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गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

आनर किलिंग !

"ऑनर किलिंग" इस नए शब्द का प्रादुर्भाव कुछ ही समय पहले हुआ है लेकिन यह जुड़ा नारी से ही है क्योंकि "नारी" ऑनर का प्रतीक है। अपने घर में देवी की तरह से पूजा जाता है - बहुत वन्दनीय मानी जाती है और फिर मार दी जाती है।
"ऑनर किलिंग' किसी न किसी तरीके से आहत नारी को ही कर रही है। यह आज की नहीं सदियों से चली आ रही परम्परा का सुधरा हुआ रूप है। राजपूतों में बेटियों को पैदा होते ही मार दिया जाता था क्योंकि अपने सम्मान को ताक में रख कर किसी और के द्वार पर बेटी के विवाह के लिए सिर न झुकाना पड़े।

आज ये खूबसूरत नाम दे दिया गया है। एक ऐसा कृत्य जिसके लिए अपने से जुड़े किसी आत्मीय के खून से ही अपने हाथ रंग लिए जाते हैं। - पर यह भूल जाते हैं की जिस ऑनर के लिए वे ये अपराध कर या करवा रहे हैं - वह उनके ऑनर को हर हाल में कलंकित ही कर रहा है। उनके कार्यों से न सही ,अपने कार्यों से भी गया तो आपका ही ऑनर।

इसके कितने उदहारण दिए जाए - उत्तर प्रदेश में एक भूतपूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी ने बहुत यत्न से परिवार के साथ ऐसे ही एक कृत्य को अंजाम दिया था पर क्या हुआ? एक माँ की बेटी गई पर क्या वे अपने ऑनर को बचा पाये। अभी हाल में ही हुए जम्मू में आँचल शर्मा ( जो शादी से पहले मुस्लिम थी) को अपने पति रजनीश शर्मा को खोना पड़ा क्यों? उसके परिवार के ऑनर का सवाल था की लड़की किसी गैर धर्म वाले से विवाह कैसे कर सकती है। ख़ुद न किया तो ये कृत्य दूसरों से करवा दिया।
ये झूठे ऑनर को क्या इनका कोई भी कृत्य कलंकित नहीं कर रहा है। उँगलियाँ आप पर ही उठ रही हैं। तब भी उठती और अब भी उठ रही हैं। फिर क्यों नहीं थोड़ा सा साहस करके अपनी झूठी शान ताक पर रख कर अपने ही अंशों को उनका अपना जीवन जीने देते हैं। वे तो अपना जीवन देकर तुम्हें आत्मतुष्टि दे जाते हैं लेकिन इस अपराध बोध से आज नहीं कल तुम्हारा ही अतीत तुम्हें जीने नहीं देगा। किलिंग तो कुछ लोगों के जीवन में रक्त-मज्जा के साथ घुलमिल सकती है किंतु 'ऑनर किलिंग ' हमेशा किसी बड़े नमी गिरामी या तथाकथित इज्जतदार परिवारों की ही करतूत होती है।
रोज अख़बारों में पढ़ा जाता है
--'युगल प्रेमियों की लाशें मिलीं'।
--'दोनों को जिन्दा जला दिया'
--'कहीं अनजान युवती की लाश मिली'
--'पंचायत ने उन्हें जान से मारने का आदेश दिया'
--'न्याय के लिए पति अदालत की चौखट पर खड़ा है और उसकी पत्नी नहीं मिल रही है.
--'दुर्घटना बनाकर उनकी इहलीला समाप्त कर दी गई'

और फिर ये ऑनर किलर जश्न मना रहे होते है कि परिवार की इज्जत बच गई, लेकिन ये नहीं जानते की ये चहरे के नीचे लगे हुए चेहरे को पढ़ने की कला इस समाज को आती है। समाज में दबी जबान से तो चर्चा का विषय आप बने ही होते हैं।
कभी - कभी तो विवाह जैसे संस्कार के बाद भी लड़की के सिन्दूर को ऐसे मिटा दिया जाता है कि जैसे होली के रंग हों। 'भूल जाओ की कोई तुम्हारी जिन्दगी में ऐसा आया था।'

