www.hamarivani.com

रविवार, 22 नवंबर 2015

आखिर कब तक सहें ?

                कई बार अख़बार की खबरें सामने से गुजर जाती हैं और उन्हें कभी पूरा पूरा पढ़ने का मन भी नहीं करता है लेकिन कोई खबर आग का गोल बनकर अंदर तक खाक कर जाती है। व्यवस्था , क़ानून और न्याय सब एक मजाक लगता है। इंसान ने दिमागी असंतुलन की और जाते हुए वीभत्सता की सारी हदें लांघ ली है और पुलिस के वहाँ तक पहुँचते पहुँचते गरीब की बेटी तो चली ही जाती है , उसके साथ ही उनकी हिम्मत तोड़ देती है क्योंकि कहीं कहीं कानून की रक्षा करते करते पुलिस भी कटघरे में खड़ी होती है और उसकी लापरवाही किसी की जान की ग्राहक बन जाती है। 
                                         आज दुष्कर्म लूटपाट की घटनाओं की तरह से आम घटना बन चुकी है और पुलिस कभी सीमा विवाद , कभी गरीब की बेटी , कहीं रसूख वालों के बेटे को बचाने के लिए लीपा पोती करके अपराध को अलग दिशा में मोड़ देते हैं और अपराध का स्वरूप ही बदल लेते हैं। जिससे बिगड़े हुए नवाबों और नसेड़ी और भंगेड़ी अपने काम पर शर्मिंदा होना तो दूर मुस्कराते हुए घूमते रहते हैं।
                                अगर दुष्कर्म किशोरों के द्वारा किया गया है तो उसे हमारा क़ानून सुधारने का मौका देता है। उसके लिए कोई बड़े दंड का प्राविधान ही नहीं है लेकिन वह पीड़िता का जीवन तमाशा या मौत। पीड़िता चाहे अबोध बालिका हो या फिर नाबालिग लड़की या फिर किसी भी उम्र की महिला।  कोई विशेष दंड है क्या ?

                                       दुष्कर्म की एक ही सजा है न , चाहे वो किसी के साथ भी और किसी  भी उम्र के व्यक्ति द्वारा किया गया हो। यही दुष्कर्म अगर एक अबोध बालिका के साथ किया गया हो तो उसको हम उसे एक अमानुषिक कृत्य घोषित करके अलग दंड निर्धारण की जरूरत नहीं समझते  है। आज के अखबार में प्रकाशित ये घटना क्या कहेंगे ? बच्ची को दो नशेड़ियों में अगवा किया और उसके चिल्लाने पर उसको पत्थर मार कर मार दिया और उसके बाद दोनों ने उसके शव से दुष्कर्म किया।  दूसरे दिन उसी जगह पर जाकर उस शव को पुनः पत्थरों से कुचला और बच्ची के घर वालों के साथ उसे ढूंढने का नाटक करते रहे।  ये किस श्रेणी का दुष्कर्म है रेयर टू रेयरेस्ट की परिभाषा के अंतर्गत आता है या नहीं लेकिन मैं ये जानती हूँ कि ऐसे दरिंदों को जो चाहे नाबालिग हों  एकमात्र मृत्युदंड की सजा मिलनी चाहिए। 
                                     अब बताये क़ानून कि क्यों बेटियों गर्भ में मार दी जाती हैं कारण  कुछ भी हो लेकिन ये कारण भी तो कल को  बन रहा है।  कहाँ तक बच्चों को अपने गर्भ में माँ संभाले रहेगी , कभी तो जन् देगी फिर वह चाहे एक , दो , तीन या पांच वर्ष की क्यों न हो ? दरिंदों को तो उसमें एक औरत ही नजर आती है , एक देह मात्र जो उनके भोगने के लिए बनी है।  फिर जन्म दे ही क्यों माँ ? अगर दरिंदों के द्वारा उसको मारना है तो फिर माँ क्यों सह प्रसव पीड़ा और क्यों उसको जन्म देकर मोह बढ़ाये ? उसको पहले ही मार दिया जाय। माँ अपने बच्चे को जन्म देने का पूरा पूरा अधिकार रखती है। अगर नहीं तो एक बेटी माँ होने के नाते कोई तो सोचे कि ऐसे अपराधों की  दिन पर दिन बढ़ती घटनाओं के साथ क़ानून भी बदलना होगा  नहीं तो लड़कियों का जन्म अपराध बन जाएगा।  समाज भुगतेगा इस का परिणाम। या तो फिर से बेटियों  को बचपन में ही किसी को सौंप दिया जाय या फिर उनको फिर से  इतने परदे में रखा जाय कि बाहर की  हवा तक उनको छू न पाये। अगर ये समाज अपने स्वरूप को बदल नहीं सकता या हम अपने घर और समाज के माहौल को इस बदतर स्थिति से सुधार कर सुसंस्कारित  नहीं बना सकते हैं तो फिर क्यों सोचें कि बेटियों को जन्म दिया जाय ? अगर समाज का संतुलन सही रखना है और बेटियों को सृष्टि को आगे बढ़ने के लिए सुरक्षित रखना है तो पुराने सडे गले क़ानून को भूल कर आज बढ़ रहे दुष्कर्म के अपराधों को नियंत्रित करने के लिए उनका नवीनीकरण करना होगा। आज से ३० साल पहले समाज का स्वरूप कुछ और था , गाँव , मोहल्ले की बेटी बड़ों और युवाओं के लिए  बेटी और बहन हुआ करती थी और मजाल है कि कोई बाहर का इंसान उनके साथ बदतमीजी तक कर जाए।  ऐसे काम तो तब सुनाने में ही नहीं आते थे। तब ये क़ानून कारगर थे लेकिन  अब जब कि अंधाधुंध बढ़ रहे सोशल साइट्स पर उपलब्ध सामग्री ने बच्चों को वक़्त से पहले युवा बना दिया और फिर अंजाम सामने है।  
                    संयुक्त परिवार के विघटन ने और माता पिता  दोनों के कामकाजी होने से उनकी दिशा बदल रही है और अभिभावकों को उन पर नजर रखने का समय नहीं है। समय हो भी तो वे साये की तरह  साथ नहीं रह सकते हैं।  फिर सामाजिक लांछनों का भय , बेटी के बदनाम होने के भय ने उनके पैरों में बेड़ियां डाल रखी हैं। ये सब बिगड़े नवाबों को और शह देते हैं। ऐसा नहीं है लड़कियां कहीं भी सुरक्षित नहीं है।  घर में अकेले रहने वाली , स्कूल जाने वाली , टैक्सी या ऑटो जाने वाली , रात को अपनी नौकरी से वापस आने वाली।  गाँव में तो इसके और भी कारण मुंह बाए खड़े होते हैं
                       मेरे अपने विचारों के अनुसारकारगर  कुछ ऐसे सोचा जा सकता है  ---

१. अबोध बच्चियों के साथ दुष्कर्म करने वाला सामान्य व्यक्ति तो नहीं हो सकता है , क़ानून ऐसे  लोगों के लिए किये गए अपराध को बिना सोचे रेयर से रेयरेस्ट की परिभाषा को बदलना होगा। ऐसे लोगों का अपराध अक्षम्य होना चाहिए। 
२. किशोर की सीमा में आने वाले दुष्कर्मियों को सुधारने के लिए तीन साल के लिए नहीं बल्कि दस साल  की सजा का प्रावधान होना चाहिए। ऐसे लोगों को सुधार गृह में नहीं बल्कि अलग से जेल में रखना चाहिए क्योंकि ऐसे लोग सुधार गृह में रहने वाले और  बच्चों के लिए खतरा बन सकते हैं।  
३. ऐसे मामलों में चश्मदीद गवाह जैसे शब्द को प्रयोग ही नहीं होने चाहिए।  चाहे अदालत हो या फिर आम आदमी जानता है कि ऐसे मामलों को सड़क पर अंजाम नहीं दिया जाता है और ये प्रश्न जरूर उठता है.  कैसा क़ानून है ?
४. यहाँ पर कोई भी जनप्रतिनिधि ऐसा मामलों को नजरअंदाज करने के लिए सिफारिश  करते हों , उन्हें कटघरे में खड़ा करने  का अधिकार चाहिए।  
 ५. संविधान में दिया गया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरूपयोग करने वालों के बयानों को संज्ञान में लिया जाना चाहिए।  नारी के नाम पर कीचड उछाल कर फिर माफी मांग लेने वालों का अपराध क्षम्य तो नहीं होना चाहिए।

सोमवार, 21 सितंबर 2015

ब्लॉग के सात साल !

