भिक्षा वृत्ति सबसे निकृष्ट और हेय रही है लेकिन फिर भी हम माँगने वालों को पालते ही रहते हैं ( वैसे मैं शारीरिक रूप से सक्षम , युवा वर्ग और बच्चों को कभी भीख नहीं देती ) . हम ही उन्हें इस वृत्ति के लिए बढ़ावा देते हैं। उनकी कमाई एक मेहनतकश से कई गुना ज्यादा है। उन्हें वो सारी चीजें सहज उपलब्ध है जिन्हें एक मेहनतकश पूरे माह के बाद भी हासिल नहीं कर पाता है।
कानपुर में ७ भिक्षुक गृह है और वे सारे के सारे खाली हैं। सरकारी सहायता बदस्तूर मिल रही है लेकिन वह जा कहाँ रही है ? इसके बारे मे मुझे पता नहीं है लेकिन एक बात बता दूं कि ये भिक्षुक अपने अपने घरों में रहते हैं और इनके घर कोई झोपड़ी नहीं है बल्कि अच्छे खासे मकान हैं और वह भी सारी सुख सुविधाओं से युक्त भी हैं।ऐसे ही नहीं जागा ये विचार -- कई घटनाओं और लोगों को देखने के बाद सोचा कि कैसा है ये वर्ग जो औरों की मेहनत या फिर किसी भी तरीके किये गए पैसे पर ये लोग ऐश कर रहे हैं।
कानपुर का एक प्रसिद्ध मंदिर पनकी की बात कर रही हूँ। जहाँ पर मंगलवार को हजारों की संख्या में दर्शनार्थी आते हैं और रोज भी जाते हैं। इस मंदिर में सैकड़ों की संख्या में भिखारी बैठे होते हैं वह भी सपरिवार - माँ - बाप , बेटे - बेटी , नाती - पोते सभी। मेरी नजर एक लड़की पर पड़ी , वह नव विवाहिता लेकिन कम उम्र की अच्छी साड़ी पहने , पूरे साज श्रृंगार से और एक छोटे के बच्चे को गोद में लिए बैठी भीख मांग थी . वही पास में उसके घर के लोग थे। चूंकि लम्बी लाइन थी और दर्शन मुझे भी करने ही थे सो खड़े खड़े ये भी देख रही थी। तब लगा कि यहाँ आने वाला हर व्यक्ति तो नहीं लेकिन १० में से ४ तो पैसे , प्रसाद , लंच पैक , कपडे आदि देते हैं। मैं नहीं कहती कि ये सब न किया जाय लेकिन दान या इस तरह की चीजें देने के लिए पात्रता भी देखनी चाहिए। इन सभी भिखारियों में करीब करीब ८० प्रतिशत बिलकुल स्वस्थ और कार्य करने की दशा में होते हैं लेकिन वे कार्य नहीं करना चाहते क्योंकि अगर उनको एक जगह पर बैठे हुए एक दिन में कई सौ रुपये , आटा , फल , मिठाई और अन्य खाद्य पदार्थ मिल रहे हैं तो फिर -- 'अल्लाह दे खाने को तो ठेंगा जाय कमाने को ' यह कहावत चरितार्थ होती है.
नवरात्रि में माता जी के हर मंदिर में लाखों लोग रोज दर्शन करते हैं , जहाँ पर करोड़ों का प्रसाद रोज बिकता है और वही पर लाखों भिखारी भी अपनी थैली भर रहे होते हैं। ऐसे एक मंदिर के बाहर माँगने वाले सड़क के दोनों और बैठे होते हैं। बच्चे बूढ़े और जवान सभी होते हैं , ऐसा नहीं है उनमें अपाहिज , कुष्ठ रोगी , अत्यंत वृद्ध और असमर्थ बेसहारा लोग भी होते हैं। इनके घर में बाकायदा खाना पका कर आने वाले सदस्य और उनके स्थान को घेर कर पहले से बैठे हुए लोग होते हैं। एक परिवार का वार्तालाप ऐसे ही माहौल में मैंने सुना था --
लड़की - चल तू जा , मैं खाना कर रख आई हूँ तब तक मैं यहाँ बैठती हूँ।
लड़का - कहे की तरकारी बनायीं है ?
