हम देश के गणतंत्र दिवस का बहिष्कार कर रहे हैं है आखिर क्यों ? ये संविधान किसके लिए बनाया गया था? इस देश के रहने वालों के लिए और उस समय देश के हालत कुछ और ही थे . हमारे संविधान निर्माता विद्वान और देशभक्त थे और वे सबसे पहले देश को पैरों पर खड़ा करना चाहते थे और उसमें सभी की बराबर भागीदारी स्वीकार कर रहे थे।
एक वो गणतंत्र था जब कि इस देश को लोकतंत्र का कलेवर पहनाया गया . उस समय के नेता ईमानदार और कर्मठ थे और देशभक्त भी थे . आज नेताओं की एक ही जाति और धर्म है स्वार्थ सिद्धि . सत्ता में आयें या नहीं अगर वे संसद में बैठे हैं तो फिर सत्ता में अपनी संभावनाओं को तलाशते हुए देश में बनाये जाने वाले क़ानून में खुद को रख कर तब समर्थन देते हैं जब कि उनकी अपनी अंगुली न फँस रही हो। नैतिकता, समान अधिकार और समानता के प्रश्न पर कोई कहाँ एक दिखाई देता है। बातें करना और बात है और उसको अमल में लाना और बात .
न देश में आधी आबादी सुरक्षित है और न बचपन - उसके क़ानून बनाने में सोचते सोचते सालों गुजर गए , वें न बन सके हैं और न नहीं पायेंगे . हाँ अगर सांसदों के हित की कोई बात शुरू होगी तो कोई विपक्ष नहीं है सब एक स्वर में उसका समर्थन करने में पीछे नहीं रहेंगे ये संसद में बैठ कर देश नहीं अपने भले की नीतियों का निर्माण करने अधिक उत्सुक दिखलाई देते हैं। जो मर्यादा राजनैतिक दल लोकतंत्र में अपनी भूमिका में निभाते हैं वह सब भूल जाते हैं। नाम लोकतंत्र और काम आपतंत्र के करने में सब माहिर है। हम गणतंत्र क्यों मनाएं ? अपने ही देश में हम सुरक्षित नहीं है। हमारी सेनाओं के जवान अपनी आहुति देश की रक्षा के लिए दे रहे हैं और उनसे कई गुनी ज्यादा सुविधाएँ और पैसे ये नेता खा रहे हैं . और देश के प्रधान मंत्री खामोश रहते हैं क्योंकि उन्हें चलने वाला रिमोट तो किसी और के हाथ में होता है जब तक उसको चलाया नहीं जाएगा तो उनके मुंह से शब्द कैसे बाहर आ सकते हैं ?
अब ये स्पष्ट रूप से महसूस किया जाने लगा है कि जो युवा चाहता है उसके लिए वह एक जुट है और इसके लिए उसको संसद पर काबिज होना पड़ेगा और निजी स्वार्थों को पोषित करने वाले कानूनों को बदल कर एक स्वस्थ राजनीति की परंपरा का निर्वाह करने वाला संविधान बनाये रखना होगा . उसमें संशोधन चाहिए और ऐसे संशोधन जो देश और देशवासियों के हित में हों न की संसद में बैठे हुए लोगों की मर्जी और उनके हितों की पूर्ति करने वाले। ऐसे लोग आयोगों पर काबिज हैं जिन्हें उस आयोग के अंतर्गत आने वाली सीमाओं की पूरी पूरी जानकारी तक नहीं है। कोई गरीबों को किसी रूप में परिभाषित करता है तो कोई देश वासियों को मिनरल वाटर की बोतल पी कर सड़क पर फेंकने वाला बता रहा होता है।
--सत्ता का चश्मा चढ़ा कर देश को देखने वालों की अब इस देश को जरूरत नहीं है।
--अपने बल पर चलने के काबिल नहीं है और संसद में सीट पर कब्ज़ा किये बैठे लोगों को जरूरत नहीं है।
-- जेल में बैठ कर चुनाव लड़ने वालों की भी जरूरत नहीं है। अगर वे अपराधी साबित नहीं हैं फिर भी अगर उनके ऊपर कोई लगाया गया है और मामला लंबित है तब भी वे उससे बरी होने तक चुनाव के लिए अयोग्य घोषित किये जाने चाहिए।