                             लिखना तो वर्षों से चलता चला आ रहा है लेकिन ब्लॉग से मेरा परिचय जब हुआ तो वो सितम्बर २००८ से।  इसमें काम कैसे किया जाय ? ये तो मैंने अपने ऑरकुट मित्रों से सीखा क्योंकि तब फेसबुक थी नहीं और हम लंच टाइम में अपने मित्रों से चैट कर  लेते थे।  
                              नियमित लेखन और प्रकाशन तो शादी के बाद ही बाधित हो चुका था लेकिन कलम तो मानती नहीं सो डायरी में लिख लिख कर इकठ्ठा होता रहा और फिर ब्लॉग के माध्यम मिलते ही सारा कुछ उस पर डालने लगी। हाँ जब तक ऑफिस में रहती थी , मेरा लंच टाइम मेरे लिए ब्लॉग टाइम होता था। उस समय रोज एक पोस्ट चली जाती थी।  फिर हमारी संगीता स्वरूप जी ने सलाह दी कि एक पोस्ट के बीच इतना अंतराल होना चाहिए कि  पढ़ने वाले उसे ठीक से पढ़ तो लें।  
                              मेरा पहला ब्लॉग कविता के लिए बना था.
 hindigen फिर लगा कि गद्य के लिए अलग होना चाहिए और फिर कुछ और अपने अपने उद्देश्य लेकर बनायें।
 "यथार्थ" बना जीवन की कुछः कटु सत्य को उजागर करती हुई घटनाएँ। "मेरा सरोकार " सामाजिक , आर्थिक , मनोवैज्ञानिक आदि विषयों से जुडी समस्याओं  से जुडा ब्लॉग।
 "मेरी सोच " मैं मेरे अपने विचार विशेष विषयों पर किस तरह व्यक्त करने हैं वह रखा गया। 
 "कथा सागर " कहानियों के ब्लॉग। 
                              पिछले दो सालों से अपने ब्लॉग के साथ पूर्ण न्याय  नहीं कर पा रही हूँ , यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है।  फिर भी आठवे वर्ष में प्रवेश करते हुए संकल्प लेती हूँ कि पूरा पूरा न्याय करने की कोशिश करूंगी। वैसे दोष हमारा भी नहीं है , वो हर चीज जो ब्लॉग पर आती थी।  चट पट फेसबुक और समूह पर डाल देने की आदत से हमारे ब्लॉग को पाठकों की कमी खलने लगी और सभी फेसबुक पर ज्यादा नजर आ रहे हैं सो वहीँ  डाला और सब ने तुरंत पढ़ डाला।  यद्यपि ये अपने साथ ही अन्याय है क्योंकि ब्लॉग जो संग्रह करके रखेगा वो फेसबुक नहीं। लेकिन वक़्त के साथ बह लिए थे।  वापस किनारे लगने की कोशिश जारी है। 
                              चलिए आप सब से यही इल्तिजा है ब्लॉग को उपेक्षित न होने दें चाहे लिखने  के लिए हो  पढने को लेकर।  सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए अपेक्षा के साथ।

बुधवार, 19 अगस्त 2015

बेटियों का दंश (४) !

                      
 मेरी पाँचों बेटियां

            बड़ी बेटी के नौकरी में जाते ही उससे छोटी वाली बेटी का भी एम सी ए पूरा हो गया और साथ ही उसको कैंपस से ही चुनाव भी हो गया।  उसकी नौकरी इनफ़ोसिस कंपनी में लगी।  रिश्तेदारों की नजरें चमकने लगी।  कुछ लोगों ने हम लोगों के निर्णय का स्वागत किया और कुछ लोगों ने मुंह पर न सही पीठ पीछे तंज कसने शुरू कर दिए। असलियत ये थी कि एक मध्यम वर्गीय परिवार  में बेटियों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है और ये तो आप बिलकुल भी उम्मीद नहीं लगा सकते हैं कि बेटियों को पढने के बाद हम लम्बा चौड़ा दहेज़ भी इकट्ठे कर चुके होंगे. हमारे कुछ शुभचिंतकों ने पहले ही समझाया था कि लड़कियों ज्यादा पढोगे तो उतना ही पढ़ा लड़का चाहिए. और जितना पढ़ा लिखा लड़का खोजेंगे तो दहेज़ भी उतना ही जुटाना पड़ेगा।  लेकिन पूरे घर की एक ही तमन्ना थी कि अपनी बेटियों को आत्मनिर्भर बनाना है और उनकी रूचि के अनुसार ही उनको शिक्षा दिलानी हैं। कुछ लोगों ने ये भी कह रखा था कि जब आपकी लड़कियां कमाने लगेंगी तो प्रस्ताव खुद ब खुद आने लगेंगे।  पर ऐसा हुआ तो लेकिन लम्बे चौड़े दहेज़ के साथ प्रस्ताव आने शुरू हो गए क्योंकि उन लोगों ने अपने बेटों की शिक्षा में जो पैसा खर्च किया था वह वसूल भी तो लडकी वालों से करना था। 

                        अब रिश्तेदारों की आमद बढ़ने लगी कि सुराग लिया जाय कि ये लोग शादी के बारे में क्या सोचते हैं ? अपने अपने तरीके से मन की बात निकलवाने के प्रयास शुरू कर दिए। हमारी बेटियों के लिए कोई पॉलिटेक्निक किये हुए लड़कों के प्रस्ताव लाने लगे , कुछ लोग कहीं क्लर्क लड़कों के।  मैं इन लोगों को बुरा नहीं मानती लेकिन अपनी बेटियों की शिक्षा के अनुरूप तो वर की कामना सभी करते हैं। लोग हमसे पूछने लगे --
 --अब शादी कब करोगे ? तुम्हारे यहाँ तो एक के बाद एक लगी हैं।  हाँ तीन के बाद कुछ सांस ले सकते हो। 
--शादी में कितना खर्च करने का इरादा कर रखा है तो उसी हिसाब से लड़का बताया जाय। 
--देखिये उन के घर में शादी हुई है , लड़का क्लर्क है उसको १० लाख नगद और एक गाड़ी मिली है। 
--ये बात तो आप लोगों को पहले सोचनी चाहिए थी की इतना बेटी को पढ़ाएंगे तो फिर उसके लिए वैसा ही लड़का भी देखेंगे तो दहेज़ तो लगेगा ही। 
--आपको दहेज़ की क्या चिंता ? लड़कियों ने खुद दहेज़ इकठ्ठा कर लिया होगा। 
                   उन्हें क्या पता कि बेटियों ने अपनी पढाई में घर वालों को जिस तरह से कश्मकश करके सब कुछ पूरा करते देखा था वो उनके सपनों को पूरा करना चाह रही थी। 
तीनों बड़ी बेटियां

                     जब उनसे इस बारे में बात की जाती तो एकदम मना।  अभी कुछ साल नौकरी कर लेने दो।  हमारे भी कुछ सपने हैं उन्हें तो पूरा कर लें।  दहेज़ वाले प्रस्तावों की बात उन लोगों को बिलकुल नहीं बताई जाती थी लेकिन बहनों के बीच इतनी अच्छी समझ थी कि घर में होने वाली बातों की सूचना उन लोगों को अपनी बहनों से मिल जाती थी। 
                  अब लोगों ने सीधे सीधे कटाक्ष करने शुरू कर दिए।  
--दहेज़ नहीं देंगे तो शादी के लिए अच्छा लड़का कैसे मिलेगा. ? 
--लड़कियों को पढने से पहले सोचना चाहिए था कि  बराबरी का लड़का देखेंगे  तो पैसा लगेगा।  लड़के की पढाई मुफ्त में  थोड़े ही हो जाती है। 
--क्या लड़कियों की कमाई खाने का इरादा है ? उनकी ही कमाई में कर दो उनकी शादी। 
                             हम सबकी सुनते थे और करते अपनी मन की। लेकिन कभी कभी अपराध बोध मन में पालने लगता कि क्या हमने गलत किया है ?  मेरे  जेठ जी कभी कभी सिर पकड़ कर  बैठ जाते कि मुझे लगता है कि हमें बी ए या एम ए करके शादी कर देनी चाहिए थी।  उनको भी समझाया जाता कि परेशान होने की जरूरत नहीं है।लोगों के कहने से तो कोई निर्णय नहीं लिया जाएगा और बेटियों पर भी अपना निर्णय थोपा नहीं जा सकता है।  कम से कम जिससे शादी की जाय उनका मानसिक स्तर तो बराबर होना चाहिए। 

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

बेटियों का दंश (३) !

