स्वतंत्रता दिवस मनाया गया लेकिन उससे अधिक लोगों में उत्साह है अन्ना का साथ देने में।आज़ादी के जुलूस तो निकले लेकिन उससे अधिक रैली अन्ना के समर्थकों की दिखाई दी। आज़ाद भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और गाँधीवादी आदर्शों पर चलने के लिए शासकों की शर्तों पर चलना होगा क्योंकि संसद और संविधान उनके कब्जे में है। उन्हें फिक्र है कि अन्ना की जान की सिर्फ अन्ना की जान की क्यों? इससे पहले कितने कितने किसानों से आत्महत्या की, कितने लोगों ने आत्मदाह किया कभी सरकार को चिंता नहीं हुई। अरे अंग्रेजों के ज़माने भी इतनी पाबंदियां नहीं थी, आजादी के दीवाने अनशन और सत्याग्रह आन्दोलन करते थे वह बात और है कि वे उसको असफल बनाने के लिए बराबर प्रयत्नशील रहते थे। वे कुछ भी करते थे तो हम उसका विरोध कर सकते थे लेकिन ये तो हमारे ही चुने हुए प्रतिनिधि और हमें ही आँखें तरेर रहे हैं।
बात सत्ता दल की होती तो ठीक थी लेकिन यहाँ पर तो कोई भी राजनीतिक दल अन्ना के साथ खुलकर सामने खड़ा नहीं है क्योंकि सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। आज ये सत्ता में है और कल वे होंगे, भ्रष्टाचार के खिलाफ कोइ बिल आ गया तो फिर उसकी तपिश से वह बच नहीं सकेंगे। इसलिए इस विषय पर सारे दल एक हैं। संसद में सत्ता पक्ष के साथ गुपचुप हुए समझौते क तहत उसके मौजूदा स्वरूप पर मतदान के मुद्दे को उठाया ही नहीं गया। आम आदमी जो अपने मत को देकर अपनी बात बोलने का अधिकार खो चुका है , वही अन्ना के साथ खड़ा है। अगर वहाँ नहीं जा सका तो अपने अपने नगर में शहर में उनके समर्थन की हुंकार तो भर रहा है। ये दल इस बात को भूल रहे हैं कि उनके दल का अस्तित्व इन्ही आम लोगों के बल पर है। अगर वह आपको सर पर बिठाती है तो फिर १९७७ की तरह से इंदिरा जैसी लोकप्रिय नेता को धूल में मिला भी सकती है तो चंद दिन की सत्ता में बचे दिनों में सब्र करके संसद के बाहर का रास्ता दिखा सकती है।
आज स्वतंत्रता दिवस का उत्साह कम ही दिखा अनना पर चर्चा अधिक मिल रही है। दिल्ली सरकार जो खुद भ्रष्टाचार का आरोप लिये खड़ी है प्रधान मंत्री उससे अनुमति का रास्ता सुझा रहे हैं। ये हमारे देश के प्रबुद्ध कहे जाने वाले साफ सुथरी छवि के प्रधानमंत्री हैं , ये अपने विवेक से कोई निर्णय नहीं ले सकते हैं . सबकी नजरें आज तिरंगे पर नहीं बल्कि अनना के साथ होने वाले कल के व्यवहार पर लगी हुई हैं। सरकार अनना को आगे नहीं बढ़ने देना चाहती है क्योंकि अपने पेट की रोटी में मशगूल लोग अगर सड़क पर आ गए तो फिर सिंहासन हिलते देर न लगेगी। हमरी आज़ादी के अधिकार पर डाका डालने की कोशिश कभी भी सफल नहीं हो सकती है । जिस युग वर्ग को १८ वर्ष की आयु में मतदान का अधिकार दिया जा रहा है , वह वर्ग सबसे अधिक खतरनाक साबित हो सकता है इस बात का सरकार को गुमान नहीं है। अगर भगत सिंह , चंद्रशेखर आज़ाद संगीनों के साए में भी अंग्रेजों की रूह फना कर सकते हैं तो फिर ये युवा अभी आज़ाद है और जिस ओर हवा बाह रही है उसी ओर बह कर सैलाब बन जायेंगे। अभी इस वर्ग के खून में बेईमानी का जहर पूरी तरह घुला नहीं है। वह कहर ढहा सकती है और फिर एक बार आपातकाल जैसी स्थिति लाने वाले कांग्रेस पार्टी को उसकी औकात दिखा सकती है।
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स्वतन्त्रता दिवस के पावन अवसर पर बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंसमाज में जागरूकता जरुरी है. सरकार कोई भी हो जनता के हित सोचने वाली होनी चाहिए तभी सच्चा प्रजातंत्र कहलाता है , तानाशाही के दिन लद गए .
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक!
जवाब देंहटाएंआजादी की 65वीं वर्षगाँठ पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
बहुत अच्छी पोस्ट. आज़ादी की सालगिरह मुबारक हो दी.
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सहमत सभी राजनितिक दल एक जैसे ही है इन सभी के साथ पूरे सिस्टम को ही सुधारना है तभी बात बनेगी |
जवाब देंहटाएंसटीक लेख ...अब व्यवस्था में ही सुधार की ज़रूरत ..
जवाब देंहटाएंसटीक लेख ...इस बदलव की कामना हर कोई करता है ...अन्ना की मांग के बाद बदलाव कहाँ तक आयेगा ये कोई नहीं जानता
जवाब देंहटाएंसमसामयिक पोस्ट और देख लीजिये आज जनता उतर आई है सडकों पर तो बदलाव आकर रहेगा बेशक वक्त लगे बस इस चिंगारी को जलते रहना होगा।
जवाब देंहटाएंhmm!! aise post pe Vandana jee ek dum se jhanda utha leti hain:)
जवाब देंहटाएंbadhai di, swatantrata diwas ki!
कल से हम भी टीवी से चिपके हैं।
जवाब देंहटाएंबढिया चर्चा. सामयिक मसला है. सबकी निगाहें टीवी पर लगी ही हैं.
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
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