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मंगलवार, 25 सितंबर 2012

संविधान क्या कहता है !

                      देश का पूरा शासन संविधान के अनुरूप ही निर्धारित होता है और फिर उसको समय की मांग के अनुरूप उसमें संशोधन भी होते रहते हैं और सबसे अधिक तो सत्तारूढ़ दल अपने स्वार्थ के अनुसार उसमें संशोधन  भी करते रहते हैं क्योंकि वे इस काम को करने के लिए सक्षम होते हैं। यहाँ केंद्र शासन, राज्य शासन या फिर स्थानीय शासन सभी कुछ तो इसमें परिभाषित किया गया है  -- सांसद, विधायक, पार्षद और उससे आगे चले तो ग्राम प्रधान सबके चुनाव से लेकर उनके दायित्व और हितलाभ तक सुनिश्चित है, लेकिन ऐसे लोगों द्वारा किया गया गैर जिम्मेदाराना काम या फिर बयान  देने पर या अपने क्षेत्र के जनाधार में निराशात्मक भावना भरने के एवज में कोई दंड निर्धारित किया गया है या नहीं . अगर नहीं तो फिर नेताओं , सांसदों, विधायकों या फिर पार्षदों की जुबान फिसलने पर या फिर जानबूझ कर दिए गए वक्तव्य पर दंड का प्रावधान होना चाहिए।
            लोकतंत्र में विपक्ष का एक महत्वपूर्ण स्थान है और विपक्ष तभी सदन में आता है जब कि जनमत उसको चुनकर वहां भेजता है . ये आवश्यक नहीं है कि पूरा देश या प्रदेश एक ही दल के लिए समर्थन दे। फिर अगर जहाँ से विपक्ष को चुना गया है तो उस क्षेत्र को विकास से वंचित रखने के बारे में दिया गया बयान  उनके लिए एक दंडनीय अपराध घोषित किया जाना चाहिए।
               अभी उत्तर प्रदेश में स्थानीय सरकार का चुनाव हुआ . मानी हुई बात है कि  कई प्रत्याशी होते हैं और उनमें सभी को अपने अपने इलाके के अनुसार मत भी मिलते हैं . लेकिन जो चुन कर आता है उसका दायित्व होता है कि  वह पूरे क्षेत्र की समस्याओं को समझे और उनको दूर करने के प्रयास करे लेकिन चाहे वे राजनीति का क ख ग न जानते हों लेकिन सुरक्षित सीट से चुन कर आये हुए प्रत्याशी भाषा ऐसी बोलना सीख लेते हैं जैसे की वे इस देश की सर्वोच्च पद पर आसीन हो गए हों। इस जगह पर रहते हुए 24 साल गुजर गए लेकिन विकास के नाम पर स्थिति कानपूर नगर नहीं बल्कि दूर दराज के गाँवों की तरह है। इस बार चुने गए प्रत्याशी ने साफ शब्दों में कहा कि  आप लोगों के एरिया से हमें मत मिले ही नहीं तो फिर विकास क्यों करवाएं?
              ये तो एक साधारण स्थिति रखने वाले जनप्रतिनिधि का बयान है यदि यही बयान कोई राज्य प्रमुख दे तो उसको क्या कहेगा हमारा संविधान? ऐसे ही बयान एक राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा दिया जाय तो उसको भी उचित  ही मान लिया जाय। वर्षों पहले जब सपा प्रमुख यहाँ के मुख्यमंत्री बने तो उनका भी ऐसा ही बयान था - यहाँ पर बिजली की बाधित आपूर्ति के विषय में जब उनसे कहा गया तो उनका बयान  कुछ ऐसा ही था  , ' जब आपने (कानपुरवासियों ) हमें यहाँ से चुना ही नहीं तो फिर बिजली की बात कैसे कह सकते हैं?'
     एक   संयुक्त परिवार का मुखिया अगर अपने परिवार में सदस्यों के साथ भेदभाव का व्यवहार करता है तो वह अपना सम्मान खो देता है . उसके घर के लोग ही उसके खिलाफ बगावत करने के लिए उठ खड़े होते हैं। फिर एक इतने बड़े प्रदेश का मुखिया इस तरह के भेदभाव भरे वक्तव्य दे . वह पूरे राज्य को एक दृष्टि से न देखे , उसके विकास के लिए स्थान की आवश्यकता के अनुरूप सहयोग न दे तो उसे असंवैधानिक  न कहा जाय ऐसा कैसे हो सकता है? मुखिया का ये दायित्व होता है की वह हर क्षेत्र को एक दृष्टि से देखे और उसके विकास के लिए समान रूप से प्रमुखता प्रदान करे।  फिर किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री अगर ऐसे कहे तो उसे कोई प्रदेश वासी सामान्य तौर पर कैसे ले सकता है? लेकिन वह कर भी कुछ नहीं सकता है क्योंकि सारी शक्तियां तो वह उन्हें सौंप कर अपनी जुबान और अधिकार खो ही चुका होता है.

                 अगर ऐसा नहीं किया जाता है , चाहे वह किसी भी स्तर  का जनप्रतिनिधि क्यों न हो? उसके लिए संविधान क्या कहता है?  अगर  नहीं कहता  है तो फिर उसको कहना  होगा क्योंकि अब जनप्रतिनिधियों के आचरण से जन ठगा हुआ महसूस करने लगा है। वह 5 साल के लिए जिनके हाथ में जिम्मेदारी सौपता है वे अगर गैर जिम्मेदार साबित होते हैं तो कुछ तो ऐसा होना चाहिए जिससे की वे अपने दायित्व को पूरा करने के लिए बाध्य किये जा  सकें .   देश की वर्तमान सरकार के कामों और प्रधानमंत्री का  अपने कामों को उचित बताते हुए अपनी और सत्ता की समझदारी और जनहित में किये गए निर्णयों की महिमा का गुणगान करते हुए जरा भी संकोच नहीं हुआ. अपने को देश का शुभचिंतक बतलाते हुए उनके जमीर ने भी उनको धिक्कारा नहीं. आम आदमी का अर्थशास्त्र बताने वाले अर्थशास्त्री यहाँ के आम आदमी के बारे पूरी तरह से जानते तक नहीं हैं. इतने बड़े राष्ट्र का कार्यभार अपने हाथ में लेकर जब ऐसे गैर जिम्मेदाराना निर्णय या फिर देश के जन के विरोध और विचारों को ताक पर रख कर विधेयक अपनी बहुमत से पारित करने की शक्ति का दुरूपयोग करने में हिचकते नहीं है उनके लिए संविधान क्या कहता है? क्या ये भारत में होने वाला लोकतंत्र एक निरंकुश लोकतंत्र बन कर रह जाएगा. अगर नहीं तो फिर संविधान में क्या प्रावधान है और नहीं है तो फिर उसकी जरूरत महसूस की जाने लगी है. पूरा देश लोकपाल बिल के लिए एक साथ खड़ा था लेकिन सत्तादल की इच्छा के अनुरुप न होने के कारण वह पास नहीं हो सका. फिर क्या होना चाहिए?  

