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गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

मध्यस्थता - एक निष्पक्ष कर्म !

- मध्यस्थता एक बहुत ही निष्पक्ष और पवित्र कर्म होता है। ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ आज होने लगा हो बल्कि इसके अस्तित्व को तो प्राचीन काल से ही पाया जाता है। अगर इस कार्य को करने वाला व्यक्ति प्रबुद्ध और जिम्मेवार हो और सामाजिक मूल्यों और नैतिक दायित्वों का सम्मान करने वाला हो तो उसकी भूमिका समाज में और ऐसे लोगों के लिए - जिनके जीवन के कुछ पहलू सिर्फ गलतफहमी या फिर विचार विभिन्नता के कारण त्रस्त हो रहे हों या फिर गलत को गलत का अहसास होने पर भी स्वीकारोक्ति से संकोच होता हो तो मध्यस्थता करके उन संबंधों को बचाया जा सकता है - भगवान होता है।


इस कार्य की भूमिका पर लिखने के लिए एक छोटी से घटना ने मजबूर कर दिया। मेरे परिचित की बेटी की शादी उनके एक रिश्तेदार ने मध्यस्थ बना कर करवाई थी। लड़के वाले लड़की वाले दोनों के साथ उनका रिश्ता बनता था। लड़का दूर का रहने वाला था , उन्होंने जो भी इस विषय में बताया लड़की वाले ने विश्वास कर लिए क्योंकि अमूमन हम ऐसा मानते हें कि ये हमारा इतना सगा रिश्तेदार है कोई गलत बात नहीं कहेगा - जो बताएगा वह सच होगा। उन्होंने अधिक छानबीन नहीं की और अपनी बेटी की शादी कर दी। बेटी जब लौट कर आई तो उसने बताया कि उसका पति तो बहुत शराब पीता है और सारी कमाई उसी में उड़ा देता है। अभी सास ससुर हैं तो उसके सारी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं ।


एक बेटी के पिता के लिए ऐसी सूचना जीते जी मारने वाली हो गयी, मध्यम वर्ग का पिता न तो बेटी को वापस घर में बुला कर रख सकता है और न ही बेटी के बारे में आँखें मूँद सकता है। जब बेटी मायके आ जाती तो वह शराब पीकर फोन पर सास ससुर को गालियाँ देता और पत्नी के लिए तो जीना हराम कर देता और वह अपने माँ बाप को इस जलालत से बचाने के लिए वापस ससुराल चली जाती। फिर एक दिन खबर आई कि उनकी बेटी नहीं रही - क्योंकि शराबी पति ने नशे में उसके सर पर कोई चीज दे मारी थी और वह वही गिर कर ख़त्म हो गयी।


आज नेट का युग आ गया है रिश्ते उससे भी मिल रहे हें लेकिन उसकी भी जानकारी शत प्रतिशत सही नहीं होती हें और प्राचीन काल से चली आ रही विवाह संस्था के लिए उपयोगी मध्यस्थता ही काम आती है। वह ही दोनों पक्षों को सूचनाएं देता है। अगर आप ऐसा कोई रिश्ता करवा रहे हें या फिर किसी के सम्बन्ध के मध्य आये हुए वैमनस्य को सुलझाने का प्रयास कर रहे हें तो इस बारे में आपको कभी भी झूठ का सहारा नहीं लेना चाहिए। कुछ ऐसी आचार संहिता होनी चाहिए कि जिससे कि मध्यस्थ पूरी तरह से अवगत हो और उसका आत्मिक तौर से पालन करे। आपका झूठ या फिर एक पक्ष को खुश करने का प्रयास दूसरे लिए जीवन भर का नासूर बन सकता है।


--अगर आप विवाह के लिएय मध्यस्थ कर रहे हें तो लड़की और लड़के के विषय में यदि पूरी जानकारी आपको हो तो पहले आप ही इस बारे में निश्चित कर लें कि दोनों परिवार एक दूसरे के काबिल हें या नहीं। उनके स्तर का अंतर , शिक्षा का अंतर और विचारों का अंतर उनके जीवन के लिए अभिशाप साबित हो सकता है। गलत सूचना देने पर इसके उत्तरदायी आप ही होंगे।


--दोनों परिवारों को आर्थिक, सामाजिक स्तर में साम्य देखें , लड़के की किसी कमी के कारण गरीब घर की लड़की का रिश्ता करवाने का कभी प्रयास न करें क्योंकि इसमें लड़की का जीवन नरक बन जाता है। वह बड़े घर में पहुँच तो जाती है लेकिन उसकी स्थिति कभी भी उस दर्जे की पत्नी कि नहीं हो पाती है जितना कि उसे अपने स्तर के परिवार में मिल सकता था।


--आप दोनों परिवारों के आपस में मिलवा दें और शेष जानकारी उन्हें खुद ही इकट्ठी करने की बात कहें ताकि बहुत सी बातें जो आपको मालूम नहीं है और छानबीन के बाद पता लगायी जा सकती हें उनका दोष आपके सर पर न आये।


