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गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

मध्यस्थता - एक निष्पक्ष कर्म !

- मध्यस्थता एक बहुत ही निष्पक्ष और पवित्र कर्म होता है। ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ आज होने लगा हो बल्कि इसके अस्तित्व को तो प्राचीन काल से ही पाया जाता है। अगर इस कार्य को करने वाला व्यक्ति प्रबुद्ध और जिम्मेवार हो और सामाजिक मूल्यों और नैतिक दायित्वों का सम्मान करने वाला हो तो उसकी भूमिका समाज में और ऐसे लोगों के लिए - जिनके जीवन के कुछ पहलू सिर्फ गलतफहमी या फिर विचार विभिन्नता के कारण त्रस्त हो रहे हों या फिर गलत को गलत का अहसास होने पर भी स्वीकारोक्ति से संकोच होता हो तो मध्यस्थता करके उन संबंधों को बचाया जा सकता है - भगवान होता है।


इस कार्य की भूमिका पर लिखने के लिए एक छोटी से घटना ने मजबूर कर दिया। मेरे परिचित की बेटी की शादी उनके एक रिश्तेदार ने मध्यस्थ बना कर करवाई थी। लड़के वाले लड़की वाले दोनों के साथ उनका रिश्ता बनता था। लड़का दूर का रहने वाला था , उन्होंने जो भी इस विषय में बताया लड़की वाले ने विश्वास कर लिए क्योंकि अमूमन हम ऐसा मानते हें कि ये हमारा इतना सगा रिश्तेदार है कोई गलत बात नहीं कहेगा - जो बताएगा वह सच होगा। उन्होंने अधिक छानबीन नहीं की और अपनी बेटी की शादी कर दी। बेटी जब लौट कर आई तो उसने बताया कि उसका पति तो बहुत शराब पीता है और सारी कमाई उसी में उड़ा देता है। अभी सास ससुर हैं तो उसके सारी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं ।


एक बेटी के पिता के लिए ऐसी सूचना जीते जी मारने वाली हो गयी, मध्यम वर्ग का पिता न तो बेटी को वापस घर में बुला कर रख सकता है और न ही बेटी के बारे में आँखें मूँद सकता है। जब बेटी मायके आ जाती तो वह शराब पीकर फोन पर सास ससुर को गालियाँ देता और पत्नी के लिए तो जीना हराम कर देता और वह अपने माँ बाप को इस जलालत से बचाने के लिए वापस ससुराल चली जाती। फिर एक दिन खबर आई कि उनकी बेटी नहीं रही - क्योंकि शराबी पति ने नशे में उसके सर पर कोई चीज दे मारी थी और वह वही गिर कर ख़त्म हो गयी।


आज नेट का युग आ गया है रिश्ते उससे भी मिल रहे हें लेकिन उसकी भी जानकारी शत प्रतिशत सही नहीं होती हें और प्राचीन काल से चली आ रही विवाह संस्था के लिए उपयोगी मध्यस्थता ही काम आती है। वह ही दोनों पक्षों को सूचनाएं देता है। अगर आप ऐसा कोई रिश्ता करवा रहे हें या फिर किसी के सम्बन्ध के मध्य आये हुए वैमनस्य को सुलझाने का प्रयास कर रहे हें तो इस बारे में आपको कभी भी झूठ का सहारा नहीं लेना चाहिए। कुछ ऐसी आचार संहिता होनी चाहिए कि जिससे कि मध्यस्थ पूरी तरह से अवगत हो और उसका आत्मिक तौर से पालन करे। आपका झूठ या फिर एक पक्ष को खुश करने का प्रयास दूसरे लिए जीवन भर का नासूर बन सकता है।


--अगर आप विवाह के लिएय मध्यस्थ कर रहे हें तो लड़की और लड़के के विषय में यदि पूरी जानकारी आपको हो तो पहले आप ही इस बारे में निश्चित कर लें कि दोनों परिवार एक दूसरे के काबिल हें या नहीं। उनके स्तर का अंतर , शिक्षा का अंतर और विचारों का अंतर उनके जीवन के लिए अभिशाप साबित हो सकता है। गलत सूचना देने पर इसके उत्तरदायी आप ही होंगे।


--दोनों परिवारों को आर्थिक, सामाजिक स्तर में साम्य देखें , लड़के की किसी कमी के कारण गरीब घर की लड़की का रिश्ता करवाने का कभी प्रयास न करें क्योंकि इसमें लड़की का जीवन नरक बन जाता है। वह बड़े घर में पहुँच तो जाती है लेकिन उसकी स्थिति कभी भी उस दर्जे की पत्नी कि नहीं हो पाती है जितना कि उसे अपने स्तर के परिवार में मिल सकता था।


--आप दोनों परिवारों के आपस में मिलवा दें और शेष जानकारी उन्हें खुद ही इकट्ठी करने की बात कहें ताकि बहुत सी बातें जो आपको मालूम नहीं है और छानबीन के बाद पता लगायी जा सकती हें उनका दोष आपके सर पर न आये।


--सिर्फ रिश्ता करवाने के लिए दोनों पक्षों को एक दूसरे के विषय में भ्रम में न रखें, क्योंकि कुछ लोग दोनों पक्षों को एक दूसरे के बारे में लम्बी चौड़ी बाते बताते रहते हें सिर्फ इस उद्देश्य से कि किसी लड़के/लड़की का भला कर रहे हें। यहाँ आप भला नहीं कर रहे हें बल्कि उनके जीवन से खिलवाड़ कर रहे हें ।


--दोनों पक्षों को अगर आप जानते हों तो लड़की या लड़के के बारे में कोई दोष ज्ञात हो तो स्पष्ट रूप से बता दें ताकि दोनों पक्ष इस विषय में विचार कर सकें कि इस सम्बन्ध को हम स्वीकार कर सकते हैं या नहीं।


--अगर आप किसी के विवाद को सुलझाने के लिए मध्यस्थ कर रहे हैं तो उस बारे में भी निष्पक्ष भूमिका निभानी चाहिए, एक दूसरे को गलत जानकारी देकर भ्रमित न करें।


--किसी टूटते हुए रिश्ते या फिर परिवार के लिए आप देवता स्वरूप हो सकते हें कि क्योंकि कई बार अपनी गलतियों का अहसास होने पर भी दोनों का अहंकार या पहल का संकोच उन्हें सही दिशा में नहीं जाने देता है और अगर आप इससे वाकिफ है तो इस दिशा में आपकी पहल किसी रिश्ते और परिवार को बचा सकती है।


--जब तक आप पूरे तथ्यों और सत्य से परिचित न हों उसके बारे में मिथ्या दावा न करें। आपका उपकार करने का विचार कहीं अपकार में न बदल जाए। हम दावा सिर्फ उन्हीं बातों में कर सकते हें जिन्हें हम गहराई से जानते हों।


शादी विवाह करवाना कुछ लोगों का धंधा होता है और इसके लिए वे झूठ और सच कुछ भी बोल सकते हें। ऐसे लोगों के बारे में जानकर कभी उनका विश्वास न करें। ये मध्यस्थ नहीं बल्कि दलाल होते हें जो किसी न किसी दृष्टि से अपने लाभ की सोचते हें। मध्यस्थ सिर्फ और सिर्फ एक जागरूक और जिम्मेदार व्यक्ति ही नहीं होता है बल्कि मानव जीवन के बारे में हितचिन्तक भी होता है। इसलिए मध्यस्थता की गरिमा को समझें , इस समाज में इस कार्य का बहुत ही महत्व है लेकिन यदि इसको करने वाला इसकी गरिमा से पूरी तरह से परिचित हो।

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

ये जनसेवक हें !

