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बुधवार, 27 अगस्त 2014

बुजुर्गों का भविष्य !

                                         
 अखबार में पढ़ी हुई कई घटनाएँ हमें विचलित कर जाती हैं लेकिन कुछ तो  अपने पीछे इतने सारे प्रश्न छोड़ जाती हैं कि उनके उत्तर खोजने में और कितने सवाल सामने उठ खड़े होते हैं।  सभी प्रश्न हमारे समाज के हो रहे नैतिक अवमूल्यन से जुड़े होते हैं।  हमें झकझोर  देते हैं लेकिन फिर भी उन घटनाओं को पढने वालों में से कितने अभी भी पुरातन मूल्यों के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं --
* कुलदीपक बेटा ही होता है। 
* वंशबेल बढ़ानेवाला बेटा ही हो सकता है। 
* बेटा चाहे आवारा , बदमाश या कुल के नाम को डुबाने वाला ही क्यों न हो ? लेकिन होना चाहिए। 
                      बेटे की चाह में चाहे कितनी ही बेटियों की बलि चढ़ा दी जाय , उनको गर्भ में ही मार दिया जाय।  बेटी पैदा करने वाली माँ को कभी सम्मान नहीं मिलता।  बेटियां चाहे अपने घर के साथ दोनों घर की फिक्र करती रहें लेकिन वह बेटे की जगह नहीं ले सकती है। 

        आज सुबह सुबह जब अखबार में पढ़ा तो लगा कि उनके एक नहीं तीन तीन बेटे हैं।  सभी इतना तो कमाते ही हैं कि मिल कर माता पिता का पेट पाल सकें।   उन्होंने  खेतों में हल चला कर बेटों को पाला होगा , पढ़ाया लिखाया भी होगा क्योंकि बड़ा बेटा फौज से रिटायर्ड है और शेष दोनों  फैक्ट्री में नौकरी करते हैं।  
९० वर्ष के रोशन लाल और ८५ वर्ष की उनकी पत्नी कटोरी देवी को बेटों द्वारा प्रताड़ित करने की बात रोज की थी।  लेकिन इस उम्र में वे  सहन करने को मजबूर थे फिर एक  दिन कुछ ऐसा हुआ कि उनकी सहनशक्ति ने शायद जवाब दे दिया।  वे घर से निकल कर कसबे पहुंचे और सड़क के किनारे दोनों रोते रहे और फिर अपने जीवन का फैसला  ले लिया।  वे एक सड़क से कुछ दूर  खाली पड़े प्लाट में मृत मिले।  सल्फास की  गोलियों  की शीशी उनके पास मिली , जिसमें दोनों ने ६ गोलियां खायीं थी।  गाँव वालों ने बताया कि  रोशन लाल के तीन बेटे तो थे लेकिन रोटियां देने वाला कोई न था।   लम्बे समय से वे दोनों पड़ोसियों की दया पर जी रहे थे।  वही उनको खाना देते थे।  
                                 जो बेटे जीते जी पेट भरने को न दे सके हो सकता है कि वे उनकी अंतिम क्रिया और तेरहवीं बड़े धूम धाम से करें और समाज के लिए कल उनका श्राद्ध भी करें लेकिन क्या जीते जी उनको भूखा रखने वालों के घर किसी को तेरहवीं और श्राद्ध में भोजन ग्रहण करना चाहिए।  
                                 मेरे विचार से तो बिलकुल भी नहीं।  जिन्हें  समाज की न सही अपने जनक जननी के प्रति अपने दायित्व के प्रति जिम्मेदारी न बनती हो तो ऐसे लोगों को वो पैसा अपने लिए बचा कर रखना चाहिए क्या पता कल उनका भी यही भविष्य हो ?  अरे इस जगह ये तो भूल ही गयी बेटों का ये गुमान कि उनको तो जब तक जिन्दा रहेंगे सरकार पैसे देगी ही , वे किसी के मुंहताज नहीं होंगे जब कि  उनके किसान पिता को कोई पेंशन देने वाला नहीं था।  बेटों के रूप में जो दौलत उन्होंने तैयार की थी वह तो उन्हें धोखा दे गयी।  फिर बेटे किस लिए ? ऐसे ही कितने बुजुर्ग हैं ,  जो रहते तो बेटे के पास हैं लेकिन बीमार होने पर बेटी के घर भेज दिए जाते हैं और बेटी उनका उपचार भी करवाती हैं और कुलदीपक  कहे जाते हैं बेटे।  
                                  इस जगह हम संस्कारों की दुहाई नहीं दे सकते हैं  क्योंकि मानवता कोई संस्कार नहीं बल्कि हर व्यक्ति में पलने वाली भावना है।

सोमवार, 18 अगस्त 2014

चट मंगनी पट ब्याह : कितना उजला कितना स्याह !

