मेरे शिक्षक भी मेरी शिक्षा के अनुसार मिलते रहे और सिखाते रहे लेकिन वो जो जीवन के उस पक्ष में मिले जब कि सीखने के साथ साथ उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के कुछ ऐसे मंत्र भी सिखाये जो जीवन को सही रूप में देखने की दृष्टि देता है. इस दिशा में मेरे गुरु श्री विनीत चैतन्य जी रहे हैं. इस समय वे ट्रिपल आई टी हैदराबाद के साथ जुड़े हुए हैं.
उनके सानिंध्य में मैं फरवरी १९८८ में आई . जब कि मैंने आई आई टी के मानविकी विभाग से कंप्यूटर साइंस विभाग में मशीन अनुवाद प्रोजेक्ट को ज्वाइन किया था. मैं कंप्यूटर के बारे में क ख ग भी नहीं जानना तो बड़ी बात मैंने कंप्यूटर देखा तक नहीं था और उस समय कंप्यूटर आम नहीं था. हम लोग जो अभियांत्रिकी से अनभिज्ञ रहने वाले लोग, जो सिर्फ कला विषय से पढ़े हुए थे, के लिए एक अजूबा ही था. १९८९ में हम लोगों के लिए पी सी उपलब्ध कराया गया तब हम जीस्ट कार्ड लगा कर हिंदी में टाइप करते थे. अपने डाटा को सेव करते थे. इस विधा को सिखाने का काम हमारे गुरु जी ने किया. तब हम Dbase III पर काम करने के लिए तैयार किये जा रहे थे क्योंकि उस समय यही सुलभ और आसान डाटाबेस था. हम तीन लोग थे आरम्भ में और हमें सिखाने के लिए उन्होंने हमारे साथ बैठ कर की बोर्ड पर हाथ रखने से लेकर उसके एक एक कमांड को सिखाया. हम अनाड़ी लोग कभी कभी पूरे सिस्टम को ही डिलीट आल के कमांड से उड़ा देते और फिर सर से कहते - 'सर एक गलती हो गयी अब क्या करें? ' और वह फिर उसको रिट्रीव करके हमें उसे वापस लाना सिखाते. लेकिन कभी भी उनके चेहरे पर झुंझलाहट या क्रोध के भाव हमने कभी नहीं देखे. इतने शांत और धैर्य से उन्होंने हम अनाड़ियों को कंप्यूटर पर काम करना सिखाया कि अगर हम होते तो शायद इतने धैर्य से नहीं कर पाते. सालों लग गए हमें उस पर काम करने में लेकिन कमांड बुक लेकर उन्होंने उससे काम करना सिखाया.
फिर जब विभाग में SUN System के साथ नई लैब बनायीं गयी तो उसमें काम करने में हमें डर लगता था क्योंकि उस बड़ी लैब में बी टेक और एम टेक के स्टुडेंट भी काम करते थे और जरा सी भी गलत की दबाने पर एक आवाज होती थी. तब हमें बहुत शर्म आती तो मैं अक्सर बड़ी लैब में काम करने में कतराती थी और सर कहते कि उस लैब में काम करो तो सर्वर से जुड़ जाओगी और फिर उसकी बहुत सारी एप्लीकेशन भी आने लगेगीं. धीरे धीरे हमें वह भी करना आ गया . की बोर्ड पर तेज काम करने के लिए उन्होंने हमें टाइपिंग गेम से परिचित कराया और हम लंच टाइम में उस पर अभ्यास करते रहे और हमारी बुनियाद वहीं से मजबूत हुई. उनके निर्देशन में हमने पूरी भगवद गीता को कंप्यूटर पर डाला था और फिर उसको गीता सुपर साईट का निर्माण किया गया था.
यह तो शिक्षा से सम्बंधित बात थी लेकिन जीवन के वास्तविक अर्थों में जुड़े दर्शन को भी उन्हीं से सीखा. वे आई आई टी से पी एच डी थे लेकिन प्रशासन के बार बार आग्रह के बाद भी उन्होंने कभी faculty के पद को स्वीकार नहीं किया. वे जीवन भर अनुसन्धान के लिए समर्पित थे और आज भी हैं. उन्होंने चिन्मय मिशन को अपना रखा है और एक सन्यासी की तरह जीवन व्यतीत करते रहे. उन्हें हमने एक बेटे की तरह से माँ के साथ रहते हुए देखा, जितनी बार वे सो कर उठते माँ के चरण स्पर्श करते. दूसरे घर वालों के इस व्यंग्य पर कि खुद तो सन्यासी हो गए अब माँ को कौन रखे? उन्होंने घर बनाया और माँ को अपने पास लेकर आये. सारी चीजें जुटें लेकिन उत्तर में किसी से कुछ नहीं कहा.
