.....नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर उनको शत शत नमन करते हुए कुछ लिखने का मन हुआ। उन्हें देश की आज़ादी में अलग ढंग से लड़ाई लड़ते हुए पाया और लोगों ने उन्हें देश की स्वतंत्रता की लड़ाई की मुख्य धारा से उन्हें अलग कर दिया। सारा श्रेय औरों के सर आ गया और फिर वही इस देश के संचालकों में आ गए।
कभी जानने की कोशिश नहीं की और जब जाना तो वे एक महान राजनीतिक नेता था। गंभीर और उग्र देशभक्ति के साथ भारत में ब्रिटिश शासन के प्रति उनके मन में तीक्ष्ण शत्रुता ही उनके विद्रोही व्यक्तित्व का सार थी।
.उन्होंने भी १९२० में आई सी एस ( इंडियन सिविल सर्विसेस) की परीक्षा में सफलता प्राप्त की थी और १९२१ में २४ वर्ष की आयु में त्यागपत्र दे दिया था। वे सक्रिय राजनीति में उतर आये। वे पूर्ण कर्मयोगी थे और आत्मत्याग में विश्वास रखते थे । उन्होंने राजीतिक कार्य को अपने जीवन का ध्येय बना कर अपने को उसमें समर्पित कर दिया। कष्ट रहने की उनमें अपरिमित क्षमता थी , कहते हें की तिलक के अतिरिक्त उनके समान किसी ने कष्ट सहन नहीं किया। उन्हें दस बार कारागार में डाला गया और वे जीवन के आठ वर्ष जेल में रहे।
उन्हें समझौतावादी रवैया पसंद नहीं था , विद्रोही प्रवृत्ति के थे और यही कारण था की उन्होंने काग्रेस में गाँधीवादी पक्ष के विरुद्ध सदैव वामपंथी विरोधी पक्ष का साथ दिया। उन्होंने १९२३ में एक असहयोगी के रूप में अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया बाद में में चितरंजन दस के नेतृत्व में स्वराज दल में शामिल हो गए क्योंकि गांधीजी की नीतियों से उनको कोई सहानुभूति नहीं थी। १९२५-२७ तक उन्हें बर्मा में नजरबन्द रखा गया। इसके बाद ही उन्होंने स्वराज दल की राह छोड़ कर 'independence लीग ' के सदस्य बन गए। उनका नाम सुर्ख़ियों तब आया जब की उन्होंने १९३५ में भारतीय शासन अधिनियम में प्रस्तिवित संघ योजना की स्वीकृति का विरोध करने वाली शक्तियों का नेतृत्व किया।
१९४० में वे गुप्त रूप से देश छोड़ कर चले गए। मार्च १९४१ में वायुयान से काबुल से बर्लिन पहुंचे। देश से निकल भागने से लेकर उनके बर्लिन से जर्मनी पहुँचाने तक की वीर गाथा है।२७ फरवरी १९४२ को उन्होंने बर्लिन से ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के विरुद्ध भयंकर प्रचार अभियान चलाया और विभिन्न स्थानों से वर्षों तक प्रसारण करते रहे। जून १९४३ को वे जापान पहुंचे थे और ५ जुलाई १९४३ को उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना की घोषणा की। उस समय उनकी फौज मे साठ हजार भारतीय शामिल थे.फरवरी १९४४ से अप्रैल १९४५ तक आजाद हिंद फौज ने मित्र राष्ट्रों की सेनायों के विरुद्ध अभियान चलाया और भारत भूमि पर प्रवेश में सफल हो गए ।
उनकी कहानी ८ अगस्त १९४५ को उनकी विमान दुर्घटना में मृत्यु घोषित कर दी गयी , जब की यह मात्र एक नाटक था। नेताजी यहाँ के नेताओं की नीतियों से असंतुष्ट तो रहे ही बल्कि इनके कुछ समझौतों के तहत सामने नहीं आ सके। वे अपने ही देश में आजाद हवा में सांस न ले सके। उन्होंने गुमनामी का जीवन किया।
इस बात का जिक्र उनकी आजाद हिंद फौज के सेनानी मानवती आर्या ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया है कि न कोई विमान दुर्घटना हुई और न ही नेताजी का निधन हुआ। लेकिन राजनीतिक षड्यंत्रों के चलते वे हमेशा के लिए गुमनामी के अँधेरे में जीते रहे और और अपने ही देश में गुमनाम चले गए।
नेताजी को आज शत शत नमन !
