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शुक्रवार, 8 मई 2015

अभिव्यक्ति की अवसर !

                                             कुछ दिन पहले हमने पढ़ा था कि एक लडके ने अपनी आत्महत्या का लाइव वीडियो अपनी गर्ल फ्रेंड को भेजा और खुद फाँसी पर लटक गया। ये अपनी निजी जिंदगी का ही नहीं बल्कि औरों की नजर में दूसरों का भी अपमान कहा जाएगा.
            अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें संविधान में प्रदान की गयी है लेकिन एक हमारा अपना नैतिक और भावात्मक दायरा होता है। ये जरूरी नहीं है कि  जिसे हम लिखें या बोलें वो सबको पसंद ही हो. लेकिन अगर हम सोशल मीडिया या सोशल प्लेटफॉर्म पर अपनी निजी बातें डालें तो सभी को पसंद ही आए या पसंद भी आएं तो हमें संवेदनहीन करने वाली तो न हों। खुशियां तो हम सभी से बाँट सकते हैं लोग खुश होते हैं। हम एक दूसरे से जुड़े होते हैं और ऐसी यादें और पल हम खुद संचित करके रखना चाहते हैं। 
                          शादी , सगाई , या जन्मदिन की यादें अपने बच्चों के बचपन की तस्वीरें हम सभी रखते हैं और समय समय पर फेसबुक जैसे मंच पर शेयर भी करते हैं। एक दूसरे को बधाई देते हैं शुभकामनाएं भी देते हैं। लेकिन अपने किसी बहुत करीब की मृत्यु की घोषणा या उसका आँखों देखा हाल हम खुद ही डालने लगें क्या ऐसा संभव है ? 
                    मृत्यु चाहे जिसकी भी हो अगर वह बहुत नजदीकी है तो इंसान अपने आप को खुद नहीं संभाल पाता है और फिर वह उसका सजीव चित्रण खुद कर रहा हो तो उसकी संवेदनाओं का अनुमान लगाया जा सकता है। वह भी जब किसी के भाई , बहन , माँ या पिता के निधन हो चूका हो। ऐसा करना तो लगता है जैसे कि सहानुभूति को तौलने का प्रयास किया जा रहा हो ? दोस्ती या शुभचिंतको को अपनत्व की कसौटी पर कसा जा रहा हो। ऐसे अवसरों पर अगर कोई दूसरा भी फ़ोन पर तेज तेज आवाज में बात करता सुनाई देता है तो सुनाने वाले को बुरा लगता है और अगर कोई बेटा , बेटी , भाई या बहन मोबाइल पर अपना स्टेटस अपडेट करे या कर रहा हो तो उसे हम क्या कहेंगे?              
                        यादें हमेशा सुखद संजो कर रखी जाती हैं ताकि जब उन्हें देखें तो पुराने समय की याद कर सकें। लेकिन पार्थिव शरीर की तस्वीर या उसके साथ खिंचवाई गयीं तस्वीरें सिर्फ और सिर्फ कष्ट देने वाली होती हैं।यादों में हमेशा अच्छे पल ही संजोये जाने चाहिए। 

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