विभाग में भी बहुत सारे विरोधी और आलोचक होते हैं और उनके भी थे उनके काम के थे और हम लोगों ने उन्हें उस समय जिस धैर्य से काम लेते हुए देखा तब लगा कि जीवन में वृत्तियों पर नियंत्रण सिर्फ भगवा कपड़े पहने से नहीं होता बल्कि वे परिधान में एक कुरता और लुंगी की तरह से बंधी हुई धोती और पैर में चप्पल . उनकी गरिमा को प्रकट करने के लिए पर्याप्त थे. ज्ञान की वे खान हैं और सिर्फ एक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि पाणिनि से सभी धर्म ग्रंथों पर उनका पूरा पूरा अधिकार था. उनका पूरा जीवन एक आदर्श है. हम उनके सानिंध्य से उनके हैदराबाद जाने के बाद से वंचित हो गए लेकिन वे हमारे गुरु आज भी हैं और हमेशा रहेंगे.
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर .........
उनके सानिंध्य में मैं फरवरी १९८८ में आई . जब कि मैंने आई आई टी के मानविकी विभाग से कंप्यूटर साइंस विभाग में मशीन अनुवाद प्रोजेक्ट को ज्वाइन किया था. मैं कंप्यूटर के बारे में क ख ग भी नहीं जानना तो बड़ी बात मैंने कंप्यूटर देखा तक नहीं था और उस समय कंप्यूटर आम नहीं था. हम लोग जो अभियांत्रिकी से अनभिज्ञ रहने वाले लोग, जो सिर्फ कला विषय से पढ़े हुए थे, के लिए एक अजूबा ही था. १९८९ में हम लोगों के लिए पी सी उपलब्ध कराया गया तब हम जीस्ट कार्ड लगा कर हिंदी में टाइप करते थे. अपने डाटा को सेव करते थे. इस विधा को सिखाने का काम हमारे गुरु जी ने किया. तब हम Dbase III पर काम करने के लिए तैयार किये जा रहे थे क्योंकि उस समय यही सुलभ और आसान डाटाबेस था. हम तीन लोग थे आरम्भ में और हमें सिखाने के लिए उन्होंने हमारे साथ बैठ कर की बोर्ड पर हाथ रखने से लेकर उसके एक एक कमांड को सिखाया. हम अनाड़ी लोग कभी कभी पूरे सिस्टम को ही डिलीट आल के कमांड से उड़ा देते और फिर सर से कहते - 'सर एक गलती हो गयी अब क्या करें? ' और वह फिर उसको रिट्रीव करके हमें उसे वापस लाना सिखाते. लेकिन कभी भी उनके चेहरे पर झुंझलाहट या क्रोध के भाव हमने कभी नहीं देखे. इतने शांत और धैर्य से उन्होंने हम अनाड़ियों को कंप्यूटर पर काम करना सिखाया कि अगर हम होते तो शायद इतने धैर्य से नहीं कर पाते. सालों लग गए हमें उस पर काम करने में लेकिन कमांड बुक लेकर उन्होंने उससे काम करना सिखाया.
फिर जब विभाग में SUN System के साथ नई लैब बनायीं गयी तो उसमें काम करने में हमें डर लगता था क्योंकि उस बड़ी लैब में बी टेक और एम टेक के स्टुडेंट भी काम करते थे और जरा सी भी गलत की दबाने पर एक आवाज होती थी. तब हमें बहुत शर्म आती तो मैं अक्सर बड़ी लैब में काम करने में कतराती थी और सर कहते कि उस लैब में काम करो तो सर्वर से जुड़ जाओगी और फिर उसकी बहुत सारी एप्लीकेशन भी आने लगेगीं. धीरे धीरे हमें वह भी करना आ गया . की बोर्ड पर तेज काम करने के लिए उन्होंने हमें टाइपिंग गेम से परिचित कराया और हम लंच टाइम में उस पर अभ्यास करते रहे और हमारी बुनियाद वहीं से मजबूत हुई. उनके निर्देशन में हमने पूरी भगवद गीता को कंप्यूटर पर डाला था और फिर उसको गीता सुपर साईट का निर्माण किया गया था.