कभी जानने की कोशिश नहीं की और जब जाना तो वे एक महान राजनीतिक नेता था। गंभीर और उग्र देशभक्ति के साथ भारत में ब्रिटिश शासन के प्रति उनके मन में तीक्ष्ण शत्रुता ही उनके विद्रोही व्यक्तित्व का सार थी।
.उन्होंने भी १९२० में आई सी एस ( इंडियन सिविल सर्विसेस) की परीक्षा में सफलता प्राप्त की थी और १९२१ में २४ वर्ष की आयु में त्यागपत्र दे दिया था। वे सक्रिय राजनीति में उतर आये। वे पूर्ण कर्मयोगी थे और आत्मत्याग में विश्वास रखते थे । उन्होंने राजीतिक कार्य को अपने जीवन का ध्येय बना कर अपने को उसमें समर्पित कर दिया। कष्ट रहने की उनमें अपरिमित क्षमता थी , कहते हें की तिलक के अतिरिक्त उनके समान किसी ने कष्ट सहन नहीं किया। उन्हें दस बार कारागार में डाला गया और वे जीवन के आठ वर्ष जेल में रहे।
उन्हें समझौतावादी रवैया पसंद नहीं था , विद्रोही प्रवृत्ति के थे और यही कारण था की उन्होंने काग्रेस में गाँधीवादी पक्ष के विरुद्ध सदैव वामपंथी विरोधी पक्ष का साथ दिया। उन्होंने १९२३ में एक असहयोगी के रूप में अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया बाद में में चितरंजन दस के नेतृत्व में स्वराज दल में शामिल हो गए क्योंकि गांधीजी की नीतियों से उनको कोई सहानुभूति नहीं थी। १९२५-२७ तक उन्हें बर्मा में नजरबन्द रखा गया। इसके बाद ही उन्होंने स्वराज दल की राह छोड़ कर 'independence लीग ' के सदस्य बन गए। उनका नाम सुर्ख़ियों तब आया जब की उन्होंने १९३५ में भारतीय शासन अधिनियम में प्रस्तिवित संघ योजना की स्वीकृति का विरोध करने वाली शक्तियों का नेतृत्व किया।
१९४० में वे गुप्त रूप से देश छोड़ कर चले गए। मार्च १९४१ में वायुयान से काबुल से बर्लिन पहुंचे। देश से निकल भागने से लेकर उनके बर्लिन से जर्मनी पहुँचाने तक की वीर गाथा है।२७ फरवरी १९४२ को उन्होंने बर्लिन से ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के विरुद्ध भयंकर प्रचार अभियान चलाया और विभिन्न स्थानों से वर्षों तक प्रसारण करते रहे। जून १९४३ को वे जापान पहुंचे थे और ५ जुलाई १९४३ को उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना की घोषणा की। उस समय उनकी फौज मे साठ हजार भारतीय शामिल थे.फरवरी १९४४ से अप्रैल १९४५ तक आजाद हिंद फौज ने मित्र राष्ट्रों की सेनायों के विरुद्ध अभियान चलाया और भारत भूमि पर प्रवेश में सफल हो गए ।
उनकी कहानी ८ अगस्त १९४५ को उनकी विमान दुर्घटना में मृत्यु घोषित कर दी गयी , जब की यह मात्र एक नाटक था। नेताजी यहाँ के नेताओं की नीतियों से असंतुष्ट तो रहे ही बल्कि इनके कुछ समझौतों के तहत सामने नहीं आ सके। वे अपने ही देश में आजाद हवा में सांस न ले सके। उन्होंने गुमनामी का जीवन किया।
इस बात का जिक्र उनकी आजाद हिंद फौज के सेनानी मानवती आर्या ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया है कि न कोई विमान दुर्घटना हुई और न ही नेताजी का निधन हुआ। लेकिन राजनीतिक षड्यंत्रों के चलते वे हमेशा के लिए गुमनामी के अँधेरे में जीते रहे और और अपने ही देश में गुमनाम चले गए।
नेताजी को आज शत शत नमन !
आज के दिन को आपने यादगार बनाया .... नेता जी को शत शत नमन
जवाब देंहटाएंनेता जी को शत शत नमन्…………आज के दिन की सुन्दर उपलब्धि ।
जवाब देंहटाएंभारत माता के महान सपूत को मेरा भी सलाम.... !
जवाब देंहटाएंप्रासंगिक आलेख!
जवाब देंहटाएंनेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर उनको शत शत नमन!
सुभाष चन्द्र बोस को नमन ..
जवाब देंहटाएंउस महान नेता को नमन
जवाब देंहटाएंनेता जी को शत शत नमन है.
जवाब देंहटाएंराजनीति में न जाने कितने लोग गुमनामी की भेंट चढ जाते है। सुभाष चन्द्र बोस को विनम श्रद्धांजलि।
जवाब देंहटाएंनेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर उनको शत शत नमन
जवाब देंहटाएंनेताजी को शत शत नमन....
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर की गई है। चर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी मंच में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान करेगी......
neta ji ko naman, jay hind.
हटाएंनेताजी को शत शत नमन....
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