रविवार, 23 सितंबर 2012

सुर-क्षेत्र कहीं बन न जाए कुरु क्षेत्र !

                  वैसे तो टीवी सीरियल देखने का समय कम ही रहता है ठीक वैसे ही मैं क्रिकेट मैच देखने के विषय में कह सकती हूँ  क्योंकि मैं जिस क्षेत्र में रहती हूँ वह संवेदनशील क्षेत्र की श्रेणी में आता है , जो कुछ विस्फोटों का गवाह  है .  जब भारत और पाकिस्तान का मैच होता है तो एक सन्नाटा होता है और कोई भी जीते  पटाखों की गूँज आपको समाप्ति पर बेतहाशा सुने देगी।  मानसिक तौर  पर एक शीत युद्ध  स्थिति  दिखलाई  देती है। सिर्फ हम यहीं क्यों कहें ? ऊपर से हम कितनी ही मित्रता की हामी भरें लेकिन इससे आगे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। 
                  अब पिछले हफ्ते से कलर टीवी पर सुर-क्षेत्र एक गायन का सीरियल शुरू हुआ है। भारत और पाकिस्तान के सुर के बादशाह इसमें आमने सामने  हैं और इनकी अगुआई के लिए हैं - पाकिस्तान के आतिफ जी और भारत के हिमेश रेशमिया जी। इसको जरूर मैं ध्यान से देख रही हूँ। यद्यपि सुरों के विषय में  विशेष जानकारी नहीं है लेकिन गायन तो सिर्फ सुनने से ही पता चल जाता है कि  किधर जा रहा है और लोकप्रिय गानों के विषय में एक इमेज  तो अपने सामने होती ही है। ये प्रोग्राम कल से शुरू हुआ है और मुझ जैसे अनाड़ी  आदमी को ये लगने लगा है कि  दोनों टीम के कैप्टन में पाकिस्तानी टीम के श्री आतिफ जी की जो प्रतिक्रिया भारतीय गाने वालों के लिए होती है , उससे जो झलकता है वो मैं खुद नहीं कहना चाहती हूँ , क्योंकि इसको देखने वाले खुद ही महसूस कर सकते हैं। उन्हें किसी भी भारतीय गायक में बिना कमी निकाले समीक्षा नहीं की। भारत की नीतियों के तहत हिमेश रेशमिया जी ने अपने आपको बहुत संयत और संतुलित होकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। वैसे दोनों ही दलों के कैप्टेन को संयत और संतुलित होना चाहिए क्योंकि सारे  प्रतिभागी उनके अनुसार बराबर हैं। . 
                    आज जज के तौर उन्होंने आशा भोंसले जी पर जो उंगली उठाई और उसके एवज में आशा जी का या कहना कि ' मुझे लगता है कि  मैं इस कुर्सी के काबिल नहीं हूँ। ' इस बात का द्योतक है कि  ये अभी आरम्भ में इस तरह से आरोप वह भी भारतीय जज पर क्या प्रदर्शित करता है? यहाँ भारत और पाकिस्तान के बीच जमीनी सरहदों  को ख़त्म करने का ये प्रयास कहीं सुर-क्षेत्र को कुरु क्षेत्र में परिवर्तित न कर दे। हम कितना भी तटस्थ रहे लेकिन वह भावना जो किसी के दिल में रहती है बातों  में झलकने लगती है तो कष्ट होता है। मेरे विचार से ये कार्यक्रम अगर तटस्थ होकर सम्पन्न हो तो ये दोनों ही देशों के हित में है।

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

200 का सफर : चार साल !

                           

          आज  ब्लोगिंग के इस ब्लॉगवुड  ( इस शब्द  परिचय अभी हाल में ही हुआ है  ) में चार साल हो गए . इस लम्बे सफर में चलते चलते 5 मैंने ब्लॉग बनाये , जिनको किसी न किसी उद्देश्य से बनाया है . आज ये  भी  इत्तेफाक  है कि ये पोस्ट मेरी इस ब्लॉग की 200वीं पोस्ट है।
                     इसा सफर में बड़े खट्टे मीठे अनुभव मिले , बहुत सारे साथी मिले ,  आलोचक मिले , रिश्ते मिले और कुछ मिलकर छूट भी गए लेकिन इसका मलाल रहेगा कि उन रिश्तों को छोड़ने की वजह पता चल जाती तो कष्ट नहीं होता ,लेकिन कोई बात नहीं ये तो आभासी  दुनियां है। यद्यपि इस के लिए सीमित समय होता है फिर भी कोशिश   होती है कि  लेखन का काम निरंतर चलता रहे। इस कलम की गति अवरुद्ध  न हो . 
          वैसे तो आज के दिन मैंने अपना पहला ब्लॉग " hindigen "  बनाया था और इस को  मैंने  सिर्फ कविताओं के लिए ही रखा. और आज भी सिर्फ कविताएँ ही इसमें पोस्ट करती हूँ. चूंकि लेखन कार्य मेरा बचपन से चल रहा है लेकिन जो लिखित संचय था उसको ब्लॉग के माध्यम से एक मंच पर लेकर संचित कर दिया . कविता मेरा पहला शौक है और लेख बाद में लिखने शुरू किये. इसलिए पहले कविता का ब्लॉग ही बनाया गया था. ब्लॉगवुड में कदम रखने के बाद प्रकाशन के लिए अपनी रचनाएँ भेजनी प्रायः बंद ही कर दी हैं . जब तक ब्लॉग नहीं था तो छपने के लिए पत्र और पत्रिकाओं में भेजती रहती थी. लेकिन अब नहीं. न इसमें किसी संपादक की स्वीकृति की जरूरत है और न ही कागज पर लिख कर उनके नियमों में बंधकर चलने की. मेरी जमीन है और इस पर लगाये हुए पेड़ और पौधे भी मेरे ही हैं जिनके फूलों की खुशबू जरूर सबके लिए है.  (www.hindigen.blogspot.com) 
 
