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गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

पृथ्वी दिवस आज है !



आज पृथ्वी दिवस है - २२ अप्रैल !  ये जीवन दायिनी धरती माँ हमें सब कुछ देती रही है और आज भी दे रही है. लेकिन जब हम उसके पास कुछ बचने दें. उसके श्रृंगार वृक्षों को हमने उजाड़ दिया, उसके जल स्रोतों को हमने इस तरह से दुहा है कि वे भी अब जलविहीन हो चले हैं. इसके गर्भ  में इतने परीक्षण  हम कर चुके हैं कि उसकी कोख अब बंजर हो चुकी है. अब भी हम उसके दोहन और शोषण से थके नहीं हैं. अब भी हम ये नहीं सोच पा रहे हैं कि जब ये नहीं रहेगी तो क्या हम किसी नए ग्रह  की खोज करके उसपर चले जायेंगे. जैसे की गाँव छोड़ कर शहर आ गए. वहाँ अब कुछ भी नहीं रह गया है - खेतों को बेच कर मकान बनवा लिए. अब खाने की खोज में शहर आ गए. कुछ न कुछ करके गुजारा कर लेंगे.
                                 हम क्यों रोते हैं कि अब मौसम बदल चुके हैं, तापमान निरंतर बढ़ता चला जा रहा है. इसके लिए कौन दोषी है? हम ही न, फिर रोना किस बात का है? हमारी अर्थ की हवस ने , धरती जो कभी सोना उगला करती थी, केमिकल डाल डाल कर बंजर बना लिया. फसल अच्छी लेने के लिए उसको बाँझ बना दिया. ये कृत्रिम साधनों से जो उसका दोहन हो रहा है उससे हमने गुणवत्ता खोयी है.
                              हर साल २२ अप्रैल को धरती को बचाने के लिए और उसके बचाव के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए इस दिवस का आयोजन किया जाता है.  पूरी दुनियाँ इस धरती को माँ नहीं कहती, कालांतर में आदमी सुबह उठकर  उस पर पैर रखने से पहले उसके स्पर्श को अपने मस्तक पर लगता था. ये मैंने अपने घर में ही देखा है. खेतों की पूजा होते देखी है. विश्व में इसको एक ग्रह  ही माना जाता है और फिर भी विश्व के किसी और देशवासी ने इस ग्रह को बचाने के लिए ये मुहिम शुरू की थी. ये व्यक्तित्व है जो अपनी दृढ इच्छाशक्ति के लिए विख्यात है - अमेरिका के पूर्व सीनेटर गेलार्ड नेल्सन.

                इस दिवस के आरम्भ करने की मुहिम के पीछे क्या अवधारणा थी ?  इस बारे में कुछ बातें  उन्हीं की जुबानी मिली है, जो मैं  दैनिक जागरण के साभार यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ.