                                  '' विवाह " जैसी सामाजिक संस्था का अस्तित्व जितना महत्वपूर्ण दशकों पूर्व था वैसे अब नहीं रह गया है।  शिक्षा , प्रगतिवादी विचारधारा और पाश्चात्य  स्वरूप ने अपने  तरह से उसे  पूरी तरह से बदल दिया है।  लडके और लड़कियों के प्रतिदिन  बदलते विचारों ने इसके स्वरूप को प्रभावित किया है।  अब दोनों को ही अपने इस रिश्ते के बारे में निर्णय लेने के लिए माता - पिता के साथ बराबर की भागीदारी कर रहे हैं।  इसके बाद भी पहल के रूप में माता - पिता इस निर्णय को अपने हाथ में ही रखना चाहते हैं - वह अच्छी बात है कि  उन्होंने दुनियां देखी होती है लेकिन आज के बदलते माहौल और विचारों के चलते सोचने को मजबूर कर दिया है कि क्या इसको बनाने से पहले कुछ खास सावधानियां बरतनी चाहिए ?  


                                    सबसे पहले चाहे माता पिता हों या बच्चे अपने जीवनसाथी के रूप में आर्थिक , सामाजिक और व्यावसायिक तौर पर अपने स्तर का साथी चुनना अधिक पसंद करते हैं. इस दिशा में कभी कभी बहुत देर भी हो जाती है।  उस स्थिति में माता - पिता की रातों की नींद गायब हो जाती है।  बेटी/बेटे  की बढती उम्र और अपने दायित्व के प्रति अपराध बोध उन्हें घेरने लगता है।  फिर वे मनचाहा वर मिलने पर या उसकी जानकारी मिलने पर आतुर हो उठते हैं कि अगर ये रिश्ता हो जाए तो मन मांगी मुराद मिल जायेगी।  इस दिशा में वे ऊपरी तौर पर जानकारी हासिल कर लेते हैं,  लेकिन उसके विषय में गहन छानबीन नहीं करते है क्योंकि उन्हें ये भय रहता है कि अधिक छानबीन करने से अगर लडके वाले नाराज हो गए तो ये भी लड़का हाथ से न निकल जाए। गुपचुप कहीं रिश्तेदारों और पड़ोसियों को पता न चल जाए और कुछ ऐसा हो कि रिश्ता न हो।उनकी ये सोच उन्हें कभी कभी बहुत बड़ा धोखा दे जाता है।  जिससे लड़की और लडके  की ही जिंदगी बरबाद हो जाती है।  
                                   वैवाहिक साइट और विज्ञापन में तो और अधिक धोखा होता है लेकिन कभी कभी खुद से खोजे हुए रिश्ते भी इतने धोखे वाले साबित हो जाते हैं कि जीवन या तो एक बोझ बन जाता है या फिर उस बच्ची/बच्चे  को जिंदगी से ही हाथ धोना पड़  जाता है।  कहते हैं न कि अगर बेटी एक साल पिता के घर में कुमारी बैठी रहे तो समाज को मंजूर है लेकिन विवाह होने के बाद अगर वह दो महीने भी पिता के घर रह जाती है तो कितना ही पढ़ा लिखा समाज हो - उंगली उठाने लगता है।  तरह तरह के कटाक्ष माता पिता और बेटी पर किये जाते हैं।  चट मांगनी पट ब्याह होना बुरा नहीं है लेकिन उस समय में तैयारी के साथ साथ छानबीन भी उतनी ही जरूरी है।
                                       करुणा के माता पिता ने उसके ग्रेजुएट होते ही शादी करने की सोची।  उन्हें एक बहुत अच्छा लड़का मिला बहुत पैसे वाले लोग , लड़का इकलौता  था और पिता के साथ बिज़नेस संभाल रहा था। किसी रिश्तेदार ने बताया था।  कुछ उम्र का अंतर था लेकिन देखने में लड़का ठीक ही लग रहा था।  विवाह के बाद कुछ दिन तो ठीक रही लेकिन पति तो रोज कुछ  कुछ दवाएं खाता रहता था. उसने कभी पूछा तो कह दिया की विटामिन्स है।  इतना तो उसको पता ही था कि विटामिन्स में और इन दवाओं में कितना अंतर है ? करुणा की बड़ी बहन डॉक्टर थी ,  एक दिन करुणा ने सोचा कि दीदी से ये दवाएं होंगी तो लेती आउंगी और पति की दवाओं के पत्ते लेकर बहन के यहाँ गयी।  उसकी बहन ने देखा  तो पैरों तले जमीन खिसक गयी।
