हमने आज तक देखा कि हिंदी के प्रति बड़ी बड़ी बातें , बड़े
बड़े संगठनों और फिर दम तोड़ते उनके इरादे , वादे और हौसले। हिंदी की नींव
गीतों , कविताओं और कहानियों पर नहीं टिकी है। उसको अगर हम भाषा की जड़ों
में खाद पानी देने का कार्य आरम्भ करने की सोचे तो सिर्फ एक वर्ग विशेष के
नारे लगाने से हित नहीं हो सकता है। हमें अलग तरीके से पहल नहीं करनी
होगी। पहले तो पूरे देश में हिंदी को लागू करने से पहले सभी भारतीय भाषाओँ
का सम्मान और उनको समझने और समझाने की पहल करनी होगी। हम सिर्फ हिंदी की
ही बात क्यों करते हैं ? हमें अन्य भारतीय भाषाओँ को आत्मसात करने की बात
करनी चाहिए और तभी देश के सभी कोनों से हिंदी , संस्कृत और अन्य भाषाओँ के
प्रति रूचि नजर आएगी।
हिंदी सिर्फ वर्ग विशेष या सरकार प्रयास नहीं हो , बल्कि इसके सभी के सहयोग की जरूरत है। इस देश में रहने वाले क्यों भाषाई लकीरों को खिंच कर अपने अपने पाले बनायें। सब एक साथ आएं और सबके पुनर्जीवन का प्रयास करें. चाहे वह आंचलिक भाषाएँ हों या फिर हिंदी। आंचलिक भाषाओँ को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा और तभी सभी हिंदी को आत्मसात कर पाएंगे। जब अपने स्तर पर ही सही विदेशों में बसे भारतीय हिंदी को स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं तो फिर देश में ही प्रशासनिक स्तर पर इतनी उदासीनता क्यों दिखलाई देती है ? निम्न माधयम आय वर्ग के लोग बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने के लिए जी जान लगा रहे हैं। अपना पेट काट रहे हैं , ओवरटाइम कर रहे हैं लेकिन बच्चे को वहीँ पढ़ाना है। आखिर कब तक ? जब वे बड़ी कक्षाओं में पहुँचते हैं तो उनकी जरूरतों और बढ़ने लगती हैं
इसमें सर्वप्रथम समस्त भाषाओँ के व्याकरण के समन्वयन से कार्य आरभ्य हुआ और इसके लिए स्वर, व्यंजन , अंक प्रणाली से कार्य आरम्भ किया गया। हम भूल चुके बारहखड़ी की प्रासंगिकता इस समय सिद्ध हुई की दक्षिण की भाषाएँ जो देव नागरी लिपि में नहीं है , उनकी मात्रा प्रणाली से हमारा परिचय इसी माध्यम से हो सकेगा।
हम पूरे देश में हिंदी थोपने की बात नहीं कर रहे है और न अंग्रेजी को भागने की बल्कि सभी को हम साथ लेकर चलें तो देश में सर्वाधिक प्रयोग होने वाली हिंदी स्वतः आगे बढ़ जाएगी और स्वीकार की जायेगी। हो सकता है कि इसमें समय लगे लेकिन आजादी से लेकर आज तक जो समय हम खो चुके हैं उससे कम समय में हम हिंदी पर गर्व कर रहे होंगे।
हिंदी सिर्फ वर्ग विशेष या सरकार प्रयास नहीं हो , बल्कि इसके सभी के सहयोग की जरूरत है। इस देश में रहने वाले क्यों भाषाई लकीरों को खिंच कर अपने अपने पाले बनायें। सब एक साथ आएं और सबके पुनर्जीवन का प्रयास करें. चाहे वह आंचलिक भाषाएँ हों या फिर हिंदी। आंचलिक भाषाओँ को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा और तभी सभी हिंदी को आत्मसात कर पाएंगे। जब अपने स्तर पर ही सही विदेशों में बसे भारतीय हिंदी को स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं तो फिर देश में ही प्रशासनिक स्तर पर इतनी उदासीनता क्यों दिखलाई देती है ? निम्न माधयम आय वर्ग के लोग बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने के लिए जी जान लगा रहे हैं। अपना पेट काट रहे हैं , ओवरटाइम कर रहे हैं लेकिन बच्चे को वहीँ पढ़ाना है। आखिर कब तक ? जब वे बड़ी कक्षाओं में पहुँचते हैं तो उनकी जरूरतों और बढ़ने लगती हैं
इसमें सर्वप्रथम समस्त भाषाओँ के व्याकरण के समन्वयन से कार्य आरभ्य हुआ और इसके लिए स्वर, व्यंजन , अंक प्रणाली से कार्य आरम्भ किया गया। हम भूल चुके बारहखड़ी की प्रासंगिकता इस समय सिद्ध हुई की दक्षिण की भाषाएँ जो देव नागरी लिपि में नहीं है , उनकी मात्रा प्रणाली से हमारा परिचय इसी माध्यम से हो सकेगा।
हम पूरे देश में हिंदी थोपने की बात नहीं कर रहे है और न अंग्रेजी को भागने की बल्कि सभी को हम साथ लेकर चलें तो देश में सर्वाधिक प्रयोग होने वाली हिंदी स्वतः आगे बढ़ जाएगी और स्वीकार की जायेगी। हो सकता है कि इसमें समय लगे लेकिन आजादी से लेकर आज तक जो समय हम खो चुके हैं उससे कम समय में हम हिंदी पर गर्व कर रहे होंगे।
हर बार सवाल उठता है कि दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध होता है लेकिन ऐसा नहीं है , कई बार मैंने भी दक्षिण भारतीय लोगों के साथ काम किया है और वे सब टूटी फूटी ही सही हिंदी बोलते हैं और अपनी बात समझा सकते हैं। हाँ इस मुद्दे को राजनैतिक रंग लेकर भाषाई विवाद को हमेशा के लिए जिन्दा रखने वाले पूरे देश को एक होता हुआ देखां ही नहीं चाहते हैं। हमें पूरे देश में हिंदी के प्रति प्रेम और ग्राह्यता लाने के लिए पाठ्यक्रम में पूरे देश में हिंदी को अनिवार्य भाषा बनाने के लिए प्राथमिक स्तर से ही कदम उठाना होगा और एक भारतीय भाषा की अनिवार्यता भी रखनी होगी ताकि पूरे देश में ये भाव पैदा हो कि उसके साथ ही शेष भाषाओँ को भी प्राथमिकता दी जा रही है और वे हिंदी को बेझिझक अपना सकेंगे।
एक बार हाथ तो बढ़ाएँ पूरा देश एकसूत्र में बँधा होगा ।