कभी कभी अख़बार की कुछ हैडिंग ऐसा कुछ सोचने के लिए मजबूर कर देती हें कि न मन मानता है और न ही कलम। इस समाचार का शीर्षक है - "ट्रेन में मनमाफिक सीट न मिलने पर बिफरे सांसद" । ये जनसेवक कहे जाते हें और अपने क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए संसद में जाते हें। उनका व्यवहार और आचरण ऐसा कि जनता अपना सिर पीट ले। सारा सरकारी तंत्र इनके इशारों पर चलने के लिए बना है।
इन सांसदों को मुगलसराय स्टेशन पर पटना-नई दिल्ली राजधानी में ए सी वन में सीट न मिलकर ए सी टू में सीट मिली थी। फिर क्या था - सांसद बिफर ही तो पड़े। उनका कहना था कि जब रेलवे प्रशासन को ये पता था कि हम संसद सत्र में भाग लेने के लिए जा रहे हें तो अलग से कोच की व्यवस्था क्यों नहीं की गयी? बाद में वे काफी मान-मनोव्वल के बाद उसी में गए लेकिन रेल मंत्री से बात करने की बात की धमकी देकर।
हमें सांसद समूह से सिर्फ ये पूछना है कि सांसद बनने से पहले कभी भी उन्होंने ए सी वन के अतिरिक्त रेल में सफर नहीं की है। जब आम आदमी टिकट लेने के बाद भी सीट नहीं ले पाता है, वेटिंग में टिकट लेकर भी वह टी टी के पीछे भागता है कि उसको कहीं एक सीट दिलवा दे और वे सुविधा शुल्क वसूल करके कहीं बैठने की जगह दे देते हें। यहाँ तक कि स्लीपर के डिब्बे में जमीन पर लेटने की अनुमति के लिए भी पैसा चुकाते हें। ऐसा नहीं है कि आम लोगों की इस स्थिति से वे वाकिफ नहीं है लेकिन कभी इस बारे में उन्होंने अतिरिक्त कोच लगाने या फिर रेल प्रशासन से बात करने की कोशिश की है। अगर नहीं तो क्यों? जब खुद को मनचाही सीट न मिले तो हंगामा खड़ा करें जैसे ए सी टू उनकी इज्जत से बहुत नीचे का स्थान है। संसद सत्र के लिए जा रहे हें तो वे रेलवे प्रशासन या फिर देश पर अहसान करने नहीं जा रहे हें। साल में कितने महीने वे अपने घरों में बैठ कर मोटा वेतन और भत्ते लेते रहते हें , वे इन सबके अधिकारी है इसके लिए वे अपने क्षेत्र के कार्यों के द्वारा साबित करें। ये तेवर संसद में अपने क्षेत्र के विकास के कार्यों के लिए दिखाएँ तो शोभा देता है।
जिन सुविधायों से आपका चयन करने वाला वंचित है - उसे हासिल करने के लिए हंगामा करने का आपको कोई हक नहीं बनता है। हमें शर्म अआती है ऐसे सांसदों पर । वैसे अख़बार में अपना नाम देख कर खुश तो होंगे ही - काम तो ऐसे नहीं किये कि सुर्ख़ियों में आये इस तरह नाम तो हुआ।

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

छोटी उम्र के बड़े निर्णय !

वह दंपत्ति मुझे एक शादी में मिला था , उससे मेरा दूर का रिश्ता भी है लेकिन तब उनकी नई नई शादी हुई थी। लड़का एयरफोर्स में ट्रेनिंग ले रहा था तभी गाँव के होने के नाते घर वालों ने रिश्ता तय कर लिया और लड़की उस समय नर्सिंग की ट्रेनिंग कर रही थी। दोनों उम्र से २५ से काम की रही होगी।
कुछ विधि का विधान कि लड़की गर्भवती हो गयी , उस समय दोनों ही ट्रेनिंग में थे तो दोनों ने मिल कर निर्णय लिया कि अभी गर्भपात करा देते हें नहीं तो बीच में ट्रेनिंग में व्यवधान आएगा और फिर आगे ये निर्णय ले लेंगे। पर कुछ ऐसे भविष्य के लिए वे तैयार न थे। ladaki के गर्भपात के साथ ही किसी कारण से उसको तकलीफ रहने लगी और दो चार महीने में वह इतनी बढ़ चुकी थी कि उसको अस्पताल में रख कर उसकी uterus को तुरंत निकलने का निर्णय लेना था। दोनों के घर वाले थे और उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी क्योंकि अभी तो उनका दांपत्य जीवन शुरू भी नहीं हुआ था और उसके पहले ही ख़त्म होने के कगार पर आ गया। लड़की के घर वाले अलग चिंता में परेशान थे और लड़के के घर वाले अलग चिंता में।

लड़के की माँ बार बार कह रही थी कि 'सोच लो इससे फिर तुम्हें बच्चा नहीं मिल सकता और इसके बिना तो जीवन अधूरा रहेगा।'
लड़की की माँ और बाप इस चिंता में कि--' इसके बाद मेरी बेटी का क्या होगा? पता नहीं ये लोग उसको कैसे रखेंगे ?'

उस समय न चिंता करने का वक़्त था और न सलाह मशविरा करने का। लड़के ने पेपर लेकर तुरन ही साइन करके दे दिए। ऑपरेशन हुआ और लड़की घर आ गयी और लड़का अपनी ट्रेनिंग के लिए वापस हो गया। लड़की अपने माता पिता के घर आ गयी।
लड़के ने अपनी पत्नी से कहा - तुम चिंता मत करना कोई कुछ भी कहे, मुझ पर भरोसा रखना। मैं जल्दी नहीं आ पाऊंगा लेकिन अपने फैसले पर मैं अडिग रहूँगा।

कुछ महीने भी न बीते थे कि लड़के के घर वाले अब इसके बच्चे न होंगे तो नाम कैसे चलेगा? इससे तो अच्छा है कि दूसरी शादी कर दी जाये , दो शादियाँ होती नहीं हें क्या? पत्नी की सहमत मांगी जाने लगी कि अगर वह राजी हो जाए तो उसकी शादी कर दी जाये। लड़की के घर वाले भी सोचने लगे कि अपनी छोटी बेटी का विवाह कर दिया जाय तो दो बहने साथ बनी रहेंगी और बच्चे भी हो जायेंगे। जब पानी सर से गुजारने लगा तो लड़की ने अपने पति को इस बारे में बताया और तुरंत आने के लिए कहा।
लड़के ने आकर दोनों परिवारों से बात की। उसकी ट्रेनिंग पूरी हो चुकी थी। उसने दोनों परिवारों को बैठकर अपना निर्णय सुनाया - 'मैंने शादी की थी तब ऐसा कुछ भी नहीं था, अब जो समस्या है वो हम दोनों की है। आप लोग इस बारे में न सोचें तो अच्छा होगा। मैं इसको साथ लेकर जा रहा हूँ। अगर आपको ऐसे ही ये लड़का - बहू और beti -damad स्वीकार हो तो खबर कर देना मैं घर आता रहूँगा और अगर नहीं तो मैं इसके साथ रह कर ही खुश रहूँगा। शादी कोई मजाक नहीं है कि जब चाहा उसको अपनी सुविधा से जोड़ लिया और न मन bhara तो उसको तोड़ दिया। '
छोटी उम्र के इस बड़े निर्णय के बारे में पता लगा तो बहुत ही अच्छा लगा कि आज की पीढ़ी अपने मूल्यों के साथ जुड़ी है और उसकी गरिमा को सम्मान दे रही है।

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

देश के चालाक !