मेरे ब्लॉग में दूसरा ब्लॉग 'यथार्थ " है    मेरे लेखन में यथार्थ की कटु सत्य कहने वाली पोस्ट भी रही हैं और इस तरह के  की घटनाओं का " यथार्थ " में लेखन होता है। जीवन बहुत बड़ा गुजर चुका  है और  जितना गुजर चुका है उतना शेष नहीं है सो एक संवेदनशील ह्रदय और कर्मशील कलम ने जो रच  पाया उसको इसमें ही जमा कर दिया और अभी ये सफर चलता ही रहेगा। (www.kriwija.blogspot.com )
                    
             मेरा तीसरा  ब्लॉग है "
मेरा सरोकार " जिसमें मैंने सामाजिक राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक विषयों को भी लिया है और उन को ऐसे ही नहीं छुआ है बल्कि उसमें गहन रूचि और अधिकार रखते हुए छूने का दुस्साहस किया है. समसामयिक घटनाओं पर कलम चली है . वह कितनी सफल  रही इसका आकलन को मैं खुद नहीं कर सकती लेकिन लिखना मेरा काम है और आकलन औरों का . इसमें भी लेखनी का मान  है कि वह लिखती ही रहे जरूरी नहीं कि उसको प्रशस्ति ही मिले आलोचना मिले या समालोचना, उसने अपने काम को जब से शुरू किया है तब से निरंतर चल ही रही है और ईश्वर से प्रार्थना है कि ऐसे ही चलती रहे. (www.merasarokar.blogspot.com)
                   
     मेरे चौथे ब्लॉग को मैंने "
मेरी सोच "   नाम दिया क्योंकि हर इंसान की अपनी एक अलग सोच होती है हर विषय में और उसके विषय में मैं क्या सोचती हूँ? इसको लेकर ही लिखा गया है. विषय सामाजिक और मनोवैज्ञानिक ही रहते हें लेकिन अपनी सोच को - अपने काउंसलर के काम से जोड़ कर जब देखती हूँ तो एक नई सोच और निष्कर्ष निकलते हें जो एक नया विषय या सोचने का मुद्दा दे जाते हैं , ऐसा नहीं है ऐसे हालात तो समाज में ही पैदा होते हैं और समाज में ही पलते हैं लेकिन उनके निदान के विषय में सोच कर कुछ लिखने का प्रयास किया गया है. जिनमें सिर्फ मेरे विचार ही हैं कि मैं उस विषय को किस तरह से सोचती हूँ.  (www.rekha-srivastava.blogspot.com)
                         मेरा पांचवा ब्लॉग "
कथा-सागर" कहानी के लिए बनाया है . लेकिन कथा कहानी इतनी लम्बी होती हैं और उनको लिखने में कभी कभी इतना बिलंव हो  जाता है कि कहानी का तारतम्य टूट जाता है . इसलिए फिलहाल एक लम्बे समय से अधूरी कहानी लिए शांत पड़ा है. उसे पूरी कर पाऊँगी भी या नहीं कह नहीं सकती लेकिन कभी नई कहानी लेकर जरूर ही आउंगी. ये कहानियां भी सब हमारे आस  पास ही पलती हैं और कभी वही कहीं गहरे तक उतर कर चुपचाप कब शब्दों में ढल जाती हैं ? ये तो लिखने के बाद ही पता चलता है.  (www.katha-saagar.blogspot.com)
                          इन पांच ब्लॉग को संभाले हुए चार साल पूरे किया जिनमें २ ब्लॉग " hindigen "  और "मेरा सरोकार "  तो २०० पोस्ट पूरी करके आगे निकल चुके हैं. शेष अभी चल रहे हैं मंथर गति से. कुछ शतक लगा चुके और कुछ लगाने की दिशा में बढ़ रहे हैं.
                          अपने ब्लॉग वुड में चार वर्ष पूरे करने पर मैं अपने सभी साथियों को धन्यवाद कहूँगी जिन्होंने मुझे यहाँ पर अपने साथी के रूप में स्वीकार किया . मुझे अभी भी इस दिशा में ब्लॉग की साज सज्जा की दृष्टि से अल्प ज्ञान ही है और जो भी अभी तक सीखा है सब अपने साथियों से ही सीखा  है. बस इसी तरह से अपना स्नेह बनाये रखे यही कामना करती हूँ.

                    

बुधवार, 19 सितंबर 2012

सरकार : अपराध व आत्महत्याएं !

                              सत्ता में आकर मद तो आ जाता है लेकिन लोकतंत्र में इतनी मदमस्त सरकार आई ही नहीं और शायद इससे सबक लिया तो कोई आएगी भी नहीं। इतनी ढीठ सरकार रोज बा रोज खुलते घोटालों     के बाद भी महंगाई की दर दिन पर दिन बढाती चली जा रही है . जो निर्णय सिर्फ और सिर्फ एक दल के हैं साझा सरकार होने के बाद भी वह निर्णय खुद लेती चली जा रही है और इसी का परिणाम है की उसके सहयोगी दलों ने समर्थन वापस लेने निर्णय ले लिए है।
                            
