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रविवार, 22 नवंबर 2015

आखिर कब तक सहें ?

                कई बार अख़बार की खबरें सामने से गुजर जाती हैं और उन्हें कभी पूरा पूरा पढ़ने का मन भी नहीं करता है लेकिन कोई खबर आग का गोल बनकर अंदर तक खाक कर जाती है। व्यवस्था , क़ानून और न्याय सब एक मजाक लगता है। इंसान ने दिमागी असंतुलन की और जाते हुए वीभत्सता की सारी हदें लांघ ली है और पुलिस के वहाँ तक पहुँचते पहुँचते गरीब की बेटी तो चली ही जाती है , उसके साथ ही उनकी हिम्मत तोड़ देती है क्योंकि कहीं कहीं कानून की रक्षा करते करते पुलिस भी कटघरे में खड़ी होती है और उसकी लापरवाही किसी की जान की ग्राहक बन जाती है। 
                                         आज दुष्कर्म लूटपाट की घटनाओं की तरह से आम घटना बन चुकी है और पुलिस कभी सीमा विवाद , कभी गरीब की बेटी , कहीं रसूख वालों के बेटे को बचाने के लिए लीपा पोती करके अपराध को अलग दिशा में मोड़ देते हैं और अपराध का स्वरूप ही बदल लेते हैं। जिससे बिगड़े हुए नवाबों और नसेड़ी और भंगेड़ी अपने काम पर शर्मिंदा होना तो दूर मुस्कराते हुए घूमते रहते हैं।
                                अगर दुष्कर्म किशोरों के द्वारा किया गया है तो उसे हमारा क़ानून सुधारने का मौका देता है। उसके लिए कोई बड़े दंड का प्राविधान ही नहीं है लेकिन वह पीड़िता का जीवन तमाशा या मौत। पीड़िता चाहे अबोध बालिका हो या फिर नाबालिग लड़की या फिर किसी भी उम्र की महिला।  कोई विशेष दंड है क्या ?