" पृथ्वी दिवस का मकसद क्या था? कैसे हुई इसकी शुरुआत? ये प्रश्न हैं जिन्हें लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं. वास्तव में  पृथ्वी दिवस का विचार मेरे दिमाग में १९६२ में आया और सात साल तक चलता रहा. मुझे इस बात से परेशानी थी की हमारे पर्यावरण संरक्षण हमारे राजनीतिक एजेंडे में शामिल नहीं है. नवम्बर १९६२ में मैंने इस विचार से राष्ट्रपति कैनेडी को अवगत करने और मुद्दे को उठाने के लिए उनको राष्ट्रीय संरक्षण यात्रा करने के लिए मनाने की सोची. एटार्नी जनरल राबर्ट कैनेडी से इस प्रस्ताव के बारे में बात करने के लिए मैं वाशिंगटन  गया. विचार उनको पसंद आया. राष्ट्रपति को भी यह पहल पसंद आई . सितम्बर १९६३ में राष्ट्रपति ने ग्यारह प्रान्तों की अपनी पांच दिवसीय संरक्षण यात्रा शुरू की. लेकिन कई कारणों से इसके बाद भी मुद्दा राष्ट्रीय एजेंडा नहीं  बन सका. इस बीच मैं पर्यावरणीय  मुद्दों पर लगातार जनता के बीच आवाज उठाता रहा. पूरे देश में पर्यावरण में होने वाले नुकसान को स्पष्ट देखा जा सकता था. लोग पर्यावरण सबंधी मुद्दों पर चिंतित थे लेकिन राजनीतिज्ञों के कानों पर जून नहीं रेंग रही थी. १९६९ की गर्मियों के दौरान वियतनाम युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन कालेजों के कैम्पस तक पहुँच चुका था. यही मेरे जेहन में यह ख्याल आया कि क्यों न पर्यावरण को हो रहे नुकसान के विरोध के लिए व्यापक जमीनी आधार तैयार क्या जाए. सितम्बर १९६९ में सिएटल में एक जनसभा में मैंने घोषित किया की १९७० के वसंत ऋतू में पर्यावरण मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक प्रदर्शन किया जाएगा. भागीदार बनाने के लिए सबका आह्वान किया. अख़बारों में इस खबर को अच्छी तरीके से कवर किया गया. इसके बाद खबर फैलते देर नहीं लगी . टेलीग्राम, पत्र और टेलीफ़ोन के माध्यम से इस विषय में अधिक जानकारी के लिए देश भर से तांता लगा गया. जन-जागरण शुरू हो चुका था. मैं अपने मिशन में कामयाबी की ओर बढ़ रहा था अंततः २२ अप्रैल १९७० को २ करोड़ के विशाल जाना समुदाय के बीच पहला पृथ्वी दिवस मनाया गया."
                              जब ये काम ४० वर्षों से चल रहा है तब हमारी पृथ्वी की ये हालत है अगर हम अब भी नहीं चेते तो ये ज्वालामुखी, भूकंप , सुनामी और भूस्खलन - जो इस पृथ्वी के पीड़ा के प्रतीक हैं, इस पृथ्वी को नेस्तनाबूद कर देंगे. ये मानव जाति जो अपने शोधों पर इतरा रही है, कुछ भी शेष नहीं रहेगा. इस लिए आज ही और इसी वक्त संकल्प लें कि पृथ्वी को संरक्षण देने के लिए जो हम कर सकेंगे करेंगे और जो नहीं जानते उन्हें इससे अवगत कराएँगे या फिर अपने परिवेश में इसके विषय में जागरूकता फैलाने के लिए प्रयास करेंगे.  जब धरती माँ नहीं रहेगी तो उसकी हम संताने होंगे ही कहाँ? इस लिए हमें भी रहना है और इस माँ को भी हरा भरा रखना है ताकि वह खुश रहे और  हम भी खुश रहें.

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

झंडा ऊँचा रहे हमारा!


    तिरंगा - एक तीन रंग के कपड़े के टुकड़ों से बना और उस पर एक चक्र.
                  राष्ट्रीय त्योहारों पर बड़ी शान से फहराया जाता है और राष्ट्रीय शोक पर झुकाया जाता है. 
--ये क्या मायने रखता है? 
--एक भारतीय के लिए, 
-- हमारे सैनिकों के लिए , 
ये हमारे दिल से पूछो - वह भी अगर हम सच्चे भारतीय हैं तो? 
              इस आलेख में कुछ चित्रों को मैंने लगाया है और ये चित्र मुझे मेरे कुछ प्रिय बच्चों ने भेजे इस शीर्षक के साथ:

Fwd: I wish this mail reaches right ppl .....!!

मैंने इसे अपने कुछ और परिचितों को फॉरवर्ड किया क्योंकि ये सवाल और अपमान एक कपड़े के टुकड़े का नहीं है बल्कि इस तिरंगे की शान के लिए बर्फ की चोटियों पर हाड़  कंपकंपा देने वाली सर्दी में हमारे सैनिक सीमा की निगहबानी कर रहे हैं. उनके लिए ये तिरंगा एक जज्बा है, आत्म सम्मान है और जान की कीमत से अधिक इसकी कीमत है. अपने घरों से , घरवालों से दूर महीनों अपनी देश की रखवाली के लिए तैनात रहते हैं . इन चित्रों को शायद वे देख भी नहीं पायें. 
            कहाँ गए वे लोग जिन्होंने इस तिरंगे के लिए -
           
          झंडा ऊँचा रहे हमारा
         विजयी विश्व तिरंगा प्यारा . 