                  लिखते लिखते कितनी यादें छूट जाती हैं लेकिन उनका तारतम्य तो कहीं न कहीं बिठाना पड़ता है।  जब मेरी छोटी बेटी हुई तो लगा लोगों पर पहाड़ टूट पड़ा।  मेरे घर में तो नहीं हुआ ऐसा। वह ६ महीने की ही थी कि मुझे आई आई टी में जॉब मिल गयी। उस समय जॉब मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। संयुक्त परिवार में बेटी को सासु माँ देख लेती   थीं और मेरी बेटी बहुत ही सीधी थी ( अब नहीं है , कहती है मुझे पता है कि आप मुझे छोड़ कर ऑफिस चली जाती थीं और मैं रोती रह जाती थी। ) आठ घंटे ऑफिस में और आने जाने का समय कुल मिलकर ९ घंटे तो बच्ची को छोड़ना ही पड़ता था।
                  एक बार हमारे एक रिश्तेदार का घर पर आना हुआ , मैं ऑफिस में थी , वह मेरे आने तक रुके रहे।  मेरे आते ही सवाल किया 'ये जागती कब है ? तुम ऑफिस जाती हो तो परेशान तो करती ही होगी ?'
मैंने कहा - 'नहीं ये बिलकुल भी नहीं रोती है , दादी और ताई जी के साथ मस्त रहती है । '
         इस पर बोले - ' हाँ हाँ उसको पता है न कि अभी चैन से रहने दें , फिर तो रुलाना ही है।  दहेज़ जुटाते जुटाते बुढ़ापा आ जाएगा। '
                     ये तंज हमें अन्दर तक चीर गया।  इसलिए नहीं कि हमारे चार चार बेटियां थी बल्कि इस लिए की बेटियां भी अपना अपना भाग्य लेकर आती हैं। कल का क्या भरोसा ? विधाता जो रचता है कुछ सोच कर ही रचता है। हमारी बेटियां हमारी नहीं बल्कि दूसरे के लिए सिर दर्द बनती जा रही थीं।
                   इसके बाद जिठानी की तीसरी बेटी का जन्म हुआ था।  कोई कल्पना  नहीं कर सकता है कि हमारे घर में कितनी रौनक थी। इसी बीच हमने अपना रहने काबिल मकान बनवा लिया।  नया नया इलाका था आने जाने की कोई सुविधा नहीं थी।  बड़ी तीन बेटियां पढ़ने जाती थीं और छोटी दोनों घर गुलजार किए  रहती थीं।
                               हमारे लिए हमारी बेटियां ही हमारा सपना थी और उनके बीच की ट्यूनिंग देखते बनती थी।  मुझे समय बिलकुल नहीं मिलता था।  सुबह सबका नाश्ता और बच्चों के लंच के साथ अपना टिफिन बना कर ऑफिस भागो और शाम को खाने बनाने की ड्यूटी मेरी होती थी सो लौट कर उसमें लग जाओ , दिन में तो घर में खाने के लिए कोई नहीं होता सिर्फ घर में रहने वाले लोग लेकिन शाम पूरे ११ लोग होते थे । 
           बेटियों की पढाई में  क्या हो रहा है ? उनके यूनिट टेस्ट कब होने हैं ? होम वर्क क्या मिला ? वह पूरा हो पता है या नहीं ? इन सबके लिए बिलकुल भी समय नहीं रहता था।  सब एक दूसरे को देख लेती थीं बड़ी दोनों छोटी बहनों के होम वर्क या प्रॉब्लम सॉल्व कर लेती थी।  हाँ हिंदी की कोई प्रॉब्लम हो तो जेठानी जी से पढ़ लेती और इंग्लिश हो तो मैं रात में खाना बनाती जाती और वे अपनी प्रॉब्लम लेकर किचेन के दरवाजे पर खड़े होकर बोलती जाती और मैं सॉल्व करती जाती।
                          उस समय लाइट की समस्या बहुत ज्यादा थी तो तीनों एक लैंप बीच में रख कर पढाई कर लेती थी। जैसे उनका जूनून सिर्फ अपने लक्ष्य को पाना था।  कभी कोई फरमाइश नहीं की। एक एक करके सबने हाई स्कूल से  ग्रेजुएशन तक अच्छे नंबरों से पास किया।
                    अपने अपने कम्पटीशन में लग गयी।  बड़ी दोनों को एम सी ए करना था सो उनको गोरखपुर का सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज मिल गया।  एक मध्यम वर्गीय परिवार में जेठजी हमारे रक्षा मंत्रालय की फैक्ट्री में क्लर्क थे और पतिदेव उस समय दवा कंपनी में मैनेजर। लेकिन संयुक्त परिवार की गरिमा में कशमकश हुई भी तो संयुक्त परिवार की छाया में  मिलकर झेल लिया, लेकिन बच्चों के सपनों को पंख मिल गए थे।
                    मेरी बड़ी बेटी मेडिकल की तैयारी  कर रही थी लेकिन जब उसको वहां सफलता न मिली तो  बीपीटी ( बेचलर ऑफ़ फिजियोथेरेपी ) में दिल्ली में IPH जो सरकारी संस्थान ही है प्रवेश मिला।बेटी को बाहर भेजते समय क्या दर्द होता है ? ये बहुत  शिद्दत से जाना , मैं उसके घर से जाते समय नहीं रोती  थी, लेकिन बाद में खूब रोती  थी।  घर और ऑफिस के बीच में बँटी  हुई जिंदगी सब कुछ सिखा देती है। 
                     अब तक बड़ी वाली अपना एमसीए पूरा करके वापस आ गयी थी। उसको प्रोजेक्ट करने के लिए अपने ही प्रोजेक्ट में ही एक टॉपिक दिलवा दिया।   वहां  से निकल कर उसे सत्यम कंपनी जॉब मिल गयी और कुछ रिश्तेदारों को ख़ुशी हुई किसी ने हमारे प्रयासों को सराहा और किसी ने भविष्य में आने वाली विवाह की समस्याओं से आगाह करना शुरू किया।

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

बेटियों का दंश (२)