                                       दुष्कर्म की एक ही सजा है न , चाहे वो किसी के साथ भी और किसी  भी उम्र के व्यक्ति द्वारा किया गया हो। यही दुष्कर्म अगर एक अबोध बालिका के साथ किया गया हो तो उसको हम उसे एक अमानुषिक कृत्य घोषित करके अलग दंड निर्धारण की जरूरत नहीं समझते  है। आज के अखबार में प्रकाशित ये घटना क्या कहेंगे ? बच्ची को दो नशेड़ियों में अगवा किया और उसके चिल्लाने पर उसको पत्थर मार कर मार दिया और उसके बाद दोनों ने उसके शव से दुष्कर्म किया।  दूसरे दिन उसी जगह पर जाकर उस शव को पुनः पत्थरों से कुचला और बच्ची के घर वालों के साथ उसे ढूंढने का नाटक करते रहे।  ये किस श्रेणी का दुष्कर्म है रेयर टू रेयरेस्ट की परिभाषा के अंतर्गत आता है या नहीं लेकिन मैं ये जानती हूँ कि ऐसे दरिंदों को जो चाहे नाबालिग हों  एकमात्र मृत्युदंड की सजा मिलनी चाहिए। 
                                     अब बताये क़ानून कि क्यों बेटियों गर्भ में मार दी जाती हैं कारण  कुछ भी हो लेकिन ये कारण भी तो कल को  बन रहा है।  कहाँ तक बच्चों को अपने गर्भ में माँ संभाले रहेगी , कभी तो जन् देगी फिर वह चाहे एक , दो , तीन या पांच वर्ष की क्यों न हो ? दरिंदों को तो उसमें एक औरत ही नजर आती है , एक देह मात्र जो उनके भोगने के लिए बनी है।  फिर जन्म दे ही क्यों माँ ? अगर दरिंदों के द्वारा उसको मारना है तो फिर माँ क्यों सह प्रसव पीड़ा और क्यों उसको जन्म देकर मोह बढ़ाये ? उसको पहले ही मार दिया जाय। माँ अपने बच्चे को जन्म देने का पूरा पूरा अधिकार रखती है। अगर नहीं तो एक बेटी माँ होने के नाते कोई तो सोचे कि ऐसे अपराधों की  दिन पर दिन बढ़ती घटनाओं के साथ क़ानून भी बदलना होगा  नहीं तो लड़कियों का जन्म अपराध बन जाएगा।  समाज भुगतेगा इस का परिणाम। या तो फिर से बेटियों  को बचपन में ही किसी को सौंप दिया जाय या फिर उनको फिर से  इतने परदे में रखा जाय कि बाहर की  हवा तक उनको छू न पाये। अगर ये समाज अपने स्वरूप को बदल नहीं सकता या हम अपने घर और समाज के माहौल को इस बदतर स्थिति से सुधार कर सुसंस्कारित  नहीं बना सकते हैं तो फिर क्यों सोचें कि बेटियों को जन्म दिया जाय ? अगर समाज का संतुलन सही रखना है और बेटियों को सृष्टि को आगे बढ़ने के लिए सुरक्षित रखना है तो पुराने सडे गले क़ानून को भूल कर आज बढ़ रहे दुष्कर्म के अपराधों को नियंत्रित करने के लिए उनका नवीनीकरण करना होगा। आज से ३० साल पहले समाज का स्वरूप कुछ और था , गाँव , मोहल्ले की बेटी बड़ों और युवाओं के लिए  बेटी और बहन हुआ करती थी और मजाल है कि कोई बाहर का इंसान उनके साथ बदतमीजी तक कर जाए।  ऐसे काम तो तब सुनाने में ही नहीं आते थे। तब ये क़ानून कारगर थे लेकिन  अब जब कि अंधाधुंध बढ़ रहे सोशल साइट्स पर उपलब्ध सामग्री ने बच्चों को वक़्त से पहले युवा बना दिया और फिर अंजाम सामने है।  
                    संयुक्त परिवार के विघटन ने और माता पिता  दोनों के कामकाजी होने से उनकी दिशा बदल रही है और अभिभावकों को उन पर नजर रखने का समय नहीं है। समय हो भी तो वे साये की तरह  साथ नहीं रह सकते हैं।  फिर सामाजिक लांछनों का भय , बेटी के बदनाम होने के भय ने उनके पैरों में बेड़ियां डाल रखी हैं। ये सब बिगड़े नवाबों को और शह देते हैं। ऐसा नहीं है लड़कियां कहीं भी सुरक्षित नहीं है।  घर में अकेले रहने वाली , स्कूल जाने वाली , टैक्सी या ऑटो जाने वाली , रात को अपनी नौकरी से वापस आने वाली।  गाँव में तो इसके और भी कारण मुंह बाए खड़े होते हैं
                       मेरे अपने विचारों के अनुसारकारगर  कुछ ऐसे सोचा जा सकता है  ---

१. अबोध बच्चियों के साथ दुष्कर्म करने वाला सामान्य व्यक्ति तो नहीं हो सकता है , क़ानून ऐसे  लोगों के लिए किये गए अपराध को बिना सोचे रेयर से रेयरेस्ट की परिभाषा को बदलना होगा। ऐसे लोगों का अपराध अक्षम्य होना चाहिए। 
२. किशोर की सीमा में आने वाले दुष्कर्मियों को सुधारने के लिए तीन साल के लिए नहीं बल्कि दस साल  की सजा का प्रावधान होना चाहिए। ऐसे लोगों को सुधार गृह में नहीं बल्कि अलग से जेल में रखना चाहिए क्योंकि ऐसे लोग सुधार गृह में रहने वाले और  बच्चों के लिए खतरा बन सकते हैं।  
३. ऐसे मामलों में चश्मदीद गवाह जैसे शब्द को प्रयोग ही नहीं होने चाहिए।  चाहे अदालत हो या फिर आम आदमी जानता है कि ऐसे मामलों को सड़क पर अंजाम नहीं दिया जाता है और ये प्रश्न जरूर उठता है.  कैसा क़ानून है ?
४. यहाँ पर कोई भी जनप्रतिनिधि ऐसा मामलों को नजरअंदाज करने के लिए सिफारिश  करते हों , उन्हें कटघरे में खड़ा करने  का अधिकार चाहिए।  
 ५. संविधान में दिया गया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरूपयोग करने वालों के बयानों को संज्ञान में लिया जाना चाहिए।  नारी के नाम पर कीचड उछाल कर फिर माफी मांग लेने वालों का अपराध क्षम्य तो नहीं होना चाहिए।