 ये गान लिखा था, और स्कूल में इसी गान के साथ हम अपनी पढ़ाई शुरू करते थे. आज कुछ अलगाववादी इसको लेकर शर्मनाक व्यवहार करने में भी नहीं चूक  रहे हैं. इस  जमीं  पर  रहना  इसी के हवा और पानी से जीवन लेना फिर इसकी सरहद को घायल  करने की साजिश से बाज क्यों नहीं आते? क्या मिलता है इनको इस बेसबब काम करने से. अगर नहीं रास आता है तो मत रहो इस तिरंगे की छाँव में. 
अनुमान लगाइए कि ये  कहाँ का चित्र हो सकता है? 
पूरे भारत में एक ही जगह है, जहाँ देश में रहकर भी भारतीय न होने का दावा करते हैं.  झंडे का अपमान करते हैं. क्या कभी इन चित्रों को हमारी मीडिया ने दिखाया है?
अगर दिखाया भी हो तो आम आदमी इन तस्वीरों से रूबरू शायद ही हुआ हो. हम किस के धर्म की बात करें?  राष्ट्र धर्म की बात - ये उसके भी विरुद्ध है और उससे अधिक गुनाहगार है हमारा प्रशासन. इन दृश्यों को सिर्फ इस भीड़ ही ने नहीं देखा है बल्कि उसने भी देखा है जो इन तस्वीरों का गवाह है. ये प्रश्न कभी नहीं उठाया गया? सानिया ने निकाह किया तो सौ सवाल उठे--
-सानिया किस देश का प्रतिनिधित्व करेगी? 
-सानिया ने शोएब से निकाह करके अच्छा नहीं किया? 
-क्या भारत में युवकों की कमी आ गयी थी? 
                    मीडिया ने भी हर पल की खबर रखते हुए  पूरे पूरे दिन यही खबरें प्रसारित की. वो उनका धर्म है, किन्तु अगर देश जल रहा है, देश अपमानित हो रहा है, भारत माँ का आँचल जलाया जा रहा है तो उसको खबर नहीं लगी या फिर इस बेमतलब की खबर में मसाला नहीं है कि लोग उसकी ओर आकर्षित हों.  पत्रकारिता धर्म भूल गयी, अभिव्यक्ति के अधिकार कि बात भूल गयी. सच के  बेबाक प्रस्तुति की बात भूल गयी. कश्मीर में अमरनाथ तीर्थ यात्रियों के हाथ से छीन कर कश्मीर पुलिस तिरंगा जला देती है और कोई खबर नहीं होती है. कश्मीर के कुछ हिस्से में स्वतंत्रता दिवस १४ अगस्त को मनाया जाता है, यहां तक की सरकारी भवनों पर झंडा फहराया जाता है और १५ अगस्त को तिरंगा जलाया जाता है. फिर भी सब खामोश हैं. न मीडिया और न ही सरकार किसी को इसकी खबर नहीं होती है या फिर अपने अपने पद के छिनने के भय से चुप्पी साधे रहते हैं.
                        अगर सचिन तेंदुलकर  तिरंगा केक काट देते हैं तो विवाद उठ खड़ा होता है, मंदिरा बेदी तिरंगे के रंगों की साड़ी पहन लेती हैं तो विवाद होता है लेकिन तिरंगा आग के हवाले कर दिया जाता है तो मीडिया अनदेखी कर देती है कोई भी 'ब्रेकिंग न्यूज ' नहीं बनती है. 
                        इस तिरंगे के अपमान के लिए मैं तो देश के जिम्मेदार लोगों की निंदा करती हूँ. जो इस विषय को जान बूझ कर उजागर नहीं करते हैं. क़ानून के दायरे में लाना तो बहुत बड़ी बात है. इस स्वतन्त्र देश में तिरंगे को अपमानित करना एक अक्षम्य अपराध होना चाहिए. 
ये तस्वीरें इस बात की गवाह हैं कि पाकिस्तान की किसी भी हरकत को यहाँ पूरी तरह से समर्थन मिलता है और इस बात के लिए कश्मीर की सरकार भी दोषी है , जिसे इस तरह की घटनाओं के घटित होने पर कोई भी कार्यवाही न करने पर शर्म नहीं आती है. ये वो भारतीय हैं जो देश के नाम पर कलंक हैं.

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

अपने घर में दें प्रमाण!