हम तो जिए जा रहे हें और अपने अपने घर को चलाने में खुद को होम किये जा रहे हें क्योंकि आमआदमी के लिए अब परिवार चलना आसान नहीं रह गया है और ये हमारे देश और प्रदेश के चालाक - चालाक इस लिएक्योंकि ये देश की जनता को जानवर से भी बदतर जीवन जीने पर भी उन्हें गरीब नहीं मान रहे हें और दूसरी ओर वे उत्तरप्रदेश में तो वाकई अंधेर नगरी और चौपट राजा वाला खेल चल रहा है लेकिन किसके आगे गुहार लगायी जाएएकनागनाथ और दूसरा साँपनाथ
हम बात इस उत्तर प्रदेश की ही कर सकते हें जहाँ पर जातिवादी की जड़ें इतनी गहराई तक राजभवन सेलेकर प्रदेश के क़ानून तक में पैठ बना चुके हें कि लगता है कि यहाँ जो भी होता है वह इस लिए होता है कि यहाँ पर वहीलोग जीवित रहें जिन्हें इस जाति विशेष में विशेष दर्जा दिया गया है.और अनुसूचित नाम का तमगा लगाये जो भी लोगहें वे ही सारे लाभों को लेने के हकदार हें बल्कि उस समय तो हद गुजर गयी जब गरीबी के मानकों को भी अलग अलगपरिभाषित किया गयाशिक्षा जो कि सबका अधिकार है और इसके लिए सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रही है , इस क्षेत्रमें भी अनुसूचित और पिछड़ा होना लाभदायक सिद्ध हो रहा हैशिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जाति और पिछड़ी जाति केलोगों के लिए लाख तक की वार्षिक आय पर जो लाभ दिया जा रहा है वही लाभ सवर्ण को लाख रूपये की वार्षिकआय तक ही मिलेगाअब कोई भी अर्थशास्त्री या कानूनविद इस बात को स्पष्ट करे कि जन्म के आधार पर ये रूपये कीकीमत कैसे अलग अलग हो जाती है? क्या सवर्ण को गरीब होकर उन लाभों को लेने का अधिकार नहीं है और नहीं है तो क्यों ? उत्तर प्रदेश सरकार इस बात को स्पष्ट करे
उत्तर प्रदेश सरकार अनुसूचित जाति के लिए केंद्र से आरक्षण बढ़ाने के लिए कह रही है क्योंकि अबइतने वर्षों में उनकी आबादी बढ़ चुकी है और शेष जातियों की आबादी लगता है कि समाप्तप्राय हो चुकी होगीएक उच्चपद पर आसीन जिम्मेदार व्यक्ति से ऐसे गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य या फिर अपील को क्या नाम दिया जाय?
एक वही क्यों? यहाँ तो हर दल ने आरक्षण को अपना चुनावी हथकंडा बना रखा है क्योंकि अगर वे इसतरह से जाति के सहारे लोगों लुभायेंगे तो लोग आकर्षित कैसे होंगे? और सिर्फ उनका ही दोष कहाँ है? ये देश के लोगभी तो अपने स्वार्थ के लिए किसी को भी देश की बागडोर देने में संकोच नहीं करते हेंसिर्फ उन्हें कुछ लोभ दे दियाजायलोग तो शायद अपनी गरीबी और स्वार्थवश ऐसा कर भी लें यह खेल तो संसद तक में होता है जहाँ बैठ कर सांसदसाल में लाखों का लाभ ले रहे हें
वैसे इस समय उत्तर प्रदेश में अनुसूचित या पिछड़ी जाति का होना ही फायदेमंद चीज है क्योंकि इस प्रदेशमें दंड कानून भी इनके प्रति नरमी बरत रहा हैपिछले दिनों सीमा आजाद नाम की राजनेत्री एक हत्या के मामलेमें दोषी ठहराई गयी और उनका आर्थिक दंड इसलिए काम कर दिया गया क्योंकि कानून में इनके लिए आर्थिक दंड मेंभी छूट हैगरीबों के लिए छूट होना समझ आती है लेकिन एक नेत्री के लिए जाति के आधार पर छूट कुछ समझ नहींआई लेकिन अंधेर इसी को कहा जाता है वैसे भी उत्तर प्रदेश में ये कथन एकदम सच है और जब तक ये सरकार है सच हीरहेगा --

Government is of the SCST , by the SCST and for the SCST

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

राजनीति का नया रूप!

जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कह रहे हें कि अगर अफजल गुरु को फाँसी दी जाती है तो इसके नकारात्मकपरिणाम देश में देखने को मिलेंगे। एक मुख्यमंत्री का ये कथन क्या उनके देश के प्रति निष्टा पर प्रश्नचिह्न नहीं लगा रहेहें? अभी तक तो चोरी छिपे ही अपराधियों और शरारती तत्वों को राजनीतिक शरण और शह मिलती रही है और यहीकारण है कि राजनीति का अपराधीकरण हो चुका है। अब ऐसे देशद्रोहियों को भी राजीनीतिक समर्थन मिलने के संकेतमिलने लगे हें और वह भी खुले आम। ऐसे में अगर देश की आतंरिक सुरक्षा पर सवाल खड़े किये जा रहे हें तो क्या गलतहै?
हम कहते हें कि पाकिस्तान आतंकियों को प्रशिक्षण देता है, उन्हें शह दे रहा है और ये अपने ही देश के अन्दर बैठेराजनेता अपने ऐसे वक्तव्यों से क्या अपनी उनके प्रति सहानुभूति और संरक्षण नहीं दर्शा रहे हें। अगर किसी राज्य कीविधायिका अब देशद्रोहियों के पक्ष में मतदान करके सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देती है तो लोकतंत्र के तीनस्वतन्त्र स्तंभों को दूसरे के कार्य में निरर्थक हस्तक्षेप कहा जाएगा।
अफजल गुरु संसद हमले काण्ड का आरोपी है तो इसका पूरा मामला केंद्र शासित दिल्ली से जुड़ा है और वहीं केन्यायायलय में मामला विधाराधीन रहा और उसको सजा निधारित की गई फिर इस विषय में किसी राज्य कीविधायिका में उसे विचारार्थ रखने की बात क्यों और कैसे उठी? क्या उमर कश्मीर भारत से अलग और अफजल गुरु कोकश्मीर के प्रति समर्पित मानते हें और यदि नहीं तो फिर कल जब यही kasaab के साथ होगा तो भी क्या इसी तरह सेफाँसी का विरोध करके देश के प्रति अपनी निष्ठां पर स्वयं प्रश्नचिह्न लगाकर अपनी प्रतिष्टा और देश के प्रति निष्ठां नहीं खोरहे हें। इन सब के पीछे सिर्फ किसी एक व्यक्ति का विचार नहीं बनता है - ऐसी बातों के पीछे किसी बड़े दल या केंद्र की शहहोती है क्योंकि ऐसे जघन्य अपराधियों को जब हम सरकारी मेहमान बनाकर वर्षों जेल में पाल रहे हें तो कल को इनकापालना किसी नई घटना का वायस बन जाय तो कोई बड़ी बात नहीं है। अभी हाल में ही १३ जुलाई को कसाब के जन्मदिनपर हुए विस्फोट से अगर सरकार और जिम्मेदार मंत्रालय को समझ नहीं आता है तो फिर उन्हें अपने को गैर जिम्मेदारमान लेना चाहिए और सत्ता छोड़ कर चले जाना चाहिए।
सरकार क्यों ऐसे अपराधियों के मामले को वर्षों लटका कर रखती है क्योंकि उन्हें आशंका है कि अगर वह अफजल गुरुजैसे लोगों को फाँसी दे देती है तो उससे जुड़े वर्ग विशेष का समर्थन खो सकती है और ऐसा कोई भी रिस्क वह लेना नहींचाहती है। इसी लिए गृहमंत्री पी चिदंबरम अपने बयान में ये कह रहे हें कि हर आतंकी हमले को रोका नहीं जा सकता है।क्यों नहीं रोका जा सकता है क्या वे अमेरिका से सबक नहीं ले सकते हें कि एक हमले की तबाही के बाद कोई भीआतंकवादी संगठन वहाँ एक भी वारदात नहीं कर सका और अपने देश के प्रति प्रतिबद्धता दुहराते हुए चाहे राष्ट्रपतिबदल गए हों लेकिन ओसामा को जिन्दा या मुर्दा प्राप्त करने के संकल्प को कभी नहीं बदला। और जिनके इरादे मजबूतहोते हें उन्हें लक्ष्य तक पहुँचाने में कोई रोक नहीं सकता है।
उमर के ये अपने शब्द नहीं है बल्कि उसके साथ दूसरे अलगाववादी नेताओं ने भी सुर मिलने शुरू कर दिए हें। हमारी केंद्रसरकार की इसमें शत प्रतिशत शह है और जब तक ऐसी सरकार रहेगी देश सदैव असुरक्षित रहेगा।

बुधवार, 21 सितंबर 2011

कैंसर को हरा दिया!

२२ सितम्बर कैंसर से जीतने की हिम्मत रखने वालों के लिए एक दिन - उस पर एक हिम्मतवाले इंसान से परिचय
कैंसर एक ऐसा रोग जिसके बारे में पता चलते ही उससे पीड़ित उसके घर वाले मानसिक तौर पर टूटजाते हें और उन्हें सिर्फ मौत सामने दिखलाई देती हैजब इंसान अन्दर से टूट जाता है तो फिर उसके और उसकेघर वालों को उसके लिए एक दृढ इच्छाशक्ति बनाये रखने में सहयोग देना चाहिएभय का भूत ही इंसान कोकमजोर कर देता है
इस रोग से लड़ते हुए एक इंसान को मैं पिछले १० सालों से देख रही हूँ और वह इंसान कोई और नहींमेरे बॉस हेंबहुत साल पहले जब वे मेरे बॉस नहीं थे तब उन्हें आँतों में कैंसर हुए था और उससे लड़े और मुक्तहोकर वापस लौटे और पहले की तरह से अपनी क्लास और प्रोजेक्ट का काम संभाल लियादुबारा उन्हें गले मेंकैंसर हुआ और वह कई महीनों तक बिस्तर पर रहे, अपनी पूरी जिजीविषा से उससे लड़ते रहे और फिर उसकोअपना गुलाम बना लियाजब वे लौट कर आये तो उन्हें अधिक बोलने से मना किया गया था लेकिन उस समयप्रोजेक्ट की conference चल रही थीउन्होंने सभी मेहमानों का स्वागत कियाफिर धीरे धीरे खुद को इस काबिलबना लियाखाना पीना एकदम से प्रतिबंधित और काम के घंटे उतने हीअपनी षष्ठी पूर्ति के बाद भी वे काम केघंटे उतने ही बनाये हुए हेंआई आई टी में सिर्फ एक विभाग नहीं बल्कि कंप्यूटर साइंस और इलेक्ट्रिकलइंजीनियरिंग दोनों विभागों में प्रोफेसर का काम देख रहे थेआज भी नके काम करने और करवाने की लगन देखकर लगता है कि कोई कह नहीं सकता कि ये इंसान कैंसर से लड़कर अपनी इच्छाशक्ति के बल पर ही मशीनअनुवाद में विश्व स्तर पर अपना अलग स्थान बनाये हुए है

बुधवार, 14 सितंबर 2011

हिंदी के आँगन में - विदेशी फुलवा !

