वंदना ए दुबे :
जिन्दगी के किस पक्ष में हम संघर्ष करते हें ये हमारे लिए अलग मायने रखता है । संघर्ष तो संघर्ष है कभी अपने सपनों को पूरा करने के लिए , कभी खुद को स्थापित करने के लिए और कभी कभी अपने वजूद को तलाशने और उसको दूसरों की नजर में एक स्थान दिलाने के लिए। ये हमारी लड़ाई है और इसको हम ही लड़ते हैं, जब जीत जाते हैं तो फिर लगता है कि हमें मंजिल मिल गयी और संघर्ष करके पायी हुई वस्तु या मुकाम पर खड़े होकर जब हम पीछे देखते हैं तो लगता है कि क्या वाकई हम इतना सब झेल कर यहाँ खड़े हैं। आज का संस्मरण है वंदना अवस्थी दुबे का:
जिन्दगी के किस पक्ष में हम संघर्ष करते हें ये हमारे लिए अलग मायने रखता है । संघर्ष तो संघर्ष है कभी अपने सपनों को पूरा करने के लिए , कभी खुद को स्थापित करने के लिए और कभी कभी अपने वजूद को तलाशने और उसको दूसरों की नजर में एक स्थान दिलाने के लिए। ये हमारी लड़ाई है और इसको हम ही लड़ते हैं, जब जीत जाते हैं तो फिर लगता है कि हमें मंजिल मिल गयी और संघर्ष करके पायी हुई वस्तु या मुकाम पर खड़े होकर जब हम पीछे देखते हैं तो लगता है कि क्या वाकई हम इतना सब झेल कर यहाँ खड़े हैं। आज का संस्मरण है वंदना अवस्थी दुबे का:
सच्ची लगन हो तो मंजिल मिलती ही है.....
बचपन से लेकर आज तक, मेरे बुज़ुर्गों और ईश्वर के आशीर्वाद से संघर्ष तो मुझे नहीं करना पड़ा, लेकिन अपनी संस्था को खड़ा करने के लिये मैने जो मेहनत की है, उसे शायद संघर्ष की श्रेणी में रखा जा सके. तो आज मैं अपने उसी वक्त को याद करूंगी, जब मैने अपना विद्यालय संचालित करने का सपना देखा.
१९८९ से लेकर २००१ तक मैं जिस प्रतिष्ठित अखबार में उपसम्पादक के रूप में कार्य कर रही थी, मैनेजमेंट की तमाम खामियों के चलते उस अखबार पर सन २००१ में ताला पड़ गया. पहले रेडियो में और फिर अखबार में काम करने की वजह से किसी और काम को करने की मेरी इच्छा ही नहीं होती थी. शिक्षण-कार्य तो मैं बिल्कुल करना ही नहीं चाहती थी. कारण? मेरे घर में मेरे माता-पिता मेरी बड़ी बहने सभी अध्यापन-कार्य से जुड़े हैं. इस क्षेत्र की बिडम्बना ये है कि आप चाहे प्राचार्य हों या प्राध्यापक, कहलायेंगे मास्टर ही इतना ही नहीं "बेचारे’ का तमगा भी साथ में लोग लगा देते थे, सो मेरा मन एकदम उचाट था. दूसरा कारण मेरी खुद की दिलचस्पी मीडिया में होने का भी था. मेरे ग्रैजुएशन के बाद पापाजी बी.एड. का फ़ॉर्म ले आये थे कि पहले बी.एड. कर लो फिर पीजी करना, लेकिन मैने वो फ़ॉर्म अखबारों के बंडल के नीचे गहरे छुपा दिया ताकि पापा का ध्यान उस पर से हट जाये. मुझे मालूम था कि बी.एड. करने के बाद शिक्षक बन ही जाना था :) खैर मैने बी.एड नहीं किया बल्कि आकाशवाणी में अस्थायी उद्घोषिका बन गयी.