           अं अः  ( मैं राष्ट्र भाषा हूँ)

जिस घर में हम रहते हैं, जिस घर में हम पैदा हुए और जिस घर की पहचान हमसे बनी हो - वही घर कहे  कि  मैं इस बात का प्रमाण पेश करूँ कि मैं इस घर की ही सदस्य हूँ.  इससे अधिक लज्जाजनक बात और क्या हो सकती है? ये कहने वालों के लिए डूब मरने वाली बात है. ऐसी घटना हो भी हमारे घर में ही सकती है. हाँ मैं अपने ही देश की बात कर रही हूँ.
                हिंदी ब्लॉग्गिंग के लिए नए नए आयाम खोज रहे हैं और हमारे माननीय हमें लज्जित कर रहे हैं.
हिंदी राष्ट्र भाषा है, इसके लिए हमारी हिंदी एक अदालत से हार कर दूसरी अदालत का दरवाजा खटखटा रही है क्योंकि इस अदालत को यह नहीं मालूम है कि हिंदी को संविधान में  किस धारा में राष्ट्र भाषा घोषित किया गया है .
                   एक खबर के अनुसार - गुजरात उच्च  न्यायलय  में हराने के बाद हिंदी राष्ट्र भाषा का स्थान पाने के लिए सर्वोच्च न्यायलय की शरण में पहुंची है. देश का संविधान लागू हुए ६० वर्ष हो चुके हैं लेकिन देश कि राष्ट्र भाषा क्या हो? अभी तक निश्चित नहीं हो सका है. संविधान के अनुच्छेद ३४३-४४  में हिंदी को 'देश की राजभाषा ' घोषित करता हो लेकिन गुजरात उच्च न्यायलय ने कहा कि 'ऐसा कोई प्रावधान या आदेश रिकार्ड में मौजूद नहीं है, जिसमें हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा घोषित किया  गया हो. '
              गुजरात उच्च न्यायलय ने गत १३ जनवरी को अपने एक फैसले में कहा, 'सामान्यतः भारत में ज्यादातर लोगों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा कि तरह स्वीकारा है, बहुत से लोग हिंदी बोलते हैं और  देवनागरी में लिखते हैं लेकिन रिकार्ड पर ऐसा कोई आदेश या प्रावधान मौजूद नहीं है, जिसमें हिंदी को देश की राष्ट्र भाषा घोषित किया गया हो.'
                     संविधान बन गया और व्याख्या भी हो गयी , किन्तु अभी तक ये स्पष्ट नहीं हो पाया है कि हिंदी का क्या स्थान है? हिंदी भाषी पूरे भारत में सर्वाधिक लोग हैं और जो नहीं भी हैं वे हिंदी को पूरी तरह से बोल और समझ सकते हैं. अभी तक हम अंग्रेजी के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाए हैं. कितना अपमान जनक लगता है कि और देशों के प्रतिनिधि अपनी भाषा में ही स्वयं को प्रस्तुत करते हैं और हम अपने को अंग्रेजी में . ऐसा नहीं  है कि उनको अंग्रेजी नहीं आती बल्कि इसलिए कि देश कि गरिमा अपनी भाषा, वेशभूषा और संस्कृति में होती है. जब हमारे जन प्रतिनिधि अपनी बात हिंदी में नहीं प्रस्तुत  कर सकते हैं तो  वे हमारे प्रतिनिधित्व की बात क्यों करते हैं? जब हम अपने देश के प्रतिनिधियों को विदेशी सम्मेलनों में बोलते हुए सुनते हैं तो बहुत अपमान जनक लगता है. हमारी अपनी पहचान क्या है? यही कि हम अपनी पहचान के लिए अदालत के दरवाजे खटखटा रहे हैं. एक आवाज उठानी चाहिए कि संविधान के अनुच्छेदों का पुनरीक्षण किया जाय और उनके बारे में विभिन्न साधनों के द्वारा समस्त नागरिकों को अवगत कराया जाय. जिससे कि न्यायलय ऐसे निर्णय देने से पहले विचार करे कि इसका विरोध सिर्फ कोई संविधानविद ही न करे अपितु एक आम नागरिक उस पर ऊँगली उठा कर बता सके कि संविधान में क्या लिखा है और कहाँ लिखा है?
                      समस्त ब्लोग्गेर्स से प्रार्थना है कि इस विषय को अपने स्तर पर तो हम उठा ही सकते हैं. इस बारे में अपने विचारों से अवगत कराएँ.

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

क़ानून की ढाल तले अति - ये कैसा क़ानून !