                                   उसके पति की दवाएं शुगर और किडनी से सम्बन्धी रोगों की थी।  उसने अपने तरीके से उस डॉक्टर से संपर्क किया जो उसके बहनोई का इलाज कर रहा था।  पता चला कि उसका पैंक्रियाज की स्थिति बदतर हो चुकी थी।  शुगर अनियंत्रित थी और हार्ट और किडनी की स्थिति भी ठीक नहीं थी।  तरुणा की आँखों के आगे अँधेरा छा गया।
                                  उसने सीधे से करुणा के ससुराल अपने माता पिता के साथ जाकर बात की तो सच ये था कि उनके बेटे की जिंदगी कुछ ही सालों की डॉक्टरों ने बतलाई थी , इसी लिए जल्दी से शादी की जिससे बहू को कोई बच्चा  हो जाएगा तो घर को वारिस मिल जाएगा और फिर बहू भी बच्चे को लेकर कहाँ जायेगी ? उनके बुढ़ापे का सहारा बना रहेगा।
                                   धोखाधड़ी का मामला बन रहा था लेकिन वो आपसी सहमति से तलाक के लिए तैयार हो गए और करुणा अपने घर आ गयी।  उसको विवाह जैसे संस्कार से घृणा हो चुकी है।
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                           स्मिता के माता पिता ने  २२ लाख रुपये खर्च किये थे अपनी बेटी की शादी में , बड़ी कोठी ,  लड़का कनाडा में इंजीनियर और पिता बैंक का मैनेजर। स्मिता के स्थानीय रिश्तेदारों ने कुछ कहना चाहा तो उन लोगों को लगा कि हमारी बेटी को इतना अच्छा घर और वर मिल रहा है सो सबको जानकारी कर लेने की बात सूझ रही है।  उन लोगों  देखते ही हाँ कर दी  और तुरंत सगाई हो गयी।  लड़का फिर बाहर चला गया।  लडके और लड़की में बातचीत होती रही।  सब कुछ अच्छा था।  लड़की को नौकरी छोड़ने को कहा गया और उसने शादी से पहले ही नौकरी छोड़ दी। 
                          शादी के कुछ महीने के बाद लड़का वापस कनाडा और स्मिता उसके माँ बाप के पास।  तरह तरह से परेशान करना।  गर्भवती हो गयी तो मायके भेज दिया ये कह कर - जब तुम्हारे बाप के पास खाने को ख़त्म हो जाए तो चली आना।  उसके वहीँ पर अपने मां के घर बेटी हुई लेकिन ससुराल से कोई भी देखने नहीं आया।  पति भी नहीं।  ससुर ने सारी  संपत्ति बेटी के बेटे के नाम कर दी।  
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ये सिर्फ लड़कियों के मामले में लागू नहीं होता बल्कि लड़कों के मामले में भी ऐसे ही धोखे दर्ज हैं  कभी कभी तो ऐसे धोखे सामने आते हैं कि सामने वाले की जिंदगी ही तबाह हो जाती है। 
                          रमन की शादी किसी रिश्तेदार ने ही करवाई थी , बहुत करीबी का नाम लेकर रिश्ता आया था।   रिश्तेदार थे सो खोजबीन की जरूरत नहीं समझी।  लड़की मानसिक तौर पर  बीमार थी।  बताती चलूँ मैं भी उसमें शामिल हुई थी।  शादी की रस्मों के बीच कुछ ऐसी हरकतें की कि  मुझे कुछ अजीब लगा लेकिन शादी हो गयी।  सिर्फ १ महीने बाद ही उसकी असामान्य हरकतें शुरू हो गयीं।  माँ आकर ले गयी और दामाद से  कहने लगी कि तुम भी साथ चलो इसकी बीमारी में पति का साथ होना जरूरी है।  
                          फिर वह वापस नहीं आई आया तो दहेज़ उत्पीड़न का नोटिस।  लड़का जेल गया , माता पिता की उम्र और बीमारी के देखते हुए जमानत मिल गयी।  दस साल तक कोर्ट के चक्कर लगाये और तब ३ लाख रुपये लेकर समझौता किया और तलाक दिया।  