--सिर्फ रिश्ता करवाने के लिए दोनों पक्षों को एक दूसरे के विषय में भ्रम में न रखें, क्योंकि कुछ लोग दोनों पक्षों को एक दूसरे के बारे में लम्बी चौड़ी बाते बताते रहते हें सिर्फ इस उद्देश्य से कि किसी लड़के/लड़की का भला कर रहे हें। यहाँ आप भला नहीं कर रहे हें बल्कि उनके जीवन से खिलवाड़ कर रहे हें ।


--दोनों पक्षों को अगर आप जानते हों तो लड़की या लड़के के बारे में कोई दोष ज्ञात हो तो स्पष्ट रूप से बता दें ताकि दोनों पक्ष इस विषय में विचार कर सकें कि इस सम्बन्ध को हम स्वीकार कर सकते हैं या नहीं।


--अगर आप किसी के विवाद को सुलझाने के लिए मध्यस्थ कर रहे हैं तो उस बारे में भी निष्पक्ष भूमिका निभानी चाहिए, एक दूसरे को गलत जानकारी देकर भ्रमित न करें।


--किसी टूटते हुए रिश्ते या फिर परिवार के लिए आप देवता स्वरूप हो सकते हें कि क्योंकि कई बार अपनी गलतियों का अहसास होने पर भी दोनों का अहंकार या पहल का संकोच उन्हें सही दिशा में नहीं जाने देता है और अगर आप इससे वाकिफ है तो इस दिशा में आपकी पहल किसी रिश्ते और परिवार को बचा सकती है।


--जब तक आप पूरे तथ्यों और सत्य से परिचित न हों उसके बारे में मिथ्या दावा न करें। आपका उपकार करने का विचार कहीं अपकार में न बदल जाए। हम दावा सिर्फ उन्हीं बातों में कर सकते हें जिन्हें हम गहराई से जानते हों।


शादी विवाह करवाना कुछ लोगों का धंधा होता है और इसके लिए वे झूठ और सच कुछ भी बोल सकते हें। ऐसे लोगों के बारे में जानकर कभी उनका विश्वास न करें। ये मध्यस्थ नहीं बल्कि दलाल होते हें जो किसी न किसी दृष्टि से अपने लाभ की सोचते हें। मध्यस्थ सिर्फ और सिर्फ एक जागरूक और जिम्मेदार व्यक्ति ही नहीं होता है बल्कि मानव जीवन के बारे में हितचिन्तक भी होता है। इसलिए मध्यस्थता की गरिमा को समझें , इस समाज में इस कार्य का बहुत ही महत्व है लेकिन यदि इसको करने वाला इसकी गरिमा से पूरी तरह से परिचित हो।

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

ये जनसेवक हें !

कभी कभी अख़बार की कुछ हैडिंग ऐसा कुछ सोचने के लिए मजबूर कर देती हें कि न मन मानता है और न ही कलम। इस समाचार का शीर्षक है - "ट्रेन में मनमाफिक सीट न मिलने पर बिफरे सांसद" । ये जनसेवक कहे जाते हें और अपने क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए संसद में जाते हें। उनका व्यवहार और आचरण ऐसा कि जनता अपना सिर पीट ले। सारा सरकारी तंत्र इनके इशारों पर चलने के लिए बना है।
इन सांसदों को मुगलसराय स्टेशन पर पटना-नई दिल्ली राजधानी में ए सी वन में सीट न मिलकर ए सी टू में सीट मिली थी। फिर क्या था - सांसद बिफर ही तो पड़े। उनका कहना था कि जब रेलवे प्रशासन को ये पता था कि हम संसद सत्र में भाग लेने के लिए जा रहे हें तो अलग से कोच की व्यवस्था क्यों नहीं की गयी? बाद में वे काफी मान-मनोव्वल के बाद उसी में गए लेकिन रेल मंत्री से बात करने की बात की धमकी देकर।
हमें सांसद समूह से सिर्फ ये पूछना है कि सांसद बनने से पहले कभी भी उन्होंने ए सी वन के अतिरिक्त रेल में सफर नहीं की है। जब आम आदमी टिकट लेने के बाद भी सीट नहीं ले पाता है, वेटिंग में टिकट लेकर भी वह टी टी के पीछे भागता है कि उसको कहीं एक सीट दिलवा दे और वे सुविधा शुल्क वसूल करके कहीं बैठने की जगह दे देते हें। यहाँ तक कि स्लीपर के डिब्बे में जमीन पर लेटने की अनुमति के लिए भी पैसा चुकाते हें। ऐसा नहीं है कि आम लोगों की इस स्थिति से वे वाकिफ नहीं है लेकिन कभी इस बारे में उन्होंने अतिरिक्त कोच लगाने या फिर रेल प्रशासन से बात करने की कोशिश की है। अगर नहीं तो क्यों? जब खुद को मनचाही सीट न मिले तो हंगामा खड़ा करें जैसे ए सी टू उनकी इज्जत से बहुत नीचे का स्थान है। संसद सत्र के लिए जा रहे हें तो वे रेलवे प्रशासन या फिर देश पर अहसान करने नहीं जा रहे हें। साल में कितने महीने वे अपने घरों में बैठ कर मोटा वेतन और भत्ते लेते रहते हें , वे इन सबके अधिकारी है इसके लिए वे अपने क्षेत्र के कार्यों के द्वारा साबित करें। ये तेवर संसद में अपने क्षेत्र के विकास के कार्यों के लिए दिखाएँ तो शोभा देता है।
जिन सुविधायों से आपका चयन करने वाला वंचित है - उसे हासिल करने के लिए हंगामा करने का आपको कोई हक नहीं बनता है। हमें शर्म अआती है ऐसे सांसदों पर । वैसे अख़बार में अपना नाम देख कर खुश तो होंगे ही - काम तो ऐसे नहीं किये कि सुर्ख़ियों में आये इस तरह नाम तो हुआ।

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

छोटी उम्र के बड़े निर्णय !