शादी के बाद पत्रकारिता का काम किया ये भी मेरी पसंद का काम था. लेकिन दुर्भाग्य से उस नामचीन अखबार पर ताला पड़ गया. हमेशा व्यस्त रहने वाली मैं अब बेहद खाली हो गयी थी. विधु मेरी बेटी उस वक्त ५ साल की थी. स्कूल जाने लगी थी. निजी विद्यालयों की भारी-भरकम फ़ीस और शिक्षा का स्तर देख के मेरा मन एक ऐसा स्कूल खोलने का होने लगा था, जहां आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चे भी अंग्रेज़ी माध्यम की बेहतर शिक्षा पा सकें. अखबार के बन्द होने के बाद मैने अपनी इस इच्छा को उमेश जी के सामने ज़ाहिर किया. उन्होंने सहर्ष सहमति जतायी. स्कूल शुरु करने जैसा बड़ा काम बिना उमेश जी की मदद के हो भी नहीं सकता था. अब मैने इस दिशा में काम शुरु किया. मेरे घर के बाजू में रहने वाली तारा आंटी (सुश्री तारा तिवारी) जो कि खुद भी प्रधानाध्यापिका थीं, ने मेरा उत्साह बढाया और स्कूल की जानकारी लोगों तक पहुंचाने का जिम्मा भी उठाया. स्कूल के पम्पलेट छपवाये गये और अखबार के साथ घर-घर पहुंचाये गये. कुछ जगहों पर मैं खुद तारा आंटी के साथ गयी.
इतना सब करने के बाद भी नतीजा कुछ बहुत संतोषजनक नहीं था. ले दे के पांच एडमिशन हो सके. उमेश जी ने ढांढस बंधाया और मैने मन को मजबूत किया कि आज नहीं तो कल, बच्चे तो आयेंगे ही. हमारे घर के ऊपर ही लम्बा-चौड़ा एरिया खाली पड़ा था, वहां केवल एक हॉल था, मैने इस एक कमरे में ही अपना स्कूल नर्सरी क्लास से लगाना शुरु कर दिया. साल के मध्य तक कुल दस बच्चे हो गये. एक टीचर, मैं और एक आया बस. हमने खूब मेहनत शुरु की बच्चों के साथ. बच्चे भी बहुत खुश हो के घर जाते. लेकिन बहुत से लोग ऐसे थे, जो मज़ाक बनाने से नहीं चूकते. व्यंग्य के लहजे में पूछते- और, आपका कॉलेज कैसा चल रहा है? कुछ कहते- कहां मुसीबत मोल ले रही हैं, कुछ नहीं होगा. इतने स्कूल हैं, बच्चे मिलेंगे ही नहीं. लगभग रोज़ कोई न कोई हतोत्साहित करने वाला मिल ही जाता. लेकिन इतनी बातों के बीच भी उमेश जी बराबर मेरा हौसला बढाते रहते थे. मैंने भी ठान लिया था कि अब इस स्कूल को खड़ा करके दिखाउंगी ही.
अगले सत्र में दस और एडमिशन हो गये, ये सारे बच्चे मेरे पुराने बच्चों के अभिभावकों द्वारा की गयी तारीफ़ के चलते ही आये थे और एडमिशन करा गये.अगले ही साल हमने ऊपर तीन कमरे और बनवाये. बस. उसके बाद निरन्तर बच्चों की संख्या बढती गयी. आज हमारा स्कूल कक्षा आठ तक हो गया है यानि माध्यमिक स्तर तक. .मैने अपने स्कूल की पढाई के स्तर से कभी समझौता नहीं किया न ही बच्चों को भर्ती करते चले जाने की परम्परा को अपनाया. निर्धन छात्रों को नि:शुल्क पढाने का अपना सपना भी अब मैं पूरा कर पा रही हूं.
दस बच्चों और नर्सरी कक्षा से शुरु होने वाले इस विद्यालय में आज ढाई सौ बच्चे और १८ लोगों का स्टाफ़ है. जिनमें से चालीस बच्चे नि:शुल्क शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं.
तो बस इतना ही. मुझे लगता है कि यदि किसी काम के प्रति लगन हो, और हम हौसला रख सकें तो कोई भी काम मुश्किल नहीं है. हां दृढ इच्छाशक्ति ज़रूरी है. अध्यापन के कार्य से दूर भागने वाली मैं, आज पूरे दिन अध्यापन कार्य ही करती हूं और बहुत खुश हूं बच्चों के साथ.