             अनिल के माता पिता को पता चला कि उसका बेटा किसी लड़की को पसंद करता है और शादी करना चाहता है तो उन्होंने तुरत फुरत लडके की शादी अपने एक रिश्तेदार के बताए रिश्ते से कर दी।  वहां भी कुछ तो गड़बड़ा थी कि लड़की ने अपने पति को पति का अधिकार नहीं दिया और जब मन आये मायके चली जाए और जब मन हो यहाँ आ जाए।  इसी तरह से कई साल गुजर गए।  आखिर लडके ने अपनी माँ से कहा कि वह तलाक चाहता है तो वह तलाक देने को तैयार नहीं थी।  आखिर में उसने शर्त राखी कि  उसको २५ लाख रूपये दिए जाएँ तो वह तलाक़ दे सकती है।  अनिल के लिए ये  कीमत बहुत अधिक थी।  वह इतना पैसा दे नहीं सकता था लेकिन जिंदगी की कीमत पर उसने अपने  परिचितों से उधार लेकर पैसा इकठ्ठा किया और तब उसको तलाक़ मिला।
                           चट मंगनी पट ब्याह जरूर करें लेकिन उससे पहले पूरी जानकारी हासिल करके -  विज्ञापन या वैवाहिक साइट का भरोसा तो बिलकुल भी  न करें।  अपने को अनाथ बताने वालों से सावधान रहें।  पद , स्थिति और परिवार सम्बन्धी जानकारी लेकर ही निर्णय लें।
                                

          

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

संघर्ष उनका : गर्व हमारा या शर्मिंदगी !