                       राजनीति में इसका असर जो भी हो लेकिन समाज में  इसके प्रभाव  को एक समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक  इस बात को बहुत अच्छी तरह से जान चुके हें कि अब सामाजिक परिदृश्य क्या होने वाला है? अब इस मंहगाई के दौर में बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा व्यक्ति इसका शिकार बनने लगा है. अगर वह गाड़ी में चलने वाला है तो रोज ब रोज पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने से उसकी जेब अधिक हल्की  होने लगी है. उनकी हर महीने होने वाली बचत घर के खर्च पूरे करने में खर्च होने लगी है. फिर वह संतुलन कहाँ से बना पायेगा . कर्ज कहाँ से ले कर काम चलाएगा और कर्ज एक बार ले भी लिया तो फिर उसको चुकाएगा कहाँ से? जहाँ पर अंधी कमाई है उन्हें इसके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता है लेकिन इसमें सबसे अधिक त्रसित मध्यम वर्ग और श्रम जीवी वर्ग या निम्न  वर्ग  होने वाला है.
                             ये मध्यम वर्ग न तो अपने बच्चों को भूखा मरता हुआ देख सकता है और न ही अपने को उनके आगे असहाय दिखा सकता है. फिर क्या करेगा वह? दिन पर दिन बढ़ती मंहगाई की दर नके चलते ,जो बच्चे कहीं पढ़ रहे हें और माता पिता पेट से कटौती करके उन्हें खर्च भेज रहे हें , वे क्या करेंगे? घर में रहने वाले बच्चों का पेट भरेंगे या फिर उस बच्चे को भेजेंगे. अगर नहीं भेजेंगे तो वह बच्चा क्या करेगा? उसको वहाँ रहकर भी मंहगाई की मार झेलनी है. परिणाम मानसिक दबाव बढ़ने से या तो बच्चा ख़ुदकुशी की कगार पर आ कर खड़ा हो जाता है या फिर माता पिता. हर इंसान इतना दृढ इच्छा शक्ति वाला नहीं है कि वह इन आने वाली परिस्थितियों से लड़ सके. पैसे और खर्चे के लिए घर में बढ़ता हुआ तनाव उन्हें क्या देगा? सिर्फ अवसाद और कुंठा - इससे छुटकारे की आशा भी वह नहीं देख पाता है क्योंकि न तो उसकी आमदनी बढ़ने वाली है और न ही मंहगाई कम होने वाली है. रोज रोज नए नए करों के नाम पर , एक डीज़ल में दाम बढ़ा देने से बाकी चीजों के दाम खुद बा खुद बढ़ जाने वाले हें. क्योंकि जब ट्रक आदि का भाडा बढेगा तो आने वाली चीजें खुद ही मंहगी हो जायेंगी. कहाँ से वह खाना खिलायेगा और कहाँ से वह बीमारी के आने पर इलाज करा पायेगा ? जब वह खुद को असमर्थ पायेगा तो न तो उससे बीमार की तकलीफ और दर्द सहन होगा और न ही वह उसके लिए अच्छा इलाज उपलब्ध करा पायेगा और फिर अवसाद की हालात में उसको सिर्फ और सिर्फ आत्महत्या जैसी चीज सबसे सहज लगती है. कोई बेकारी से परेशान होकर, कोई खर्च पूरा न कर पाने के लिए, कोई निरंतर कर्ज में डूबते जाने से परेशान हो कर क्या करेगा? आज के हालात में उनके कंधे पर कोई हाथ रखने वाला भी नहीं मिलेगा क्योंकि आज के इस दौर में सभी परेशान होकर जीवन गुजार रहे हें.
                            अगर वह अपने को किसी तरह से काबू कर भी लेता है और आत्महत्या जैसे त्रासदी से खुद को बचा लेता है तो फिर उसका दिमाग किसी और तरफ भी जा सकता है. एक परिपक्व व्यक्ति इस काम से दूर जरूर रह सकता है लेकिन युवा पीढ़ी जिसके भटकने की सबसे ज्यादा आशा होती है. अपराध की दुनियाँ में कदम रखने में जरा सा भी संकोच नहीं करता है. जो युवा आज बाइक पर सवार होकर चेन खींचने में जरा सा भी संकोच नहीं करता है, बैंक से रुपये लेकर जाते हुए लोगों को लूट सकता है , बैंक लूट सकता है और इस तरह से बढ़ती हुई मंहगाई में वो बच्चे भी जो संवेदनशील है और ऐसे कामों में विश्वास नहीं रखते हें वे भी मजबूर होकर खुद को इस रास्ते पर धकेलने में जरा सा भी संकोच नहीं करेंगे क्योंकि संवेदनशील होने के नाते उन्हें घर के हालातों से दो चार होते हुए माता पिता को रोज देखना होता है. उनकी मजबूरी और संघर्ष  उनके संवेदनशील मन को मंजूर नहीं होता है और वे अगर अपने पर काबू नहीं कर पाते है तो वे इस अपराध की दिशा में अपने काम बढ़ा देते हें. जब बड़े लोगों के बेटे पिता से बाइक मिलते ही अपने शौकों को पूरा करने के लिए इस दिशा में बढ़ाने को मजबूर कर देते हें लेकिन गरीब का बेटा अगर इस तरफ बढ़ जाता है तो फिर उसका सारा भविष्य बर्बाद हो जाता है और फिर वह कहीं पुलिस की गोली का शिकार हो जाता है या फिर  अपने मित्रों की साजिश का शिकार हो कर मरता है. अभी अपराध में कमी नहीं है लेकिन सरकार की इन नीतियों के चलते अपराध का ग्राफ कहाँ पहुँचता है इसको अभी देखना बाकी है.
                      आज वरिष्ठ नागरिक घर में सुरक्षित नहीं है, क्यों नहीं है? इसके पीछे समाज में मची हुई पैसे की तंगी है, कभी कोई मजदूर बन कर आया और मार कर सब लूट ले गया. वरिष्ठ नागरिक ही क्यों ? गृहिणी जो घर में अकेले रहती हें वे कब सुरक्षित है? इसके पीछे क्या कारण है ? इसके बारे में बताने की जरूरत नहीं है. बैंक से निकल कर घर जाते हुए कितने लोग लूट लिए जाते हें किस लिए? या तो फिर अय्याशी के लिए या फिर मजबूरी में घर के खर्चों को पूरा करने के लिए. जो अपराध करते हें वे हालात के मजबूर ही होते हें और देश की जो स्थिति अब आगे होने वाली है उससे देश चलने वाले वाकिफ नहीं है क्योंकि उनकी दृष्टि से देश में जो गरीबी का पैमाना है उससे तो अभी देश में बहुत खुशहाली है.
                              ये तो निश्चित है कि सरकार की इस नीति से जहाँ पर उसको न जन से मतलब है और न जनमत से देश में एक बहुत बहुत बड़ा परिवर्तन होने वाला है , जिसकी पूरी तरह से सत्ता दल ही जिम्मेदार होगा . इस लोकत्रांतिक देश का एक नया स्वरूप अब जो होने वाला है उसको रोकने  के लिए हम अगर सक्रिय न हुए तो फिर हमारा और हमारे समाज का स्वरूप ही बदल जाएगा.

रविवार, 16 सितंबर 2012

ओजोन परत संरक्षण दिवस !