लड़की अपनी है तो बच गई और किसी के बेटे को खत्म करवा दिया, या ठीक इसके विपरीत भी किया जाता है। यह सोच कर की कुछ दिन में सब ठीक हो जाएगा। इस ऑनर किलिंग के बाद तो ये 'पॉवर वाले' लोगों की 'पॉवर ' आदमी की जिन्दगी को एक खिलौने की तरह गर्दन मरोड़ कर फ़ेंक देते हैं। आम आदमी तो न्याय तक नहीं प्राप्त कर पाता है - उनकी पॉवर हत्या करने वालों से लेकर सबूतों और न्याय के ठेकेदारों को खरीदने में सक्षम होती है।

'नीतीश कटारा' का नाम इस दिशा में आज भी याद है। घर वालों के जेहन में अपने जिगर के टुकडों की छवि न्यार के लिए दौड़ते दौड़ते धूमिल होने लगती है या फिर वे ख़ुद ही उसी के पास चले जाते हैं.

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

मानव अमर होने वाला है!







एक दिन पहले ही पढ़ा कि कुछ ही वर्षों के शोध के बाद मानव अमर हो जाएगा। बड़ी खुशी हुई कि अब तो न ईश्वर , न प्रकृति और न ही नश्वरता के दर्शन का भय।

पर विगत दो दिनों में हो प्रकृति का कहर फिलिपिन्स और समोआ , टोंगा और अमेरिकन समोआ में देखा तो लगा कि जब हम प्रकृति के इन कहरों से मानव जाति को बचा नहीं पा रहे हैं तो अमर कौन होगा? कितने लोग अमर होकर रहेंगे इस पृथ्वी पर। हम क्यों अमरत्व कि ओर इतना आकर्षित होते हैं। अमरत्व का अर्थ यह तो नहीं कि हम मानसिक और शारीरिक कष्टों से मुक्ति पा लेंगे। क्या हमारे ही कृत्यों से प्रकृति बगावत कर रही है? उस पर हम विजय क्यों नहीं पा रहे हैं? उसको वश में करना यदि हमारे वश में नहीं है तो उसकी कृतियों के प्रति हम इतने आश्वस्त कैसे हो सकते हैं?
मनुष्य कि कामना अमरत्व कि नहीं बल्कि जितना भी जीवन मिले वह सद्कार्यों और सद्भावों से परिपूर्ण हो। मानव के प्रति मानव में प्रेम और सम्मान हो। अपनी शक्ति और धन के बल पर शोषण कि भावना न हो। अरे जीवों को ही शान्ति पूर्वक जीने कहाँ देते हैं हम? अगर दुधारू जीव है तो उसकी अस्थियों से तक दूध निकल कर बेच रहे हैं और ख़ुद के लिए अमरत्व कि कामना करते हैं। घर में अगर अपाहिज बुजुर्ग हैं तो उनके लिए मृत्यु कि कामना कर रहे हैं और स्वयं के लिए अमरत्व चाहते हैं।
कभी हमने सोचा है कि हम कहाँ जा रहे हैं? शायद नहीं? सिर्फ 'स्व' पर आधारित जीवन हमारे जीवन के मानदंडों के अनुरूप हमें संतोष और सुख तो दे सकता है , लेकिन अगर सिर्फ 'स्व' ही सब कुछ है तो 'पर' कि अवधारणा किसके लिए बनी है? मानव बन कर आए हैं तो मानव को मानव ही बने रहना चाहिए? इसके लिए किसी दर्शन कि जरूरत नहीं होती, सिर्फ अपनी ही आत्मा की आवाज सुनने की कोशिश करना भर काफी होता है।

सिर्फ अपने को ही हम जीवन के प्रति सहृदय बना लें तो कितने जीवों के प्रति अन्याय और अमानवीय कृत्यों को रोका जा सकता है। ऐसे हालत में अमरत्व की बात हमें उचित लगाती है नहीं तो ये अमरत्व उनको ही मिलेगा जो शक्तिशाली और समर्थ हैं फिर ये जो सिलसिला है शोषण और अमानवीय कृत्यों का वाकई अमर हो जाएगा। एक नहीं कई कई पीढियां त्रस्त रहेंगी क्योंकि वे अमर नहीं हो सकते , हाँ अमरों की चक्की में पिस जरूर सकते हैं.