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शनिवार, 26 जनवरी 2013

संशोधन चाहता है संविधान !.

                        हम देश के गणतंत्र दिवस का बहिष्कार कर रहे हैं है आखिर क्यों ? ये संविधान किसके लिए बनाया गया था? इस देश के रहने वालों के लिए और उस समय देश के हालत कुछ और ही थे . हमारे संविधान निर्माता विद्वान और देशभक्त थे और वे सबसे पहले देश को  पैरों पर खड़ा करना चाहते थे और उसमें सभी की बराबर भागीदारी स्वीकार कर रहे थे।
                        एक वो गणतंत्र था जब कि  इस देश को लोकतंत्र का कलेवर पहनाया गया . उस समय के नेता ईमानदार और कर्मठ थे और देशभक्त भी थे . आज नेताओं की एक ही जाति और धर्म है स्वार्थ सिद्धि . सत्ता में आयें या नहीं अगर वे संसद में बैठे हैं तो फिर सत्ता में अपनी संभावनाओं को तलाशते हुए देश में बनाये जाने वाले क़ानून में खुद को रख कर तब समर्थन देते हैं जब कि  उनकी अपनी अंगुली न फँस रही हो। नैतिकता, समान अधिकार और समानता के प्रश्न पर कोई कहाँ एक दिखाई देता है। बातें करना और बात है और उसको अमल में लाना और बात .
                        न देश में आधी आबादी सुरक्षित है और न  बचपन - उसके क़ानून बनाने में सोचते सोचते सालों  गुजर  गए , वें न  बन सके हैं और  न नहीं पायेंगे . हाँ अगर सांसदों के हित की कोई बात शुरू होगी तो कोई विपक्ष नहीं है सब एक स्वर में उसका समर्थन करने में पीछे नहीं रहेंगे  ये संसद में बैठ कर देश नहीं अपने भले की नीतियों का निर्माण करने अधिक उत्सुक दिखलाई देते हैं। जो मर्यादा राजनैतिक दल लोकतंत्र में अपनी भूमिका में निभाते हैं वह सब भूल जाते हैं। नाम लोकतंत्र और काम आपतंत्र  के करने में सब माहिर है। हम गणतंत्र क्यों मनाएं ? अपने ही देश में हम सुरक्षित नहीं है। हमारी सेनाओं के जवान अपनी आहुति देश की रक्षा के लिए दे रहे हैं और उनसे कई गुनी ज्यादा सुविधाएँ और पैसे ये नेता खा रहे हैं . और देश के प्रधान मंत्री खामोश रहते हैं क्योंकि उन्हें चलने वाला रिमोट तो किसी और के हाथ में होता है जब तक उसको चलाया नहीं जाएगा तो उनके मुंह से शब्द कैसे बाहर  आ सकते हैं ?
