हम अगर अपने समाज के इतिहास पर दृष्टि डालें तो पायेंगे कि जब हमारा चिकित्सा विज्ञानं इतना उन्नत नहीं था तो देश में कुछ महामारी ऐसी फैलती थी कि गाँव के गाँव उसके शिकार हो जाते थे और तब पूरे देश में हडकंप मच जाता था। प्लेग, हैजा जैसे रोग महामारी के नाम से जाने जाते थे। जिनका इलाज बहुत जल्दी नहीं खोज जा सकता था , ठीक उसी तरह हमारे देश में और समाज में एक मनोविकृति दुष्कर्म नामक महामारी फैलती चली जा रही है और उसके रूप विकराल से विकराल होते चले जा रहे हैं . यह एक मनोरोग है और दिन पर दिन यह महामारी का रूप लेता चला जा रहा है। इस बीमारी के कीटाणु नर जाति के मष्तिष्क में ही घुस रहे हैं और इस बीमारी में उम्र, जाति और सामाजिक रिश्तों की भी कोई सीमा या बंदिश नहीं होती है। अधेड़ , जवान या किशोर कोई भी किसी भी उम्र की बच्ची, किशोरी ,युवती या फिर प्रौढ़ा को शिकार बना सकता है। अब तो इस बीमारी में एक और जटिलता देखी जाने लगी है कि पहले तो इस बीमारी का शिकार बिगडैल दबंग पुरुष ही हुआ करते थे और इस काम के लिए गरीब , अपने नौकरों की बेटियों या पत्नियों पर रीझ कर अपनी इस बीमारी का शिकार बना लिया करते थे और वे उनके मातहत होकर कैसे और किसके आगे मुंह खोलते ? इसलिए चुपचाप हुजूर के इस जुल्म को सहते रहते थे। न कोई थाना , और न कोई रपट - अपने माई बाप के खिलाफ कौन जबान खोल सकता था?
फिर इस काम के लिए राजनीति में जगह बनने लगी, नेताओं और उनके गुर्गों ने महत्वाकांक्षी महिलाओं को राजनीति में मुकाम दिलवाने का झांसा देकर उनकी इज्जत से खेलने लगे लेकिन इसके पीछे वे महिलायें भी बराबर की दोषी समझी जानी चाहिए , जो सिर्फ अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए अपनी इज्जत से भी सौदा कर सकती हैं। दूसरे इसमें कद्दावर लोगों के द्वारा अपने आकाओं को खुश करने के लिए लड़कियाँ उठाई जाने लगी और फिर छोड़ दी जाती क्योंकि उनके खिलाफ मुंह खोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी। कभी खोलने की कोशिश की जान से ही हाथ धोना पड़ा। मधुमिता शुक्ल केस इसका गवाह है और इसमें एक बात अच्छी ये रही कि उसके गुनहगार को समुचित सजा मिली।
हम जिस गति से विज्ञानं और कंप्यूटर युग में जा रहे हैं उससे भी ज्यादा आम लोगों के लिए उपलब्ध नए नए गजेट्स उनको पतन की और ले जा रहे हैं। नेट का युग आ गया और अगर इसमें हमारे कदम प्रगति के पथ पर बढे तो फिर गर्त में जाने के रास्ते भी खुल गए। बस यही से इस महामारी के कीटाणुओं ने किशोरों, युवाओं, और अधेड़ों के अन्दर प्रवेश कर लिया। और प्रवेश करते ही सबसे पहले ये कीटाणु उसके बुद्धि और विवेक को ग्रस लेते हैं और उसकी आँखों की कोर्निया को बच्ची से लेकर वरिष्ठ महिलाओं तक सब सिर्फ और सिर्फ स्त्रीलिंग दिखने लगती हैं। उनकी बुद्धि से सामाजिक रिश्तों का पेज पूरा का पूरा डिलीट हो जाता है . अपवाद ही सही बाप - बेटी , भाई -बहन , चाचा भतीजी , मामा- भांजी और जीजा- साली और मित्र के रिश्तों पर तो कोई रोक लगायी ही नहीं जा सकती है। ये कीटाणु इन पवित्र रिश्तों की मर्यादा को खंडित करने में संकोच नहीं करते हैं . बाकी पडोसी या मित्र के लिए तो कुछ भी संभव है।
