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शनिवार, 20 जून 2015

पितृ दिवस पर -- मेरे पापा !



                              वैसे माँ पापा क्या किसी एक दिन ही याद किये जाते हैं लेकिन हाँ इस बहाने अपने जनक से सबको रूबरू करा सकते हैं। हमारा अस्तित्व रहने तक तो हम उन्हें यादों में किताबों में और अपनी कलम से कुछ लिख कर उन्हें उस रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं जिसे हर कोई नहीं जान सका।





                           मेरे पापा बिलकुल मस्त कोई चिंता उन्हें सालती नहीं थी। वे चाहे अपना भला न कर पाएं अगर उनके वश में है तो दूसरे के हित के लिए सबसे आगे रहते थे। दया , ममता और परमार्थ के किस्से तो मैं गिना नहीं सकती लेकिन एक बहुत छोटी सी बात उनकी तस्वीर को उजागर कर देगी। तब मेरी शादी हो चुकी थी सो मैं उस घटना की चश्मदीद गवाह तो नहीं हूँ लेकिन पता चला तो मन में बहुत गर्व महसूस हुआ।
                             हमारे घर के आस पास एक बूढा बन्दर जो उछलने कूदने में असमर्थ हो चूका था। पापा उसको खाना और पानी बराबर देते रहे। आसपास के लोग भी देते रहते थे लेकिन उसका पूरा ध्यान रखना जैसे पापा का काम था। कई सालों तक वह वहां रहा और धीरे धीरे वह परिवार के सदस्य की तरह हो चूका था। आखिर एक दिन उसने अंतिम साँस ली। जैसा कि जानवरों के मामले में होता है कि उन्हें कहीं शहर के बाहर फ़ेंक दिया जाता है और वे चील और गिद्ध का भोजन बन जाते। यही नियति रही है। जब उस बन्दर के लिए भी यही कहा गया तो पापा ने मना कर दिया और उन्होंने किसी बुजुर्ग की तरह उसकी अर्थी तैयार करवाई और घंटे घड़ियाल के साथ उसकी शव यात्रा निकाल कर उसका अंतिम संस्कार करवाया। (अभी भी छोटी जगहों पर बहुत बुजुर्ग लोगों की अंतिम यात्रा गाजे बाजे या घंटे घड़ियाल के साथ श्मशान तक ले जाइ जाती है। )
                           मुझे अपने पापा के जीवन की कई घटनाएँ ऐसी भी याद हैं जिनमें बाद में उन्हें हम लोगों ने ही कहा कि क्यों आप भलाई करते हैं और नुक्सान अपना कर बैठते हैं। लेकिन वो तो जैसे थे वैसे ही रहे।
                        

मंगलवार, 16 जून 2015

धीमा जहर हम ले रहे हैं !

                      मैगी का हंगामा एक तूफान की तरह उठा और इतने वेग से कि उसमें उसके ब्रांड एम्बेसडर भी हिल गए। जबकि जहाँ तक मेरा ज्ञान है की किसी भी  उत्पाद की गुणवत्ता कंपनी ही बताती है और आम आदमी उस प्रतिनिधि के प्रभावशाली प्रस्तुति और व्यक्तित्व से सबसे अधिक प्रभावित होता है। 
                                कौन सा उत्पाद अपनी गुणवत्ता के साथ समझौता करने लगे इसके बारे में ब्रांड एम्बेस्डर नहीं जान पता है और वह उसी प्रमाणिकता पर विश्वास करके अपना करार पूरा करता रहता है। अगर उन्हें भी वास्तविकता का ज्ञान हो तो वे भी इससे समझौता नहीं करेंगे. लेकिन इसके लिए हमारे उत्पाद गुणवत्ता प्राधिकरण भी अपनी ढुलमुल नीति के तहत कितनी चीजों को अनदेखा कर रहा है। 

                              ये जरूरी नहीं कि ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक चीजों का सम्मिश्रण विदेशी उत्पादों में ही मिले। हमारे देशी उत्पाद बल्कि रोज मर्रा की जरूरी चीजें से इससे बची नहीं है। आज की खबर के अनुसार मदर डेयरी के दूध में डिटर्जेंट की मिलावट पायी गयी। ये तो रोजमर्रा की चीज है और काम या ज्यादा हर व्यक्ति प्रयोग करता है। दिल्ली जैसे शहरोँ में गाय या भैंस का दूध आसानी से उपलब्ध नहीं और न सुबह नौकरी के लिए निकलने वाले लोग उसको प्राप्त कर सकते हैं। 
                              मैंने तरबूज का प्रयोग खुद देखा है उसमें से लाल पानी के स्थान पर सफेद पानी निकल रहा था और महक भी आ रही थी। बाद में एक विडिओ भी देखा कि किस तरह से उसमें शक्कर और लाल रंग का इंजेक्शन लगते देखा जिसके वजह से वह लाल और अधिक मीठा भी दिखाई दे रहा है। उनको रातों रात विकसित करने के लिए केमिकल के  प्रयोग ने उसमें पड़ने वाले बीजों के रूप को ही ख़त्म कर दिया। हम शौक से खा रहे हैं क्या इसकी कोई जांच नहीं होनी चाहिए। विक्रेता से पूछने पर है हाई ब्रीड कह कर टाल देते हैं।
                                                            