                               क़ानून अंधा होता है - उसको सबूत चाहिए. ये हम रोज सुना करते हैं लेकिन एक ऐसा भी क़ानून बना है जिसमें किसी सबूत जरूरत नहीं होती और उसकी आड़ में ब्लैकमेल भी आसानी से किया जा सकता है. क़ानून हमारे समाज को मर्यादित और संयमित बनाकर सबको सामान्य एवं शांतिपूर्ण जीवन देने के लिए बनाये गए हैं तथा  काल और परिवेश के अनुसार इनका पुनर्निर्माण , संशोधन और नवनिर्माण भी होता रहता है.
                                  हो सकता है कि मेरे इस लेख का नारी समूहों द्वारा विरोध भी किया जाय लेकिन सत्य सदैव सत्य है और गलत कोई भी करे उसको इंगित कोई भी कर सकता है. ऐसा नहीं है कि नारियां गलत नहीं कर रही हैं लेकिन उनके लिए महिला आयोग है . उनसे त्रसित लोगों के लिए क्या मानवाधिकार आयोग कुछ भी नहीं कर सकता है.
                                  मैं  दहेज़ उत्पीड़न निरोधक क़ानून के विषय में चर्चा कर रही हूँ. इसके लिए कोई सबूत नहीं चाहिए. इसके साथ ही इसका उपयोग वास्तव में त्रसित कितनी महिलायें कर पाती हैं? इसके आंकड़े भी बताते हैं कि क़ानून अंधा होता है. 
                                  मेरे बराबर वाले फ्लैट  में एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर रहता है - एक साल पहले शादी हुई, बड़े सपने सजाये थे. पहले तो घर में जाकर सबको अपने अनुरूप चलाने की कोशिश की , जब सही और गलत सब नहीं चला तो मायके जाकर बैठ गयी.  फिर उसने वहीं से उसको परेशान करना शुरू कर दिया. उसकी शर्तें थीं:
--अपने परिवार से कोई रिश्ता नहीं रखोगे.
--जब भी यहाँ रहोगे तो मेरे घर ही रहोगे, अपने घर नहीं जाओगे.
--भाई  - बहनों के लिए कुछ नहीं करोगे.
--होली दिवाली भी मेरे ही घर में होगी क्योंकि मेरा भाई विदेश में रहता है और मेरी माँ अकेली है.


                   लड़के को ये शर्ते मंजूर न थीं उसने दूसरी कंपनी में नौकरी ले ली और यहाँ आ गया. दिन भर अपनी कंपनी में काम और रात में पत्नी के तमाशे में पिसता रहता है. इससे पहले वह किराए से रहता था तो पत्नी के तमाशे से तंग आकर मकान मालिक ने मकान खाली करवा लिया. जहाँ वह शादी से पहले से रहता चला आ रहा था.
रोज रात का तमाशा बना रहता है. पड़ोसियों कि नींद हराम अलग से. बालकनी खोल कर रात को चिल्लाना शुरू कर देती है - 
--मारो मारो - मेरा भाई तुम्हें और तुम्हारे घर वालों को दहेज़ में जेल में सडवा देगा.
--देखती हूँ तुम्हारी बहन कि शादी कैसे होती है?
--तुम्हारे ७० साल के बाप को जेल की चक्की न पिसवा दी तो मेरा नाम नहीं.
                               जब मन होता है आ जायेगी और जब मन होगा माँ के घर चली जाती है. अब तो उसकी शक्ल से ही डरता है वो, कई कई दिन घर नहीं आएगा. कभी कंपनी में ही और कभी किसी दोस्त के घर सो जाता है.


                 रीना - सिर्फ १५ दिन ससुराल रही और घर के अनुरूप खुद को न पाकर मायके जाकर दहेज़ एक्ट लग दिया. सास, ससुर, पति सभी जेल कि सलाखों के पीछे पहुँच गए. फिर जमानत पर वापस आये. 
                       इससे पहले फॅमिली कोर्ट में लिख कर दे चुकी थी कि मैं ही ससुराल वालों से अच्छा व्यवहार नहीं कर पायी - आगे से ठीक से रहूंगी. ससुराल आई भी नहीं और १५ दिन बाद दहेज़ उत्पीडन का मुकदमा कर दिया. स्वच्छंद जीवन जीने के लिए उसे आजादी चाहिए थी. मध्यस्थों से १० लाख रूपये कि मांग की कि सारे मुक़दमे वापस ले लूंगी. इतना पैसा मेरे एकाउंट में जमा करवा दो. अभी तक कोई निर्णय नहीं हो पाया है.