                  लोगों के इस व्यवहार से लगा मानो हमने कोई गुनाह किया है। अरे हमारी तो पहली संतान थी और लोग क्यों मातम मना रहे थे? कुछ दिनों बाद सब शान्ति रही।  अब जिठानी जी को नसीहतें मिलनी शुरू हो गयीं।
--अरे तीन बेटियां हो गयीं घर में ,अब एक बेटा घर में होना ही चाहिए।
--अरे अब तीन तीन बहनों में एक तो राखी बाँधने वाला चाहिए।
--बाबूजी के तो दो बेटे हैं इनमें तो एक लड़का तो होना ही चाहिए वर्ना आगे नाम कैसे चलेगा ?
--अभी बाबा दादी के सामने एक लड़का हो जाए तो उनको भी शांति मिले।
--कल जब इन लड़कियों की शादी के लिए जाओगे तो सब ये पूछेंगे कि लड़कियों के भाई भी नहीं है , तब क्या कहेंगे ?
--एक लड़का होता है तो दामादों में कोई झगड़ों की बात नहीं होती , इस तरह से आपके दामादों के बीच ही विवाद खड़ा होगा। 
                 बेटियां हमारी अभी छोटी छोटी थीं लेकिन सोचने वालों और सलाहकारों का दिमाग कहाँ से कहाँ तक सोच चुका था ?                 यही सब नसीहतें और रोज रोज का सुनना साथ ही जिठानी जी का गाँव से जुड़ा होना। सबने मिल कर उनको हिम्मत दी और उन्होंने फिर चांस लिया। किन्ही कारणों से उनको उसी दौरान पीलिया हो गया। उनके घुटने में दर्द रहने लगा। लोगों की राय के अनुसार कभी कभी बच्चा गुनाह होता है तो ऐसी परेशानियां हो जाती हैं जो बच्चे के होने के बाद ठीक हो जाएगी. उनकी पूरा पूरा चेकअप हुआ। आखिर उनको वही हुआ जिसका इन्तजार था। घर में बेटे ने जन्म लिया। खूब खुशियां मनाई गयीं। लेकिन दो दिन बाद ही पता चला कि बच्चे को पीलिया है। तीन चार दिन तक उसको पूरे चिकित्सीय संरक्षण में रखने के बाद भी डॉक्टर बचा नहीं सके। कष्ट तो बहुत हुआ लेकिन भवितव्यता से किसी से कोई जोर नहीं होता। उसके बाद पता चला कि जिठानी जी बोन टी बी से ग्रस्त थीं और उनका टी बी का इलाज शुरू हुआ।
              कैम्पस की सभी महिलायें मुझसे बड़ी ही थीं।गाहे बगाहे उनकी जमाकड़ी लग ही जाती। इस बीच बी एड और एम एड करने की योजना बना डाली। किसी के टोकने या कुछ कहने पर एक फुल स्टॉप सा लग गया। मैंने कुछ साल शांति पूर्वक गुजारे । मैं जॉब करने लगी तो रिश्तेदार और दूसरे मोहल्ले वालों से साबका पड़ना कम हो गया। जब मेरी बड़ी बेटी 4 साल की हो गयी तो हमने भी सोचा कि दो बच्चे होने चाहिए लेकिन कोई भी दूसरी अवधारणा हमारे मन में नहीं रही। अब हमारे`परिवार में भी कोई इस तरह की बात नहीं करता था। सबसे छोटी बेटी जो होती वो बाबा के लिए सबसे दुलारी रहती वो उसके साथ सारे दिन व्यस्त रहते। मेरे ऊपर कोई मानसिक दबाव भी नहीं था क्योंकि भावी बच्चे के बारे में सब यही कहते कि  जो भी हो दोनों स्वस्थ रहें।
                खैर लोग कुछ भी कहें बच्चे बड़े भोले होते हैं। जब मेरी दूसरी बेटी हुई तो उस नर्सिंग होम की डॉक्टर जिनके बच्चे नहीं थे ,वह हमारी रिश्तेदार भी थी। उन्होंने कहा कि आपके पास एक बेटी है इसे आप हमें दे दीजिये। यह बात इन्होने घर में बतलाई और घर से तीनों बड़ी बेटियां नर्सिंग होम इनके साथ देखने के लिए गयीं और फिर वहां से वापस नहीं आई क्योंकि उन्हें डर था कि डॉक्टर उनकी बहन को ले लेंगी और दो दिन वे वहीं रुकी रहीं। जब मैं वहां से घर आई तो मेरे साथ ही घर आयीं। 
                                   कई साल बाद फिर जेठानी जी के मन में एक बेटे की चाह जागी और उन्होंने एक बार फिर चांस लिया लेकिन इस बार भी बेटी हुई। शायद वह पूरी तरह से आश्वस्त थी कि अब की बार बेटा ही होगा। लेकिन जब फिर बेटी हुई तो वह सुनकर बेहोश हो गयीं। जब होश में आयीं तो बेटी को देखने से इंकार कर दिया। एक दिन जब उनको समझाया गया तो समझ आया। घर में तो हमें फिर छोटा सा खिलौना मिल गया। सबसे यादगार चीज ये है कि वो मेरे से कुछ ज्यादा जुडी और अपनी मम्मी को मम्मी और मुझे अम्मा कहती (जबकि उसकी दोनों बड़ी बहनें चाची ही कहती थी )फिर उसने अपने मन से अन्नू कहना शुरू कर दिया वह आज भी मुझे अन्नू ही कहती है। 
                              हमारी पांचवी बेटी शायद रिश्तेदारों के लिए कोई मोल नहीं रखती थी। शुरू के संस्कारों में कुछ जरूरी रस्में होती हैं और उसमें उसके ननिहाल वालों ने कुछ भी नहीं किया। अगर लड़का होता तो शायद वो बहुत कुछ करते। उनके व्यवहार से कोई आहत हुआ हो या न हुआ हो मेरा मन बहुत आहत हुआ था। 
                             मेरी पाँचों बेटियां आपस में बहुत जुडी थीं। संयुक्त परिवार में रहने के कारण भी। कोई भी उनकी आपस की समस्या हम लोगों तक तब आती थी जब उनके वश से बाहर की बात होती। वे एक दूसरे के होमवर्क से लेकर सारे काम आपस में कर डालती। बहुत अच्छी ट्यूनिंग थी उनके बीच। उनकी पढाई अपनी अपनी उम्र के साथ सही चल रही थी। उनके अपने सपनों के अनुकूल करियर बनाने के लिए प्रयास चल रहे थे। 
जेठ जी की बड़ी दोनों बेटियां कंप्यूटर के क्षेत्र में जाना चाहती थीं और उन दोनों ने एमसीए करने की तैयारी शुरू की। बड़ी दोनों की पढाई एक साथ चल रही थी। एक मध्यमवर्गीय परिवार के लिए थोड़ा कठिन था लेकिन संयुक्त परिवार में कुछ कशमकश तो हुई लेकिन बड़ी बेटी को गोरखपुर में सरकारी इंस्टिट्यूट मिला और पहली अपने सपने को पूरा करने में लग गयी। 

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

बेटियों का दंश !

                             बेटियों होना माँ बाप के लिए कम और लोगों के लिए बोझ दिखना सिर्फ आज से नहीं बल्कि सदियों से चला आ रहा है और उन सदियों की स्थिति को हम इतिहास में पढ़ते आ रहे हैं।  दशकों से तो हम खुद ही इसको महसूस करते आ रहे हैं लेकिन आज लिखने का साहस मैं तब जुटा पायी जब कि मेरी बेटियों को अपना बोझ समझने वाले लोगों को दिखा दिया कि हमने अपनी पाँचों बेटियाँ को वांछित करियर में सफल होने के बाद सुयोग्य वरों के सुपुर्द करने का कार्य पूर्ण कर लिया है।
                           जब अपने माता - पिता के घर में चार बहनें थे हम और एक बड़े भाई साहब। ये तो अच्छा था कि एक भाई था तो माँ का चार बेटियों की माँ होने का गुनाह माफ था। पापा तीन भाई और संयुक्त परिवार में तीनों भाइयों में नौ बेटियां और चार बेटे थे लेकिन सबके पास एक बेटा तो था ही। बहनों का ढकौना होने के कारण उन लोगों की सामाजिक स्थिति सम्मानीय रही थी , ज्यादा बेटियां होने का ताना तो सुना उन्होंने  भी लेकिन एक बेटा होने का गौरव प्राप्त था उन्हें सो सौ खून माफ।
                            जब मेरी शादी हुई तो जेठजी की दो बेटियां थीं। लेकिन घर में कई पीढ़ियों के बाद बेटियां हुई थी तो घर वालों को कोई मलाल न था। जब मैं पहली बार माँ बनने वाली थी तो घर में ही नहीं बल्कि बाहर वालों को पूरी उम्मीद थी कि इस बार घर में बेटा होगा। लेकिन मैं तटस्थ थी क्योंकि बचपन से ही मैं अतीत को कभी ढोती नहीं , वर्तमान को रोती नहीं और भविष्य को बोती नहीं। लेकिन घर वालों ने कुछ और सोच रखा था। उस दिन पतिदेव टूर पर थे और घर वाले मुझे हॉस्पिटल लेकर गए। कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। मैं तो अपनी बेटी को देख कर सारी पीड़ा भूल गयी।
                          पतिदेव रात ग्यारह बजे लौटे तो पता चला कि बेटी हुई है। अस्पताल घर से बहुत दूर था। घर वाले बोले - 'अब रात में जाने की क्या जरूरत ? लड़की ही तो हुई है सुबह जाना। "लड़की ही तो हुई है " जैसे कि बेटी हाड मांस की न होकर कोई बेजान गुड़िया हो। मुझे नौ महीने की पीड़ा नहीं सहनी पड़ी बल्कि कहीं सड़क पर पड़ी मिल गयी हो।
                          बेटी हो या बेटा माँ बाप के लिए सिर्फ अपना अंश होता है और जान से ज्यादा प्यारा भी। फिर रात में ही इन्होने अपना स्कूटर उठाया और साढ़े बारह बजे हॉस्पिटल पहुंचे तो मुझे बताया कि घर में ये कहा जा   रहा था। मुझे लगा कि  मेरी पीड़ा और ख़ुशी से किसी का कोई वास्ता नहीं है। 
सबसे बड़ा दुःख तो तब लगा जब सुबह कैंपस में भी किसी ने इन्हें बेटी होने की बधाई नहीं दी। इनका का पूरे कैंपस में बहुत अच्छा व्यवहार था। आज की ही तरह सबके सुख दुःख में साथ देना। अरे बेटी हमारे घर में हुई थी न किसी ने मिठाई मांगी और न बधाई दी क्योंकि बाबूजी के घर में तीसरी पोती हुई थी। न बाबूजी दुखी थे और न घर वाले बल्कि खुश थे कि अगर बेटा हो जाता तो शायद उनकी स्थिति निम्न न हो जाये । 


 
 (क्रमशः)

शनिवार, 4 जुलाई 2015

अन्धविश्वास और किवदंतियां !