                              अब क्या खाया जाए और क्या नहीं ? लेकिन ये केमिकल का प्रयोग करने वाले क्या अपने उत्पाद के अतिरिक्त किसी और चीज के केमिकल के शिकार नहीं होंगे. होंगे और जरूर होंगे लेकिन फिर भी दूसरों के जीवन को सिर्फ पैसे की हवस में खतरनाक रोगों की और धकेल रहे हैं। हर इंसान हर चीज को खुद तो पैदा करके नहीं खा सकता है फिर क्यों नहीं हम दूसरों के लिए अच्छा सोचते हैं।
                              

मंगलवार, 2 जून 2015

पंचायतें और अँधा न्याय !

                                           पंचायती राज का सपना जिस रूप में दशकों पूर्व देखा गया था , मुझे नहीं लगता कि वह साकार हो सका है। जिस रूप में उसको परिभाषित किया गया था वह अपने अस्तित्व को खो चुका  है क्योंकि वहां भी तो सञ्चालन दबंगों की इच्छानुसार ही होता है। आज स्वतन्त्र भारत में पंचायतों की विकृत न्याय प्रणाली ने शर्मसार कर दिया है। वहां भी दबंगों का राज है क्योंकि पद हथियाने वाले राजनैतिक दलों के आकाओं की छत्रछाया  संरक्षण प्राप्त होते हैं, बल्कि कहें ये पद उन्हें काबिलियत के बदौलत नहीं बल्कि वे अपनी हनक के बल पर हथियाते हैं। और फिर कठपुतली बन कर काम भी करते हैं। पंचायत सदस्य उनकी अंटी  में रहते है. गाँव वालों के लिए पंचायत का निर्णय वेद वाक्य होता है। निर्णय चाहे उचित हो या अनुचित , मान - मर्यादा जैसी कोई चीज वहां नहीं होती है। उस निर्णय के खिलाफ कोई और विकल्प या प्रतिरोध करने वाला  नहीं होता है। 
             कितनी घटनाएँ और शर्मसार होती हुई मानवता के उदाहरण निरंतर सामने आ रहे हैं और पढने के बाद विवश से बैठे हम हाथ मल कर रह जाते हैं। आपको भी परिचित होने का पूरा पूरा अधिकार है और अपनी राय देने का भी ---
1. एक गाँव की पंचायत ने सास बहू के झगड़े में बहुओं को पेड़ से बाँध कर पीटने का निर्णय दिया और वैसा ही किया गया।पूरा गाँव तमाशा देखता रहा और जब तक वे बेहोश नहीं हो गयीं। घर की दीवारों से बाहर मामला न्याय के लिए आता है तब  पहला प्रयास होता है कि परिवार की लड़ाई में समझौते का प्रयास किया जाय , न कि उसे तमाशा बना कर हैवानियत का रूप दे दिया जाय। 

2 . एक पंचायत ने बेटे को एक विधवा से विवाह करने के कारण उसे बस्ती से निकल दिया गया और माँ की मृत्यु पर भी उसको बस्ती में नहीं घुसने दिया गया। वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बस्ती के बाहर रात भर बैठा रहा कि शायद लोगों को उसको तरस आ जाय और उसे अंतिम दर्शन करने को मिल जाए। फिर पता नहीं उस अभागन माँ को अपने बेटे के हाथ से अंतिम संस्कार का सौभाग्य प्राप्त भी हुआ होगा या वह भी तुगलकी फरमान की बलि चढ़ गया होगा। 

3 . एक गाँव में गैर जाति के लडके के संग शादी करने पर पंचायत ने उस लडके की बहन की शादी दूसरे परिवार के पुरुष के साथ करने का फरमान सुनाया। जो उससे उम्र में दोगुना और विधुर भी था। 

4 . पंचायत के आदेश पर 60 वर्षीया महिला और 80 वर्षीय पुरुष का निकाह करवा कर गाँव के बाहर निकाल दिया गया। पंचायत का अंदेशा था कि दोनों के मध्य अवैध सम्बन्ध थे और महिला की बेटी की मृत्यु के पीछे यही कारण रहा होगा। कोई गवाह नहीं कोई सबूत नहीं और सीधे निर्णय। 
                                  इन पंचायतों द्वारा दिए गए निर्णय के खिलाफ कहाँ सुनवाई हो सकती है ? पुलिस कोई रूचि नहीं लेती है और उन्हें जब तक तहरीर न मिले तो वो कुछ करने वाले नहीं और फिर दबंगों के चलते पीड़ित कहीं गुहार लगा ही नहीं सकते हैं। ये कैसा लोकतंत्र और कैसी स्वतन्त्रता  का खुला मखौल है ?