                   अब ये स्पष्ट रूप से महसूस किया जाने लगा है कि जो युवा चाहता है उसके लिए वह एक जुट है और इसके लिए उसको संसद पर काबिज होना पड़ेगा और निजी स्वार्थों को पोषित करने वाले कानूनों को बदल कर एक स्वस्थ राजनीति की परंपरा का निर्वाह करने वाला संविधान बनाये रखना होगा . उसमें संशोधन चाहिए और ऐसे संशोधन जो देश और देशवासियों के हित में हों न की संसद में बैठे हुए लोगों की मर्जी और उनके हितों की पूर्ति करने वाले। ऐसे लोग आयोगों पर काबिज हैं जिन्हें उस आयोग के अंतर्गत आने वाली सीमाओं की पूरी पूरी जानकारी तक नहीं है। कोई गरीबों को किसी रूप में परिभाषित करता है तो कोई देश वासियों को मिनरल वाटर की बोतल पी कर सड़क पर फेंकने वाला बता रहा होता है।
--सत्ता का चश्मा चढ़ा कर देश को देखने वालों की अब इस देश को जरूरत नहीं है।
--अपने बल पर चलने के काबिल नहीं है और संसद में सीट पर कब्ज़ा किये बैठे लोगों को जरूरत नहीं है।
-- जेल में बैठ कर चुनाव लड़ने वालों की भी जरूरत नहीं है। अगर वे अपराधी साबित नहीं  हैं फिर भी अगर उनके ऊपर कोई  लगाया गया है और मामला लंबित है तब भी वे उससे बरी होने तक चुनाव के लिए अयोग्य घोषित किये जाने चाहिए।
--संविधान में परिभाषित किये गए कुछ शब्द विशेष को पुनर्परिभाषित किये जाने की जरूरत है। जैसे अनुसूचित जाति  में आने वाले वे लोग जो आज भी सिर  पर मैला ढो  कर जीवन यापन कर रहे हैं उनका हक है  , न कि  उनका जो सिर्फ नाम के लिए जाति का लाभ उठा रहे हैं।
 --अल्पसंख्यक को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है क्योंकि देश की आबादी के बढ़ने से इस की सीमायें भी अब टूटने लगी हैं।
--आरक्षण का आधार अब आई आई टी की तरह से हर क्षेत्र में आर्थिक स्थिति को बनाया जाना चाहिए। क्योंकि  दलित वह  हैं मैला उठा रहे हैं , कूड़ा बीन रहे हैं लेकिन दलित नहीं है , भीख मांग कर पेट भर रहे हैं लेकिन दलित नहीं है . जो महिलायें अपने दुधमुंहे को सड़क के किनारे लिटा कर काम कर रही हैं लेकिन वे दलित की श्रेणी में नहीं आती है।  उनके बच्चों को आरक्षण की जरूरत है,  उनको नहीं जो  मैला ढोने  वालों का जाति  नाम लगा कर किसी आई इ एस के  परिजन   होने पर भी अनुसूचित जाति के आरक्षण का लाभ पीढी दर पीढी उठा रहे हैं।, जो सिर्फ जाति के नाम पर पहले से लाभ के पदों पर काबिज हैं और आने वाली पीढियां भी इसका लाभ उठा रही हैं।
--कानून प्रणाली को त्वरित बनाने के लिए नए संशोधन होने चाहिए . अपराधों की गंभीरता बढ़ जाने पर उनके दंड में भी बढ़ोत्तरी और कठोरता आनी  चाहिए।
-- राज्य हो या केंद्र सबसे पहले देश के नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने वाले साधनों की उपलब्धता को प्राथमिकता देने की बात करनी चाहिए न कि  अपने अहम् को संतुष्ट करने वाले कामों में जनता के पैसे को बर्बाद करे . इसके लिए संविधान में ही प्रावधान किया जाना चाहिए।
--देश का विकास भूखे मरते हुए लोगों को रोटी और रोजी उपलब्ध करने से अधिक महसूस होगा न की बड़े बड़े पार्कों के सुन्दरीकरण के नाम पर पैसे लुटाने में। उस पार्क की चाहरदीवारी के बहार पोलिथीन लगा कर घर बना कर रहने वाले विकास की कहानी पर धब्बा दिखलाई देते हैं।
--ये गणतंत्र तब तक बेमानी है , जब तक की इस देश में वाकई लोकतंत्र सही अर्थों में स्थापित न हो जाए। 
                  अब निर्णय देश के युवा वर्ग पर निर्भर है और आधी आबादी इसादेश के भविष्य को तय करने में अपनी आधी नहीं बल्कि पूरी पूरी ताकत लगा कर ढर्रे पर लेन का काम करेगी। अब वो आरक्षण की भीख नहीं मांगेगी बल्कि अपने दम पर संसद में अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए उनको टक्कर देगी . कल आने दीजिये तब इसा गणतंत्र को मनाने के अर्थ को सार्थक करने के लिए सब साथ होंगे 

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

दुष्कर्म : महामारी !