                          वर्षों पहले जब हमारी माँ ने अपने बच्चों को जन्म दिया था , तब की काल , परिस्थितियाँ और शिक्षा का परिदृश्य कुछ और था। लेकिन रोज रोज सामने आने वाली स्थितियाँ और घटनाएँ हमें फिर सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि क्या हम वाकई एक तरफ चाँद से बातें कर रहे हैं और दूसरी तरफ अन्धविश्वास के दलदल से अभी तक बाहर नहीं आ पा रहे हैं। 
                           वर्षों पहले जब हम भाई बहनों का जन्म हुआ था तो मेरी माँ को विटामिन 'ए ' की कमी से रतौंधी (रात में रोगी को दिखाई नहीं देता ) आती थी। कम उम्र , संयुक्त परिवार के काम खान पान वही सब की तरह कोई विशेष परवाह नहीं। चूल्हे पर रोटियां सेकते वक़्त दिखाई न देने के कारण कितनी बार अंगुलियां रोटी पलटने में तवे पर पड  जाती और जल जाती। एक 17 - 18 साल की लड़की कुछ बोलने के लायक तो वैसे भी नहीं होती थी। घर की बड़ी बुजुर्ग कहती 'बच्चा गुनाह होता है ' इसी लिए रतौधी आने लगती है जब बच्चा हो जाएगा तो ठीक हो जायेगी। लेकिन तब न डॉक्टर को दिखाना होता था और न अस्पताल में डिलीवरी होती थी , परिणाम जब तक हम लोगों का जन्म हुआ हम पहले तीन भाई बहन दूर दृष्टि के कमजोर होने के शिकार हो गए। लेकिन तब इस बात से हम भी वाकिफ न थे। सोचते रहे कि जैसा हमको दिखता है वैसा ही सबको दिखता होगा। हम माँ के प्रति पल रहे अन्धविश्वास की कीमत जीवन भर चुकाते रहे। 
                             वो जमाना और था न शिक्षा थी न गर्भिणी के प्रति जागरूकता। लेकिन जब हम शिक्षित हो गए तब भी इस अन्धविश्वास से मुक्त कहाँ हो पाये ? मैं जिस घर में ब्याह कर आई थी उसमें चिकित्सा जगत से जुड़े लोग थे लेकिन अपनी देख रेख के प्रति जागरूक बराबर रहे , पूरा पूरा उचित संरक्षण मिला , समय से टीकाकरण और मेडिकल चेक अप सब कुछ होता रहा । लेकिन अन्धविश्वास यहाँ भी कम न हुआ। मेरी जिठानी को एक बच्चे के जन्म के समय घुटनों में दर्द की शिकायत रहने लगी। सारी दवाएं उपलब्ध थीं लेकिन वह कम नहीं हो रहा था। आस पास की अनुभवी महिलायें वही जुमला सुनाने लगीं - जब बच्चा होगा तो सब ठीक हो जाएगा। नौ महीने तक इन्तजार किया। बच्चा हुआ और भयंकर पीलिया का शिकार , चंद दिनों में चल बसा। दर्द फिर भी ठीक न हुआ। तब एक्सरे और बाकी  टेस्टिंग कराई गयी तो पता चला कि उनको बोन टी बी है और पीलिया भी। फिर एक साल तक बिस्तर पर। ये मध्य काल था। लेकिन अन्धविश्वास और किवदंतियों का प्रभाव कहीं भी कम नहीं था। 
                              इसके बाद आज की बात कर सकती हूँ -मेरे एक बहुत करीबी की बेटी जो एक कंपनी में सेक्रेटरी थी। पति ने प्रसव  के कुछ महीने पहले अपनी माँ के पास भेज दिया। माँ स्वयं स्कूल में प्रिंसिपल उच्च शिक्षित और प्रगतिशील विचारों वाली लेकिन बहू के मामले में अन्धविश्वास और किवदन्तियों से ग्रस्त दिखाई दीं। उनके घर की स्थिति ऐसी है कि वहां धूप बिलकुल भी नहीं आती। सारे दिन बिजली जला कर रखी जाती। सर्दियों के समय में हीटर या ब्लोअर चला कर रखती। धीरे धीरे उसको विटामिन 'डी '  की कमी होने लगी और उसको कमर में दर्द होने लगा और एक समय ऐसा भी आया कि वह उठने बैठने के लिए लाचार हो गयी। जब वह अपनी समस्या सास से कहती तो वह कहती -अरे बच्चा गुनाह होता है , इतनी पीरें तो आती ही हैं। चिंता मत करो सब ठीक हो जाएगा। जब सहन शक्ति से बाहर हो गया तो उसने पति को बाहर से बुलाया और उसके साथ डॉक्टर के पास गयी। तब तक बच्चे का पूर्ण विकास हो चुका था। डॉक्टर ने पति को डांटा कि आप लोग कैसे पढ़े लिखे हैं ? इसको विटामिन डी की बहुत कमी है , इसको धूप  मिलना बहुत जरूरी है। उसको विटामिन डी की हाई डोज दी। तब उसको आराम मिला लेकिन बच्चा होने के बाद जब उसने चलना शुरू किया तो पता चला कि उसमें भी विटामिन डी की कमी के कारण पैरों में कुछ कमजोरी है। वह सीधे नहीं चल पा रहा था और उसको भी विटामिन डी देनी पड़ी , तब जाकर वह ठीक से चल पाया ।
                                 ये तीन पीढ़ियों की सच्ची घटनाएँ मैंने इसलिए लिखी ताकि चिकित्सा सम्बन्धी कमियों को अन्धविश्वास और किवदंतियों की बलि चढ़ कर माताओं को कोई शारीरिक और मानसिक कष्ट न झेलना पड़े। 

                             

शनिवार, 20 जून 2015

पितृ दिवस पर -- मेरे पापा !



                              वैसे माँ पापा क्या किसी एक दिन ही याद किये जाते हैं लेकिन हाँ इस बहाने अपने जनक से सबको रूबरू करा सकते हैं। हमारा अस्तित्व रहने तक तो हम उन्हें यादों में किताबों में और अपनी कलम से कुछ लिख कर उन्हें उस रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं जिसे हर कोई नहीं जान सका।





                           मेरे पापा बिलकुल मस्त कोई चिंता उन्हें सालती नहीं थी। वे चाहे अपना भला न कर पाएं अगर उनके वश में है तो दूसरे के हित के लिए सबसे आगे रहते थे। दया , ममता और परमार्थ के किस्से तो मैं गिना नहीं सकती लेकिन एक बहुत छोटी सी बात उनकी तस्वीर को उजागर कर देगी। तब मेरी शादी हो चुकी थी सो मैं उस घटना की चश्मदीद गवाह तो नहीं हूँ लेकिन पता चला तो मन में बहुत गर्व महसूस हुआ।
                             हमारे घर के आस पास एक बूढा बन्दर जो उछलने कूदने में असमर्थ हो चूका था। पापा उसको खाना और पानी बराबर देते रहे। आसपास के लोग भी देते रहते थे लेकिन उसका पूरा ध्यान रखना जैसे पापा का काम था। कई सालों तक वह वहां रहा और धीरे धीरे वह परिवार के सदस्य की तरह हो चूका था। आखिर एक दिन उसने अंतिम साँस ली। जैसा कि जानवरों के मामले में होता है कि उन्हें कहीं शहर के बाहर फ़ेंक दिया जाता है और वे चील और गिद्ध का भोजन बन जाते। यही नियति रही है। जब उस बन्दर के लिए भी यही कहा गया तो पापा ने मना कर दिया और उन्होंने किसी बुजुर्ग की तरह उसकी अर्थी तैयार करवाई और घंटे घड़ियाल के साथ उसकी शव यात्रा निकाल कर उसका अंतिम संस्कार करवाया। (अभी भी छोटी जगहों पर बहुत बुजुर्ग लोगों की अंतिम यात्रा गाजे बाजे या घंटे घड़ियाल के साथ श्मशान तक ले जाइ जाती है। )
                           मुझे अपने पापा के जीवन की कई घटनाएँ ऐसी भी याद हैं जिनमें बाद में उन्हें हम लोगों ने ही कहा कि क्यों आप भलाई करते हैं और नुक्सान अपना कर बैठते हैं। लेकिन वो तो जैसे थे वैसे ही रहे।
                        

मंगलवार, 16 जून 2015

धीमा जहर हम ले रहे हैं !

