www.hamarivani.com

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

चुनौती जीवन की: संघर्ष के वे दिन (१)



डॉ अजित गुप्ता


इस
सफर की पहली प्रस्तुति डॉ अजित गुप्ता जी की है , इसे पढ़कर देखा जा सकता है कि खुद को विनम्र बनाकर कितना कुछ अपने पक्ष में किया जा सकता है।

लेखन की संघर्ष गाथा
संघर्ष गाथा ! कुछ लोगों को मन का चाहा सहज रूप से मिल जाता है और कुछ लोग जाने कितने संघर्षों के बाद अपनी मंजिल पाते हें। मैंने लेखन को आज अपना जीवन का अंग बना लिया है लेकिन कभी वे दिन भी थे जब लेखन की कल्पना करना भी गुनाह था। हमारे ज़माने में सपने हमारे नहीं थे वे पिताजी के हुआ करते थे। साहित्य के प्रति जूनून सा था लेकिन साहित्य को छुप छुप कर पढ़ना पड़ता था। बहुत डांट खाई इस कारण लेकिन एक दिन सिद्ध कर दिया कि हम अच्छा साहित्य पढ़ते हें, तब कहीं जाकर साहित्य पढ़ने की इजाजत मिली। लेखन पत्रों से प्रारंभ हुआ घर वाले कहते थे की बड़ा अच्छा पात्र लिखती है। लेकिन इससे ज्यादा सोचने की तो हिम्मत थी और ही वातावरण। लड़कियों की यह विडम्बना होती है कि वे एक पहरे से निकाल कर दूसरे पहरे में चली जाती हें। सोचा था कि कभी अपने पैरों पर खड़े होंगे तो लिखेंगे। लेकिन उन दिनों अपने पड़ोस में ही ढेर सारी पुस्तकें मिल गयीं तो उनको ही पढ़ने का आनंद उठाया गया। कुछ दिनों बाद विवाह हो गया तो एक अन्य पहरे में गए।
पतिदेव को पढ़ने से सख्त चिढ। जाने क्यों पाती लोग पत्नियों के सामने हीनभावना से ग्रसित क्यों रहते हें?
विवाह
के बाद लिखने की सोची थी लेकिन अब तो पढ़ने के भी लाले पड़ गए। पतिदेव कहते कि पढ़ने के कारण ही तुम्हारा दिमाग इतना चलता है इसलिए पढ़ना बंद करो। रोज रोज के झगड़ों का मुझे कोई मार्ग दिखाई नहीं देता था क्योंकि झगडा सिर्फ हीँ भावना का था जो दूसरों के सामने प्रकट होता था। आख़िर मैंने साहित्य पढ़ने से तौबा कर ली। लगभग मैं दस वर्षों तक समाचार पत्र , पत्रिकाओं और अन्य साहित्य से दूर रही। सामाजिक कार्य के क्षेत्र में भी मेरा नाम था और मुझसे कहा जाता था कि मेरे साथ काम करो लेकिन बच्चे छोटे हें कह कर मैं टालती रही। आख़िर एक दिनमेरे शहर में भारत विकास परिषद् की शाखा खोलने की बात आई। मेरे एक परिचित मेरे घर आये और उन्होंने सदस्यता लेने का आग्रह किया। यहाँ अच्छी बात यह थी कि सदस्यता पाती और पत्नी दोनों के लिए थी। मैंने उन्हें पतिदेव से मिलने के लिए कहा और पतिदेव तुरंत राजी होगये क्योंकि यहाँ पर किसी ने उनसे कहा था। मैंने फिर पतिदेव से कहा कि सोच लीजिये फिर बाहर के लोगों के सामने मेरी ऐसी - तैसी तो नहीं करेंगे। लेकिन अब तक वे काफी सहज हो चले थे।
यहाँ
मैं शांतिपूर्वक इन्हें आगे करके चलती रही, मैंने खुद आगे बढ़ कर कोई जिम्मेदारी नहीं ली। वार्षिक अधिवेशन के समय पत्रिका निकालनी थी। सभी ने मुझसे संपादन का आग्रह किया लेकिन मैंने दूसरे का नाम दे दिया। कहा कि मैं उनका पूरा सहयोग करूंगी। तब तक वातावरण काफी सुधर चुका था तो मैंने एक आलेख और एक संस्मरण पत्रिका के लिए पहली बार लिखा। वही आलेख मेरे लेखन में मील का पत्थर सिद्ध हुआ। एक अन्य संस्था ने वह आलेख पढ़ा और अपनी मासिक पत्रिका के संपादन के कार्य को मुझे देने के लिए आग्रह किया
लेकिन मैं इसके लिए तैयार नहीं थी किसी एक आलेख की बदौलत मैं किसी पत्रिका का संपादन नहीं कर सकती थी। कई महीनों तक कशमकश चलती रही आख़िर मैंने वह संपादन का कार्य अपने हाथ में ले लिया . अब मेरे लिए परीक्षा का घड़ी थी। सबसे आश्चर्य की बात ये थी कि मेरे हर आलेख के प्रथम पाठक मेरे पतिदेव ही बने
और प्रशंसक भी शायद उन्हें समझ गया था कि साहित्य कभी अहंकार का जनक नहीं होता बल्कि विनम्रता ही सिखाता है। शिक्षा विषय पर एक आलेख लिखने का प्रस्ताव मेरे पास आया और मैंने लिखा भी। पतिदेव को आलेख इतना पसंद आया कि उन्होंने उसकी कापियां बनवा कर लोगों को दीं। फिर वही आलेख १९९२ में राजस्थान पत्रिका के सम्पादकीय पृष्ठ में प्रकाशित हुआ। इसके बाद लेखन का सिलसिला चलता रहा। एक पत्रिका के बाद दूसरी पत्रिका का संपादन और एक समय मेरे पास तीन पत्रिकाओं का संपादन गया। पत्रिकायें सामाजिक संस्थाओं की ही थीं लेकिन लिखने का अनुभव खूब मिला आख़िर मैंने १९९७ में नौकरी छोड़ दी क्योंकि अब समय मेरे पक्ष में गया था। मैं बीते दिनों की भरपाई करना चाहती थी और इसमें मेरे पतिदेव ने मुझे पूरा पूरा सहयोग दिया। मैं तब आयुर्वेद विद्यालय में प्राध्यापक थी और पांचवां वेतन आयोग लगने वाला था और साथ ही मेरे प्रोफेसर पद पर प्रमोशन भी। लेकिन मैंने इन सबको ठुकरा दिया क्योंकि अब मेरे साथ मेरा पूरा परिवार खड़ा था।
जब अच्छा होता है तो सब कुछ अच्छा होने लगता है। मुझे सेवानिवृत्ति के बाद भी पांचवे वेतन आयोग का लाभ मिला और प्रोफेसर पद पर प्रमोशन भी। लेखन आरम्भ करने के बाद संघर्ष की गाथा अलग प्रकार थी