आज हिंदी दिवस है क्योंकि इसको संविधान में १४ सितम्बर १९४९ को sअम्वैधानिक रूप से राजभाषा घोषित किया गया था। संविधान के अनुच्छेद ३४३ के अंतर्गत यह प्राविधान किया गया है कि देवनागरी लिपि के साथ भारत की राजभाषा hogi ।
हमारे राजनेता बात बात में संविधान की दुहाई देते हें कि ये करना संविधान की अवमानना होगी. हमारे कितने राजनेता राजभाषा को सम्मान देते हें अगर नहीं देते हें तो unake लिए कोई दंड क्यों नहीं है? वे दशकों से संसद में जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हें और उन्हें हिंदी बोलना नहीं आता और जिन्हें आता भी है वे उसको बोलने में अपने पिछड़ा हुआ नहीं कहलाना चाहते हें. माननीय प्रधानमंत्री जी अपने वक्तव्य अंग्रेजी में देते हें , kya उन्हें हिंदी बिल्कुल नहीं आती उनसे बेहतर तो उनकी पार्टी की अध्यक्षा हें जो विदेशी मूल की होते हुए भी हिंदी बोलना सीखी और जब भी जनता ke बीच होती हें तो हिंदी बोलती हें.
आज अंग्रेजी की महत्ता को इतना बढ़ा दिया गया है कि एक ऑफिस का चपरासी बच्चे को अंग्रेजी मध्यम के स्कूल में ही पढ़ना चाहता है चाहे खुद उसकी किताबों में कुछ भी न जानता हो लेकिन बच्चे को अंग्रेजी के चार शब्द बोलता हुआ देख कर फूला नहीं समाता है. ये है हमारी मानसिक गुलामी की हदें. फिर पढ़े लिखे भी अगर अंग्रेजी कमजोर है तो उसके लिए स्पीकिंग कोर्स ज्वाइन करवा देंगे लेकिन हिंदी में फेल भी तो कोई चिंता नहीं है. जब आम आदमी की सोच ये है तो फिर दूसरे क्यों न हिंदी बोलने पर हँसेंगे? कहीं हमने kisi भी राज्य में हिंदी स्पीकिंग कोर्स चलाते नहीं देखा. इस बात को मानती हूँ कि अब कुछ हद तक हिंदी की पैठ विभिन्न संस्थानों में बढती जा रही है. इस दिवस को रोज ही हिंदी दिवस समझ कर माना जाना चाहिए. सविधान की सिफारिस को प्राथमिकता अभी भी उस रूप में नहीं दी जा रही है जिस रूप में संविधान निर्माताओं ने चाहा था.

शनिवार, 10 सितंबर 2011

मंत्रीजी के कथन पर !

माननीय गृहमंत्री महोदय अपनी कुर्सी पर फेविकोल नहीं बल्कि फेविक्विक लगाकर चिपके रहना चाहते हैं और अपने विभाग की नैतिक जिम्मेदारी लेने के स्थान पर यह वक्तव्य .दे रहे हैं कि 'हर आतंकी हमले को रोका नहीं जा सकता।' मंत्री महोदय कृपया यह बताएं कि कितने हमले रोके गए हैं? देश के सारे मंत्रालय अपने कार्य को इतनी जिम्मेदारी से सम्पादित कर रहे हैं कि उसी के एवज में अन्ना की पर पूरा देश उठकर खड़ा हो गया और फिर भी सरकार अपने प्रति जनता के अविश्वास का अक्श देख कर भी अनजान बनी हुई है।


आतकी हमलों को रोकने की बात तो बहुत बादi में आती है , आज तक किसी भी हमले की गुत्थी को तो सुलझाया नहीं जा सका है। आतंकी हमलों को रोकने की कोई जरूरत ही नहीं है क्योंकि इससे देश की आबादी अपने आप काम हो रही है, आतंकियों को अगर पकड़ भी लेंगे तो उन्हें सुरक्षित और शानदार जीवन देने का बीमा तो आपके विभाग ने कर रखा है। अगर अदालत किसी प्रकार से इनपर अपना फैसला सुना भी देती है तो


फिर फाइल तो आपके मंत्रालय में दबा कर रखी जानी है। आपको इन्तजार होता किसी कंधार काण्ड का जिससेa कि उसे सुलझा कर आप देश के नाम पर खुद कलंक बन जाएँ। नहीं तो फाइल तब तक दबी रहेगी जब तक कि आतंकवादी जीवनदान के अधिकारी न बन जाएँ। अधिक समय होने पर राजीव गाँधी के हत्यारों की तरह से तमिलनाडु विधायिका उनके जीवनदान के लिए सिफारिश करने लगी है तो कल इनको भी कोई न कोई पैरोकार मिल ही जाएगा। हमले में हें रिक्शेवाले, फलवाले और आम आदमी - कभी कोई मंत्री या नेता भी मरा है?

ये मरेंगे ही क्यों? क्योंकि बाहर रहे तो उनके आका हैं ही उनके लिए और अगर पकड़ भी गए तो सरकारी मेहमान बनकर जीना भी काम आरामदायक नहीं है. देश के आम आदमी से अधिक सुख -सुविधापूर्ण जीवन उनको दिया जाता है , इसलिए मंत्री जी बोलने से पहले सोच लीजिये कि ऐसा वक्तव्य किसी मंत्री को शोभा नहीं .




शनिवार, 20 अगस्त 2011

हमारा बैंक : स्विस बैंक !

स्विस बैंक में संचित धन का खुलासा विकीलीक्स पहले ही कर चुका है और इससे सभी लोग वाकिफ होंगे , फिर भी एक बानगी देखें और विचार करें कि इन धन कुबेरों की मानसिकता और इस देश के प्रति जिम्मेदारी कितनी अधिक है कि वे अपने धन की सुरक्षा कुछ लेने के स्थान पर कीमत चुका कर करवा रहे हैं और वह कीमत कहाँ से वसूल रहे हैं? अपने ही देश और देशवासियों से।