                      मैगी का हंगामा एक तूफान की तरह उठा और इतने वेग से कि उसमें उसके ब्रांड एम्बेसडर भी हिल गए। जबकि जहाँ तक मेरा ज्ञान है की किसी भी  उत्पाद की गुणवत्ता कंपनी ही बताती है और आम आदमी उस प्रतिनिधि के प्रभावशाली प्रस्तुति और व्यक्तित्व से सबसे अधिक प्रभावित होता है। 
                                कौन सा उत्पाद अपनी गुणवत्ता के साथ समझौता करने लगे इसके बारे में ब्रांड एम्बेस्डर नहीं जान पता है और वह उसी प्रमाणिकता पर विश्वास करके अपना करार पूरा करता रहता है। अगर उन्हें भी वास्तविकता का ज्ञान हो तो वे भी इससे समझौता नहीं करेंगे. लेकिन इसके लिए हमारे उत्पाद गुणवत्ता प्राधिकरण भी अपनी ढुलमुल नीति के तहत कितनी चीजों को अनदेखा कर रहा है। 

                              ये जरूरी नहीं कि ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक चीजों का सम्मिश्रण विदेशी उत्पादों में ही मिले। हमारे देशी उत्पाद बल्कि रोज मर्रा की जरूरी चीजें से इससे बची नहीं है। आज की खबर के अनुसार मदर डेयरी के दूध में डिटर्जेंट की मिलावट पायी गयी। ये तो रोजमर्रा की चीज है और काम या ज्यादा हर व्यक्ति प्रयोग करता है। दिल्ली जैसे शहरोँ में गाय या भैंस का दूध आसानी से उपलब्ध नहीं और न सुबह नौकरी के लिए निकलने वाले लोग उसको प्राप्त कर सकते हैं। 
                              मैंने तरबूज का प्रयोग खुद देखा है उसमें से लाल पानी के स्थान पर सफेद पानी निकल रहा था और महक भी आ रही थी। बाद में एक विडिओ भी देखा कि किस तरह से उसमें शक्कर और लाल रंग का इंजेक्शन लगते देखा जिसके वजह से वह लाल और अधिक मीठा भी दिखाई दे रहा है। उनको रातों रात विकसित करने के लिए केमिकल के  प्रयोग ने उसमें पड़ने वाले बीजों के रूप को ही ख़त्म कर दिया। हम शौक से खा रहे हैं क्या इसकी कोई जांच नहीं होनी चाहिए। विक्रेता से पूछने पर है हाई ब्रीड कह कर टाल देते हैं।
                                                            


                              अब क्या खाया जाए और क्या नहीं ? लेकिन ये केमिकल का प्रयोग करने वाले क्या अपने उत्पाद के अतिरिक्त किसी और चीज के केमिकल के शिकार नहीं होंगे. होंगे और जरूर होंगे लेकिन फिर भी दूसरों के जीवन को सिर्फ पैसे की हवस में खतरनाक रोगों की और धकेल रहे हैं। हर इंसान हर चीज को खुद तो पैदा करके नहीं खा सकता है फिर क्यों नहीं हम दूसरों के लिए अच्छा सोचते हैं।
                              

मंगलवार, 2 जून 2015

पंचायतें और अँधा न्याय !

                                           पंचायती राज का सपना जिस रूप में दशकों पूर्व देखा गया था , मुझे नहीं लगता कि वह साकार हो सका है। जिस रूप में उसको परिभाषित किया गया था वह अपने अस्तित्व को खो चुका  है क्योंकि वहां भी तो सञ्चालन दबंगों की इच्छानुसार ही होता है। आज स्वतन्त्र भारत में पंचायतों की विकृत न्याय प्रणाली ने शर्मसार कर दिया है। वहां भी दबंगों का राज है क्योंकि पद हथियाने वाले राजनैतिक दलों के आकाओं की छत्रछाया  संरक्षण प्राप्त होते हैं, बल्कि कहें ये पद उन्हें काबिलियत के बदौलत नहीं बल्कि वे अपनी हनक के बल पर हथियाते हैं। और फिर कठपुतली बन कर काम भी करते हैं। पंचायत सदस्य उनकी अंटी  में रहते है. गाँव वालों के लिए पंचायत का निर्णय वेद वाक्य होता है। निर्णय चाहे उचित हो या अनुचित , मान - मर्यादा जैसी कोई चीज वहां नहीं होती है। उस निर्णय के खिलाफ कोई और विकल्प या प्रतिरोध करने वाला  नहीं होता है। 
             कितनी घटनाएँ और शर्मसार होती हुई मानवता के उदाहरण निरंतर सामने आ रहे हैं और पढने के बाद विवश से बैठे हम हाथ मल कर रह जाते हैं। आपको भी परिचित होने का पूरा पूरा अधिकार है और अपनी राय देने का भी ---
1. एक गाँव की पंचायत ने सास बहू के झगड़े में बहुओं को पेड़ से बाँध कर पीटने का निर्णय दिया और वैसा ही किया गया।पूरा गाँव तमाशा देखता रहा और जब तक वे बेहोश नहीं हो गयीं। घर की दीवारों से बाहर मामला न्याय के लिए आता है तब  पहला प्रयास होता है कि परिवार की लड़ाई में समझौते का प्रयास किया जाय , न कि उसे तमाशा बना कर हैवानियत का रूप दे दिया जाय। 

2 . एक पंचायत ने बेटे को एक विधवा से विवाह करने के कारण उसे बस्ती से निकल दिया गया और माँ की मृत्यु पर भी उसको बस्ती में नहीं घुसने दिया गया। वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बस्ती के बाहर रात भर बैठा रहा कि शायद लोगों को उसको तरस आ जाय और उसे अंतिम दर्शन करने को मिल जाए। फिर पता नहीं उस अभागन माँ को अपने बेटे के हाथ से अंतिम संस्कार का सौभाग्य प्राप्त भी हुआ होगा या वह भी तुगलकी फरमान की बलि चढ़ गया होगा। 

3 . एक गाँव में गैर जाति के लडके के संग शादी करने पर पंचायत ने उस लडके की बहन की शादी दूसरे परिवार के पुरुष के साथ करने का फरमान सुनाया। जो उससे उम्र में दोगुना और विधुर भी था। 

4 . पंचायत के आदेश पर 60 वर्षीया महिला और 80 वर्षीय पुरुष का निकाह करवा कर गाँव के बाहर निकाल दिया गया। पंचायत का अंदेशा था कि दोनों के मध्य अवैध सम्बन्ध थे और महिला की बेटी की मृत्यु के पीछे यही कारण रहा होगा। कोई गवाह नहीं कोई सबूत नहीं और सीधे निर्णय। 
                                  इन पंचायतों द्वारा दिए गए निर्णय के खिलाफ कहाँ सुनवाई हो सकती है ? पुलिस कोई रूचि नहीं लेती है और उन्हें जब तक तहरीर न मिले तो वो कुछ करने वाले नहीं और फिर दबंगों के चलते पीड़ित कहीं गुहार लगा ही नहीं सकते हैं। ये कैसा लोकतंत्र और कैसी स्वतन्त्रता  का खुला मखौल है ?

सोमवार, 11 मई 2015

पहला और आखिरी मदर्स डे !

