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बुधवार, 19 अगस्त 2015

बेटियों का दंश (४) !

                      
 मेरी पाँचों बेटियां

            बड़ी बेटी के नौकरी में जाते ही उससे छोटी वाली बेटी का भी एम सी ए पूरा हो गया और साथ ही उसको कैंपस से ही चुनाव भी हो गया।  उसकी नौकरी इनफ़ोसिस कंपनी में लगी।  रिश्तेदारों की नजरें चमकने लगी।  कुछ लोगों ने हम लोगों के निर्णय का स्वागत किया और कुछ लोगों ने मुंह पर न सही पीठ पीछे तंज कसने शुरू कर दिए। असलियत ये थी कि एक मध्यम वर्गीय परिवार  में बेटियों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है और ये तो आप बिलकुल भी उम्मीद नहीं लगा सकते हैं कि बेटियों को पढने के बाद हम लम्बा चौड़ा दहेज़ भी इकट्ठे कर चुके होंगे. हमारे कुछ शुभचिंतकों ने पहले ही समझाया था कि लड़कियों ज्यादा पढोगे तो उतना ही पढ़ा लड़का चाहिए. और जितना पढ़ा लिखा लड़का खोजेंगे तो दहेज़ भी उतना ही जुटाना पड़ेगा।  लेकिन पूरे घर की एक ही तमन्ना थी कि अपनी बेटियों को आत्मनिर्भर बनाना है और उनकी रूचि के अनुसार ही उनको शिक्षा दिलानी हैं। कुछ लोगों ने ये भी कह रखा था कि जब आपकी लड़कियां कमाने लगेंगी तो प्रस्ताव खुद ब खुद आने लगेंगे।  पर ऐसा हुआ तो लेकिन लम्बे चौड़े दहेज़ के साथ प्रस्ताव आने शुरू हो गए क्योंकि उन लोगों ने अपने बेटों की शिक्षा में जो पैसा खर्च किया था वह वसूल भी तो लडकी वालों से करना था। 

                        अब रिश्तेदारों की आमद बढ़ने लगी कि सुराग लिया जाय कि ये लोग शादी के बारे में क्या सोचते हैं ? अपने अपने तरीके से मन की बात निकलवाने के प्रयास शुरू कर दिए। हमारी बेटियों के लिए कोई पॉलिटेक्निक किये हुए लड़कों के प्रस्ताव लाने लगे , कुछ लोग कहीं क्लर्क लड़कों के।  मैं इन लोगों को बुरा नहीं मानती लेकिन अपनी बेटियों की शिक्षा के अनुरूप तो वर की कामना सभी करते हैं। लोग हमसे पूछने लगे --
 --अब शादी कब करोगे ? तुम्हारे यहाँ तो एक के बाद एक लगी हैं।  हाँ तीन के बाद कुछ सांस ले सकते हो। 
--शादी में कितना खर्च करने का इरादा कर रखा है तो उसी हिसाब से लड़का बताया जाय। 
--देखिये उन के घर में शादी हुई है , लड़का क्लर्क है उसको १० लाख नगद और एक गाड़ी मिली है। 
--ये बात तो आप लोगों को पहले सोचनी चाहिए थी की इतना बेटी को पढ़ाएंगे तो फिर उसके लिए वैसा ही लड़का भी देखेंगे तो दहेज़ तो लगेगा ही। 
--आपको दहेज़ की क्या चिंता ? लड़कियों ने खुद दहेज़ इकठ्ठा कर लिया होगा। 
                   उन्हें क्या पता कि बेटियों ने अपनी पढाई में घर वालों को जिस तरह से कश्मकश करके सब कुछ पूरा करते देखा था वो उनके सपनों को पूरा करना चाह रही थी। 
तीनों बड़ी बेटियां

                     जब उनसे इस बारे में बात की जाती तो एकदम मना।  अभी कुछ साल नौकरी कर लेने दो।  हमारे भी कुछ सपने हैं उन्हें तो पूरा कर लें।  दहेज़ वाले प्रस्तावों की बात उन लोगों को बिलकुल नहीं बताई जाती थी लेकिन बहनों के बीच इतनी अच्छी समझ थी कि घर में होने वाली बातों की सूचना उन लोगों को अपनी बहनों से मिल जाती थी। 
                  अब लोगों ने सीधे सीधे कटाक्ष करने शुरू कर दिए।  
--दहेज़ नहीं देंगे तो शादी के लिए अच्छा लड़का कैसे मिलेगा. ? 
--लड़कियों को पढने से पहले सोचना चाहिए था कि  बराबरी का लड़का देखेंगे  तो पैसा लगेगा।  लड़के की पढाई मुफ्त में  थोड़े ही हो जाती है। 
--क्या लड़कियों की कमाई खाने का इरादा है ? उनकी ही कमाई में कर दो उनकी शादी। 
                             हम सबकी सुनते थे और करते अपनी मन की। लेकिन कभी कभी अपराध बोध मन में पालने लगता कि क्या हमने गलत किया है ?  मेरे  जेठ जी कभी कभी सिर पकड़ कर  बैठ जाते कि मुझे लगता है कि हमें बी ए या एम ए करके शादी कर देनी चाहिए थी।  उनको भी समझाया जाता कि परेशान होने की जरूरत नहीं है।लोगों के कहने से तो कोई निर्णय नहीं लिया जाएगा और बेटियों पर भी अपना निर्णय थोपा नहीं जा सकता है।  कम से कम जिससे शादी की जाय उनका मानसिक स्तर तो बराबर होना चाहिए। 