१ प्रबोध मेहता - २८००० करोड़
२ चिंतन गाँधी - १९५० करोड़
३ अरुण मेहता - २५०० करोड़
४ आर पासवान - ३५०० करोड़
५ नीरा राडिया - २८९९९० करोड़
६ राजीव गाँधी - १९८००० करोड़
७ नरेश गोयल - १४५६०० करोड़
८ ए राजा -७८०० करोड़
९ हर्षद मेहता - १३५८०० करोड़
१० केतन पारीख - ८२०० करोड़
इन आकड़ों को देख कर कहा जा सकता है कि जिस देश रहने वालों का धन विदेशों में इतनी बड़ी रकम के रूप में संचित हो वह गरीब हो ही नहीं सकता है। ये हमारे ही देश के जिम्मेदार नागरिक है जिन्होंने ये सोचा कि अगर कभी देश में गरीबी बढ़ गयी तो हम उसके शिकार न हों तो यहां से धन चूस चूस कर पहले ही बाहर रख लें ताकि यहाँ से भाग कर वहाँ जीवन आराम से गुजर सके। साफ सी बात है कि अगर ये और इतना पैसा देश की बैंकों में जमा होता तो ये सवाल उठता कि कहाँ से कमाया गया? अगर देश की बैंक में होता तो देश की संपत्ति होती और देश के विकास में काम आता तो ऐसे देशभक्तों को ये कहाँ मंजूर होता? क्या इन्हें देशद्रोही कहा जाय तो गलत होगा क्योंकि ये सभी इसी देश की धरती इन की मिट्टी से उपजा अन्न खा रहे है और यहां की धरती से निकला हुआ पानी लेकिन यहां की धरती के साथ ही धोखा कर रहे हैं। अपनी संपत्ति विदेशों में जमा कर रहे है इन सबसे हिसाब तो लेना ही पड़ेगा कि वे कौन सा रोजगार कर रहे हैं कि जिसका शुद्ध लाभ और अपनी ईमानदारी की कमाई भी छिपानी पद रही है।
आज जब ये आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं और उसी में सांस ले रहे हैं तो फिर इनकी रगों में बहने वाला खून उसकी दुर्गन्ध से पानी बन चुका है और उस गंदे पानी को हमें अपनी शक्ति से इनकी रगों से निकलना होगा। भारत गरीब है क्योंकि हमारे गरीब लोगों के लिए विदेशों से सहायता मिलती है फिर भी इस देश में करोड़ों लोग सिर्फ आसमान के नीचे जीवन गुजर रहे हैं। पालीथीन के बनी छत की झोपड़ियाँ भी नसीब नहीं है। कहीं कहीं बड़ी मीलों या इमारतों की चाहरदीवारी को सहारा बना कर अपने परिवार का आशियाना बना कर लोग रह रहे हैं। ये किसकी देन है इन्हीं भ्रष्टाचारियों की - जो इन सब के लिए सरकार के दिए धन से भी निकाल कर खा रहे है। यहां की तिजोरी भर गयी तो किराये की जगह लेकर विदेशों में धन भर लिया । ये धन आता कहाँ से है? हमसे ही कron का नाम लेकर लिया जाता है और हमें महंगाई के नाम पर चूसा जाता है। सब्सिडी ख़त्म कर दी और चीज महँगी - इससे कमाई हुई और उनके खातों में जमा हो गयी ।
कभी ये भी सोचती हूँ कि राजीव गाँधी के नाम इतना पैसा जमा है , ये किसके काम आ रहा है, राजीव गाँधी साथ नहीं ले जा सके तो फिर सोनिया या राहुल को तो इसकी जरूरत नहीं है। फिर इस संपत्ति का क्या होगा? बाकी लोग भी जिन लोगों ने जमा कर रखा है शेष जीवन में खर्च तो कर नहीं पायेंगे तब क्या होगा - सूम का धन शैतान ही खायेंगे। हमारा दोहन कर ये लोग अपना जीवन सुधार रहे हैं। देश को गिरवी रखने की योजना बना रहे हैं। फिर ऐसा क्यों न हो? सांसदों के वेतन और भत्तों में २०० % की वृद्धि और इनमें से अधिकतर करते क्या हैं? संसद के सत्रों में उपस्थित नहीं होते और वेतन भत्ते पूरे पूरे - उस पर भी खुश नहीं , अरे उन किसानों की तरफ देखो जो हल की जगह खुद जुट कर खेती करते हैं और फिर कर्ज में डूबे रहते हैं और आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं । ये इतने भूखे हैं कि इतने पर भी पेट नहीं भरता है और ve vibhinna tareekon से देश की संपत्ति भ्रष्टाचार के sahare अपनी बना कर अपनी bhookh मिटा रहे हैं।

सोमवार, 15 अगस्त 2011

स्वतंत्रता दिवस पर भारी अन्ना का आन्दोलन !

स्वतंत्रता दिवस मनाया गया लेकिन उससे अधिक लोगों में उत्साह है अन्ना का साथ देने में।आज़ादी के जुलूस तो निकले लेकिन उससे अधिक रैली अन्ना के समर्थकों की दिखाई दी। आज़ाद भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और गाँधीवादी आदर्शों पर चलने के लिए शासकों की शर्तों पर चलना होगा क्योंकि संसद और संविधान उनके कब्जे में है। उन्हें फिक्र है कि अन्ना की जान की सिर्फ अन्ना की जान की क्यों? इससे पहले कितने कितने किसानों से आत्महत्या की, कितने लोगों ने आत्मदाह किया कभी सरकार को चिंता नहीं हुई। अरे अंग्रेजों के ज़माने भी इतनी पाबंदियां नहीं थी, आजादी के दीवाने अनशन और सत्याग्रह आन्दोलन करते थे वह बात और है कि वे उसको असफल बनाने के लिए बराबर प्रयत्नशील रहते थे। वे कुछ भी करते थे तो हम उसका विरोध कर सकते थे लेकिन ये तो हमारे ही चुने हुए प्रतिनिधि और हमें ही आँखें तरेर रहे हैं।
बात सत्ता दल की होती तो ठीक थी लेकिन यहाँ पर तो कोई भी राजनीतिक दल अन्ना के साथ खुलकर सामने खड़ा नहीं है क्योंकि सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। आज ये सत्ता में है और कल वे होंगे, भ्रष्टाचार के खिलाफ कोइ बिल आ गया तो फिर उसकी तपिश से वह बच नहीं सकेंगे। इसलिए इस विषय पर सारे दल एक हैं। संसद में सत्ता पक्ष के साथ गुपचुप हुए समझौते क तहत उसके मौजूदा स्वरूप पर मतदान के मुद्दे को उठाया ही नहीं गया। आम आदमी जो अपने मत को देकर अपनी बात बोलने का अधिकार खो चुका है , वही अन्ना के साथ खड़ा है। अगर वहाँ नहीं जा सका तो अपने अपने नगर में शहर में उनके समर्थन की हुंकार तो भर रहा है। ये दल इस बात को भूल रहे हैं कि उनके दल का अस्तित्व इन्ही आम लोगों के बल पर है। अगर वह आपको सर पर बिठाती है तो फिर १९७७ की तरह से इंदिरा जैसी लोकप्रिय नेता को धूल में मिला भी सकती है तो चंद दिन की सत्ता में बचे दिनों में सब्र करके संसद के बाहर का रास्ता दिखा सकती है।
आज स्वतंत्रता दिवस का उत्साह कम ही दिखा अनना पर चर्चा अधिक मिल रही है। दिल्ली सरकार जो खुद भ्रष्टाचार का आरोप लिये खड़ी है प्रधान मंत्री उससे अनुमति का रास्ता सुझा रहे हैं। ये हमारे देश के प्रबुद्ध कहे जाने वाले साफ सुथरी छवि के प्रधानमंत्री हैं , ये अपने विवेक से कोई निर्णय नहीं ले सकते हैं . सबकी नजरें आज तिरंगे पर नहीं बल्कि अनना के साथ होने वाले कल के व्यवहार पर लगी हुई हैं। सरकार अनना को आगे नहीं बढ़ने देना चाहती है क्योंकि अपने पेट की रोटी में मशगूल लोग अगर सड़क पर आ गए तो फिर सिंहासन हिलते देर न लगेगी। हमरी आज़ादी के अधिकार पर डाका डालने की कोशिश कभी भी सफल नहीं हो सकती है । जिस युग वर्ग को १८ वर्ष की आयु में मतदान का अधिकार दिया जा रहा है , वह वर्ग सबसे अधिक खतरनाक साबित हो सकता है इस बात का सरकार को गुमान नहीं है। अगर भगत सिंह , चंद्रशेखर आज़ाद संगीनों के साए में भी अंग्रेजों की रूह फना कर सकते हैं तो फिर ये युवा अभी आज़ाद है और जिस ओर हवा बाह रही है उसी ओर बह कर सैलाब बन जायेंगे। अभी इस वर्ग के खून में बेईमानी का जहर पूरी तरह घुला नहीं है। वह कहर ढहा सकती है और फिर एक बार आपातकाल जैसी स्थिति लाने वाले कांग्रेस पार्टी को उसकी औकात दिखा सकती है।

शनिवार, 6 अगस्त 2011

मित्रता दिवस !

मित्रता दिवस


मित्रता हो तो ऐसे हो कि भगवान भी ईर्ष्या करे।
चाहे जीवन के अँधेरे जो साए से हम साथ रहें।
धन दौलत से दूर कहीं हाथ थाम कर गिरे वक्त में
हम सब दुनियाँ में सबसे पहले अपनों के साथ रहें.

ये रिश्ता कुछ मांगता नहीं है बस देता है सब कुछ
जब खून भी पानी होने लगता है तो उस वक्त
हाथ में दीपक लिए पीछे पीछे चल देता है कहीं
मेरे यार को ज़माने की कोई दूसरी ठोकर न लगे।


अपने सभी मित्रों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं, उन सभी को जो मेरे कठिन से कठिनवक्त में भी दूर से ही सही मेरे साथ रहे और मुझे साहस देते रहे उन परिस्थितियों से लड़ने के लिए। मैं अपने सभी मित्रोंकी चिर ऋणी हूँ क्योंकि ऐसे में कुछ बहुत अपने कहे जाने वाले बहुत दूर खड़े तमाशा देख रहे थे। वक्त गुजर गया औरमित्रों के दीपक अब भी मेरे चारों ओर जल रहे हैं और मुझे रोशनी दे रहे हैं। ये सदा इसी तरह से जगमगाते रहें।

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

ऐसे होते हैं भगवान ?