मैं और मेरी माँ ( पिछला मदर्स डे )
                      माँ  पहला शब्द होता है जो बच्चा बोलता है और जिसका पहला अहसास बच्चा करता है  वो माँ ही होती है। वह सिर्फ एक होती है और वह सब कुछ देती है जो इस दुनियाँ में कोई नहीं दे सकता है। वह होता है, जीव को उसका अस्तित्व प्रदान कर इस धरती पर लाना।
                          ये मेरी माँ के साथ तस्वीर पिछले मदर्स डे पर ली गयी पहली और आखिरी तस्वीर है। मैं भी नहीं जानती थी कि , सिर्फ इस दिन के लिए बगैर उन्हें सूचित किये उनके पास पहुंची थी, उनके साथ मैं अपना पहला और आखिरी मदर्स डे मना  रही हूँ.
                           माँ मैंने तुमसे जीवन में संघर्ष , सेवा ,त्याग और समर्पण का पाठ पढ़ा है  और उसको निभाते हुए मैंने जीवन की लम्बी लड़ाई सफलतापूर्वक लड़ते हुए जीत ली है और मेरी जीत देख कर ही तुम्हें परम संतोष मिला था।उससे पहले जब भी तुम्हारे पास जाती तो वही चिंता भरे सवाल और मेरे लाख आश्वस्त करने के बाद भी कहीं संशय पालती रहती थी। मेरे बाद तुम छोटी बहनों से पूछती। सब वही उत्तर देते और फिर मेरी दोनों बेटियों को अपनी मंजिल तक पहुंचा देख तुम कितनी खुश हुई थीं? उसके बाद दोनों की शादी देख कर तुम्हें लगा कि अब तुम्हारी आत्मा सब तरफ से निश्चिन्त हो चुकी थी.  सबसे ज्यादा मेरी चिंता रहती थी न  तुम्हें. अब कोई चिंता करने वाला नहीं रहा और पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि सारे लोगों की चिंता मुझे दे गयी हो। 

                           अब माँ उस घर और उस कमरे में जाने का कभी मन नहीं करता घर तो जाऊँगी  ही लेकिन उस कमरे की हर चीज में मुझे तुम ही नजर आती हो। वही तुम्हारी साड़ियां , कपडे सब उसी तरह से अलमारी में रखे हुए। उन्हें छू कर तुम्हारे होने का अहसास होता है लेकिन तुम तो हमेशा अपनी बच्चों के साथ हो और हमेशा रहोगी ।

शुक्रवार, 8 मई 2015

अभिव्यक्ति की अवसर !

                                             कुछ दिन पहले हमने पढ़ा था कि एक लडके ने अपनी आत्महत्या का लाइव वीडियो अपनी गर्ल फ्रेंड को भेजा और खुद फाँसी पर लटक गया। ये अपनी निजी जिंदगी का ही नहीं बल्कि औरों की नजर में दूसरों का भी अपमान कहा जाएगा.
            अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें संविधान में प्रदान की गयी है लेकिन एक हमारा अपना नैतिक और भावात्मक दायरा होता है। ये जरूरी नहीं है कि  जिसे हम लिखें या बोलें वो सबको पसंद ही हो. लेकिन अगर हम सोशल मीडिया या सोशल प्लेटफॉर्म पर अपनी निजी बातें डालें तो सभी को पसंद ही आए या पसंद भी आएं तो हमें संवेदनहीन करने वाली तो न हों। खुशियां तो हम सभी से बाँट सकते हैं लोग खुश होते हैं। हम एक दूसरे से जुड़े होते हैं और ऐसी यादें और पल हम खुद संचित करके रखना चाहते हैं। 
                          शादी , सगाई , या जन्मदिन की यादें अपने बच्चों के बचपन की तस्वीरें हम सभी रखते हैं और समय समय पर फेसबुक जैसे मंच पर शेयर भी करते हैं। एक दूसरे को बधाई देते हैं शुभकामनाएं भी देते हैं। लेकिन अपने किसी बहुत करीब की मृत्यु की घोषणा या उसका आँखों देखा हाल हम खुद ही डालने लगें क्या ऐसा संभव है ? 
                    मृत्यु चाहे जिसकी भी हो अगर वह बहुत नजदीकी है तो इंसान अपने आप को खुद नहीं संभाल पाता है और फिर वह उसका सजीव चित्रण खुद कर रहा हो तो उसकी संवेदनाओं का अनुमान लगाया जा सकता है। वह भी जब किसी के भाई , बहन , माँ या पिता के निधन हो चूका हो। ऐसा करना तो लगता है जैसे कि सहानुभूति को तौलने का प्रयास किया जा रहा हो ? दोस्ती या शुभचिंतको को अपनत्व की कसौटी पर कसा जा रहा हो। ऐसे अवसरों पर अगर कोई दूसरा भी फ़ोन पर तेज तेज आवाज में बात करता सुनाई देता है तो सुनाने वाले को बुरा लगता है और अगर कोई बेटा , बेटी , भाई या बहन मोबाइल पर अपना स्टेटस अपडेट करे या कर रहा हो तो उसे हम क्या कहेंगे?              
                        यादें हमेशा सुखद संजो कर रखी जाती हैं ताकि जब उन्हें देखें तो पुराने समय की याद कर सकें। लेकिन पार्थिव शरीर की तस्वीर या उसके साथ खिंचवाई गयीं तस्वीरें सिर्फ और सिर्फ कष्ट देने वाली होती हैं।यादों में हमेशा अच्छे पल ही संजोये जाने चाहिए। 

शुक्रवार, 1 मई 2015

मज़दूर दिवस ! (आज कानपुर के मजदूरों के नाम)


                 आज का दिन  कितने नाम से पुकारा जाता है ? मई दिवस , मजदूर दिवस और महाराष्ट्र दिवस।  अगर विश्व के दृष्टिकोण  देखें तो मजदूर दिवस ही कहा जाएगा।  हम कितने उदार हैं ? हमारा दिल भी इतना बड़ा है कि हमने पूरा का पूरा दिन उन लोगों के नाम कर दिया।  सरकार ने तो अपने कर्मचारियों को छुट्टी दे दी लेकिन क्या वाकई ये दिन उन लोगों के लिए नहीं तय है जो अनियमित मजदूर हैं।  इस दिन की दरकार तो वास्तव में उन्हीं लोगों के लिए हैं - चाहे वे रिक्शा चला रहे हों या फिर बोझा ढो रहे हों।   आज के दिन मैं कानपुर की बंद मिलों और उनके मजदूरों की याद कर उनके चल रहे संघर्ष को सलाम करना चाहूंगी।         
               कभी कानपुर भारत का मैनचेस्टर कहा जाता था और यहाँ पर पूरे उत्तर भारत से मजदूर काम करने आते थे और फिर यही बस गए। कहते हैं न रोजी से रोजा होता है। यहाँ पर दो एल्गिन मिल, विक्टोरिया मिल , लाल इमली , म्योर मिल , जे के कॉटन मिल , स्वदेशी कॉटन मिल , लक्ष्मी रतन कॉटन मिल , जे के जूट मिल और भी कई मिलों में हजारों मजदूर काम करते थे। रोजी रोटी के लिए कई पालिओं में काम करते थे। सिविल लाइन्स का वह इलाका मिलों के नाम ही था। रोजी रोटी के लिए यहाँ पर काम करने वाले मजदूर या बड़े पदोंपर काम करने वाले अपने गाँव से लोगों को बुला बुला कर नौकरी में लगवा देते थे। जिस समय शाम को मिल का छुट्टी या लंच का हूटर बजता था तो मजदूरों की भीड़ इस तरह से निकलती थी जैसे कि बाँध का पानी छोड़ दिया गया हो। ज्यादातर मजदूरों का प्रयास यही रहता था कि मिल के पास ही कमरा ले लें।वह समय अच्छा था - मेहनत के बाद पैसा मिलता तो था कोई उसमें बिचौलिया तो नहीं था। 

बंद पड़ी एल्गिन मिल

                            वह मिलें बंद हुई , एक एक करके सब बंद हो गयीं। वह सरकारी साजिश थी या कुछ और मजदूर सड़क पर आ गए कुछ दिन उधार लेकर खर्च करते रहे इस आशा में कि मिल फिर से खुलेगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वे अपनी लड़ाई आज भी लड़ रहे हैं , कितने दुनियां छोड़ कर जा चुके हैं और कितने उस कगार पर खड़े हैं। मजदूरों की पत्नियां घरों में काम करके गुजर करने लगीं। कभी पति की कमाई पर बड़े ठाठ से रहती थीं। 
                            इन सब में लाल इमली आज भी कुछ कुछ काम कर रही है और मजदूर काम न सही मिल जाते जरूर हैं। इस उम्मीद में कि हो सकता है सरकार फिर से इन्हें शुरू कर दे. इनका कौन पुरसा हाल है।



एल्गिन मिल खंडहर हो रही है और सरकार उसकी बिल्डिंग को कई तरीके से प्रयोग कर रही है लेकिन उस बंद मिल के मजदूर आज भी क्रमिक अनशन पर बैठे हुए हैं। कितनी सरकारें आई और गयीं लेकिन ये आज भी वैसे ही हैं। यह चित्र बयान कर रहा है कि उनके अनशन का ये 3165 वाँ दिन है।बताती चलूँ मैंने भी  इस मिल के पास सिविल लाइन्स में कुछ वर्ष गुजारे हैं। वर्ष १९८२-८३ का समय मैंने इन मजदूरों के बीच रहकर गुजारा है। तब उनके ठाठ और आज कभी गुजरती हूँ वहां से सब कुछ बदल गया है। 

कभी जवान थे वक्त ने हड्डी का ढांचा बना के रख दिया
                              

          
वीरान पड़ा म्योर मिल का प्रवेश द्वार

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

अक्षय तृतीया !