--संविधान में परिभाषित किये गए कुछ शब्द विशेष को पुनर्परिभाषित किये जाने की जरूरत है। जैसे अनुसूचित जाति में आने वाले वे लोग जो आज भी सिर पर मैला ढो कर जीवन यापन कर रहे हैं उनका हक है , न कि उनका जो सिर्फ नाम के लिए जाति का लाभ उठा रहे हैं।
--अल्पसंख्यक को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है क्योंकि देश की आबादी के बढ़ने से इस की सीमायें भी अब टूटने लगी हैं।
--आरक्षण का आधार अब आई आई टी की तरह से हर क्षेत्र में आर्थिक स्थिति को बनाया जाना चाहिए। क्योंकि दलित वह हैं मैला उठा रहे हैं , कूड़ा बीन रहे हैं लेकिन दलित नहीं है , भीख मांग कर पेट भर रहे हैं लेकिन दलित नहीं है . जो महिलायें अपने दुधमुंहे को सड़क के किनारे लिटा कर काम कर रही हैं लेकिन वे दलित की श्रेणी में नहीं आती है। उनके बच्चों को आरक्षण की जरूरत है, उनको नहीं जो मैला ढोने वालों का जाति नाम लगा कर किसी आई इ एस के परिजन होने पर भी अनुसूचित जाति के आरक्षण का लाभ पीढी दर पीढी उठा रहे हैं।, जो सिर्फ जाति के नाम पर पहले से लाभ के पदों पर काबिज हैं और आने वाली पीढियां भी इसका लाभ उठा रही हैं।
--कानून प्रणाली को त्वरित बनाने के लिए नए संशोधन होने चाहिए . अपराधों की गंभीरता बढ़ जाने पर उनके दंड में भी बढ़ोत्तरी और कठोरता आनी चाहिए।
-- राज्य हो या केंद्र सबसे पहले देश के नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने वाले साधनों की उपलब्धता को प्राथमिकता देने की बात करनी चाहिए न कि अपने अहम् को संतुष्ट करने वाले कामों में जनता के पैसे को बर्बाद करे . इसके लिए संविधान में ही प्रावधान किया जाना चाहिए।
--देश का विकास भूखे मरते हुए लोगों को रोटी और रोजी उपलब्ध करने से अधिक महसूस होगा न की बड़े बड़े पार्कों के सुन्दरीकरण के नाम पर पैसे लुटाने में। उस पार्क की चाहरदीवारी के बहार पोलिथीन लगा कर घर बना कर रहने वाले विकास की कहानी पर धब्बा दिखलाई देते हैं।
--ये गणतंत्र तब तक बेमानी है , जब तक की इस देश में वाकई लोकतंत्र सही अर्थों में स्थापित न हो जाए।
अब निर्णय देश के युवा वर्ग पर निर्भर है और आधी आबादी इसादेश के भविष्य को तय करने में अपनी आधी नहीं बल्कि पूरी पूरी ताकत लगा कर ढर्रे पर लेन का काम करेगी। अब वो आरक्षण की भीख नहीं मांगेगी बल्कि अपने दम पर संसद में अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए उनको टक्कर देगी . कल आने दीजिये तब इसा गणतंत्र को मनाने के अर्थ को सार्थक करने के लिए सब साथ होंगे
एक वो गणतंत्र था जब कि इस देश को लोकतंत्र का कलेवर पहनाया गया . उस समय के नेता ईमानदार और कर्मठ थे और देशभक्त भी थे . आज नेताओं की एक ही जाति और धर्म है स्वार्थ सिद्धि . सत्ता में आयें या नहीं अगर वे संसद में बैठे हैं तो फिर सत्ता में अपनी संभावनाओं को तलाशते हुए देश में बनाये जाने वाले क़ानून में खुद को रख कर तब समर्थन देते हैं जब कि उनकी अपनी अंगुली न फँस रही हो। नैतिकता, समान अधिकार और समानता के प्रश्न पर कोई कहाँ एक दिखाई देता है। बातें करना और बात है और उसको अमल में लाना और बात .