चिकित्सा क्षेत्र के सभी लोग एक विशेष महत्व रखते हैं और डॉक्टर तो भगवान कहे जाते हैं और होते भी हैंमैंने देखे है ऐसे डॉक्टर - मरीजो की सेवा किसी भी हद तक करने में संलग्न हैंसबसे पहले ऐसे समर्पित डॉक्टरों के लिएनमन और नीचे दी जा रही शर्मनाक घटना के लिए लोगों की जितनी भी भर्त्सना की जाय कम है

ये घटना उत्तर प्रदेश के बहुत पुराने अस्पताल "स्वरूपरानी नेहरु चिकित्सालय" इलाहाबाद की हैजिसने क़ानून और मानवता को ताक पर रख कर ये घृणित काम किया और फिर उसके खिलाफ जंग भी छेड़ दी है
इस अस्पताल के कर्मचारियों ने कुछ मरीजों को अस्पताल से उठा कर दूर जंगल में झाड़ियों में फ़ेंक दियाक्योंकि उनकी हालात में सुधार नहीं हो रहा थाइसमें जिम्मेदार माने जा रहे कर्मचारियों का कहना है कि ऐसा उन्होंनेयहाँ के डॉक्टरों के कहने पर किया थावही डॉक्टर जिन्हें भगवान मानकर मरीज अस्पताल आता है और उसके घर वालेआशाभरी निगाहों से उसको देखते रहते हैंइस कथन में कितनी सच्चाई है - इस बात को सिद्ध नहीं किया जा सकता हैलेकिन फिर भी चाहे जो हो उसके अन्दर एक आत्मा होती है और वह क्या ऐसे घृणित कार्य करने के लिए विरोध नहींकरती हैशायद नहीं , नहीं तो उनकी दया पर निर्भर मरीज को ऐसे जंगल में कौन फ़ेंक सकता है? अगर डॉक्टर ने ऐसाकहा है तो वह और भी शर्मनाक है लेकिन कोई भी कर्मचारी बगैर किसी ऊपर हाथ रखने वाले के ऐसा कदम नहीं उठासकता हैइसके पीछे उच्च कर्मचारी वर्ग का समर्थन या शह जरूर ही हैं
शर्मनाक इस लिए तो है ही --साथ ही जब इसके लिए दोषी पाए गए वार्ड बॉय के खिलाफ कार्यवाहीकी गयी तो सभी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी हड़ताल पर चले गए और बाद में उनके साथ जूनियर डॉक्टर भी मिल गएइसके विषय में क्या कहा जा सकता है? ये कि इस कार्य को अंजाम देने वाले लोगों के साथ जूनियर डॉक्टर की भी साजिशरही होगीएक तो चोरी और ऊपर से सीनाजोरीअब होगी कार्यवाही - जांच के लिए समिति का गठन और इस समितिमें कौन लोग होंगे? वही अस्पताल वाले फिर वे क्यों इसके खिलाफ रिपोर्ट देंगे और दी भी तो हम क्या कर लेंगे? मानवता के मुँह पर कालिख पोतते हुए ये भगवान इनके लिए जो भी दंड निर्धारित किया जाय काम है
एक तरफ हमारा सुप्रीम कोर्ट अरुणा शानबाग जैसे मरीज को दया मृत्यु के लिए सहमत नहीं है औरउस अस्पताल के डॉक्टर और कर्मचारी भी उसके लिए प्रतिबद्ध है और दूसरी ओर जीवित लोगों को मरने के लिए जंगलमें फ़ेंक दिया गया क्योंकि वे अब कभी ठीक नहीं हो सकते हैं या फिर उनकी हालात में सुधार नहीं हो सकता हैअगरऐसा ही हो तो हमारे देश की आबादी बहुत जल्दी काम हो सकती है क्योंकि टाटा मेमोरिअल जैसे अस्पतालों में तोलाइलाज मरीज ही आते हैं और फिर अस्पताल सबको बाहर फिंकवा दे और डॉक्टरों की कोई जिम्मेदारी नहीं हैक्योंकिवहाँ आने वाले कम से कम ८० प्रतिशत मरीज को पूरी तरह से कभी ठीक होना ही नहीं होता हैकुछ वर्षों कि जिन्दगी केलिए क्यों जहमत उठाई जाएलाखों रुपये खर्च किये जायये महज एक खबर नहीं है बल्कि कुछ सोचने के लिएमजबूर करने वाली बात है और इसको सिर्फ विभागीय स्तर पर निपटाने वाली बात भी नहीं बल्कि इसको सरकार केसंज्ञान में लिया जाना चाहिए और अगर सरकार इसके लिए मजबूर है क्योंकि इसमें कुछ सम्मिलित लोग वर्ग विशेष केभी हो सकते हैं जिनपर मुख्यमंत्री जी की विशेष कृपा रहती है तो फिर उनके खिलाफ कार्यवाही हो ही नहीं सकती हैतबइसको हमें सर्वोच्च न्यायालय कि दहलीज पर ले कर जाना होगा

बुधवार, 3 अगस्त 2011

किशोर वय और आप !

ये हर माता-पिता को पता है कि किशोरावस्था बच्चों के जीवन का वह नाजुक दौर होता है जो उन्हें बना और बिगड़ दोनोंसकता है। उनके सोचने और समझने की शक्ति बहुत नाजुक होती है- बरगलाने पर वे भटक सकते हैं और समझाने परसही दिशा ले सकते हैं।
आज अपराध की दृष्टि से सिर्फ एक दिन का अख़बार देखने की जरूरत होती है - इनमें अधिकांश अपराध करने वालेकिशोर होते हैं। वे अभी छात्र ही होते हैं लेकिन कैसे भटक जाते हैं? इसके बारे में कभी हमने सोचा है -

**वे अच्छे घरों के बच्चे होते हैं लेकिन माता-पिता को उनकी संगति के बारे में ज्ञात नहीं होता है।

*माता-पिता अति प्यार के कारण उनको बाइक और कार खरीद कर दे देते हैं। मेरी अपनी ही बहन का किस्सा है , बेटे कोइंटर में ही महँगी बाइक खरीद कर दे दी और पहले ही दिन सपूत ने एक्सिडेंट कर दिया और पहुँच गए थाने। किसी तरहसे उनको छुड़ाया गया। अभी भी उनको पेट्रोल पूरी टंकी भरी हुई चाहिए और माता-पिता इसको पूरा कर रहे हैं। इस बारगर्मियों में जब मुलाकात हुई तो मेरे बहनोई कहने लगे कि पहले आप इसको समझाइए हम इससे बहुत परेशान हैं।पढ़ने में मन नहीं लगता है। नेट पर रात - बजे तक बैठा दोस्तों के साथ पिक्चर डाउन लोड करता रहता है।
मैंने इसके लिए बेटे को नहीं बल्कि अपनी बहन और बहनोई को कस कर डांटा कि समझाने कि जरूरत उस बच्चे कोनहीं बल्कि आपको है। पढ़ाई से पहले
आपने उसको ८० हजार की बाइक दिला दी। दोस्तों में अपनी छवि बनाने के लिएबाइक रेस भी होने लगी। किसी दिन किसी खास दोस्त के किशोर दिमाग में कोई अपमान घुस गया तो जाने क्या करडालें।
पिछले दिनों कानपुर में ही एक किशोर को उसके खास दोस्तों ने मिलकर मार डाला क्योंकि वह जिस लड़की से प्यारकरता था उसी से उसका दोस्त भी करता था। एक परित्यक्ता का एकमात्र सहारा सिर्फ इस लिए चला गया कि उसकेसबसे खास दोस्त ने उसकी जान ले ली। इसमें हम किसको दोष दें? अपनी परवरिश को या उस बच्चे की संगति को। येउम्र प्यार मुहब्बत की नहीं होती बल्कि बच्चों के भटकते कदमों को अगर सही दिशा नहीं दी जाती है तो वे उधर ही चलपड़ते हैं जहाँ उनको रास्ते दिख रहे होते हैं। हमें समझना चाहिए की बच्चे किन हालातों में गलत कदम उठा सकते हैं --