     

              हम अगर अपने समाज के इतिहास पर दृष्टि डालें तो पायेंगे कि  जब हमारा चिकित्सा विज्ञानं इतना उन्नत नहीं था तो देश में कुछ महामारी ऐसी फैलती थी कि  गाँव के गाँव उसके शिकार हो जाते थे और तब पूरे देश में हडकंप मच जाता था। प्लेग, हैजा जैसे रोग महामारी के नाम से जाने जाते थे। जिनका इलाज बहुत जल्दी नहीं खोज जा सकता था , ठीक उसी तरह हमारे देश में और समाज में एक मनोविकृति दुष्कर्म नामक महामारी फैलती चली जा रही है और उसके रूप विकराल से विकराल होते चले जा रहे हैं . यह एक मनोरोग है और दिन पर दिन यह महामारी का रूप लेता चला जा रहा है। इस बीमारी के कीटाणु नर जाति के मष्तिष्क में ही घुस रहे हैं और इस बीमारी में उम्र, जाति और सामाजिक रिश्तों की भी कोई सीमा या बंदिश नहीं होती है। अधेड़ , जवान या किशोर कोई भी किसी भी उम्र की बच्ची, किशोरी ,युवती या फिर  प्रौढ़ा को  शिकार बना सकता है। अब तो इस बीमारी में एक और जटिलता देखी जाने लगी है कि पहले तो इस बीमारी का शिकार बिगडैल दबंग पुरुष ही हुआ करते थे और इस काम के लिए गरीब , अपने नौकरों की बेटियों या पत्नियों पर रीझ कर अपनी इस बीमारी का शिकार बना लिया करते थे और वे उनके मातहत होकर कैसे और किसके आगे मुंह खोलते ? इसलिए चुपचाप हुजूर के इस जुल्म को सहते रहते थे। न कोई थाना , और न कोई रपट - अपने माई बाप के खिलाफ कौन जबान खोल सकता था?
                    फिर इस काम के लिए राजनीति में जगह बनने लगी, नेताओं और उनके गुर्गों ने महत्वाकांक्षी महिलाओं को राजनीति में मुकाम दिलवाने का झांसा देकर उनकी इज्जत से खेलने लगे लेकिन इसके पीछे वे महिलायें भी बराबर की दोषी समझी जानी चाहिए , जो सिर्फ अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए अपनी इज्जत से भी सौदा कर सकती हैं। दूसरे इसमें कद्दावर लोगों के द्वारा  अपने आकाओं को खुश करने के लिए लड़कियाँ उठाई जाने लगी और फिर छोड़ दी जाती क्योंकि उनके खिलाफ मुंह खोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी। कभी खोलने की कोशिश की जान से ही हाथ धोना पड़ा।  मधुमिता शुक्ल केस इसका गवाह है और इसमें एक बात अच्छी ये रही कि उसके गुनहगार को समुचित सजा मिली। 
                    हम जिस गति से विज्ञानं और कंप्यूटर युग में जा रहे हैं उससे भी ज्यादा आम लोगों के लिए उपलब्ध नए नए गजेट्स उनको पतन की और ले जा रहे हैं। नेट का युग आ गया और अगर इसमें हमारे कदम प्रगति के पथ पर बढे तो फिर गर्त में जाने के रास्ते भी खुल गए।  बस यही से इस महामारी के कीटाणुओं ने किशोरों, युवाओं, और अधेड़ों के अन्दर प्रवेश कर लिया। और प्रवेश करते ही सबसे पहले ये कीटाणु उसके बुद्धि और विवेक को ग्रस लेते हैं और उसकी आँखों की कोर्निया को बच्ची से लेकर वरिष्ठ महिलाओं तक सब सिर्फ और सिर्फ स्त्रीलिंग दिखने लगती हैं। उनकी बुद्धि से सामाजिक रिश्तों का पेज पूरा का पूरा डिलीट हो जाता है . अपवाद ही सही बाप - बेटी , भाई -बहन , चाचा भतीजी , मामा- भांजी और जीजा- साली और मित्र के रिश्तों पर तो कोई रोक लगायी ही नहीं जा सकती है। ये कीटाणु इन पवित्र रिश्तों की मर्यादा को खंडित करने में संकोच नहीं करते हैं . बाकी  पडोसी या मित्र के लिए तो कुछ भी संभव है।