चित्र गूगल के साभार 
                                         

                              आज ये सब पढ़कर याद आता है कि  बचपन में अपनी दादी के मुँह से सुना था -  एक जमाना वह आएगा कि  लोग दिन में सोया करेंगे और रात में काम करेंगे। तब इसका अर्थ समझ नहीं आता था, लेकिन सुन लेती। आज हमेशा की तरह याद रह जाने की आदत में एक स्मृति यह भी संचित रह गयी।  वे न ओजोन परत के बारे में जानती थीं और न 1977 में जब उनका स्वर्गवास हुआ तब तक इस तरह की कोई बात सुनाई  दी थी। 
                               
                               आज तो सिर्फ सुन नहीं रहे हैं बल्कि सुनकर और उसको झेलकर भी हम उससे अनजान बने उसकी उपेक्षा कर रहे हैं। आज ओजोन परत संरक्षण दिवस है।  ओजोन की परत है  जो हमें सूर्य की पराबैंगनी किरणों (अल्ट्रावायलेट रेज ) से सुरक्षित रखती हैं . ये पराबैंगनी किरणें हमारे लिए बेहद घातक  है - इससे  रोग   प्रतिरोधकता क्षमता का ह्रास हो रहा है। रोज नयी नयी समस्याएं जो देखने में आने लगी हैं इसके पीछे एक कारण यह भी है। इससे त्वचा कैंसर, आखों की बीमारियाँ , शिशुओं में विकलांगता का होना और खेतों में पैदा होने वाली फसलों के उत्पादन में भी इसका असर होता है। वही हमारी सेहत पर अपना प्रभाव डालती हैं। 
 
                 हम  इस ओजोन परत क्षरण में कैसे भागीदर हो रहे हैं ? इस बात को जानना भी बेहद  जरूरी है। हमारे द्वारा प्रयोग किये जा रहे विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण से भी कुछ गैसों का उत्सर्जन होता है, लेकिन हम अपने सुख से वास्ता रखते हुए इन सब बातों से अनभिज्ञ बने हुए हैं। बल्कि अगर किसी समझदार व्यक्ति द्वारा इसके बारे में बताया भी गया तो कहेंगे कि कौन सा हम ही ऐसी चीजों को प्रयोग कर रहे है। बात बिलकुल सही है , अगर हम पहल अपने से ही नहीं करेंगे तो फिर दोष तो दूसरे में निकाल ही सकते हैं।  आज हमारे दैनिक प्रयोग की चीजें जिनके बिना हम जीवन संभव मान ही नहीं सकते हैं, लेकिन हमारे माता पिता उनके बिना ही जिए हैं और वे जीवन भर स्वस्थ रहे हैं , कभी रोज खाने वाली दवाओं जैसी जरूरत उनके जीवन में कभी आई ही नहीं। हमें इस बारे में कितना पता ,यह तो हम नहीं जानते हैं, लेकिन इस लेख में यह बताना भी चाहिए कि हमारे ए सी , फ्रिज, और वाटर कूलर की मरम्मत के दौरान , परफ्यूम, साबुन, क्लीनिंग करने वाली चीजों के निर्माण से निकलने वाली क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, ब्रोमोफ्लोरो कार्बन, मिथाइल ब्रोमाईट/क्लोफोर्म आदि रसायन उत्सर्जित होते हैं और जो कि ओजोन परत के क्षरण के कारक बनते हैं।  ये उत्सर्जित होकर वायुमंडल में पहुँच जाते हैं और धीरे धीरे इनकी रासायनिक प्रक्रिया से ओजोन परत का क्षरण होता रहता है। सूर्य को पराबैंगनी किरणों को रोकने वाली ओज़ोन परत तेजी से  क्षरित होती जा रही है तो फिर हम इसका अनुभव कर रहे हैं।  दिन ब दिन तापमान बढ़ रहा है। कभी चार चार महीने चलने वाले मौसम अब ख़त्म हो चुके हैं।  चार महीने के वर्षा काल के लिए बचपन में माँ पापा सूखी लकड़ी का व्यवस्था करते थे।  पूरे चार महीने पानी बरसा करता था, फिर चार महीने शीत काल चलता था। उस समय अक्टूबर  से सर्दी शुरू हो जाती थी और मार्च तक इसका प्रभाव रहता था।  मार्च से जून तक गर्मियां होती थीं। सारे मौसम बराबर समय चला करते थे। लेकिन आज सिर्फ गर्मी पड़ती है। सर्दियाँ सिर्फ कुछ दिनों  में सिमट गयी है और वर्षा तो जरूरी नहीं कि बारिश के मौसम में समय से हो ही। इस के पीछे जो कारण है वह सामने आ रहे हैं।  दिन पर दिन बढ़ती गर्मी ने खुले निकलने की हिम्मत ख़त्म कर दी  है. आज सिर्फ खुले शरीर के हिस्सों को भी ढकना पड़ता है क्योंकि सूर्य की बढती हुई गर्मी और तेजी को सहन करना अब संभव नहीं हो रहा है , इसके पीछे यही ओजोन परत का क्षरण ही है.
                           आज से २५ वर्ष पूर्व १९८७ में अंतर्राष्ट्रीय संधि में क्लोरो फ्लोरो कार्बन पर अंकुश लगाने का फैसला काफी देशों ने लिया था लेकिन उस पर कुछ भी न हो सका। वर्तमान में ओजोन परत का १५ प्रतिशत क्षतिग्रस्त हो चुका है। जब इसका १५ प्रतिशत क्षरण ही ग्लेशियर को पिघलाने में कारण बन रहा है तो फिर इसके क्षरण के लिए चल रही सतत प्रक्रिया से भविष्य में क्या होगा? इस बारे में अगर जल्दी न सोचा गया तो जरूर ही हम दिन में सोने और रात में काम करने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकेंगे। 
                           आज अगर हम कुछ इस दिशा में कर सकते हैं तो फिर इस समस्या को कुछ समय के लिए और रोक सकते हैं, अगर हम उस ओजोन परत क्षरण को रोक नहीं सकते तो उसके क्षरण की गति को कम तो कर ही सकते हैं।  इसके लिए हमारी कोशिशें ये होंगी कि हम अपने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को इस तरह से प्रयोग करें कि वे जल्दी ख़राब न हों ताकि उनके मरम्मत से उत्सर्जित होने वाली गैसों का उत्सर्जन कम हो।  फोम से निर्मित वस्तुएं प्रयोग  करने के स्थान पर रुई और जूट के गद्दे और गद्दियाँ प्रयोग करें। प्लास्टिक के पात्रों का उपयोग काम करें। बर्तन भी हम काँच, मिट्टी और धातु से बने ही प्रयोग में लायें। सिर्फ फैशन या सुंदर दिखने के लालच में प्रकृति से समझौता न करें जो हमारे लिए ही नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए अधिक घातक सिद्ध होने वाला है। घर के हर कमरे में ए सी का लगाना अब चलन बन चुका है क्योंकि अब कूलर लगा होना तो लोगों के स्तर को कम करके दिखता है लेकिन एक घर में कई एसी कितना नुक्सान कर रहे हैं इसको कोई नहीं जानता है। हमें कपड़ों के बदलते फैशन के बारे जानकारी होगी , जेवरात , हीरे और सोने के बारे सम्पूर्ण जानकारी होगी लेकिन इस बारे में किसी भी गृहणी से पूछा जाय तो नहीं जानती।  सिर्फ गृहणी ही क्यों? आम आदमी भी इसके बारे में पूर्ण जानकारी नहीं रखता है।
               जब भी कहीं भी बदलते मौसम की बात चले, गर्मी की बात चले तो सहज भाषा में अपने परिवेश में इस ओजोन परत क्षरण के विषय में जानकारी दीजिये। उसको रोकने में अपने सहयोग को स्पष्ट कीजिये और उनसे भी आग्रह कीजिये कि अगर पृथ्वी को सूर्य की पराबैंगनी किरणों से बचाना है तो फिर जितना संभव हो इस दिशा में जागरूक होकर रहें। इस दिन की सार्थकता सिर्फ एक दिन में नहीं है बल्कि ये प्रयास सम्पूर्ण वर्ष भर होना चाहिए। ये कोई मनाने वाले दिवस की औपचारिकता नहीं है और न ही एक दिन में ही इसके प्रति अपनी जिम्मेदारी ख़त्म हो जाती है. खुद सजग रहे और दूसरों को भी करें। मानव जाति को अगर स्वस्थ जीवन जीना है तो फिर अपनी जरूरतों को उसके अनुरुप ही पूरी करना चाहिए।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