** यदि घर का वातावरण तनाव पूर्ण होता है, माता-पिता के मध्य संबंधों में कटुता रही होती है।
**यदि बच्चे को माता-पिता का पूर्ण संरक्षण नहीं मिलता है , कभी कभी ये दोनों के कामकाजी होने पर भी बच्चे अपनेको अकेला महसूस करने लगते हैं और वे भटक जाते हैं।
**माता-पिता जब बच्चे को पैसे से खेलना सिखा देते हैं और उनकी हर जायज और नाजायज मांग को पूरा करने के लिएतैयार रहते हैं।
**माता-पिता का अतिव्यस्त होना भी इसके लिए रास्ते खोल देता हई क्योंकि उनके पास बच्चे को देखने या उस परनजर रखने का समय नहीं होता है। वे गुड मोर्निंग और गुड नाईट ही करना जानते हैं और फिर अपने काम पर निकलजाते हैं।
**जरूरत होने पर भी माता पिता बच्चों को सिर्फ उनके शौक के लिए बाइक या कार दे देते हैं, इससे बच्चों में औरअधिक घूमने और दोस्तों के साथ मस्ती करने कि आदत पड़ जाती है। यही बाइक और कार उनके साथियों को अपराधमें जुड़े होने पर शक के दायरे में लगा देती है।
** ये उम्र उनके प्रेम प्रसंग की नहीं होती है लेकिन अगर उनके घर में माता - पिता के बीच तनाव रहता है या फिर लड़ाईझगड़े होते रहते हैं तो बच्चा कभी कभी अपने सुरक्षित भविष्य के लिए ऐसे व्यक्ति की तलाश में भटक जाता है जो उसेगलत रास्ते पर भी ले जा स्क्कता है या फिर प्रेम प्रसंग में पड़ जाता है। इस उम्र में उनको एक आकर्षण ही प्यार दिखाईदेने लगता है और इसके परिणाम आज घातक दिखाई दे रहे हैं।
ज़माने के साथ और अपनी जरूरत के साथ माता -पिता बहुत व्यस्त हो रहे हैं लेकिन इससे वह अपने बच्चों के प्रतिदायित्वों से बच तो नहीं सकते हैं बल्कि और अधिक जिम्मेदारी तब बढ़ जाती है जब वे किशोरावस्था में कदम रखनेलगते हैं। आपको कभी उनसे पूछकर कर और कभी उसके दोस्तों और मोहल्ले के लोगों से पूछ कर उनके बारे जानकारीले लेनी चाहिए। अधिक समय दे सकें फिर भी सतर्क रहने की जरूरत तो होती ही है। कुछ सुझाव हैं जो अगर हम सोचकर देखें और विचार करें तो कि इनको अपना कर बच्चों को कुछ तो संभाला जा सकता है।
**परिवार को महत्व दें, इसमें आप अपने माता पिता को अपने साथ रख सकते हैं, इससे बच्चे अपनी स्कूल से छूट करसीधे घर ही आयेंगे। घर पर बड़े का साया होने पर उनके इधर उधर जाने का प्रश्न नहीं
उठता है।
**बच्चों की गतिविधियों पर पूरा पूरा ध्यान दें, उनके मित्रों और संगति के बारे में जानकारी रखें। इसके लिए आप स्कूलसे भी संपर्क में रहें उनके शिक्षक से उनकी प्रगति के बारे में जानकारी लें। कभी कभी ये भी होता है कि बच्चा कक्षा मेंसाथ नहीं चल पाता है और फिर वह स्कूल से ही भागने लगता है और ऐसे बच्चों पर कई अपराधिक इतिहास रखने वालेसंगठन नजर रखते हैं और बच्चों को बरगला कर अपने साथ जोड़ लेते हैं।
**बच्चों को बाइक या कार तब तक दें जब तक कि उनके लिए बहुत जरूरी हो। उन्हें स्कूल बस या फिर दूसरे वाहनसे भेजें बच्चे अधिक सुरक्षित रहेंगे।
**अपने आपसी तनाव या झगड़ों को बच्चों के सामने सार्वजनिक करें। समझदारी से काम लें, उनके अच्छे भविष्य केलिए ही आप दोनों काम करते हैं तो फिर उसके लिए जोखिम लें।
**उनकी रुचियों और अरुचियों के बारे में जानकर ही बात करें क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र में अपनी मर्जी उन पर थोपने की सोचें उनकी अपनी रूचि के अनुसार उन्हें पढ़ने दें। अनिच्छा से लिया गया निर्णय उन्हें एकाग्र नहीं होने देता और वेभटक जाते हैं।
**उन्हें समय दें, अपनी व्यस्त की आड़ में उन्हें उपेक्षित करें। उनके साथ समय बिताने कि पूरी कोशिश करें। उनकेदिल में झांक कर देखें तो शीशे की तरह से सब साफ नजर जायगा।

शनिवार, 23 जुलाई 2011

सी बी आई की उपयोगिता !

अपने रोज रोज के खुलते जा रहे काले कारनामो के तले दबी हमारी केंद्र सरकार अपनी बौखलाहट निकालने की सोचरही थी कई दिनों से अखबार में देख रही हूँ सी बी आई बालकृष्ण जी के विषय में गहन जानकारी जुटा रही है किकैसे उनको कानून की नजर में अपराधी घोषित किया जा सके। पहले कि वह भारतीय नागरिक नहीं है , फिर उनकेपासपोर्ट को लेकर और अब उनकी मध्यमा और शास्त्री कि उपाधि को लेकर छानबीन चल रही है। इसके देख कर तोयही लगता है कि जैसे बालकृष्ण जी कोई बहुत बड़े आतंकवादी या फिर अंग्रेजो के समय के अनुसार भगत सिंह याआजाद है कि उनको देशद्रोही साबित कर फाँसी पर चढ़ाना बहुत ही जरूरी हो गया है।
आख़िर क्या कुसूर है? रामदेव बाबा और बालकृष्ण का यही कि ये देश के भविष्य के लिए सरकार से कुछ चाहने लगेऔर कुछ पूछने का दुस्साहस कर बैठे। क्या सी बी आई के पास ऐसे ही केस सुलझाने का काम बचा है। देश मेंआतंकवाद कैंसर की तरह से अपनी जड़ें फैलता चला जा रहा है और हमें खबर तक नहीं है। अपने देश में कितने विदेशीफर्जी पासपोर्ट पर रह रहे हैं , इसको जानना जरूरी नहीं है। घोटालो के लिए सी बी आई जांच कराये ऐसा विचार तो उन्हेंआता ही नहीं है। जो फाँसी की सजा पाए देशद्रोही या आतंकवादी बैठे है उन पर विचार करने के लिए गृह मंत्रालय केपास समय नहीं है और ऐसे गैर जरूरी कामो के लिए वह बहुत सक्रियता से काम करवा रही है। इतनी सक्रियता अगरदेश के अन्य मामलों को सुलझाने में दिखाई होती तो शायद विदेशो में संचित धन देश के काम रहा होता।कबूतरबाजी, हवाला धन, मानव तस्करी जैसे कामो के लिए
सी बी आई का प्रयोग नहीं किया जा सकता है और अगरहोता है तो प्रभावशाली लोगो का नाम आते ही मामला ठन्डे बस्ते में चला जाता है।
खुद दिल्ली में ही हो रहे जघन्य अपराधो का हल नहीं मिल रहा है और जन दमन में व्यस्त है सरकार। अपने ही देश मेंनफरत के बीज बोने कि तैयारी में व्यस्त सरकार ये भूल रही है कि स्वयंभू सरकार अपने इतिहास को दुहराने जा रहीहै। जो उन्हें तख़्त पर बिठा देते हैं वही १९७७ की तरह से जमींदोश करने में देर नहीं लगते है।

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

गर्मियों की छुट्टिय और अपना बचपन (२२)




घर , परिवार और सामाजिक दायित्वों के बोझ तले दब कर कलम भी रुक गयी और फिर हमारी ये संस्मरणों कि यात्रा भी पड़ाव के लिए मजबूर हो गयी. ये तो सब चलता ही रहता है तो फिर डेरे उठाये और आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं . इस बार प्रस्तुत कर रहे हैं पवन मिश्रा के संस्मरणोंको.