                      कविता ने माँ - बाप के दबाव में आकर शादी कर ली और फिर अपनी आदतों से ससुराल वालों को परेशान कर दिया. जब ससुराल में घर पर कोई न था,  तो अपने बॉय फ्रेंड के द्वारा पुलिस को बुलाकर सारा सामान लेकर चली गयी. घर वालों ने ससुराल वालों पर आरोप लगाकर मुकदमा कर दिया.  उसने समाज के लिए  शादी तो की थी. ससुराल अच्छी नहीं मिली और वह अपने बॉय फ्रेंड के साथ रहने लगी. जब समाज ने उंगली उठाना शुरू किया तो सारे मुकदमे उठा कर तलाक के लिए अर्जी दे दी और फिर बॉय फ्रेंड से शादी कर ली.  इस एक लड़की के घर वालों के कदम ने ससुराल वालों को कितना अपमान , तनाव झेलना पड़ा.  इसके लिए कोई क़ानून नहीं है. 


                   अलका मानसिक रोगी थी, माँ -बाप ने बिना बताये शादी कर दी. जब तक वह दवा खाती रही ठीक थी, किन्तु दवाएं भी सब से छुपा कर खाती थी. जब मायके जाये तो लेकर आती थी. एक बार अधिक दिन रहना हुआ और दवाएं ख़त्म हो गयी - उसकी असामान्य हरकतें शुरू हो गयी. मायके वालों को खबर की तो उसको ले गए और दहेज़ उत्पीड़न का मुकदमा कर दिया कि हमारी लड़की तो अब तुम्हें रखना नहीं है हम तुम्हें भी चैन से नहीं रहने देंगे. वह तो सामान्य जीवन नहीं जी सकती. वह लड़का आज भी इस मुक़दमे के चक्कर में न शादी कर सकता है और न ही मानसिक तौर पर निश्चिन्त रह पाता है. 


                   हम नारी उत्पीड़न की बात को स्वीकार करते हैं, इस क़ानून कि उपयोगिता को भी किन्तु इस बार नारी द्वारा किये जा रहे उत्पीड़न के पीछे क्या इस क़ानून की ढाल नहीं है? यद्यपि इस प्रकार कि महिलाओं कि संख्या २० प्रतिशत है किन्तु सम्पूर्ण नारी जाति पर प्रश्न चिह्न खड़ा नहीं हो जाता है. ऐसे उत्पीड़ित लोगों का कहना है कि सारे क़ानून सिर्फ महिला संरक्षण के लिए ही  बने हैं - तथ्य या सत्य की कोई नहीं सुनता है - न पुलिस और न क़ानून. अब तो लड़कों कि शादी करने से डर लगता है कि ये घर की  लक्ष्मी आ रही है या फिर बरबादी. 
                                 इस सारे कथन का पर्याय ये है कि हमारा अंधा क़ानून कब तक एक ही दिशा में चलता रहेगा. क़ानून बनना सही है किन्तु उसके दुरूपयोग की दिशा में भी कठोर दृष्टि रखनी चाहिए. महिला आयोग इस बात से वाकिफ नहीं है ऐसा भी नहीं है किन्तु महिला आयोग है तो उसके खिलाफ बोलना उसके नियमों और नाम के विपरीत हो जाएगा. इस के लिए मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग को आपस में मिलाकर इस तरह के मामलों के लिए समवेत  हल सोचने होंगे. किसी को भी बिना कुछ सुने सीधे जेल में डाल देना और फिर जमानत भी नहीं होना किस क़ानून की दृष्टि में सही है. जब कि वास्तव में जो दहेज़ के लिए उत्पीड़ित करते हैं, वे इस शिकंजे में फंसते ही नहीं है. पहले ही क़ानून को खरीद कर अपनी जेब में डाले रहते हैं.  मुझे इस बारे में आप सभी से सुझाव चाहिए कि इसका हल क्या हो? जब कि यह समस्या भयावह रूप लेती जा रही है. सारे मामले मैंने बहुत बहुत करीब से देखे हैं.