हिंदी दिवस का औचित्य !

हिंदी है भारत की शान- हिंदी है भारत की पहचान


        हिंदी भाषा भारत के लिए  महत्वपूर्ण  है,   फिर भी इस बात को जताने   की जरूरत हमको साल में एक बार पड़ती है लेकिन कभी हमने ये सोचा है कि  ऐसा क्यों होता है?  हम   मातृभाषा के प्रति इतने उदासीन क्यों है? जब कि  हमारी माँ और पिता ने हमें इसी भाषा में बोलना सिखाया है और हमने भी पहला शब्द माँ बोला  हिंदी में ही। लेकिन हम चाहते हें कि हमारा बच्चा पहला शब्द अगर अंग्रेजी का बोले तो हमारा जन्म कृतार्थ हो जाए. ये हम ही हैं न. बच्चों के लिए बड़े से बड़े अंग्रेजी स्कूल में जाकर एडमिशन करने के लिए कुछ भी देने को तैयार हो जाते हैं.   आज की पीढी को देखा है कि  बच्चे के  जन्म  पहले ही अच्छे  अंग्रेजी स्कूल में  पंजीकरण के लिए चक्कर लगाते हुए। जन्म बाद में  पहले उसके लिए सीट सुरक्षित करवा ली जाय . क्या सिर्फ अंग्रेजी माध्यम  से पढ़ाने से ही मेधा बढ़ जाती है. ऐसा कुछ भी नहीं है, ज्ञान और शिक्षण के लिए हिंदी माध्यम   के स्कूल भी बहुत उच्चकोटि का ज्ञान देने वाले हैं और साथ ही भारतीय संस्कार और संस्कृति से परिचित कराने वाले हैं. हमें फिर इसको एक विशेष दिवस पर याद करने की जरूरत क्यों पड़ने लगी है? हम अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजी भाषा के व्यामोह से मुक्त नहीं हो पाए हैं. आज स्थिति यह है कि हिंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी की परीक्षा में फेल होने वालों की संख्या सबसे अधिक मिलेगी.
                        हिंदी की उपेक्षा के लिए हम बहुत जल्दी सरकारी नीतियों पर अंगुली उठाने लगते हैं लेकिन कभी हमने इस तरह से अपने गिरेबान में झांक कर देखा है कि इसमें हमारी क्या भूमिका है? बाहर बड़ी बड़ी बातें करने वाले लोग घर में बच्चों को सख्त हिदायत देकर रखते हैं कि वे आप में अंग्रेजी में ही बात करेंगे आख़िर क्यों?  जब हम अपने प्रति अपनत्व रखने  वाले भावों , विचारों और अभिव्यक्ति के माध्यम से उनको अलग रखेंगे तो फिर उनसे भारतीयता और भारतीय संस्कृति की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? भारतीय संस्कृति हिंदी में ही सीखी जा सकती है. अंग्रेजी में उसके लिए कोई स्थान नहीं है.

                हम जो ऑफिस में अंग्रेजी में बोलते हैं,  औरों से यही अपेक्षा करते हैं वह हम ही हैं न जो कि हिंदी दिवस पर बड़ी बड़ी बातें बोलकर अपने को हिंदी का हिमायती होने का दावा करते हैं. हमें आजकल  ऑफिस में हिंदी अधिकारी रखने की जरूरत क्यों होती है? कोई विशेष भूमिका होती है या फिर सिर्फ इस लिए कि अंग्रेजी दस्तावेजों के लिए उसकी आवश्यकता होती है. हिंदी बाहर विदेश में अपने अस्तित्व को स्वीकार करवा रही है. वहाँ पर हिंदी विदेशी भाषा के रूप में पाठ्य विषय बनायीं जा रही है.
               अब तो हमें ये सोचना होगा कि इसको समुचित सम्मान देने के लिए और इसके प्रचार एवं प्रसार के लिए हम व्यक्तिगत तौर पर जो प्रयास कर सकते हें वह अपने घर , परिवार और समाज से ही शुरू किअरें और लोगों की भ्रांतियां ख़त्म करें कि अंग्रेजी हिंदी से अधिक उपयोगी है. उपयोगी हमेशा ज्ञान होता है कोई भाषा नहीं अपनी मातृभाषा से अधिक प्रगति और उन्नति देने वाली भाषा कोई हो ही नहीं सकती है.


रविवार, 9 सितंबर 2012

फिर मंदिर ?