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

बेटियों का दंश (३) !

                  लिखते लिखते कितनी यादें छूट जाती हैं लेकिन उनका तारतम्य तो कहीं न कहीं बिठाना पड़ता है।  जब मेरी छोटी बेटी हुई तो लगा लोगों पर पहाड़ टूट पड़ा।  मेरे घर में तो नहीं हुआ ऐसा। वह ६ महीने की ही थी कि मुझे आई आई टी में जॉब मिल गयी। उस समय जॉब मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। संयुक्त परिवार में बेटी को सासु माँ देख लेती   थीं और मेरी बेटी बहुत ही सीधी थी ( अब नहीं है , कहती है मुझे पता है कि आप मुझे छोड़ कर ऑफिस चली जाती थीं और मैं रोती रह जाती थी। ) आठ घंटे ऑफिस में और आने जाने का समय कुल मिलकर ९ घंटे तो बच्ची को छोड़ना ही पड़ता था।
                  एक बार हमारे एक रिश्तेदार का घर पर आना हुआ , मैं ऑफिस में थी , वह मेरे आने तक रुके रहे।  मेरे आते ही सवाल किया 'ये जागती कब है ? तुम ऑफिस जाती हो तो परेशान तो करती ही होगी ?'
मैंने कहा - 'नहीं ये बिलकुल भी नहीं रोती है , दादी और ताई जी के साथ मस्त रहती है । '
         इस पर बोले - ' हाँ हाँ उसको पता है न कि अभी चैन से रहने दें , फिर तो रुलाना ही है।  दहेज़ जुटाते जुटाते बुढ़ापा आ जाएगा। '
                     ये तंज हमें अन्दर तक चीर गया।  इसलिए नहीं कि हमारे चार चार बेटियां थी बल्कि इस लिए की बेटियां भी अपना अपना भाग्य लेकर आती हैं। कल का क्या भरोसा ? विधाता जो रचता है कुछ सोच कर ही रचता है। हमारी बेटियां हमारी नहीं बल्कि दूसरे के लिए सिर दर्द बनती जा रही थीं।
                   इसके बाद जिठानी की तीसरी बेटी का जन्म हुआ था।  कोई कल्पना  नहीं कर सकता है कि हमारे घर में कितनी रौनक थी। इसी बीच हमने अपना रहने काबिल मकान बनवा लिया।  नया नया इलाका था आने जाने की कोई सुविधा नहीं थी।  बड़ी तीन बेटियां पढ़ने जाती थीं और छोटी दोनों घर गुलजार किए  रहती थीं।
                               हमारे लिए हमारी बेटियां ही हमारा सपना थी और उनके बीच की ट्यूनिंग देखते बनती थी।  मुझे समय बिलकुल नहीं मिलता था।  सुबह सबका नाश्ता और बच्चों के लंच के साथ अपना टिफिन बना कर ऑफिस भागो और शाम को खाने बनाने की ड्यूटी मेरी होती थी सो लौट कर उसमें लग जाओ , दिन में तो घर में खाने के लिए कोई नहीं होता सिर्फ घर में रहने वाले लोग लेकिन शाम पूरे ११ लोग होते थे । 
           बेटियों की पढाई में  क्या हो रहा है ? उनके यूनिट टेस्ट कब होने हैं ? होम वर्क क्या मिला ? वह पूरा हो पता है या नहीं ? इन सबके लिए बिलकुल भी समय नहीं रहता था।  सब एक दूसरे को देख लेती थीं बड़ी दोनों छोटी बहनों के होम वर्क या प्रॉब्लम सॉल्व कर लेती थी।  हाँ हिंदी की कोई प्रॉब्लम हो तो जेठानी जी से पढ़ लेती और इंग्लिश हो तो मैं रात में खाना बनाती जाती और वे अपनी प्रॉब्लम लेकर किचेन के दरवाजे पर खड़े होकर बोलती जाती और मैं सॉल्व करती जाती।
                          उस समय लाइट की समस्या बहुत ज्यादा थी तो तीनों एक लैंप बीच में रख कर पढाई कर लेती थी। जैसे उनका जूनून सिर्फ अपने लक्ष्य को पाना था।  कभी कोई फरमाइश नहीं की। एक एक करके सबने हाई स्कूल से  ग्रेजुएशन तक अच्छे नंबरों से पास किया।
                    अपने अपने कम्पटीशन में लग गयी।  बड़ी दोनों को एम सी ए करना था सो उनको गोरखपुर का सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज मिल गया।  एक मध्यम वर्गीय परिवार में जेठजी हमारे रक्षा मंत्रालय की फैक्ट्री में क्लर्क थे और पतिदेव उस समय दवा कंपनी में मैनेजर। लेकिन संयुक्त परिवार की गरिमा में कशमकश हुई भी तो संयुक्त परिवार की छाया में  मिलकर झेल लिया, लेकिन बच्चों के सपनों को पंख मिल गए थे।
                    मेरी बड़ी बेटी मेडिकल की तैयारी  कर रही थी लेकिन जब उसको वहां सफलता न मिली तो  बीपीटी ( बेचलर ऑफ़ फिजियोथेरेपी ) में दिल्ली में IPH जो सरकारी संस्थान ही है प्रवेश मिला।बेटी को बाहर भेजते समय क्या दर्द होता है ? ये बहुत  शिद्दत से जाना , मैं उसके घर से जाते समय नहीं रोती  थी, लेकिन बाद में खूब रोती  थी।  घर और ऑफिस के बीच में बँटी  हुई जिंदगी सब कुछ सिखा देती है। 
                     अब तक बड़ी वाली अपना एमसीए पूरा करके वापस आ गयी थी। उसको प्रोजेक्ट करने के लिए अपने ही प्रोजेक्ट में ही एक टॉपिक दिलवा दिया।   वहां  से निकल कर उसे सत्यम कंपनी जॉब मिल गयी और कुछ रिश्तेदारों को ख़ुशी हुई किसी ने हमारे प्रयासों को सराहा और किसी ने भविष्य में आने वाली विवाह की समस्याओं से आगाह करना शुरू किया।