न देश में आधी आबादी सुरक्षित है और न बचपन - उसके क़ानून बनाने में सोचते सोचते सालों गुजर गए , वें न बन सके हैं और न नहीं पायेंगे . हाँ अगर सांसदों के हित की कोई बात शुरू होगी तो कोई विपक्ष नहीं है सब एक स्वर में उसका समर्थन करने में पीछे नहीं रहेंगे ये संसद में बैठ कर देश नहीं अपने भले की नीतियों का निर्माण करने अधिक उत्सुक दिखलाई देते हैं। जो मर्यादा राजनैतिक दल लोकतंत्र में अपनी भूमिका में निभाते हैं वह सब भूल जाते हैं। नाम लोकतंत्र और काम आपतंत्र के करने में सब माहिर है। हम गणतंत्र क्यों मनाएं ? अपने ही देश में हम सुरक्षित नहीं है। हमारी सेनाओं के जवान अपनी आहुति देश की रक्षा के लिए दे रहे हैं और उनसे कई गुनी ज्यादा सुविधाएँ और पैसे ये नेता खा रहे हैं . और देश के प्रधान मंत्री खामोश रहते हैं क्योंकि उन्हें चलने वाला रिमोट तो किसी और के हाथ में होता है जब तक उसको चलाया नहीं जाएगा तो उनके मुंह से शब्द कैसे बाहर आ सकते हैं ?
अब ये स्पष्ट रूप से महसूस किया जाने लगा है कि जो युवा चाहता है उसके लिए वह एक जुट है और इसके लिए उसको संसद पर काबिज होना पड़ेगा और निजी स्वार्थों को पोषित करने वाले कानूनों को बदल कर एक स्वस्थ राजनीति की परंपरा का निर्वाह करने वाला संविधान बनाये रखना होगा . उसमें संशोधन चाहिए और ऐसे संशोधन जो देश और देशवासियों के हित में हों न की संसद में बैठे हुए लोगों की मर्जी और उनके हितों की पूर्ति करने वाले। ऐसे लोग आयोगों पर काबिज हैं जिन्हें उस आयोग के अंतर्गत आने वाली सीमाओं की पूरी पूरी जानकारी तक नहीं है। कोई गरीबों को किसी रूप में परिभाषित करता है तो कोई देश वासियों को मिनरल वाटर की बोतल पी कर सड़क पर फेंकने वाला बता रहा होता है।
--सत्ता का चश्मा चढ़ा कर देश को देखने वालों की अब इस देश को जरूरत नहीं है।
--अपने बल पर चलने के काबिल नहीं है और संसद में सीट पर कब्ज़ा किये बैठे लोगों को जरूरत नहीं है।
-- जेल में बैठ कर चुनाव लड़ने वालों की भी जरूरत नहीं है। अगर वे अपराधी साबित नहीं हैं फिर भी अगर उनके ऊपर कोई लगाया गया है और मामला लंबित है तब भी वे उससे बरी होने तक चुनाव के लिए अयोग्य घोषित किये जाने चाहिए।
--संविधान में परिभाषित किये गए कुछ शब्द विशेष को पुनर्परिभाषित किये जाने की जरूरत है। जैसे अनुसूचित जाति में आने वाले वे लोग जो आज भी सिर पर मैला ढो कर जीवन यापन कर रहे हैं उनका हक है , न कि उनका जो सिर्फ नाम के लिए जाति का लाभ उठा रहे हैं।
--अल्पसंख्यक को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है क्योंकि देश की आबादी के बढ़ने से इस की सीमायें भी अब टूटने लगी हैं।
--आरक्षण का आधार अब आई आई टी की तरह से हर क्षेत्र में आर्थिक स्थिति को बनाया जाना चाहिए। क्योंकि दलित वह हैं मैला उठा रहे हैं , कूड़ा बीन रहे हैं लेकिन दलित नहीं है , भीख मांग कर पेट भर रहे हैं लेकिन दलित नहीं है . जो महिलायें अपने दुधमुंहे को सड़क के किनारे लिटा कर काम कर रही हैं लेकिन वे दलित की श्रेणी में नहीं आती है। उनके बच्चों को आरक्षण की जरूरत है, उनको नहीं जो मैला ढोने वालों का जाति नाम लगा कर किसी आई इ एस के परिजन होने पर भी अनुसूचित जाति के आरक्षण का लाभ पीढी दर पीढी उठा रहे हैं।, जो सिर्फ जाति के नाम पर पहले से लाभ के पदों पर काबिज हैं और आने वाली पीढियां भी इसका लाभ उठा रही हैं।