जब इसके कीटाणु सोते रहते हैं तब तो कुछ भी नहीं लेकिन ये कीटाणु किसी भी स्त्रीलिंग को देख कर वीभत्स रूप से सक्रिय हो जाते हैं और तब उस रोग ग्रस्त व्यक्ति के लिए अपने पर अपने मन मष्तिष्क पर काबू रखना असंभव हो जाता है। स्कूल, अस्पताल, घर , रेल , बस , टैक्सी, ऑटो किसी भी स्थान पर ये अपने काम को अंजाम देने के लिए विवश हो जाते हैं। इसमें पहले समय में तो सिर्फ अनपढ़ और दबंगों को ही इसका शिकार देखा जाता था लेकिन अब तो विवेकपूर्ण और उच्च शिक्षित लोगों को भी इसका शिकार होते देखा जा रहा हैं। इसमें पद, शिक्षा और प्रतिष्ठा सब कुछ इसके कीटाणुओं के सक्रिय होते ही विवेक को हर लेते हैं और तब शिक्षक , डॉक्टर , संरक्षक , मालिक या फिर कोई श्रमजीवी होने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। व्यक्ति इसमें बिलकुल दिग्भ्रमित होकर कार्य करने लगता है। छात्र वर्ग में तो यह हवा की तरह से फैल रहा है। अब तो इसने अपने पैर ऐसे फैलाने शुरू कर दिए हैं कि सामूहिक दुष्कर्म की घटनाएँ दिन पर दिन बढती जा रही हैं। अगर हम एक दिन का अख़बार उठा कर देखें तो हमें कई जगह पर कई घटनाएँ मिल जायेंगी और ये वही घटनाएँ है जिन्हें पुलिस ने दर्ज किया है और वे जो दर्ज की ही नहीं जाती हैं या फिर अपनी इज्जत की झूठी शान के चलते लोग पुलिस तक पहुँचाना ही नहीं चाहते हैं या फिर दबंगों के प्रभाव में दबा दिए जाते हैं , उनका इससे कोई भी लेना देना नहीं है।
ऐसी घटनाएँ तो होती ही रहती हैं और दब जाती हैं बगैर किसी निर्णय के। ये कोई अनोखा मामला तो नहीं है जो ऐसा बवाल मचाया जा रहा है। लेकिन अब सामूहिक दुष्कर्म के मामले इतना तूल क्यों पकड रहे है क्योंकि निर्भया काण्ड के बाद से जो कुछ भी कानून ने किया बहुत संतोष जनक तो नहीं है लेकिन अब लड़कियों और उनके संरक्षकों ने इस अन्याय के खिलाफ मुंह खोलना शुरू कर दिया है और जैसे ही उन लोगों ने ये हिम्मत दिखाई , अपराधियों ने पीड़िता को ही नहीं बल्कि उनको परिवार और पैरोकारों को मारना और मरवाना शुरू कर दिया। कुछ लोगों का कहना है कि ये सब मीडिया की महिमा है, नहीं तो ऐसे कितने मामले अदालतों में पड़े हैं और वर्षों से निर्णय के लिए तरस रहे हैं। लेकिन कुछ मामलों में अमानुषिकता की सारी हदें पार हो गयीं और फिर जब यह महामारी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी है तो फिर कुछ तो इसके लिए आवाज उठाएंगे ही। अब जब ये बीमारी बुरी तरह से फैल चुकी है और इसको नियंत्रित करना अत्यंत आवश्यक हो गया है . इस बात को समाज में सिर्फ आधी आबादी ने ही महसूस नहीं किया है बल्कि इस महामारी से बचे हुए युवा भी इस के निदान के खोज के लिए प्रयत्नशील हो रहे हैं। राजनीति के ठेकेदार और न्याय के पैरोकार अभी भी इस मामले को इतना गंभीर नहीं मानते हैं क्योंकि उनके अनुसार इस काम के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि सांसद शीतकाल का मजा अपने घरों में उठा रहे हैं फिर क्यों बेवजह परेशां हों? इसके लिए वर्मा समिति को नियुक्त कर दिया गया , जिससे सारे मामले को ध्यान में रखते हुए उसके लिए निर्णय की संस्तुति वही करेगी। लेकिन उसके निर्णयों को कितना माना जा रहा है।
इस महामारी को नियंत्रित करने के लिए प्रयास तो करने ही पड़ेंगे नहीं तो मानव जाति का अस्तित्व खतरे में पड जाएगा हम इसके लिए समुचित इलाज को खोजने में प्रयत्नशील है कि ऐसा कुछ हो जाय कि ऐसे महामारी से ग्रस्त लोगों के लिए एक सबक बन जाय तो फिर कुछ सुझाव हम भी तो खोज ही सकते हैं-----
1. फास्ट ट्रेक कोर्ट का गठन (जिसके लिए सरकार सहमत हो रही है। )
2. पुलिस चार्जशीट कम से कम समय में तैयार करके कोर्ट में प्रस्तुत करे।
3. इसके लिए रोज सुनवाई की जाए ताकि न्याय जल्दी मिले।
4. इसके लिए आरोपित व्यक्ति की जमानत उसके निर्दोष साबित होने के पहले न की जाय। हाल ही में जमानत पर आये अपराधियों ने पीड़िता को जला दिया।
5 . पीडिता का सम्पूर्ण इलाज सरकारी खर्च पर कराया , चाहे इसके लिए उसे कहीं भी भेजना पड़े।
6 . इस महामारी के रोगी के लिए फाँसी की सजा उचित इलाज नहीं है क्योंकि वह कुछ ही समय में अपने सारे कष्ट से मुक्त हो जाएगा अगर वह वास्तव में महामारी से ग्रस्त पाया जाता है तो उसको अंग-भंग का दंड दिया जाय।