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

बेटियों का दंश (२)

                  लोगों के इस व्यवहार से लगा मानो हमने कोई गुनाह किया है। अरे हमारी तो पहली संतान थी और लोग क्यों मातम मना रहे थे? कुछ दिनों बाद सब शान्ति रही।  अब जिठानी जी को नसीहतें मिलनी शुरू हो गयीं।
--अरे तीन बेटियां हो गयीं घर में ,अब एक बेटा घर में होना ही चाहिए।
--अरे अब तीन तीन बहनों में एक तो राखी बाँधने वाला चाहिए।
--बाबूजी के तो दो बेटे हैं इनमें तो एक लड़का तो होना ही चाहिए वर्ना आगे नाम कैसे चलेगा ?
--अभी बाबा दादी के सामने एक लड़का हो जाए तो उनको भी शांति मिले।
--कल जब इन लड़कियों की शादी के लिए जाओगे तो सब ये पूछेंगे कि लड़कियों के भाई भी नहीं है , तब क्या कहेंगे ?
--एक लड़का होता है तो दामादों में कोई झगड़ों की बात नहीं होती , इस तरह से आपके दामादों के बीच ही विवाद खड़ा होगा। 
                 बेटियां हमारी अभी छोटी छोटी थीं लेकिन सोचने वालों और सलाहकारों का दिमाग कहाँ से कहाँ तक सोच चुका था ?                 यही सब नसीहतें और रोज रोज का सुनना साथ ही जिठानी जी का गाँव से जुड़ा होना। सबने मिल कर उनको हिम्मत दी और उन्होंने फिर चांस लिया। किन्ही कारणों से उनको उसी दौरान पीलिया हो गया। उनके घुटने में दर्द रहने लगा। लोगों की राय के अनुसार कभी कभी बच्चा गुनाह होता है तो ऐसी परेशानियां हो जाती हैं जो बच्चे के होने के बाद ठीक हो जाएगी. उनकी पूरा पूरा चेकअप हुआ। आखिर उनको वही हुआ जिसका इन्तजार था। घर में बेटे ने जन्म लिया। खूब खुशियां मनाई गयीं। लेकिन दो दिन बाद ही पता चला कि बच्चे को पीलिया है। तीन चार दिन तक उसको पूरे चिकित्सीय संरक्षण में रखने के बाद भी डॉक्टर बचा नहीं सके। कष्ट तो बहुत हुआ लेकिन भवितव्यता से किसी से कोई जोर नहीं होता। उसके बाद पता चला कि जिठानी जी बोन टी बी से ग्रस्त थीं और उनका टी बी का इलाज शुरू हुआ।
              कैम्पस की सभी महिलायें मुझसे बड़ी ही थीं।गाहे बगाहे उनकी जमाकड़ी लग ही जाती। इस बीच बी एड और एम एड करने की योजना बना डाली। किसी के टोकने या कुछ कहने पर एक फुल स्टॉप सा लग गया। मैंने कुछ साल शांति पूर्वक गुजारे । मैं जॉब करने लगी तो रिश्तेदार और दूसरे मोहल्ले वालों से साबका पड़ना कम हो गया। जब मेरी बड़ी बेटी 4 साल की हो गयी तो हमने भी सोचा कि दो बच्चे होने चाहिए लेकिन कोई भी दूसरी अवधारणा हमारे मन में नहीं रही। अब हमारे`परिवार में भी कोई इस तरह की बात नहीं करता था। सबसे छोटी बेटी जो होती वो बाबा के लिए सबसे दुलारी रहती वो उसके साथ सारे दिन व्यस्त रहते। मेरे ऊपर कोई मानसिक दबाव भी नहीं था क्योंकि भावी बच्चे के बारे में सब यही कहते कि  जो भी हो दोनों स्वस्थ रहें।
