बेटियों होना माँ बाप के लिए कम और लोगों के लिए बोझ दिखना सिर्फ आज से नहीं बल्कि सदियों से चला आ रहा है और उन सदियों की स्थिति को हम इतिहास में पढ़ते आ रहे हैं। दशकों से तो हम खुद ही इसको महसूस करते आ रहे हैं लेकिन आज लिखने का साहस मैं तब जुटा पायी जब कि मेरी बेटियों को अपना बोझ समझने वाले लोगों को दिखा दिया कि हमने अपनी पाँचों बेटियाँ को वांछित करियर में सफल होने के बाद सुयोग्य वरों के सुपुर्द करने का कार्य पूर्ण कर लिया है।
जब अपने माता - पिता के घर में चार बहनें थे हम और एक बड़े भाई साहब। ये तो अच्छा था कि एक भाई था तो माँ का चार बेटियों की माँ होने का गुनाह माफ था। पापा तीन भाई और संयुक्त परिवार में तीनों भाइयों में नौ बेटियां और चार बेटे थे लेकिन सबके पास एक बेटा तो था ही। बहनों का ढकौना होने के कारण उन लोगों की सामाजिक स्थिति सम्मानीय रही थी , ज्यादा बेटियां होने का ताना तो सुना उन्होंने भी लेकिन एक बेटा होने का गौरव प्राप्त था उन्हें सो सौ खून माफ।
जब मेरी शादी हुई तो जेठजी की दो बेटियां थीं। लेकिन घर में कई पीढ़ियों के बाद बेटियां हुई थी तो घर वालों को कोई मलाल न था। जब मैं पहली बार माँ बनने वाली थी तो घर में ही नहीं बल्कि बाहर वालों को पूरी उम्मीद थी कि इस बार घर में बेटा होगा। लेकिन मैं तटस्थ थी क्योंकि बचपन से ही मैं अतीत को कभी ढोती नहीं , वर्तमान को रोती नहीं और भविष्य को बोती नहीं। लेकिन घर वालों ने कुछ और सोच रखा था। उस दिन पतिदेव टूर पर थे और घर वाले मुझे हॉस्पिटल लेकर गए। कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। मैं तो अपनी बेटी को देख कर सारी पीड़ा भूल गयी।
पतिदेव रात ग्यारह बजे लौटे तो पता चला कि बेटी हुई है। अस्पताल घर से बहुत दूर था। घर वाले बोले - 'अब रात में जाने की क्या जरूरत ? लड़की ही तो हुई है सुबह जाना। "लड़की ही तो हुई है " जैसे कि बेटी हाड मांस की न होकर कोई बेजान गुड़िया हो। मुझे नौ महीने की पीड़ा नहीं सहनी पड़ी बल्कि कहीं सड़क पर पड़ी मिल गयी हो।
बेटी हो या बेटा माँ बाप के लिए सिर्फ अपना अंश होता है और जान से ज्यादा प्यारा भी। फिर रात में ही इन्होने अपना स्कूटर उठाया और साढ़े बारह बजे हॉस्पिटल पहुंचे तो मुझे बताया कि घर में ये कहा जा रहा था। मुझे लगा कि मेरी पीड़ा और ख़ुशी से किसी का कोई वास्ता नहीं है।
सबसे बड़ा दुःख तो तब लगा जब सुबह कैंपस में भी किसी ने इन्हें बेटी होने की बधाई नहीं दी। इनका का पूरे कैंपस में बहुत अच्छा व्यवहार था। आज की ही तरह सबके सुख दुःख में साथ देना। अरे बेटी हमारे घर में हुई थी न किसी ने मिठाई मांगी और न बधाई दी क्योंकि बाबूजी के घर में तीसरी पोती हुई थी। न बाबूजी दुखी थे और न घर वाले बल्कि खुश थे कि अगर बेटा हो जाता तो शायद उनकी स्थिति निम्न न हो जाये ।
(क्रमशः)
जब अपने माता - पिता के घर में चार बहनें थे हम और एक बड़े भाई साहब। ये तो अच्छा था कि एक भाई था तो माँ का चार बेटियों की माँ होने का गुनाह माफ था। पापा तीन भाई और संयुक्त परिवार में तीनों भाइयों में नौ बेटियां और चार बेटे थे लेकिन सबके पास एक बेटा तो था ही। बहनों का ढकौना होने के कारण उन लोगों की सामाजिक स्थिति सम्मानीय रही थी , ज्यादा बेटियां होने का ताना तो सुना उन्होंने भी लेकिन एक बेटा होने का गौरव प्राप्त था उन्हें सो सौ खून माफ।
जब मेरी शादी हुई तो जेठजी की दो बेटियां थीं। लेकिन घर में कई पीढ़ियों के बाद बेटियां हुई थी तो घर वालों को कोई मलाल न था। जब मैं पहली बार माँ बनने वाली थी तो घर में ही नहीं बल्कि बाहर वालों को पूरी उम्मीद थी कि इस बार घर में बेटा होगा। लेकिन मैं तटस्थ थी क्योंकि बचपन से ही मैं अतीत को कभी ढोती नहीं , वर्तमान को रोती नहीं और भविष्य को बोती नहीं। लेकिन घर वालों ने कुछ और सोच रखा था। उस दिन पतिदेव टूर पर थे और घर वाले मुझे हॉस्पिटल लेकर गए। कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। मैं तो अपनी बेटी को देख कर सारी पीड़ा भूल गयी।
पतिदेव रात ग्यारह बजे लौटे तो पता चला कि बेटी हुई है। अस्पताल घर से बहुत दूर था। घर वाले बोले - 'अब रात में जाने की क्या जरूरत ? लड़की ही तो हुई है सुबह जाना। "लड़की ही तो हुई है " जैसे कि बेटी हाड मांस की न होकर कोई बेजान गुड़िया हो। मुझे नौ महीने की पीड़ा नहीं सहनी पड़ी बल्कि कहीं सड़क पर पड़ी मिल गयी हो।
बेटी हो या बेटा माँ बाप के लिए सिर्फ अपना अंश होता है और जान से ज्यादा प्यारा भी। फिर रात में ही इन्होने अपना स्कूटर उठाया और साढ़े बारह बजे हॉस्पिटल पहुंचे तो मुझे बताया कि घर में ये कहा जा रहा था। मुझे लगा कि मेरी पीड़ा और ख़ुशी से किसी का कोई वास्ता नहीं है।
सबसे बड़ा दुःख तो तब लगा जब सुबह कैंपस में भी किसी ने इन्हें बेटी होने की बधाई नहीं दी। इनका का पूरे कैंपस में बहुत अच्छा व्यवहार था। आज की ही तरह सबके सुख दुःख में साथ देना। अरे बेटी हमारे घर में हुई थी न किसी ने मिठाई मांगी और न बधाई दी क्योंकि बाबूजी के घर में तीसरी पोती हुई थी। न बाबूजी दुखी थे और न घर वाले बल्कि खुश थे कि अगर बेटा हो जाता तो शायद उनकी स्थिति निम्न न हो जाये ।
(क्रमशः)
कहते हैं औरत ही औरत की दुष्मन होती है जब सास और माँ ही पोती और नातिन की खुशी न मना पायें तो औरों का क्या कहना।
जवाब देंहटाएंतिलक जयंती तो हम हर बार एक अगस्त को मनाते रहे हैं।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसमझ में आता है मैं खुद छ: बहनो का छठे नम्बर पर एकलौता भाई हूँ ।
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