          अक्षय तृतीया हम बचपन में तभी जानते थे जब माँ लोग कहती थीं ये बिना पूछी शादी की साइत होती है और कुछ दान पुण्य के काम किये जाते थे। सबसे बड़ा काम हम गुड़ियों का ब्याह रचाते थे। 
                            

 http://media.santabanta.com/images/picsms/2014/hindi-4397.jpg
                                 अब तो व्यापारीकरण और बाजारीकरण के साथ साथ इंटरनेट के बढ़ाते प्रकोप से हम इसके सही अर्थ को तो भूलते ही जा रहे हैं. बड़े बड़े अक्षरों में ज्वैलर्स के विज्ञापन ,सोने और हीरे के जेवरातों में मिलाने वाली छूट का आकर्षण लोगों को खींच लेता है। अक्षय का शाब्दिक अर्थ जिसका क्षय न हो और इसी लिए सोना खरीदों तो वह बढ़ता ही रहेगा. दुकानदारों की जरूर चाँदी हो जाती है वह जितना पूरे साल में कमाते होंगे उसका काम से कम पचास प्रतिशत सिर्फ एक दिन में कमा लेते हैं। 
                                  जब की इसका वास्तविक अर्थ अगर समझें तो ये है भौतिक वास्तु का क्षय सुनिश्चित है फिर इस दिन खरीदी गयी वास्तु को अक्षय कैसे मान सकते हैं ? जीवन में हम कितना संचय करके उसका सुख उठा सकते हैं। ये हमारे मन का भ्रम है की हमने इतना संचित कर लिया चार पीढ़ियां बैठ कर खायेंगी। वास्तव में इस दिन अगर व्यक्ति अच्छे कार्य करे तो उससे अर्जित पूर्ण अक्षय जरूर हो सकता है। इस समय भयंकर गर्मी का मौसम आ चूका होता है और अगर करना है तो प्याऊ लगवाइये , गरीबों को सत्तू, शक्कर , छाता , पंखा , सुराही आदि दान देनी चाहिए। वह देकर जो आत्मा संतोष आपको मिलेगा वह अक्षय होगा। गर्मी में चिड़ियों के लिए पानी पेड़ पर टांगना ,जानवरों के लिए पानी भरवाना वह अक्षय होगा। आत्मा सभी में होती है और उस आत्मा की संतुष्टि के लिए जो भी प्रयास करता है , वह अक्षय है और अक्षय तृतीया इसी का पर्याय है।
                    पुराणों में लिखा है कि इस दिन पूर्वजों  को किया गया तर्पण अथवा  पिण्डदान या फिर किसी और प्रकार का दान अक्षय फल प्रदान करनेवाला होता   है। इस दिन गंगा स्नान करने का भी विधान है ,हमारी आस्था सदैव से धर्म कर्म से जुडी है इसीलिए कहा गया है कि भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस दिन किया गया  जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है।
                          

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

अनुकरणीय कार्य !

                                हम जीवन में बहुत सारे काम ऐसे करते हैं जो सिर्फ हमारे मन की संतुष्टि के लिए होते हैं लेकिन कुछ काम अपने कामों की नुमाइश के लिए भी लोग करते हैं।  चारों तरफ चर्चा हो , लोग तारीफों के पुल बांधें लेकिन इन सबसे दूर और उम्र में बहुत परिपक्व भी नहीं है वो लेकिन सोच शायद जन्मजात होती है और ये व्यक्तिगत भी होती है।
                             मेरी मानसपुत्री हेमलता जिसे  मैं अपनी बेटियों जैसा ही पास पाती हूँ और बचपन से वह पड़ोस में ही रहती रही है मेरी बेटी की सहेली हैं लेकिन शायद अपनी माँ से अधिक वो मेरे करीब है ।  उसकी शादी के ५ वर्ष बाद उसके बेटा हुआ और वह भी उसके जीवन मरण के सवाल के बीच डूबता और उतराता हुआ।  जिसने शादी के एक साल बाद ही लोगों के ताने सुनने शुरू कर दिए हों और फिर कैसे इतने वर्षों तक इस समाज के व्यंग्य बाणों का सामना किया होगा।  लेकिन शायद उसकी सार्थक और परोपकारी सोच का ही परिणाम है कि वो सात्विक नाम के बच्चे की माँ बनी। 

हेमलता और सात्विक

                            इस वर्ष उसके बेटे का प्रथम जन्मदिन था और इत्तेफाक से वह कानपूर में ही थी।  उसके मायके के परिवार में भी बहुत उत्साह था कि कैसे मनाया जाय ? उसने सबसे कह दिया कि वह इसको अपने ढंग से मनाएगी और इसके बारे में कोई शोर भी नहीं होना चाहिए।  मुझसे वह इस बारे में चर्चा कर चुकी थी।  उसने एक वृद्धाश्रम के बारे में पता किया और फिर उसकी संचालिका से बात की।  वह भी  कभी सुलझी हुई महिला हैं - उन्होंने कहा कि आप साड़ी या शाल की जगह पर अपने बजट के अनुसार जो सामान  हम हर बुजुर्ग को पहली तारीख जो देते हैं , वह दे सकती हैं।  हमारे यहाँ ६५ बुजुर्ग हैं और ४ बच्चे हैं ( बच्चे अनाथ हैं ) . उसने सबके लिए १० हजार रुपये में आने वाला सामान खरीदा और ११ दिसंबर को वहां पहुंचा दिया,   वह सामान जो  संचालिका माह की पहली तारीख को सबको देती हैं।  अतः उन्होंने कहा कि आप १ जनवरी को आकर अपने हाथ से दें तो  मुझे ख़ुशी होगी।  लेकिन उसने मुझसे कहा - 'आंटी मैं अपने सामान  को  बाँट कर ये नहीं दिखाना चाहती कि ये मैं दे रही हूँ इसलिए मैं वहां अब  इस दिन तो नहीं ही  जाउंगी लेकिन जाती रहूंगी। अपने से जो  भी बनेगा करती रहूंगी।   उसने उन अनाथ बच्चों में से किसी एक की पढाई के लिए साल के शुरू होने पर यूनिफार्म , किताबें और  सामान भी देने का निश्चय  किया।  
                        उच्च वर्ग में कितनी ऐसी महिलायें भी है जो हर महीने हजारों रुपये अपने ऊपर खर्च करती हैं और मुझे ये कहने में भी संकोच नहीं है कि शायद उन्हीं में से किसी के सास ससुर या फिर माँ बाप ऐसे वृद्धाश्रम में जीवन व्यतीत कर रहे हों।  लगभग आज की नयी पीढ़ी अपने बच्चों का जन्मदिन अपनी हैसियत के अनुसार कभी होटल में , कोई घर में मनाता रहता है और ऐसी सोच काम ही लोगों के मन में आती है कि उसका एक छोटा सा हिस्सा अनाथ बच्चों के लिए ( भिखारियों के लिए कतई नहीं ) खर्च कर उन्हें भी कुछ अच्छा  महसूस करने का मौका दें।  दुआएं वो तो दिखती नहीं है लेकिन आशा के आशा के विपरीत कुछ कोई वंचित पा जाता है तो दिल से दुआ देता है।