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराने का अधिकार चुनाव आयोग को नहीं बल्कि संसद को है. मौजूदा क़ानून के तहत दोष साबित होने पर ही व्यक्ति चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराया जा सकता है. गंभीर आरोपों का सामना कर रहे लोगों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर करने के लिए तत्काल कदम उठाये जाने चाहिए. '
               'हत्या, बलात्कार, जबरन उगाही सरीखे आरोपों का सामना कर रहे लोगों को चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए. '
                देश का हर नागरिक राजनीति को साफ सुथरा देखना चाहता है और इसको साफ सुथरा बनाये बिना देश की प्रगति की आशा करना निरर्थक  ही है. संसद अपनी गरिमा को बनाये रखने के लिए स्वस्थ मानसिकता , चरित्रवान और सुसंस्कृत सदस्यों की अपेक्षा करती है. स्वयं संसद को इस दिशा में पहल करनी चाहिए, भले ही अनुभवी कहे जाने वाले दागी सांसदों को तिलांजलि देनी पड़े. आज जो पौध लगाई जायेगी वह कल परिपक्व होगी और देश की बागडोर संभाल कर इसके स्वरूप को अधिक विकसित और खुशहाल बनाये रखने में सक्षम होगी. 
                     राजनैतिक दलों के साए तले अपराधियों को शरण क्यों मिलती है? क्योंकि चुनाव परिणामों  का निर्णय बन्दूक कि नोक पर ऐसे ही लोग किया करते हैं. वे मतदाता जो अभी तक चुनाव और मतदान के अधिकारों से अनभिज्ञ है - वे ऐसे ही लोगों के द्वारा कभी धमाका कर, कभी लालच देकर और कभी बरगला कर भ्रमित  किये जाते हैं. तभी तो छोटे स्तर के चुनाव में कलंकित इतिहास वाले भी निर्विरोध चुन लिए जाते हैं. १८ वर्ष के अपरिपक्व युवा कभी नौकरी के लालच में, कभी छात्रवृत्ति के लालच में और कभी घर के लालच में बगैर ये जाने कि उनके मत का मूल्य क्या है? दे आते हैं और इसमें भी प्रलोभन देने वाले दल स्वच्छ छवि वाले तो नहीं ही हो सकते हैं. अब ऐसे कानूनों की सख्त आवश्यकता है कि गंभीर  अपराधों में वांछित व्यक्ति चुनाव में प्रत्याशिता से वंचित कर दिए जाएँ.
                    
            

रविवार, 9 जनवरी 2011

मिड-लाइफ क्राइसिस !