जो अपने लक्ष्य के लिए डटा रहता है अंत में उसे प्राप्त कर ही लेता है।
जवाब देंहटाएंमेरा भी ऐसा ही मनना है द्विवेदी जी.
हटाएंयही ज़ज्बा होना चाहिए.जब हम सफलता की और बढते हैं. तो साथ हाथ बढ़ाने वाले कम और खींच कर नीचे गिराने वाले ज्यादा मिलते हैं. बस उसी से समझ जाना चाहिए कि आप सही रास्ते जा रहे हैं:)
जवाब देंहटाएंमेहनत और लगन हो तो राह सुगम हो जाती है.
कुडोस टू यू.
आपने स्तुत्य कार्य किया है, शिक्षा का...वह भी संघर्ष के बाद..
जवाब देंहटाएंआभार प्रवीण जी.
हटाएंतुम्हारे धैर्य , लगन से एक सीख मिलती है और कानों में ये पंक्तियाँ गूँज रही हैं -
जवाब देंहटाएंलहरों से डरकर नौका पार नहीं होती
हिम्मत करनेवालों की हार नहीं होती
रश्मि दी, ये कविता मेरे अपने मन-मस्तिष्क में भी हमेशा गूंजती है. आभार.
हटाएंअनुकरणीय ज़ज्बा!! वाह!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनायें वन्दना जी ! विद्यादान से बढ़ कर तो कोई पुण्य का कार्य हो ही नहीं सकता ! फिर आप तो निर्धन बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा दे रही हैं ! इतने सवाब का काम आप कर रही हैं तो जीत तो आपके हिस्से में आना ही चाहिये !
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभारी हूं साधना जी.
हटाएंअपने बिलकुल ठीक कहा यदि किसी काम के प्रति लगन हो, और हम हौसला रख सकें तो कोई भी काम मुश्किल नहीं है. हां दृढ इच्छाशक्ति ज़रूरी है.
जवाब देंहटाएंप्रेरक संस्मरण!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शास्त्री जी.
हटाएंrekha ji meri yah tippni vandna dubey kee chunauti wali post par post kar dijiyega agar blog par na ho apai ho to.
जवाब देंहटाएंयही ज़ज्बा होना चाहिए.जब हम सफलता की और बढते हैं. तो साथ हाथ बढ़ाने वाले कम और खींच कर नीचे गिराने वाले ज्यादा मिलते हैं. बस उसी से समझ जाना चाहिए कि आप सही रास्ते जा रहे हैं:)
मेहनत और लगन हो तो राह सुगम हो जाती है.
कुडोस टू यू.
--shikha varshney
हां शिखा. किसी को ऊपर उठते देखना ही तो सबसे ज़्यादा तकलीफ़देह होता है लोगों के लिये. उन लोगों के लिये, जिनके अन्दर ईर्ष्या का भीवना होती है.
हटाएंप्रेरक !
जवाब देंहटाएंआखिर मास्टरी ही काम आयी। संघर्ष और आपसी समझ में ही विकास का मार्ग बनता है। बधाई आपको।
जवाब देंहटाएंजी हां अजित जी :) बचपन से संस्कार तो मास्टरी के ही पड़े थे न :)
हटाएंसच्ची लगन और मेहनत से क्या संभव नही और आपने ये कर दिखाया इसके लिये आपको बधाई…………वैसे एक बात है जो काम हम नहीकरना चाहते ज़िन्दगी के एक मोड पर आकर वो काम हमे करना ही पडता है ………जैसे आपको करना पडा ………मास्टरी………मगर दिल को सुकून मिले तो इससे बढकर और कुछ नही :))
जवाब देंहटाएंvandna di aapko slaam hume bhi shikha mili hai aaj
जवाब देंहटाएंआभार संजय :)
हटाएंवंदना कितना अच्छा सपना देखा था तुमने और उसको साकार करने में जरा सी भी विचलित नहीं हुई. अगर इरादे बुलंद और नेक हों तो फिर ईश्वर खुद उनके लिए रास्ते बनाते चले जाते है
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दीदी. सहमत हूं आपसे.
हटाएंऐसे ही अपने क्षेत्र में सफलतापूर्वक आगे बढती जाएँ
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