                     लाल कृष्ण आडवानी जी फिर मंदिर के  स्वर  क्यों निकालने लगे हैं ? आप जैसा वरिष्ठ नेता,   अनुभवी व्यक्ति यदि इस तरह  बात फिर करेगा तो फिर भाजपा को इससे क्षति  ही होगी। नेता विपक्ष का काम देश के  हालातों से आँखें मूँद कर  कहीं रामराज्य के सपने को देखना सिर्फ शेखचिल्ली जैसे काम हो सकते हैं। 
                       देश के  हालातों को देखते हुए देश और देशवासियों  को ठोस और सकारात्मक पहल की जरूरत है न  ऐसे  बेबुनियाद बातों की।  देश जब इस समय महंगाई  और सत्ता दल के आराजकता के दंश को झेल रहा  है उस समय उसको राम नहीं याद आ रहे हैं . उसको रोटी चाहिए जो थाली से बहुत दूर जा रही है , उसको जीने के लिए खुली हवा तक तो मुहैया नहीं है और आप राम मंदिर के नाम पर उसको बहलाने की कोशिश करने लगे हैं। राम हैं , हमारे मन में हैं लेकिन वह भी चंद  लोगों के क्योंकि अगरपेट खली होता है तो मन में किसी तरह से दो टुकडे रोटी का ख्याल आता है न की राम का। सभी के मन में होते तो शायद देश के ऐसे हालात  ही न होते। 
                      अगर देश का भविष्य देखना है और उसके लिए वास्तव में  कुछ करना ही है तो फिर अन्ना   की  छोड़ी हुई डगर  पर चलने  का   प्रयास कीजिये।   उनके प्रयासों ने वास्तव में जनमानस को एक मंच  पर लाकर खड़ा कर  कर दिया था। सर्वशक्तिमान सरकार  के उस समय पसीने छूटने  लगे थे . उस रस्ते पर चलने वालों के साथ जनमानस आज भी खड़ा होगा . उससे निजात चाहिए ऐसे निरंकुश सत्ताधारियों से जिनके लिए लोकतंत्र के स्तंभों की कोई भी कीमत नहीं रह  गयी है। अघोषित  आपातकाल जैसी स्थिति आ चुकी  है . संसद की दीवारें कांपने लगी हैं कि  अब इस देश में उसकी गिरती हुई गरिमा के बाद क्या होने वाला है? जनप्रतिनिधि या तो मूक दर्शक  हैं या फिर संसद से ऊपर हैं क्योंकि उन्हें जनप्रतिनिधि बनाते समय ये नहीं सोचा गया था कि ये अनपढ़ और  जाहिल लोगों जैसे व्यवहार को प्रदर्शित कर संसद को शर्मसार कर  देंगे। 
                     आज वह समय है जब की देश हित के लिए ठोस और सकारात्मक सोच का परिचय दीजिये और मन में इस संकल्प को रखिये कि  जो हम आश्वासन दे रहे हैं या जो  कह रहे हैं उनको पूरा करना है। राम मंदिर की बात तो आप लोग हर बार दुहराते हैं और सत्ता में आते ही फिर वह न्यायिक प्रक्रिया की मजबूरी दिखा कर मुंह छिपाते हैं इसलिए ऐसे काम करने की घोषणा  कीजिये जो आप करने की क्षमता रखते हों और जिन्हें पूरा कर सकें . देश को इस समय एक  सशक्त विपक्ष की जरूरत है और वह शक्ति और दृढ़ता तो आप लोगों में दिख नहीं रही है। सिर्फ बयानबाजी करने  से कुछ नहीं होता है बल्कि जनमानस में विश्वास पैदा कीजिये और उसके हित के बारे में सोच कर  भावी रणनीति निश्चित कीजिये। अन्ना की तरह ही पूरा देश एक दिशा में चल देगा .

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

मेरे शिक्षक को शत शत नमन !

मेरे शिक्षक भी मेरी शिक्षा के अनुसार मिलते रहे और सिखाते रहे लेकिन वो जो जीवन के उस पक्ष में मिले जब कि सीखने के साथ साथ उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के कुछ ऐसे मंत्र भी सिखाये जो जीवन को सही रूप में देखने की दृष्टि देता है. इस दिशा में मेरे गुरु श्री विनीत चैतन्य जी रहे हैं. इस समय वे ट्रिपल आई टी हैदराबाद के साथ जुड़े हुए हैं.


उनके सानिंध्य में मैं फरवरी १९८८ में आई . जब कि मैंने आई आई टी के मानविकी विभाग से कंप्यूटर साइंस विभाग में मशीन अनुवाद प्रोजेक्ट को ज्वाइन किया था. मैं कंप्यूटर के बारे में क ख ग भी नहीं जानना तो बड़ी बात मैंने कंप्यूटर देखा तक नहीं था और उस समय कंप्यूटर आम नहीं था. हम लोग जो अभियांत्रिकी से अनभिज्ञ रहने वाले लोग, जो सिर्फ कला विषय से पढ़े हुए थे, के लिए एक अजूबा ही था. १९८९ में हम लोगों के लिए पी सी उपलब्ध कराया गया तब हम जीस्ट कार्ड लगा कर हिंदी में टाइप करते थे. अपने डाटा को सेव करते थे. इस विधा को सिखाने का काम हमारे गुरु जी ने किया. तब हम Dbase III पर काम करने के लिए तैयार किये जा रहे थे क्योंकि उस समय यही सुलभ और आसान डाटाबेस था. हम तीन लोग थे आरम्भ में और हमें सिखाने के लिए उन्होंने हमारे साथ बैठ कर की बोर्ड पर हाथ रखने से लेकर उसके एक एक कमांड को सिखाया. हम अनाड़ी लोग कभी कभी पूरे सिस्टम को ही डिलीट आल के कमांड से उड़ा देते और फिर सर से कहते - 'सर एक गलती हो गयी अब क्या करें? ' और वह फिर उसको रिट्रीव करके हमें उसे वापस लाना सिखाते. लेकिन कभी भी उनके चेहरे पर झुंझलाहट या क्रोध के भाव हमने कभी नहीं देखे. इतने शांत और धैर्य से उन्होंने हम अनाड़ियों को कंप्यूटर पर काम करना सिखाया कि अगर हम होते तो शायद इतने धैर्य से नहीं कर पाते. सालों लग गए हमें उस पर काम करने में लेकिन कमांड बुक लेकर उन्होंने उससे काम करना सिखाया.

फिर जब विभाग में SUN System के साथ नई लैब बनायीं गयी तो उसमें काम करने में हमें डर लगता था क्योंकि उस बड़ी लैब में बी टेक और एम टेक के स्टुडेंट भी काम करते थे और जरा सी भी गलत की दबाने पर एक आवाज होती थी. तब हमें बहुत शर्म आती तो मैं अक्सर बड़ी लैब में काम करने में कतराती थी और सर कहते कि उस लैब में काम करो तो सर्वर से जुड़ जाओगी और फिर उसकी बहुत सारी एप्लीकेशन भी आने लगेगीं. धीरे धीरे हमें वह भी करना आ गया . की बोर्ड पर तेज काम करने के लिए उन्होंने हमें टाइपिंग गेम से परिचित कराया और हम लंच टाइम में उस पर अभ्यास करते रहे और हमारी बुनियाद वहीं से मजबूत हुई. उनके निर्देशन में हमने पूरी भगवद गीता को कंप्यूटर पर डाला था और फिर उसको गीता सुपर साईट का निर्माण किया गया था.