                  जब इसके कीटाणु सोते रहते हैं तब तो कुछ भी नहीं लेकिन ये कीटाणु किसी भी स्त्रीलिंग को देख कर वीभत्स  रूप से सक्रिय  हो जाते हैं और तब उस रोग ग्रस्त व्यक्ति के लिए अपने पर अपने मन मष्तिष्क पर काबू रखना असंभव हो जाता है। स्कूल, अस्पताल, घर , रेल , बस , टैक्सी, ऑटो किसी भी स्थान पर ये अपने काम को अंजाम देने के लिए विवश हो जाते हैं। इसमें पहले समय में तो सिर्फ अनपढ़ और दबंगों को ही इसका शिकार देखा जाता था लेकिन अब तो विवेकपूर्ण और उच्च शिक्षित लोगों को भी इसका शिकार होते देखा जा रहा हैं। इसमें पद, शिक्षा और प्रतिष्ठा सब कुछ इसके कीटाणुओं के सक्रिय  होते ही विवेक को हर लेते हैं और तब शिक्षक , डॉक्टर , संरक्षक , मालिक या फिर कोई श्रमजीवी होने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता है।  व्यक्ति इसमें बिलकुल दिग्भ्रमित होकर कार्य करने लगता है। छात्र  वर्ग में तो यह हवा की तरह से फैल रहा है। अब तो इसने अपने पैर ऐसे फैलाने शुरू कर दिए हैं कि सामूहिक दुष्कर्म की घटनाएँ दिन पर दिन बढती जा रही हैं। अगर हम एक दिन का अख़बार उठा कर देखें तो हमें कई जगह पर कई घटनाएँ मिल जायेंगी और ये वही घटनाएँ है जिन्हें पुलिस ने दर्ज किया है और वे जो दर्ज की ही नहीं जाती हैं या फिर अपनी इज्जत की झूठी शान के चलते लोग पुलिस तक पहुँचाना ही नहीं चाहते हैं या फिर दबंगों के प्रभाव में दबा दिए जाते हैं , उनका इससे कोई भी लेना देना नहीं है।
                ऐसी घटनाएँ तो होती ही रहती हैं और दब जाती हैं बगैर किसी निर्णय के। ये कोई अनोखा मामला तो नहीं है जो ऐसा बवाल मचाया जा रहा है।   लेकिन अब सामूहिक दुष्कर्म के मामले  इतना तूल  क्यों पकड रहे  है क्योंकि निर्भया काण्ड के बाद से जो कुछ भी कानून ने किया बहुत संतोष जनक तो नहीं है लेकिन अब लड़कियों और उनके संरक्षकों ने इस अन्याय के खिलाफ मुंह खोलना शुरू कर दिया है और जैसे ही उन लोगों ने ये हिम्मत दिखाई , अपराधियों ने पीड़िता को ही नहीं बल्कि उनको परिवार और पैरोकारों को मारना और मरवाना शुरू कर दिया। कुछ लोगों का कहना है कि  ये सब मीडिया की महिमा है, नहीं तो ऐसे कितने मामले अदालतों में पड़े हैं और वर्षों से निर्णय के लिए तरस रहे हैं। लेकिन कुछ  मामलों में अमानुषिकता की सारी  हदें पार हो गयीं और फिर जब यह महामारी अपनी पराकाष्ठा  पर पहुँच गयी है तो फिर कुछ तो इसके लिए आवाज उठाएंगे ही। अब जब ये बीमारी बुरी तरह से फैल चुकी है और इसको नियंत्रित करना अत्यंत आवश्यक हो गया है . इस बात को समाज में सिर्फ आधी आबादी ने ही महसूस नहीं किया