पवन मिश्रा





दीदी मेरी गर्मियों की छूट्टियाँ जानना चाहेंगी तो भद्दर गाँव के एक लड़के की गर्मियों की छुट्टियों के बारे में ही जानने को मिलेगा फिर भी मै कुछ ब्यौरा दे रहा हूँ

"अप्रैल के अंतिम सप्ताह में स्कूल में ग्रीष्मावकाश हो जाता था. यह हम बच्चों का सुखद और मस्ती भरा समय होता था. ना होमवर्क ना मास्टरजी की छडी ना स्कूल जाने का झंझट. लेकिन घर में खूब सारे काम होते थे. खेतो में गेहू की मड़ाई से सम्बंधित काम ख़तम होने के बाद ही हमारी असली छुट्टी होती थी. मड़ाई के बाद अनाज का भंडारण भूसे का प्रबंध जायद फसल से सम्बंधित काम मेरे बड़े भाइयों के हिस्से में आता. मै घर का सबसे छोटा सदस्य था मुझे मेरा पसंदीदा काम घर के गोरू बछेरू चराने को मिलता. गर्मियों में मेरे फुफेरे भाई हमारे यहाँ आ जाते. गाँव में सभी लोग जानवर चराने जाते. जानवरों का बटवारा होता था मै अपने हिस्से में भैसों को चराने का जिम्मा ले लेता था क्योंकि भैंसे शांत भाव से चरती और तालाब में मजे से डूबती उतराती. गायों के साथ ऐसी बात ना थी गाये पानी से तो बिदकती ही थी दौडाती बहुत ज्यादा थी. हम आराम से चरवाहों के साथ चोरपत्ती का खेल खेलते और हमारे भाई लोग गायों के पीछे पीछे दौड़ते रहते. चोर पत्ती के खेल से एक मजेदार वाकया याद आया. मुझे याद है हम पेड़ों पर बंदरो की तरह चढ़ जाते इस डाल से उस डाल पर कूद फांद करते रहते. कभी जामुन के पेड़ पर कभी आम के पेड़ पर. हमारे यहाँ साझे का बाग़ हुआ करता था अब तो खैर बिक गया है वहाँ आम खाने सुबह सुबह हम लोग पहुच जाते. एक दिन हमने देखा कि सारे पके आम पेड़ से गायब हैं. इसका मतलब था कि कोई पहले से आकर आमो को झूर ले गया था. रात में तो एक आदमी आमो की रखवाली करने के लिए बाग़ में सोता है फिर आम कौन ले गया हमने रखवाले से पूछा तो बोला बिटवा आम सब चिरई चिरोमन ले के चले जाते है. दो तीन दिन हम लोगो को महज शाम को आम मिल पाते थे. हम भाईयों ने हकीकत का पता लगाने की सोची. हम चार पांच लोग थे. सुबह तडके लगभग ३ से ४ बजे का समय होगा बाग़ में चुपचाप आये और देखा रखवाला पेड़ों के नीचे टपके आम बीन रहा था. आम बीनने के बाद वह खेत में पड़े भूसे के ढेर के पास गया और वहा उसने आम छुपा दिए. इसके बाद फिर आया और पेड़ों पर चढ़कर डालियों को जोर जोर हिलाता और पके आम फिर टपक जाते. हम लोगो ने आम बीनने शुरू कर दिए आम बीन कर एक झोले में इकठ्ठा कर लिया जब उसने नीचे देखा तो आम गायब और बच्चे दिखे वह जल्दी नीचे उतरने लगा तो जिसके पास झोला था वह भागा रखवाले ने उसका पीछा किया इधर हमारे भाई ने भूसे का आम निकाल कर झोले में भरा मैंने उसकी खटिया को पास के तालाब में फेंक दिया. रखवाला थोड़ी दूर तक पीछा किया फिर वापस आया तो ना खटिया थी ना आम. सुबह वह बाबूजी के पास चोरी की रपट लिखाने आया पर हमने सारी बाते पहले बता दी थी उसका तबादला बाग़ से खेतो में हो गया जहा उसे हल चलाने का काम मिला. गर्मियों में दोपहर को चाचाजी के यहाँ ताश की महफ़िल सजती. मजा आ जाता. शाम को गुल्ली डंडा या आईस पाईस या बगल में बच्चा लाल पहलवान के यहाँ कुश्ती लड़ने चला जाता. हमारे मझले भईया कामिक्स ले के आते थे हम मजे से पढ़ते थे. ना कोई चिंता कैरियर या समर असाईनमेंट की ना कोई फिकर रिजल्ट की. मालूम था कि पास हो ही जायेगे.मजे की बात तो यह है कि बाबूजी ने कभी भी पूछा नहीं कि तुम्हारा रिजल्ट कैसा आयेगा. रिजल्ट आता रहा पास होते रहे एक दिन टी वी में मेरे गाँव वालों ने देखा कि रिंकू (गाँव में लोग मुझे इसी नाम से जानते है) को सोने का पदक पहनाया जा रहा है. पूरे गाँव में मिठाई बंटी.

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

सांप्रदायिक हिंसा निषेध बिल

हमें गर्व है कि हम एक स्वतन्त्र भारत और धर्मनिरपेक्ष भारत के निवासी हैं. हमारे संविधान में किसी भी धर्म या आस्था को लेकर भेदभाव न करने की बात कही गयी है और हम उसको मानते हैं. जब संविधान बना तो ये पता नहीं था कि हमें ये दिन भी देखना पड़ेगा और हम अपने ही घर में एक ऐसे कटघरे में खड़े करने की कगार पर आ जायेंगे जिसमें न सजा की कोई मियाद है और सफाई की कोई जरूरत है.
अब तक तो सबके संज्ञान में आ चुका सांप्रदायिक हिंसा निषेध बिल
जिसकी तैयारी हमारी मौजूदा सरकार कर रही है .वह सारी धर्म निरपेक्षता और समानता के संविधान के नियमों को ताक में रख कर अपना नया ही इतिहास रचने जा रही है , इतिहास क्या ये औरंगजेबी फरमान जारी होने के लिए तैयार खड़ा है. इसके विषय में कुछ न कुछ तो सभी ने सुना ही होगा लेकिन इसके औचित्य को आज तक हम समझ नहीं पाए. हमारे संविधान निर्माताओं का तो एक है सपना था कि हम किसी भी तरीके से गुलामी से आजाद हों और एक ही झंडे तले चैन और अमन के साथ रह सकें . किसी को देश छोड़ने के लिए बाध्य नहीं किया गया. जिसे जहाँ रहना था रहे. अगर कुछ अलगाववादी तत्वों की बात छोड़ दें तो देश में अमन और चैन में आज भी कोई कमी नहीं है. लेकिन इसके विपरीत जिस घातक कदम को उठाने का काम सरकार कर रही है, वह देश में नहीं बल्कि देश वासिओं के दिलों में एक दीवार खींचने का काम करने की तैयारी में है लेकिन ये है किस लिए ? इस बात का को भी उत्तर किसी के पास नहीं है.
अगर ये औरंगजेबी फरमान पास हो गया तो संवैधानिक दृष्टि से , न्याय की दृष्टि से इस बिल में घोषित 'समूह' - जो सिर्फ हिन्दू है, कहीं भी किसी भी हिंसा में दोषी करार कर दिए जायेंगे और उसके बाद इस अपराध की कोई भी जमानत नहीं होगी यानि कि वर्ग विशेष के लोग सत्यापित आतंकवादी करार दिए जायेंगे.
भारत एक हिन्दू राष्ट्र है नहीं इसको धर्मनिरपेक्ष का जामा पहना कर सांप्रदायिक हिंसा निषेध बिल को कानूनी अधिकार प्रदान कर रही है और इस बात से सभी वाकिफ है कि ये हिंसा फैलाने वाले किसी भी आस्था या विश्वास के अनुयायी नहीं होते,. इनकी कोई जाति नहीं होती यहाँ तक कि ये लोग तो मानव भी कहलाने लायक नहीं होते.
फिर इस बिल को तैयार करने वालों की सोच क्या है? अन्य वर्ग मुस्लिम , सिख , इसाई अगर इसमें लिप्त पाए गए तब भी दोषी हिन्दू ही माने जायेंगे यानि कि सांप्रदायिक हिंसा को खुला निमंत्रण और हिन्दुओं के लिए जेल का खुला फरमान. ये किस संविधान में लिखा है? हमने तो अपना दामन इतना बड़ा रखा कि सारी दुनिया को इसमें समां लिया और हम अपने घर में नजरकैद किये जाने वाले हैं. दहशत की बेड़ियों का इंतजाम अगर आपकी गर्दन भी दल दें तो चुप रहिये क्योंकि आख़िर में आपकी कटी गर्दन के साथ आपके घर वाले भाई विरादरी ही जेल की सलाखों के पीछे होंगी.
इस बिल को लाने वाले इसका मसौदा तैयार करने वालों की सोच क्या है? आज तक स्पष्ट नहीं हियो - यह तो फिर किसी नाथूराम गोडसे को जन्म देने वाली पृष्ठभूमि बन रही है फिर एक नहीं कई नाथो राम गोडसे तैयार होंगे क्योंकि अगर मर मर कर जीना है तो फिर एक बार मर कर सदियों तक जीना बेहतर है.

शनिवार, 9 जुलाई 2011

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