यह तो शिक्षा से सम्बंधित बात थी लेकिन जीवन के वास्तविक अर्थों में जुड़े दर्शन को भी उन्हीं से सीखा. वे आई आई टी से पी एच डी थे लेकिन प्रशासन के बार बार आग्रह के बाद भी उन्होंने कभी faculty के पद को स्वीकार नहीं किया. वे जीवन भर अनुसन्धान के लिए समर्पित थे और आज भी हैं. उन्होंने चिन्मय मिशन को अपना रखा है और एक सन्यासी की तरह जीवन व्यतीत करते रहे. उन्हें हमने एक बेटे की तरह से माँ के साथ रहते हुए देखा, जितनी बार वे सो कर उठते माँ के चरण स्पर्श करते. दूसरे घर वालों के इस व्यंग्य पर कि खुद तो सन्यासी हो गए अब माँ को कौन रखे? उन्होंने घर बनाया और माँ को अपने पास लेकर आये. सारी चीजें जुटें लेकिन उत्तर में किसी से कुछ नहीं कहा.

विभाग में भी बहुत सारे विरोधी और आलोचक होते हैं और उनके भी थे उनके काम के थे और हम लोगों ने उन्हें उस समय जिस धैर्य से काम लेते हुए देखा तब लगा कि जीवन में वृत्तियों पर नियंत्रण सिर्फ भगवा कपड़े पहने से नहीं होता बल्कि वे परिधान में एक कुरता और लुंगी की तरह से बंधी हुई धोती और पैर में चप्पल . उनकी गरिमा को प्रकट करने के लिए पर्याप्त थे. ज्ञान की वे खान हैं और सिर्फ एक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि पाणिनि से सभी धर्म ग्रंथों पर उनका पूरा पूरा अधिकार था. उनका पूरा जीवन एक आदर्श है. हम उनके सानिंध्य से उनके हैदराबाद जाने के बाद से वंचित हो गए लेकिन वे हमारे गुरु आज भी हैं और हमेशा रहेंगे.



गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर .........

सोमवार, 3 सितंबर 2012

एक प्रयास नारी के द्वारा !

15 अगस्त 2011 से 14 अगस्त 2012 के बीच में पुब्लिश की गयी ब्लॉग प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं .

15 अगस्त 2011 से 14 अगस्त 2012 के बीच में पुब्लिश की गयी ब्लॉग प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं .
विषय
नारी सशक्तिकरण
घरेलू हिंसा
यौन शोषण

अगर आप ने { महिला और पुरुष ब्लॉग लेखक } इन विषयों पर ऊपर दिये हुए समय काल के अन्दर कोई भी पोस्ट दी हैं तो आप उस पोस्ट का लिंक यहाँ दे सकते .
अगर नारी ब्लॉग के पास 100 ऐसी पोस्ट के लिंक आजाते हैं तो हमारे 4 ब्लॉगर  मित्र जज बनकर उन प्रविष्टियों को पढ़ेगे . प्रत्येक जज 25 प्रविष्टियों मे से 3 प्रविष्टियों को चुनेगा . फिर 12 प्रविष्टियाँ एक नये ब्लॉग पर पोस्ट कर दी जायेगी और ब्लॉगर उसको पढ़ कर अपने प्रश्न उस लेखक से पूछ सकता हैं .
उसके बाद इन 12 प्रविष्टियों के लेखको को आमंत्रित किया जायेगा की वो ब्लॉग मीट  में आकर अपनी प्रविष्टियों को मंच पर पढ़े , अपना नज़रिया दे और उसके बाद दर्शको के साथ बैठ कर इस पर बहस हो .
दर्शको में ब्लॉगर होंगे . कोई साहित्यकार या नेता या मीडिया इत्यादि नहीं होगा . मीडिया से जुड़े ब्लॉगर और प्रकाशक होंगे . संभव हुआ तो ये दिल्ली विश्विद्यालय के किसी  college के ऑडिटोरियम में रखा जाएगा ताकि नयी पीढ़ी की छात्र / छात्रा ना केवल इन विषयों पर अपनी बात रख सके अपितु ब्लोगिंग के माध्यम और उसके व्यापक रूप को समझ सके . इसके लिये ब्लोगिंग और ब्लॉग से सम्बंधित एक लेक्चर भी रखा जायेगा .
12 प्रविष्टियों मे से बेस्ट 3 का चुनाव उसी सभागार में होगा दर्शको के साथ .

आयोजक  नारी ब्लॉग
निर्णायक मंडल रेखा श्रीवास्तव  , घुघूती बसूती  , नीरज रोहिला , मनोज जी , निशांत मिश्र और मुक्ति  { 6 संभावित  नाम हैं ताकि किसी कार्य वश कोई समय ना दे सके तो }

प्रविष्टि भेजने की अंतिम तिथी  15 सितम्बर 2012 हैं .
सभी 12 प्रविष्टियों को पुस्तके और प्रथम 3 प्रविष्टियों को कुछ ज्यादा पुस्तके देने की योजना हैं लेकिन इस पर विमर्श जारी हैं

ब्लॉग मीट दिसंबर 2012 में रखने का सोचा जा रहा हैं लेकिन ये निर्भर होगा की किस कॉलेज मे जगह मिलती हैं .

आप से आग्रह हैं अपनी ब्लॉग पोस्ट का लिंक कमेन्ट मे छोड़ दे और अगर संभव हो तो इस पोस्ट को और और लोगो तक भेज दे
मेरी यानी रचना की , और जो भी निर्णायक मंडल होगा  उनकी कोई भी प्रविष्टि इस आयोजन में शामिल नहीं होगी हां वो लेखक से प्रश्न पूछने के अधिकारी होंगे अपना निर्णय देने से पहले .

मेरी कोशिश हैं की हम इस बार नारी आधारित मुद्दे पर चयन करे और फिर हर चार महीने मे एक  बार विविध सामाजिक मुद्दों पर चयन करे . हिंदी ब्लॉग को / आप की बात को कुछ और लोगो तक , ख़ास कर नयी पीढ़ी तक लेजाने का ये एक माध्यम बन सकता हैं .

आप अपने विचार निसंकोच कह सकते हैं . निर्णायक मंडल से आग्रह हैं की वो इस आयोजन के लिये समय निकाले .