है बल्कि इस महामारी से बचे हुए युवा भी इस के निदान के खोज के लिए प्रयत्नशील हो रहे हैं। राजनीति के ठेकेदार और न्याय के पैरोकार अभी भी इस मामले को इतना गंभीर नहीं मानते हैं क्योंकि उनके अनुसार इस काम के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि  सांसद शीतकाल का मजा अपने घरों में उठा रहे हैं फिर क्यों बेवजह परेशां हों? इसके लिए वर्मा समिति को नियुक्त कर दिया गया ,  जिससे सारे मामले को ध्यान में  रखते हुए उसके लिए निर्णय की संस्तुति वही करेगी।  लेकिन उसके निर्णयों को कितना माना जा रहा है।
                 इस महामारी को नियंत्रित करने के लिए प्रयास तो करने ही पड़ेंगे नहीं तो मानव जाति  का अस्तित्व  खतरे में पड  जाएगा हम इसके लिए समुचित इलाज को खोजने में प्रयत्नशील है कि ऐसा कुछ हो जाय कि ऐसे महामारी से ग्रस्त लोगों के लिए एक सबक बन जाय तो फिर कुछ सुझाव हम भी तो खोज ही सकते हैं-----

1. फास्ट ट्रेक कोर्ट का गठन (जिसके लिए सरकार सहमत हो रही है। )
2. पुलिस चार्जशीट कम से कम समय में तैयार करके कोर्ट में प्रस्तुत करे।
3.  इसके लिए रोज सुनवाई की जाए ताकि न्याय जल्दी मिले। 
4. इसके लिए आरोपित व्यक्ति की जमानत उसके निर्दोष साबित होने के पहले न की जाय।  हाल ही में जमानत पर आये अपराधियों ने पीड़िता को जला दिया।
5 . पीडिता का सम्पूर्ण इलाज सरकारी खर्च पर कराया , चाहे इसके लिए उसे कहीं भी भेजना पड़े। 
6 . इस महामारी के रोगी के लिए फाँसी की सजा उचित इलाज नहीं है क्योंकि वह कुछ ही समय में अपने सारे कष्ट से मुक्त हो जाएगा  अगर वह वास्तव में महामारी से ग्रस्त पाया जाता है तो उसको अंग-भंग  का दंड दिया जाय। 
7. आरोपियों के निम्न अदालत , उच्चा न्यायलय  सर्वोच्चा न्यायलय से दोषी घोषित होने के बाद कोई भी पुनर्विचार याचिका या दया याचिका का प्रावधान नहीं होना चाहिए। 
8. सौ दिन के अंदर इनके भविष्य का निर्णय होना आवश्यक है।
9  . इस महामारी से ग्रस्त व्यक्ति के शरीर के बाहरी हिस्से पर जिस पर सीधी दृष्टि पड़े - जैसे चेहरे पर स्थायी रूप से ऐसा कोई निशान बना दिया जाय जिससे उसके इसा रोग से ग्रस्त होने का पता चलता रहे। ऐसे लोगों का चेहरा देखते ही उनसे सावधान रहा जा सके 
10 . वह निशान ऐसे लोगों को सामान्य लोगों के तरह से नागरिक अधिकारों से वंचित  करने के लिए पर्याप्त होने चाहिए।  ठीक वैसे ही जैसे कहा जाता है कि वह भारत का नागरिक हो पागल और दिवालिया नहीं होना चाहिए ठीक इसी तरह से वह इस महामारी से ग्रस्त नहीं होना चाहिए।
11 . ऐसे लोगों के परिवार में कोई अपनी बेटी न दे बल्कि इनका सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए
12 . इन्हें कोई अपने संस्थान  में प्रवेश या फिर नौकरी न दे।
                       अगर इन सब  पर अमल किया जाय तो फिर ऐसे लोगों को देख कर और चिन्हित होने के भय  से लोगो  में फैल रही इस महामारी पर स्वतः अंकुश लग जाएगा।