वह दंपत्ति मुझे एक शादी में मिला था , उससे मेरा दूर का रिश्ता भी है लेकिन तब उनकी नई नई शादी हुई थी। लड़का एयरफोर्स में ट्रेनिंग ले रहा था तभी गाँव के होने के नाते घर वालों ने रिश्ता तय कर लिया और लड़की उस समय नर्सिंग की ट्रेनिंग कर रही थी। दोनों उम्र से २५ से काम की रही होगी।
कुछ विधि का विधान कि लड़की गर्भवती हो गयी , उस समय दोनों ही ट्रेनिंग में थे तो दोनों ने मिल कर निर्णय लिया कि अभी गर्भपात करा देते हें नहीं तो बीच में ट्रेनिंग में व्यवधान आएगा और फिर आगे ये निर्णय ले लेंगे। पर कुछ ऐसे भविष्य के लिए वे तैयार न थे। ladaki के गर्भपात के साथ ही किसी कारण से उसको तकलीफ रहने लगी और दो चार महीने में वह इतनी बढ़ चुकी थी कि उसको अस्पताल में रख कर उसकी uterus को तुरंत निकलने का निर्णय लेना था। दोनों के घर वाले थे और उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी क्योंकि अभी तो उनका दांपत्य जीवन शुरू भी नहीं हुआ था और उसके पहले ही ख़त्म होने के कगार पर आ गया। लड़की के घर वाले अलग चिंता में परेशान थे और लड़के के घर वाले अलग चिंता में।

लड़के की माँ बार बार कह रही थी कि 'सोच लो इससे फिर तुम्हें बच्चा नहीं मिल सकता और इसके बिना तो जीवन अधूरा रहेगा।'
लड़की की माँ और बाप इस चिंता में कि--' इसके बाद मेरी बेटी का क्या होगा? पता नहीं ये लोग उसको कैसे रखेंगे ?'

उस समय न चिंता करने का वक़्त था और न सलाह मशविरा करने का। लड़के ने पेपर लेकर तुरन ही साइन करके दे दिए। ऑपरेशन हुआ और लड़की घर आ गयी और लड़का अपनी ट्रेनिंग के लिए वापस हो गया। लड़की अपने माता पिता के घर आ गयी।
लड़के ने अपनी पत्नी से कहा - तुम चिंता मत करना कोई कुछ भी कहे, मुझ पर भरोसा रखना। मैं जल्दी नहीं आ पाऊंगा लेकिन अपने फैसले पर मैं अडिग रहूँगा।

कुछ महीने भी न बीते थे कि लड़के के घर वाले अब इसके बच्चे न होंगे तो नाम कैसे चलेगा? इससे तो अच्छा है कि दूसरी शादी कर दी जाये , दो शादियाँ होती नहीं हें क्या? पत्नी की सहमत मांगी जाने लगी कि अगर वह राजी हो जाए तो उसकी शादी कर दी जाये। लड़की के घर वाले भी सोचने लगे कि अपनी छोटी बेटी का विवाह कर दिया जाय तो दो बहने साथ बनी रहेंगी और बच्चे भी हो जायेंगे। जब पानी सर से गुजारने लगा तो लड़की ने अपने पति को इस बारे में बताया और तुरंत आने के लिए कहा।
लड़के ने आकर दोनों परिवारों से बात की। उसकी ट्रेनिंग पूरी हो चुकी थी। उसने दोनों परिवारों को बैठकर अपना निर्णय सुनाया - 'मैंने शादी की थी तब ऐसा कुछ भी नहीं था, अब जो समस्या है वो हम दोनों की है। आप लोग इस बारे में न सोचें तो अच्छा होगा। मैं इसको साथ लेकर जा रहा हूँ। अगर आपको ऐसे ही ये लड़का - बहू और beti -damad स्वीकार हो तो खबर कर देना मैं घर आता रहूँगा और अगर नहीं तो मैं इसके साथ रह कर ही खुश रहूँगा। शादी कोई मजाक नहीं है कि जब चाहा उसको अपनी सुविधा से जोड़ लिया और न मन bhara तो उसको तोड़ दिया। '
छोटी उम्र के इस बड़े निर्णय के बारे में पता लगा तो बहुत ही अच्छा लगा कि आज की पीढ़ी अपने मूल्यों के साथ जुड़ी है और उसकी गरिमा को सम्मान दे रही है।