7. आरोपियों के निम्न अदालत , उच्चा न्यायलय सर्वोच्चा न्यायलय से दोषी घोषित होने के बाद कोई भी पुनर्विचार याचिका या दया याचिका का प्रावधान नहीं होना चाहिए।
8. सौ दिन के अंदर इनके भविष्य का निर्णय होना आवश्यक है।
9 . इस महामारी से ग्रस्त व्यक्ति के शरीर के बाहरी हिस्से पर जिस पर सीधी दृष्टि पड़े - जैसे चेहरे पर स्थायी रूप से ऐसा कोई निशान बना दिया जाय जिससे उसके इसा रोग से ग्रस्त होने का पता चलता रहे। ऐसे लोगों का चेहरा देखते ही उनसे सावधान रहा जा सके
10 . वह निशान ऐसे लोगों को सामान्य लोगों के तरह से नागरिक अधिकारों से वंचित करने के लिए पर्याप्त होने चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे कहा जाता है कि वह भारत का नागरिक हो पागल और दिवालिया नहीं होना चाहिए ठीक इसी तरह से वह इस महामारी से ग्रस्त नहीं होना चाहिए।
11 . ऐसे लोगों के परिवार में कोई अपनी बेटी न दे बल्कि इनका सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए
12 . इन्हें कोई अपने संस्थान में प्रवेश या फिर नौकरी न दे।
अगर इन सब पर अमल किया जाय तो फिर ऐसे लोगों को देख कर और चिन्हित होने के भय से लोगो में फैल रही इस महामारी पर स्वतः अंकुश लग जाएगा।
अगर हर घर में लड़कों को लगातार ६ महीने तक नारी की इज्ज़त करना केवल ५ मिनट तक सिखाया जाए ... जो उसके दिमाग में घर सके .. तो सफलता कुछ हद तक मिल सकेगी ..
जवाब देंहटाएंसच में, इस महामारी से ग्रस्त लोगों को कोई स्थायी पहचान दे दी जाये।
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक अभिव्यक्ति मरम्मत करनी है कसकर दरिन्दे हर शैतान की #
जवाब देंहटाएंत्वरित न्याय की पुकार से क्या होगा में नहीं समझ पा रही. हमारा सारा तंत्र दूषित है और लोग ऐसे नहीं माननेवाले . .
जवाब देंहटाएंऔर सवाल यह कि अपराध सिद्ध है .तब
न्याय किसे देना है -स्वयं-सिद्ध अपराधी को या उस पीड़िता को ?उसे फिर-फिर अँगारों पर क्यों धकेला जाय?न्यायाधीश की पूछ-ताछ और वकीलों की बहसबाज़ी में यही तो होगा . घृणित अपराध किया गया खूब समझ-बूझ, कर कोई नादान नहीं थे वे लोग .पीड़िता और उसके घरवाले क्षण-क्षण जो दाह झेल रहे हैं .उसका तुरंत उपाय होना चाहिये -
जघन्य अपराध स्वयं सिद्ध है ही .पहले वह पापी सरे आम चिह्नित हो जिससे पीड़िता की दुस्सह मनोवेदना को कुछ तो चैन पड़े . वह अंग काटकर कुत्तों को डाल दें और उसके सिर पर दाग दें कि उसने क्या किया ,उसे सबके सामने एक उदाहरण बना कर जीने दें .यही एक कारगर. इलाज मुझे लगता है .
तथा न्यायाधीश को भी सौंपा जा सकता है .
-प्रतिभा सक्सेना.
परिवारों को पुन: सुदृढ़ करना होगा। गाँव-कस्बों से महानगर की ओर पलायन कर रहे युवाओं पर निगाह रखनी होगी। जनसंख्या का अनुपात ठीक करना होगा तथा महानगरों एवं नगरों में जनसंख्या का फैलाव रोकना होगा। गाँवों को समृद्ध बनाना होगा जिससे पलायन रुके।
जवाब देंहटाएंकुछ सार्थक कदम उठाने के बाद ही परिवर्तन और बदलाव होगा ...और वो आने वाला वक्त तय करेगा
जवाब देंहटाएंएक सामूहिक व्यथा ,सामाजिक रोग को आपने अभिव्यक्त किया है समाधान भी सुझाया है .परवरिश का भी इस बीमारी के उन्मूलन में बड़ा हाथ हो सकता है .अच्छा नागरिक कैसे बनें तवज्जो इस
जवाब देंहटाएंपर चौ तरफ़ा दी जाए .
बिलकुल सच कह रहे हैं आप , परवरिश तो परिवार से मिलती है लेकिन जिस परिवार के बड़े ही निरंकुश और अहमवादी हों उस परिवार से कैसे अच्छी परवरिश की आशा की जा सकती है? ऐसे परिवारों में महिलाओं को भी इज्जत नहीं दी जाती है। लेकिन अब आज से ही अगर हम महिलाएं अपने बच्चों को परवरिश के ढंग को सामाजिकता के अनुकूल बना कर देना आरम्भ करने का संकल्प लें तो आने वाली पौध सुसंस्कृत और शालीन होगी।
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