                         वह  (मनु) मेरे पास आई थी अपने बारे में कुछ सलाह लेने के लिए - कुछ व्यक्तिगत समस्या थी या फिर औरों से सम्बंधित ये उसको नहीं पता था. फिर भी कुछ तो उत्सुकता थी उसमें कि ऐसा क्यों होता है?
                         वह एक संस्थान में व्यावसायिक कोर्स कर रही थी. पढ़ने में होशियार थी. छोटी जगह की होने के कारण उसकी सोच और संस्कार भी कुछ अधिक आधुनिक न थे. अपने वर्ग में सबसे होशियार लेकिन सुंदर जिसे कहा जा सकता है - वह उसमें नहीं थी. एक साधारण नैन नक्श वाली स्मार्ट लड़की थी. इस वर्ष उसको लगा कि उसके के प्रो. उस पर कुछ अधिक ही ध्यान दे रहे हैं. वे उससे करीब १५ साल बड़े होंगे. उसकी पत्नी भी उनके ही क्षेत्र की थी और अच्छी महिला थी. मनु को अपनी पढ़ाई के अतिरिक्त और किसी में भी रूचि न थी. हाँ डांस वह बहुत अच्छा कर लेती थी. कालेज में कोई भी फंक्शन हो उसका नाम सबसे पहले वह ऊपर रख देते थे. इसको साधारण सी बात मान कर उसने कभी ध्यान नहीं दिया, फिर धीरे धीरे ये प्रक्रिया बढ़ने लगी. अपने कुछ पेपर से सम्बंधित काम भी उसको सौप देते. कहते कि मुझे तुम्हारे ऊपर पूरा भरोसा है और तुम ही इस काम में मेरी मदद कर सकती हो. यहाँ तक वह सामान्य कार्य मान कर करती रही.
               इससे भी आगे - वह अपने रूम में होते और फिर SMS करके उसको किताब लाने के लिए बुलाते, कभी तो पेन और पेन्सिल तक लाने के लिए कह देते. फिर कोशिश करते कि वह उनके साथ वहाँ कुछ देर रुके. मनु की छठी इन्द्रिय ने इसको सही नहीं माना और छुट्टी में जब वह घर आई तो मुझसे पूछा.
                मानव मनोविज्ञान में ये एक मानसिक दशा होती है. इसको मानसिक विकार की श्रेणी में रख सकते हैं. एक सामान्य व्यक्ति अपने पारिवारिक जीवन में ही सारी खुशियाँ खोजता है और अगर संतुष्ट नहीं तो खुद को और गतिविधियों में व्यस्त कर लेता है. लेकिन मानव मन की एक यह स्थिति भी है. जिसको हम "मिड-लाइफ क्राइसिस" के नाम से जानते हैं.
        प्रौढ़ता की ओर बढती हुई आयु अगर मनुष्य को परिपक्वता देती है तो साथ ही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कुछ ऐसी मनोदशा की जननी भी होती है - जिसे सामान्य  मानसिकता के रूप में स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है. ये स्थिति सिर्फ पुरुषों में ही आती हो ऐसा नहीं है बल्कि ये स्थिति स्त्रियों में भी आ जाती है. ये सामान्यतया ४०-६० की आयु में होती है. इसको मानसिक असुरक्षा से भी जोड़ सकते हैं और दूसरे अगर व्यक्ति अपने करियर में पूर्ण सफल है, आर्थिक तौर पर सुदृढ़ है और परिवार भी सम्पूर्ण है तब कुछ ऐसे भाव  की खुद को अलग कैसे दिखाए या फिर चर्चा में रहने की प्रवृत्ति भी उनमें इस प्रकार की बात पैदा कर सकती है. ये स्थिति रहने की अवधि पुरुषों में ५-१० वर्ष और स्त्रियों में २-५ वर्ष हो सकती है.
          मानव जीवन में  ये स्थिति कुछ विशेष घटनाक्रमों के चलते भी हो सकती है, इंसान मानसिक रूप से कितना सुदृढ़ है यह इस बात पर निर्भर करता है.  वैसे  इस  तरह  की स्थिति आना सामान्य बात है किन्तु उसको अपने ऊपर हावी होने देना व्यक्ति की मानसिक सुदृढ़ता पर निर्भर करता है. 
इसके प्रमुख कारणों में हैं:
जीवनसाथी के साथ संबंधों में कटुता या उपेक्षा.
बच्चों का घर से दूर होना (चाहे शिक्षा के लिए या फिर विवाहोपरांत )
* अभिभावकों की मृत्यु.
* आयु से सम्बंधित शारीरिक परिवर्तन
* स्त्रियों में रजोनिवृत्ति और पुरुषों में आर्थिक अर्जन में कमी आना.
* दूसरों से किसी भी स्थिति में खुद को कमतर आंकने की प्रवृत्ति
        इस मानसिक स्थिति में जो परिवर्तन जो बातें ऐसे लोगों के व्यक्तित्व में परिलक्षित होने लगाते हैं वे इस तरह के हो सकते हैं. वे इस बात को नहीं मनाते और मनाने की कोई बात ही नहीं है. ये उनकी मानसिक स्थिति है और वे इसको आँक ही नहीं पाते हैं. वे विशेषताएं - जो उनके व्यवहार में दूसरे देख सकते हैं वे इस प्रकार से हो सकती  हैं :
* अनिर्दिष्ट लक्ष्य को खोजना
* अपने को उपेक्षित होने का भय
* युवाओं की तरह से कुछ प्राप्ति का भाव
* युवाओं की तरह शौक पाल लेना या फिर उनकी तरह दिखने की प्रवृत्ति
* अपने समय को अकेले में या फिर निश्चित दायरे में व्यतीत करना.
              अपने इस दशा से ग्रसित हो कर उनका व्यवहार तो परिवर्तित होता ही है साथ ही उनके दिनचर्या या फिर शौक भी परिवर्तित हो सकते हैं. वे अपनी इन क्रियाओं के द्वारा खुद को अधिक आत्मविश्वासी दिखाने का प्रयास भी करते हैं या फिर खुद के अन्दर छिपे हुए भय पर विजय पाने के लिए ऐसा सोचने लगते हैं.
* मादक द्रव्यों का सेवन
* अनावश्यक और महंगे सामानों पर पैसा व्यय करना - जैसे वाहन, जेवर , कपड़े या फिर प्रसाधनों पर.
* वे अवसाद की स्थिति में भी जा सकते हैं.
* दूसरों पर दोषारोपण भी करने लग जाते हैं.
* अपने ऊपर विशेष ध्यान देना (जैसे युवाओं जैसे कपड़े पहनना या फिर उनकी आयु के खेलों आदी में रूचि लेना.)
अपने से छोटों के साथ अंतरंगता स्थापित करना ( वह व्यावसायिक, शारीरिक या कृपापूर्ण कैसी भी हो सकती है.)
* अपने बच्चों के क्षेत्र में अधिक दखलंदाजी करना.
* अपने जीवन में खुशियों का अभाव दिखना , जिनमें अब तक उन्हें खुशियाँ मिलती रही थीं.
* जिनमें अब तक रूचि थी, उनमें अरुचि होना.
* परिवर्तन की चाह
* अपने और अपने जीवन के बारे में भ्रमित होना.
* जीवनसाथी पर क्रोध और आरोपण
* जीवनसाथी  के प्रति समर्पण और प्यार में शक, नए समर्पित रिश्ते की चाह.