--कानून प्रणाली को त्वरित बनाने के लिए नए संशोधन होने चाहिए . अपराधों की गंभीरता बढ़ जाने पर उनके दंड में भी बढ़ोत्तरी और कठोरता आनी चाहिए।
-- राज्य हो या केंद्र सबसे पहले देश के नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने वाले साधनों की उपलब्धता को प्राथमिकता देने की बात करनी चाहिए न कि अपने अहम् को संतुष्ट करने वाले कामों में जनता के पैसे को बर्बाद करे . इसके लिए संविधान में ही प्रावधान किया जाना चाहिए।
--देश का विकास भूखे मरते हुए लोगों को रोटी और रोजी उपलब्ध करने से अधिक महसूस होगा न की बड़े बड़े पार्कों के सुन्दरीकरण के नाम पर पैसे लुटाने में। उस पार्क की चाहरदीवारी के बहार पोलिथीन लगा कर घर बना कर रहने वाले विकास की कहानी पर धब्बा दिखलाई देते हैं।
--ये गणतंत्र तब तक बेमानी है , जब तक की इस देश में वाकई लोकतंत्र सही अर्थों में स्थापित न हो जाए।
अब निर्णय देश के युवा वर्ग पर निर्भर है और आधी आबादी इसादेश के भविष्य को तय करने में अपनी आधी नहीं बल्कि पूरी पूरी ताकत लगा कर ढर्रे पर लेन का काम करेगी। अब वो आरक्षण की भीख नहीं मांगेगी बल्कि अपने दम पर संसद में अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए उनको टक्कर देगी . कल आने दीजिये तब इसा गणतंत्र को मनाने के अर्थ को सार्थक करने के लिए सब साथ होंगे
भारत की विचित्र कठिनाई है, यहां लोग मोक्ष चाहते हैं, किसी को भी वर्तमान सुधारने की आवश्यकता महसूस नहीं होती है। इसलिए आम जनता दुख पाकर भी निष्क्रिय है। युवा विदेश जाने में लालायित है, अब देश की सुध कौन ले?
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति !!
जवाब देंहटाएंअल्पसंख्यक को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है क्योंकि देश की आबादी के बढ़ने से इस की सीमायें भी अब टूटने लगी हैं।
जवाब देंहटाएं--आरक्षण का आधार अब आई आई टी की तरह से हर क्षेत्र में आर्थिक स्थिति को बनाया जाना चाहिए। क्योंकि दलित वह हैं मैला उठा रहे हैं , कूड़ा बीन रहे हैं लेकिन दलित नहीं है , भीख मांग कर पेट भर रहे हैं लेकिन दलित नहीं है . जो महिलायें अपने दुधमुंहे को सड़क के किनारे लिटा कर काम कर रही हैं लेकिन वे दलित की श्रेणी में नहीं आती है। उनके बच्चों को आरक्षण की जरूरत है, उनको नहीं जो मैला ढोने वालों का जाति नाम लगा कर किसी आई इ एस के परिजन होने पर भी अनुसूचित जाति के आरक्षण का लाभ पीढी दर पीढी उठा रहे हैं।, जो सिर्फ जाति के नाम पर पहले से लाभ के पदों पर काबिज हैं और आने वाली पीढियां भी इसका लाभ उठा रही हैं।
--कानून प्रणाली को त्वरित बनाने के लिए नए संशोधन होने चाहिए . अपराधों की गंभीरता बढ़ जाने पर उनके दंड में भी बढ़ोत्तरी और कठोरता आनी चाहिए।
बिल्कुल सही कह रही हैं आप …………आज इस प्रकार के संशोधन की सख्त जरूरत है।
वोट के ऊपर मानसिकता उठे तो सार्थक चिन्तन हो..
जवाब देंहटाएंकैसे कैसे लोग कि मूँग दल रहे हैं माँ की छाती पर ,
जवाब देंहटाएंअपना उल्लू साध रहे भाषा संस्कृति सब दाँव लगा कर !
स्वार्थ और संकीर्ण वृत्ति से जब पायेंगे हम छुटकारा ,
बोलेंगे तब ही जयकारा !
कौन कब कहाँ अल्पसंख्यक है यह एक बड़ा मुद्दा है जो अ -परिभाषित है .वोट प्रधान कुनबा तंत्र है यह ,जहां जाति और मजहब अल्पसंख्यक वोट बैंक को तरजीह दी जाती है हर स्तर पर
जवाब देंहटाएं.बढ़िया मुद्दे उठाए हैं आपने .
बहुत ही सुन्दर,एव सार्थक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएं