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गुरुवार, 31 मार्च 2011

मीना कुमारी के पुण्यतिथि पर !




आज ३१ मार्च एक अदाकारा और एक शायरा की पुण्यतिथि पर मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि। आज मीना कुमारी की पुण्यतिथि है, वह बीते ज़माने की अदाकारा रही हैं लेकिन उनके बिना हिंदी सिनेमा की चर्चा हमेशा अधूरी रहेगी। कुछ पसंद मन मष्तिष्क पर बचपन से ही अंकित हो जाती है और मुझे बचपन से ही मीनाकुमारी बहुत पसंद थी। उनके संजीदगी से भरे रोल और उनका अभिनय मुझे हमेशा पसंद रहा। जब की फिल्मों की कहानी की समझ भी इतनी अच्छी नहीं होती थी। हाँ फिल्में मैंने बचपन से बहुत देखी कभी माँ पापा के साथ कभी चाचा चाची के साथ।
उस समय भी अपनी पसंद हुआ करती थी। उनकी कुछ फिल्मों में मैं चुप रहूंगी, दिल एक मंदिर, काजल, फूल और पत्थर , पाकीज़ा मुझे बहुत पसंद रहीं। जिनमें शुरू की फिल्में तो शायद मैंने अपने बचपन में देखी थी लेकिन आज भी कुछ दृश्य मष्तिष्क में जैसे के तैसे बसे हुए हैं। शुरू में तो सिर्फ एक अभिनेत्री के रूप में ही जाना था।
जब उनकी मृत्यु हुई तो मैं बहुत बड़ी तो थी लेकिन पता नहीं क्यों उनकी मौत ने झकझोर दिया था। घर में पत्रिकाएं सभी आया करती थी तो जानकारी भी अच्छी रहती थी। उनकी मृत्यु पर मैंने के संवेदना पत्र फिल्मी पत्रिका "माधुरी " में लिखा था और वह पत्रिका उस समय धर्मयुग की सहयोगी पत्रिका थी। उस पत्र के प्रकाशन के साथ ही मुझे लिखने वालों के साथ होने वाले व्यवहार का अनुभव होने लगा। इस क्षेत्र में आने का पहला चरण यही से रखा गया और फिर यहाँ तक कर खड़ी हो गयी।
उनकी मृत्यु के बाद ही उनके शायरा होने के एक नए रूप से भी परिचय हुआ जब की उनकी नज्में सामने आयीं और गुलजार साहब को प्रकाशित करवा कर सबके सामने रखा। उनकी कई पढ़ी हुई पंक्तियों में मुझे उनके जीवन के अनुरुप ये पंक्तियाँ सबसे उचित लगीं।

टुकड़े टुकड़े दिन बीता और धज्जी धज्जी रात मिली,
जिसका जितना आँचल था उतनी ही सौगात मिली।

बुधवार, 30 मार्च 2011

कौन बीमार दवा किसकी? (२)

सिर्फ एक पक्ष देख लेने भर से ही तो जीवन में महत्वपूर्ण निर्णय नहीं किये जा सकते हैं पत्नी के बाद मैंने पति का भी पक्ष पूछा और उनसे ऐसे ही सवाल किये कि ' वे परिवार में निजता को कितना महत्व देते हैं? '

'परिवार तो एक खुली किताब की तरह होनी चाहिए इसमें निजता का सवाल कहाँ से आता है? '

'नहीं अगर सारे दिन के बाद आपसे कोई पूछे कि आप किस किस से मिले क्या बात हुई तो? '

'किसी ने पूछा ही नहीं - नहीं तो बता देता' उन्होंने बड़े ही सहज भाव से कहा

'हमें अपनी समस्या और बातें शेयर करनी ही चाहिए नहीं तो एक दूसरे के साथ कैसे जीवन बिताया जा सकता है'

उनकी बातों में जो सहजता और खुलापन था उससे नहीं लगा कि वे किसी के शक के दायरे में ऐसा कर रहे होंगे यह उनके स्वभाव का एक हिस्सा है लेकिन जिसे नहीं पसंद उसे अपनी बात खुल कर कहानी ही चाहिए इस बात को उनकी पत्नी ने स्वीकार किया था कि मेरे पति बहुत अच्छे हैं , केयरिंग है फिर इस व्यवहार एक प्रश्न चिह्न खड़ा कर रही थी

कुछ लोगों कि प्रकृति ही ऐसी होती है कि लोग उसको शक कह सकते हैं और वह शक हो भी सकता है किन्तु इस बात से वह व्यक्ति खुद भी अनभिज्ञ होता है कि वह जो कर रहा है वह दूसरे कि नजर में गलत है उसके व्यवहार की कमियों को तो कोई दूसरा ही पकड़ सकता है इसके लिए दोनों की ही काउंसलिंग होनी चाहिए या तो व्यक्ति का इतना बड़ा मित्रों का दायरा हो कि वह अपना समय उनके बीच गुजारता रहे और उसे घर के प्रति इतनी अधिक लगाव हो कि वह हर बात में खुद को साझीदार बनने की चाह रखता हो ये कुछ मुद्दे हैं जो कि जीवन भर इंसान भागता रहता है और ऐसी छोटी मोटी बातों के लिए उसके पास समय ही नहीं होता है लेकिन जब वह अपनी बहुत सी जिम्मेदारियों सेमुक्त हो जाता है तो फिर दो लोगों के बीच ही जीवन गुजरना होता है और इसमें उसकी अपेक्षा कि वे आपस में हर बात को शेयर करें कुछ भी गलत नहीं होती है बच्चों के रहते हुए माँ उनके भविष्य के प्रति चिंतित उनके खाने पीने और स्वास्थ्य रहने के प्रति संवेदनशील होती है और पिता उनके लिए साधन जुटाने के लिए जब बच्चे बाहर चले गए तो फिर घर में दो ही प्राणी बचे रहते हैं फिर एक दूसरे के प्रति निष्ठां और समर्पण का भाव ही रह जाता है इस समय सभी ये चाहते हैं कि उनका जीवनसाथी जो अब तक घर बच्चों और दायित्वों में बँटा रहा है , अब सब से निवृत होकर उसके साथ रहे अगर वे पत्नी कि उदासी से परेशान होते तो फिर उन्हें क्यों मेरे पास लाये होते लेकिन वे अपने स्वभाव वश अपनी टाक झांक को गलत नहीं मान पा रहे थेइस बात के लिए उनसे बात की जातीतो शायद वे अपने को उनके सामने भी व्यक्त कर पाते

ये स्थिति सिर्फ और सिर्फ किसी नारी के लिए ही खड़ी होती है ऐसा नहीं है, पुरुष भी इसके शिकार हैं जहाँ पत्नी अपने स्वभाव वश पति के लिए एक समस्या बन कर खड़ी होती है ऐसे समय में जरूरी है कि जो भी गलत है रहा हो उसकी काउंसिलिंग करवाई जाएइसमें संकोच जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए कई बारकोई बात होते हुए भी ऐसे हालात बन जाते हैं की शक जैसी स्थिति बन जाती है और फिर उसका परिणाम अच्छानहीं होता हैइस लिए सही व्यक्ति का ही इलाज होना चाहिए और ऐसी बातों में परिपक्वता और समझदारी काप्रयोग होना चाहिए

सोमवार, 28 मार्च 2011

कितने अर्थ आवर !

'अर्थ आवर' का पूरे विश्व में आह्वान किया गया और मीडिया ने चंद अँधेरे बंगलों को कैद करके दिखा दिया की हमने 'अर्थ आवर' में अँधेरा रखा है , किन्तु इसका यथार्थ कुछ और ही है और ये सबने देखा भी। अपने ही घर से शुरू करती हूँ -- जैसे ही मैंने लाईट बुझानी शुरू की और मेरे जेठ जी ने देखा (हम संयुक्त परिवार में रहते हैं) उन्होंने तुरंत टोका - अरे बिल तो पूरा ही भरना है चाहे जितना बंद करो फिर क्यों बुझा रही हो? मेरे कमरे में और टीवी को चलने दो। बहस मैं करती नहीं सो मैंने उस कमरे को छोड़ दिया।
लाईट बंद करते ही अगल बगल के घरों से आवाज आनी शुरू हो गयी - 'आपके यहाँ बत्ती चली गयी क्या ?'
'हाँ , हमारा फ्यूज उड़ गया है।' कह कर उन्हें शांत कर दिया क्योंकि मुझे पता था कि हम अपनी मानसिकता और सोच बदलने के लिए तैयार नहीं है।
दूसरे दिन सबसे पूछा क्योंकि सन्डे था तो लोग मिल ही गए और कुछ लोग मिलने आये उनसे भी जाना। कुछ लोगों के ऐसे विचार थे -
'अरे ये चोचलेबाजी है अखबार वालों की।'
'क्यों बंद करें? एक तो मिलती ही नहीं है और उसपर भी बंद कर दें न बाबा।'
'मेरे बच्चे तो बिना बत्ती के रह ही नहीं सकते इतनी गर्मी में।' ऐसे लगता है की उसके बिना लोग जिन्दा ही नहीं रहते हैं।
'हम पूरा बिल देते हैं फिर क्या हमारा ही ठेका है, पहले और घरों से बंद करवाओ। '
'क्या जिनके यहाँ शादियाँ हो रही हैं, उत्सव मनाया जा रहा है उनसे बंद करवा सकते हैं?'
ये कोई जुलूस नहीं की सब उसमें शामिल हो जायेंगे तो नेता के ऊपर अहसान करेंगे। किन्तु हमारी सोच कितनी जागरूक है ये देखने के लिए हमें ऐसे लोगों से मिलना ही पड़ता है। कानपुर के बिजली विभाग के एम डी का बंगला जगमगाता रहा और जब उनसे इसके बाबत पूछा गया तो बोले की नौकरों को हिदायत देना भूल गया था। एक इतने बड़े ओहदे पर बैठा हुआ अधिकारी ऐसी बात करे तो क्या कहेंगे हम? आम आदमी को दोष क्यों दें?
किस किस की सफाई दें? हम एक घंटे बंद नहीं कर सकते हैं और हमारे हर कमरे में AC और टीवी चलना चाहिए। रोज की बात देखें तो स्ट्रीट लाईट बराबर जला करती है। फिर आम आदमी क्यों रोता है? क्या इसमें पावर खर्च नहीं होती है। पानी नहीं तो वबाल मचा देंगे और नालियों में सबमर्सिबल लगा कर पानी बहते रहेंगे तो कोई बात नहीं । विभागीय कर्मचारी और अधिकारी इस जिम्मेदारी को कब समझेंगे? अगर नहीं समझना चाहते हैं तो फिर हम कितने भी अर्थ आवर निर्धारित कर लें कुछ भी नहीं होने वाला है। अब हम क्या कुछ सोच सकते हैं।
तो फिर अपने से ही शुरू करें? चलो आगाज करें।

शनिवार, 26 मार्च 2011

कौन बीमार औ' दवा किसकी?



वह दंपत्ति मेरे पास आया था और उनके पति अपनी पत्नी की काउंसिलिंग के लिए उन्हें लाये थेउन्हें शिकायतथी कि वे बहुत गुमसुम रहने लगी हैंउन्हें लगता है कि घर से बाहर और ऑफिस में खुश रहती हैं फिर घर में हीआकर क्या हो जाता है? वे इसका निदान चाहते थे और उन्होंने ये बात मुझे फ़ोन पर पहले ही बता दी थीपति औरपत्नी दोनों ही उच्च शिक्षित और अच्छी जगह पर नौकरी कर रहे थे
जब उन दोनों ने मेरे कमरे में प्रवेश किया तो मुझे ये समझते देर नहीं लगी कि बीमार कौन है ? जहाँघर में सिर्फ दो ही लोग रहते हों और फिर भी तनाव तो उसका कारण कोई एक तो बनता ही होगामैंने दोनों से हीअलग अलग बात करना चाहा तो पति से कहा कि आप बाहर बैठें , मैं इनसे अकेले में कुछ पूछना चाहती हूँपतिदेव बाहर चले गए
जब पति बाहर निकल गए और दरवाजा बंद हो गया तो पत्नी ने पीछे मुड़कर देखा और एक गहरीसाँस लीउनकी सिर्फ एक सांस ने पूरी कहानी बयान कर दीफिर भी उनकी हिस्ट्री तो जाननी ही थी
"आपके घर में कितने सदस्य हैं?"
"हम दोनों ही हैं - बच्चे बाहर पढ़ रहे हैं।"
"आप जॉब करती हैं?"
"जी।"
"कहाँ?"
"बैंक में पी आर हूँ।"
"आपकी सेलरी भी अच्छी होगी, फिर आप तनाव में क्यों रहती हैं?"
"क्या सिर्फ पैसा होना ही तनाव का वायस होता है?"
"ऐसा तो नहीं है फिर भी ७० प्रतिशत तो होता ही है।"
"मेरे साथ ऐसा नहीं है - मेरे तनाव का करण सिर्फ इनकी कुछ आदतें हैं, जिन्हें बहुत सहा लेकिन अब झेल नहीं पाती हूँ तो खामोश रहती हूँपहले बच्चे थे उनसे सब शेयर कर लेती थी किन्तु अब घुटकर रह जाना पड़ता हैकिससे बांटूं?"
"मुझे बतलाइये शायद कोई समाधान निकल सके।"
"मेरे पतिदेव वैसे बहुत अच्छे हैं, केयरिंग हैं किन्तु उनकी कुछ आदतें अब मुझे भारी पड़ने लगी हैंपहले किसीऔर तरीके से ये सामने आती तो टाल जाती थी किन्तु अब मेरे सहन शक्ति भी जवाब देने लगी है।"
"जैसे"
"सबसे पहले जब भी उन्हें मौका मिलेगा मेरे मोबाइल की सर्च करेंगेये किसका नंबर है? ये कौन है? इस नंबरपर इतनी देर क्या बात हुई? आज दिन में किस किस कि कॉल आई और क्या बात हुई? किसी नए नम्बर को देखकर सवालमेरे मैसेज बॉक्स को खोल कर पढ़नाबच्चों से इतनी इतनी देर तक क्या बात करती हो? वैसे चाहेजितना पैसा खर्च करो कोई बात नहीं लेकिन मोबाइल में खर्च पर सेंसर बैठा रहता है और ये बातें अब मेरी सहनशक्ति से बाहर हो चुकी हैं तो मैं संक्षेप में उत्तर देकर चुप ही रहती हूँ। "
"बस इतनी सी बात।"
"आपको ये बात इतनी सी लगती होगी , मेरे लिए ये मेरे अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न जैसा लगता हैआख़िर क्यों? मैंसारी बातें शेयर करूँ? ऑफिस में क्या होता है? क्या समस्या मेरे सामने आई और कैसे निपटी? ये मेरा काम हैमेरा मोबाइल मेरी निजी संपत्ति है उसको छूना और उसका पोस्ट मार्टम -- मैं तनाव बढ़ाना नहीं चाहती हूँ इसलिएचुप ही रहती हूँ।"
अब माजरा मेरी समझ में आया कि यहाँ बीमार पत्नी नहीं बल्कि पति स्वयं हैं और ऐसे लोग खुद इसबात को कभी स्वीकार या महसूस ही नहीं कर सकते हैं कि उनके द्वारा किया जा रहा व्यवहार असामान्य हैउनकीदृष्टि में ये उनका अधिकार है कि पति और पत्नी का कुछ भी बँटा हुआ नहीं है फिर भी निजी जिन्दगी हर एक कीअलग होती हैअपने निजत्व में कौन किसको कितना हिस्सा देना चाहता है उसका सम्मान करना चाहिए
एक सिर्फ एक पति या पत्नी का ही मामला नहीं है बल्कि ये तो माँ बाप और उनके बच्चों के मध्य भीहो सकता हैऐसा व्यवहार करने पर बच्चे विद्रोही तक हो जाते हैंजरूरत से ज्यादा नजर रखने पर बच्चे जानबूझकर उसका उल्लंघन करने लगते हैंइसका मतलब ये कतई नहीं है कि बच्चों पर नजर रखना छोड़ देंये विद्रोह किशोरावस्था में अधिक होता है और यही वह उम्र होती है जब कि बच्चों के कदम गलत रास्ते पर जा सकते हैंआप उन पर दृष्टि रखिये लेकिन उनके पीछे सेउन्हें समझाइए लेकिन दूसरों का उदाहरण देकर ताकि उन्हें ये लगे कि ये सारी बातें उन पर थोपी जा रही हैंइलाज उसी का होना चाहिए जो वास्तव में बीमार हो लेकिन पुरुषअपने को और अपनी गलतियों को खासतौर पर ऐसे पुरुष मानने के लिए तैयार ही नहीं होते हैं और फिर इसकाकोई भी इलाज संभव ही नहीं हैऐसा सिर्फ स्त्रियों के साथ ही होता हो ऐसा नहीं है इसके ठीक विपरीत स्थिति भीमैंने देखी हैअपने परिवार कि सुख और शांति के लिए समझदारी का प्रयोग तो दोनों को ही करना होगाअगरआप गलत हैं तो उसको स्वीकारिये भले खुद में उसे महसूस कीजिये और दूसरे को अपने निजत्व के साथ जीनेका अधिकार दीजियेऐसे चीजों को समस्या मत बनाइये बल्कि सहजता से लीजियेघर बाहर निकलने वालीनारी हो या पुरुष सबका अपना अपना दायरा बन जाता है और फिर उस दायरे के हर व्यक्ति से वह परिचित नहींकरा सकता/सकती हैइस लिए ऑफिस को घर में मत लाइए और एक दूसरे के प्रति विश्वास और निष्ठां को बनायेरखें

सोमवार, 7 मार्च 2011

महिला दिवस (8 March)



महिला दिवस सिर्फ एक वो दिन है जब की अखबारों में समाजसेवी संस्थाएं और हमारे ब्लॉग जगत में नए नए लेख सजे होते हैं और वास्तव में आम महिला किस स्थिति में है? इसको देखने की किसी को फुरसत नहीं हैं. हमें अच्छा लगता है जब कोई महिला एक नया इतिहास लिखती है. कोई कल्पना चावला , कोई किरण बेदी , कोई सानिया मिर्जा या फिर साइना नेहवाल का नाम लेते हैं. हम गर्व से सर उठा कर बोलते हैं कि
हमें कम न आँकों . हम कम आंकने काबिल भी नहीं है, लेकिन अगर हमें वह मंच मिले, वह माहौल मिले तो आसमान के तारे में तोड़ कर ला सकती हैं. हम असली वास्तविकता से आँखें मूँद कर बैठे रहते हैं. ये चंद उदाहरण सम्पूर्ण आधी आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं. उसकी तस्वीर देखें तो समझ आता है की आज भी वह भेदभाव की शिकार है.
सामाजिक विकास का उद्देश्य सामाजिक न्याय , सद्भाव, समानता और एकजुटता से ही संभव है. अगर विश्व की बात छोड़ कर हम सिर्फ अपने ही देश की बात करें तो आधी आबादी का बड़ा हिस्सा कुपोषण , लैंगिक और सामाजिक भेदभाव, गरीबी और अशिक्षा के दुष्चक्र में फंसा हुआ है. भारतीय समाज में भेद का एक प्रमुख कारण लैंगिक है, विश्व आर्थिक मंच द्वारा नवम्बर २००८ में जारी की गयी रिपोर्ट 'ग्लोबल जेंडर गैप' में भारत का स्थान १३० देशों की सूची में ११३ वें स्थान पर है. गाँवों और शहरों दोनों ही स्थानों में महिलायें दोयम दर्जे पर हैं. एसोचैम की रिपोर्ट बतलाती है की भारतीय महिलायें घर और ऑफिस दोनों जगह भेदभाव का शिकार हैं, न उन्हें काम के बेहतर अवसर मिलते हैं और न ही पदोन्नति के समान अवसर.
जीवन की सबसे पहली आवश्यकता पौष्टिक भोजन है क्योंकि वह आने वाली पीढ़ी के जन्मदात्री होती है और अधिकतर वह परिवार के खाने के बाद जो भी बचता है उसे खाकर सोने में ही ख़ुशी अनुभव करती है. जब की शारीरिक श्रम और अन्य कार्यो में सर्वाधिक परिश्रम वही करती हैं जिससे वह कुपोषण और बीमारी का शिकार हो जाती हैं. इसका निदान खोजना होगा .
शिक्षा की बात करें तो अभी भी ये हालात है कि देश में एक बड़ा प्रतिशत ऐसे लड़कियों का भी है जिन्होंने कभी स्कूल का मुँह ही नहीं देखा है. सरकारी योजनाओं का आधार कुछ भी नहीं होता है. सिर्फ दस्तावेजों में जारी कर दिया उसके फायदे को कितनी लड़कियाँ उठा रही हैं या फिर ठेकेदार कागजों पर चला रहे हैं. इसको देखने वाला कोई भी नहीं होता है.
काम के घंटों की तरफ देखें तो जो घर में रहती हैं वे तो करीब १८-२० घंटे तक काम करती हैं और जो घर में नहीं रहती हैं काम पर जाती हैं वे भी इतने ही घंटे काम करती हैं. वे घर और बाहर दोनों को जब एक साथ सभालती हैं तो उनकी नजर सिर्फ घड़ी की सुइयों पर ही होती है. ऑफिस को देर न हो जाये , वहाँ देर हुई तो अधिकारी की टेढ़ी नजरें, शाम घर में देर हुई तो घर वालों के सवाल. अगर अकेली है तो फिर उसको बच्चों की चिंता खाए जाती है.
महिला सशक्तिकरण तभी सम्पूर्ण हो सकता है, जब महिलाएं रोजगार असुरक्षा , अपर्याप्त भोजन, पारिवारिक चिंताओं और सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से अपने को निश्चिन्त अनुभव कर सकें. अपनी बच्चियों को सुरक्षित महसूस कर सकें. जो आये दिन होने वाली घटनायों से स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है कि वह कितनी सशक्त बन कर उभर रही है?
अगर हम महिला राज्य प्रमुख वाले राज्य की गणना करें तो पाते हैं कि १६ करोड़ के लगभग आबादी वाले उ. प्र. में महिलाओं की संख्या ७.८७ करोड़ है, वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार प्रदेश की कुल जनसंख्या में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या ९० लाख कम है. वर्तमान समय में विविध प्रशासनिक क्षेत्रों में भी महिलायें आधी आबादी के अनुपात में न के बराबर हैं. प्रदेश के ७० जिलों में महिला जिलाधिकारी मात्र ८ हैं. प्रदेश के १७ मंडलों में एक भी महिला मंडलायुक्त नहीं है. उ. प्र. के किसी भी विश्वविद्यालय में न महिला रजिस्ट्रार है, न ही प्राक्टर. प्रदेश के किसी भी विश्वविद्यालय में महिला कुलपति नहीं है. *
अब महिला सशक्तिकरण के लिए अभी क्या और बाकी है? इस पर विचार करना और उसको अमल में लाने के लिए आवाज उठाना ही महिला दिवस की प्राथमिकता होनी चाहिए. जो हासिल है उसको सम्पूर्ण रूप से न देख कर उसे सम्पूर्ण रूप से देखा जाय जो अभी तक मिला ही नहीं है. अपने दायित्वों से वह कभी विमुख नहीं है लेकिन उसके मूल अधिकारों के प्रति तो जागरूक होना है. वह महिला जो आज भी रात में ३ बजे उठकर रोटी बनकर बच्चों को रख कर और खुद सूखी रोटी बाँध कर आलू के खेतों में काम करने ८ किमी पैदल चल कर आती है और वह भी
सुबह आठ बजे खेतों तक आ जाती है. दोपहर में सिर्फ नामक रोटी खाकर फिर आलू खोदने लगती है , शाम ६ बजे छूट कर फिर २ धनते में पैदल चलकर घर पहुँचती है और फिर रात का खाना बनाकर सोती है. वह क्या खाती है? कैसे जीती है? इस दर्द को अपनी आँखों से देख कर ही जाना है. उनके बीच बैठ कर भुने आलू नामक और रोटी खाकर भी देखा है. कहाँ की पौष्टिकता और कहाँ का आराम? ये उसके भाग्य में नहीं है. काम के घंटे भी नहीं है. फिर सशक्तिकरण किसके लिए? कैसा महिला दिवस?
ये काम वहाँ से शुरू करें जहाँ से हमारी जड़ें निकली हैं. अगर हम जड़ों तक नहीं पहुंचे हैं तो हम उस भोगे हुए यथार्थ को नहीं समझ सकते हैं. उसकी बात नहीं कर सकते हैं. इस दिन की सार्थकता तभी है जब इसको हम गाँव में मना कर बता सकें की ये दिन उनका है और क्यों है किसलिए है? इसको भी बताना होगा. सिर्फ लेखों और किताबों से समाज नहीं बदलता है.