                               पढने में कुछ अजीब सा लग रहा है ये शीर्षक लेकिन इससे ही वो भाव उभरते हैं जो हमें कहना है और वो महसूस करते हैं। 
                                जीवन में हर इंसान टाटा या बिड़ला की तरह भाग्यशाली नहीं होता है कि चाँदी की चम्मच मुँह  में लेकर पैदा हुए हों। जब एक पीढ़ी अभावों की  बलि चढ़ती है और खुद संघर्ष करती है तब जाकर अपनी आने वाली पीढ़ी को एक सुन्दर भविष्य देने में सफल होती है।  जब अपने संघर्ष की धूप  में फसल पकती हुई देखते हैं तो उनका सीना चौड़ा हो जाता है।  उनका संघर्ष उनके और उनके बच्चों या भाइयों के जीवन में जुड़ा वह पहलू है जिसके बिना जीवन और सफलता अधूरी ही है।  जिन सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ कर आप ऊपर पहुँच रहे हैं , वे कैसे धूप  , बारिश और सर्द हवाओं में काटी गयीं है , इसका अहसास आपको होना चाहिए।  
                               लेकिन इसके भी दो पहलू हैं - कभी कभी नयी पीढ़ी अपने माता - पिता के संघर्ष को मान देते हैं और उसको अपने लिए गर्व मान कर सबके सामने स्वीकार करती है।  तभी तो बच्चे अपनी डिग्री या तमगे अपने लिए जूझ रहे अभिभावकों को समर्पित करते हैं।  सब कुछ उनका ही किया होता है , पढाई का परिश्रम , अपना उसके प्रति समर्पण और मिली हुई सफलता।  फिर अगर वे किसी को समर्पित करते हैं तो वो आँखें उस समय आंसुओं से भीगी होती हैं और कृतज्ञ मन उनके आगे नत होता है। 
                           इसका एक पहलू ये भी होता है - अपनी सफलता के बाद तथाकथित बड़े लोग , अफसर या उच्च पद पर पहुँच कर अपना रसूख बनाने वाले अपने को इसका खुद जिम्मेदार मान कर बड़ी बड़ी बातें हांकने लगते हैं क्योंकि अगर उन्होंने अपने लिए संघर्ष करने वाले के विषय में बताया तो लोग क्या कहेंगे ? लेकिन क्या हम सच को बदल सकते हैं ? माता - पिता कैसे भी हों ? कभी शर्मिंदा होने की बात तो सोचनी ही नहीं चाहिए।  क्या ये कम है कि उन्होंने आप जैसे व्यक्तित्व को जन्म दिया।  भले ही उन्होंने भर पेट न खाया हो लेकिन आपको भूखा नहीं रखा।  कुछ लोग अपने सर्किल में ये भी बतलाने में शर्म महसूस करते हैं कि उनके पिता मीलों साईकिल चला कर नौकरी पर जाते थे और फिर कहीं पार्ट टाइम काम करके खर्च पूरा कर पाते थे।  उनका भविष्य बनाने के लिए उन्होंने अपना वर्तमान होम कर दिया।  
                           मेरी अपने एक मित्र से बात हो रही थी तो वे बोले कि मेरे संघर्ष के बारे में अगर मेरे बच्चे जान लें तो विशवास ही नहीं करेंगे क्योंकि उन्होंने तो मेरा वर्तमान देखा है और अगर मैं कहूँ भी तो विश्वास नहीं करेंगे और पता नहीं जानकार क्या सोचें ? उन लोगों ने तो मुझे एक अफसर की तौर पर ही देखा है और सारी  सुख सुविधाओं  सम्पन्न।  मेरा संघर्ष तो मेरी पत्नी को भी नहीं पता है।  
                             मैंने उनसे कहा कि आप अपना संघर्ष बयान करके उनको न सही औरों के लिए  एक नसीहत दे सकते हैं क्योंकि परिश्रम और संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता है।  उन्होंने मुझे बताया कि वे एक किसान परिवार में पैदा हुए जिसमें ३ बेटे और १ बेटी थी।  आमदनी के साधन सीमित ही होते हैं गाँव में।  स्कूल  से लौट कर जानवरों के लिए चारा पानी करना।  उनके बाड़े की गोबर आदि  हटा कर सफाई करना उसके बाद रात में पढाई करता था। आगे की पढाई के लिए गाँव छोड़ना पड़ा तो एक छोटा सा कमरा लिया।  खाना बनाना , बरतन धोना , कपडे और सफाई सब के बाद पढाई होती थी।   लालटेन की रौशनी में पढाई करनी होती थी।  जब अफसर बन गया तब लोगों ने जाना।  तब तक घर स्थिति भी ठीक हो गयी थी।  
                           मेरी पत्नी , ससुराल वाले और बच्चे सबने ऐसे ही देखा अगर कहूँ  विश्वास नहीं करेंगे और फिर न जाने क्या सोचें ? मेरा अतीत किसी पुरानी पत्रिका की तरह रद्दी का ढेर में कहीं दब गयी है। ये तो वह पक्ष है जिसे किसी ने जाना ही नहीं है। 
                           दूसरे पक्ष में नलिन जैसे लोग - बहुत बड़ी कंपनी में इंजीनियर।  रोज ही घर पर पार्टियां  हुआ करती हैं लेकिन अपने घर वालों को कभी शामिल ही नहीं किया।  ओहदा देख कर पत्नी के परिवार वालों ने विवाह कर दिया और वह भी बड़े घर के लोग।  अपने किसान पिता के बारे में किसी को क्या बताया जाय ? पार्टी में तो साले , सालियां शामिल होते , इष्ट मित्र होते।  बहन , भाई और माता पिता  उस श्रेणी में आते ही नहीं थे।  न पार्टी तौर तरीकों से वाकिफ और न वैसी महँगी ड्रेसेस का खर्च उठाने वाले।  छोड़ दिया उन सबको।  उसका बचपन से लेकर इंजीनियर बनाने तक का सफर  एक बदनुमा दाग है जिसको वह देखना ही नहीं चाहता है।  
                            आज नलिन जैसे लोग बहुत हैं और हमारे मित्र जैसे संकोची भी।  ये तो हमारे संस्कारों पर निर्भर करता है कि हम अपने अतीत को कैसे स्वीकार करते हैं।  अपने माता पिता के संघर्ष को मान देकर गर्व महसूस करते हैं या फिर उन्हें अपना काला अतीत मान कर शर्मिंदगी महसूस करने के साथ  उस पर मिटटी डाल कर दफन कर देते हैं।