          इस विकार का शिकार लोग सिगमंड फ्रायड के सिद्धांत को मानने वाले अधिक होते हैं, उसके अनुसार प्रौढ़ता के आते ही लोगों को मृत्यु का भय लगने लगता है. जबकि इससे इतर भी कुछ विचार होते हैं जो इस ओर ले जा सकते हैं.
                            वास्तव में अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में व्यक्ति अपने करियर, फिर परिवार , बच्चों और उनके करियर और भविष्य के लिए संघर्ष करते हुए व्यतीत कर देता है. जब इन सब चीजों से निवृत्त हो जाता है तो उसको अपने जीवन का लक्ष्य घूमता हुआ नजर आता है. उसकी अपेक्षा अपने जीवनसाथी से बढ़ने लगती है क्योंकि वह उसके साथ रहने वाला एकमात्र साथी रह जाता है. कभी कभी जीवनसाथी भी एक अलग जीवन जीने का आदी हो चुका होता है. अपने जीवनचर्या में वह भी किसी तरह का व्यवधान पड़ना सहन नहीं कर पाता है. जिसको दूसरा व्यक्ति अपनी उपेक्षा समझ बैठता है और उसकी सोच उसको किसी दूसरी तरफ खींचने लगती है.
ऐसी स्थिति सदैव नहीं बनी रहती है, इस की आयु कम ही होती है किन्तु ये कम आयु दूसरे के जीवन को नरक बना चुकी होती है.बॉस द्वारा अपनी सेक्रेटरी से अपेक्षाएं, प्रोफ़ेसर  के द्वारा अपनी छात्राओं  से, महिलाओं द्वारा भी अपने छात्रों से कुछ अपेक्षाएं उनके मिड-लाइफ क्राइसिस से जनित होती हैं. हम समाज में और परिवेश में इस तरह कि घटनाएँ अक्सर देखा करते हैं - जहाँ पर उम्र के इस विशाल अंतर पर कुछ सम्बन्ध सुर्ख़ियों में आते हैं. इनके मध्य गंभीरता कितनी होती है इसके बारे में सोचा जा सकता है और इससे मुक्त होने के बाद यही व्यक्ति अपने अन्तरंग संबंधों से विमुख होने लगते हैं.
                   ऐसी स्थिति से मुक्ति या उन पर विजय पाने के लिए इंसान को इस विषय में स्वयं तो जागरूक कम ही हो पाता है क्योंकि वह खुद ही इस बात का शिकार होता है. इसके लिए अगर उसका कोई अन्तरंग मित्र या साथी उसको सही परामर्श दिलवा सके या स्वयम दे सके तो उसको बचाया जा सकता है क्योंकि ये स्थायी मानसिक दशा नहीं होती है.