यह तो शिक्षा से सम्बंधित बात थी लेकिन जीवन के वास्तविक अर्थों में जुड़े दर्शन को भी उन्हीं से सीखा. वे आई आई टी से पी एच डी थे लेकिन प्रशासन के बार बार आग्रह के बाद भी उन्होंने कभी faculty के पद को स्वीकार नहीं किया. वे जीवन भर अनुसन्धान के लिए समर्पित थे और आज भी हैं. उन्होंने चिन्मय मिशन को अपना रखा है और एक सन्यासी की तरह जीवन व्यतीत करते रहे. उन्हें हमने एक बेटे की तरह से माँ के साथ रहते हुए देखा, जितनी बार वे सो कर उठते माँ के चरण स्पर्श करते. दूसरे घर वालों के इस व्यंग्य पर कि खुद तो सन्यासी हो गए अब माँ को कौन रखे? उन्होंने घर बनाया और माँ को अपने पास लेकर आये. सारी चीजें जुटें लेकिन उत्तर में किसी से कुछ नहीं कहा.
विभाग में भी बहुत सारे विरोधी और आलोचक होते हैं और उनके भी थे उनके काम के थे और हम लोगों ने उन्हें उस समय जिस धैर्य से काम लेते हुए देखा तब लगा कि जीवन में वृत्तियों पर नियंत्रण सिर्फ भगवा कपड़े पहने से नहीं होता बल्कि वे परिधान में एक कुरता और लुंगी की तरह से बंधी हुई धोती और पैर में चप्पल . उनकी गरिमा को प्रकट करने के लिए पर्याप्त थे. ज्ञान की वे खान हैं और सिर्फ एक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि पाणिनि से सभी धर्म ग्रंथों पर उनका पूरा पूरा अधिकार था. उनका पूरा जीवन एक आदर्श है. हम उनके सानिंध्य से उनके हैदराबाद जाने के बाद से वंचित हो गए लेकिन वे हमारे गुरु आज भी हैं और हमेशा रहेंगे.
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर .........
डॉस बेस्ड कंप्यूटर पर सभी कमांड्स याद रखना बहुत मुश्किल होता था , सीखने वाले और सिखाने वालो दोनों को ही धैर्य की आवश्यकता होती थी . अब तो सब कुछ बहुत सरल हो गया है कम्यूटर में .
जवाब देंहटाएंगुरूजी को नमन !
नमन!!
जवाब देंहटाएंशिक्षक दिवस पर बहुत बढ़िया सामयिक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामना
गुरूजी को नमन!
निश्चय ही गुरुत्व लिये है उनका व्यक्तित्व, हमने भी कई बार उन्हें देखा है आईआईटी कानपुर में।
जवाब देंहटाएंpraveen jee,
हटाएंaaj ko mera shishtva pura ho gaya jis guru ko main naman kar rahi hoon usake vyaktitva aur gurutva ko aap bhi sveekar kar rahe hain.
आज के दिन गुरु को याद करके आपने दिन का मान रखा है .. नमन है हर गुरु को आज ..
जवाब देंहटाएं्शिक्षक दिवस पर एक सार्थक व सटीक प्रस्तुति। ऐसे व्यक्तित्व ही याद रखने योग्य होने के साथ अनुकरणीय भी होते हैं।
जवाब देंहटाएंआज तो जो शिक्षक को याद रखे उसे नमन है :)
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति............ ..... शिक्षक दिवस की बधाई आपको
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संस्मरण!
जवाब देंहटाएंसौभाग्यशाली हैं आप !
जवाब देंहटाएंउन सभी शिक्षकों को नमन जिनकी वजह से मैं आज मैं हूँ .उन गुरु समान दोस्तों को नमन जो मेरे वागीश हैं .बढ़िया पोस्ट .कोशिश यही रही मैं अपने शिक्षकों सा कुछ तो बनूँ ,शतांश ही सही ,,,,,,
जवाब देंहटाएंबृहस्पतिवार, 6 सितम्बर 2012
नारी शक्ति :भर लो झोली सम्पूरण से
Virendra Kumar Sharma ने आपकी पोस्ट " मेरे शिक्षक को शत शत नमन ! " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंउन सभी शिक्षकों को नमन जिनकी वजह से मैं आज मैं हूँ .उन गुरु समान दोस्तों को नमन जो मेरे वागीश हैं .बढ़िया पोस्ट .कोशिश यही रही मैं अपने शिक्षकों सा कुछ तो बनूँ ,शतांश ही सही ,,,,,,
बृहस्पतिवार, 6 सितम्बर 2012
नारी शक्ति :भर लो झोली सम्पूरण से