                खैर लोग कुछ भी कहें बच्चे बड़े भोले होते हैं। जब मेरी दूसरी बेटी हुई तो उस नर्सिंग होम की डॉक्टर जिनके बच्चे नहीं थे ,वह हमारी रिश्तेदार भी थी। उन्होंने कहा कि आपके पास एक बेटी है इसे आप हमें दे दीजिये। यह बात इन्होने घर में बतलाई और घर से तीनों बड़ी बेटियां नर्सिंग होम इनके साथ देखने के लिए गयीं और फिर वहां से वापस नहीं आई क्योंकि उन्हें डर था कि डॉक्टर उनकी बहन को ले लेंगी और दो दिन वे वहीं रुकी रहीं। जब मैं वहां से घर आई तो मेरे साथ ही घर आयीं। 
                                   कई साल बाद फिर जेठानी जी के मन में एक बेटे की चाह जागी और उन्होंने एक बार फिर चांस लिया लेकिन इस बार भी बेटी हुई। शायद वह पूरी तरह से आश्वस्त थी कि अब की बार बेटा ही होगा। लेकिन जब फिर बेटी हुई तो वह सुनकर बेहोश हो गयीं। जब होश में आयीं तो बेटी को देखने से इंकार कर दिया। एक दिन जब उनको समझाया गया तो समझ आया। घर में तो हमें फिर छोटा सा खिलौना मिल गया। सबसे यादगार चीज ये है कि वो मेरे से कुछ ज्यादा जुडी और अपनी मम्मी को मम्मी और मुझे अम्मा कहती (जबकि उसकी दोनों बड़ी बहनें चाची ही कहती थी )फिर उसने अपने मन से अन्नू कहना शुरू कर दिया वह आज भी मुझे अन्नू ही कहती है। 
                              हमारी पांचवी बेटी शायद रिश्तेदारों के लिए कोई मोल नहीं रखती थी। शुरू के संस्कारों में कुछ जरूरी रस्में होती हैं और उसमें उसके ननिहाल वालों ने कुछ भी नहीं किया। अगर लड़का होता तो शायद वो बहुत कुछ करते। उनके व्यवहार से कोई आहत हुआ हो या न हुआ हो मेरा मन बहुत आहत हुआ था। 
                             मेरी पाँचों बेटियां आपस में बहुत जुडी थीं। संयुक्त परिवार में रहने के कारण भी। कोई भी उनकी आपस की समस्या हम लोगों तक तब आती थी जब उनके वश से बाहर की बात होती। वे एक दूसरे के होमवर्क से लेकर सारे काम आपस में कर डालती। बहुत अच्छी ट्यूनिंग थी उनके बीच। उनकी पढाई अपनी अपनी उम्र के साथ सही चल रही थी। उनके अपने सपनों के अनुकूल करियर बनाने के लिए प्रयास चल रहे थे। 
जेठ जी की बड़ी दोनों बेटियां कंप्यूटर के क्षेत्र में जाना चाहती थीं और उन दोनों ने एमसीए करने की तैयारी शुरू की। बड़ी दोनों की पढाई एक साथ चल रही थी। एक मध्यमवर्गीय परिवार के लिए थोड़ा कठिन था लेकिन संयुक्त परिवार में कुछ कशमकश तो हुई लेकिन बड़ी बेटी को गोरखपुर में सरकारी इंस्टिट्यूट मिला और पहली अपने सपने को पूरा करने में लग गयी।