लड़की - आलू टमाटर की। डब्बा में रोटी और चावल रखा है , जल्दी खा कर आ फिर बप्पा जइहें।
उस लड़की की उम्र २० साल की रही होगी और जाने वाले लड़के की १५ साल। उनके बप्पा किस उम्र के होंगे ? यानि की सभी के सभी मेहनत करके कमाने काबिल लेकिन जब उनको दूसरे की कमाई का सुख लेना ही नसीब में हो तो फिर क्यों हाथ पैर हिलाए जाएँ।
ऐसा नहीं है इनके घूम घूम कर भीख मांगने वालों के बीच भी इलाके का करार होता है कि ये हमारा इलाका है और इसमें इन दिनों में हम भीख माँगने हम ही जायेंगे। कोई दूसरा नहीं जा सकता है। इनके साथ आता रखने के लिए अलग थैला , चावल रखने के लिए अलग और कभी कभी तो ये आलू दे दो कह कर सब्जी का भी इंतजाम कर लेते हैं। जितना आटा एक आदमी एक महीने में खाता होगा उतनी इनकी एक दिन की कमाई हो जाती है। वर्षों से सुनती आ रही हूँ - एक भिखारी सड़क से निकलेगा - बेटा रूपया दो रुपया दे इस गरीब को। धीरे धीरे ये माँगने की सीमा अब ५ से १० रुपये की हो गयी है। हम तो घर में बैठे ही उनकी आवाज सुना करते हैं। वैसे भाई मंहगाई का जमाना है तो उनकी मांग भी तो बढ़ेगी न , नहीं तो गुजर कैसे होगी ?
सच कहूं इनको भिखारी हमने बनाया है , जिनकी रोज की आमदनी एक मजदूर से या कहो की एक बाबू से अधिक हो तो वह क्यों परिश्रम करेंगे ? हमारी धार्मिक भावनाओं का फायदा उठा कर ये हरामखोरी की आदत का शिकार हो गए हैं। रोज ही दिन में एक आध बार जवान औरतें , अधेड़ औरतें अपने बच्चों के भूखे होने का हवाला देकर रोटी मांगती हैं , पैसे मांगती हैं लेकिन अगर उनसे कहा की कुछ काम क्यों नहीं करती ? तो इस विषय में कुछ भी नहीं बोलना होता है काम के नाम पर चुपचाप अपना झोला उठा कर चल देंगी। इनमें गैरत जैसी कोई चीज होती ही नहीं है , नहीं तो कितने बूढ़े और बच्चों को रिक्शा चलते देखा है , बोझ ढोते देखा है। इस मुफ्त की खाने वाले वर्ग के प्रति तो सोचने की जरूरत है - किसी और से क्यों कहें ? सिर्फ हम अपने को ही इसा दिशा में जागरूक बना लें। अगर कुछ देना ही है तो फिर ऐसे व्यक्ति को दें जो कमाने के काबिल न हो। चलने फिरने में लाचार हो , अत्यंत बूढा , अपाहिज हो। बच्चों को तो भीख कभी न दें। इनमें से बहुत से बच्चे गिरोह द्वारा अपहृत करके उनको भीख मंगवाने का काम करवाते हैं। वे लोग तो और उच्च कोटि के भिखारी हैं जो दूसरों को प्रयोग करके खुद आलिशान घरों में रहकर हमारी भावनाओं का फायदा उठाया करते हैं। इस तरफ भी सजग होकर कुछ सामाजिक दायित्वों के प्रति जिम्मेदार बनें। लोगों को भीख देकर अकर्मण्य न बनायें बल्कि उनको अगर काम के लिए प्रोत्साहित किया जाय तो समाज में कुछ तो परिवर्तन लाया जा सकता है। लोगों की खून पसीने की कमी दूसरे तो न खाएं ( वैसे खिलाने वाले हम ही होते हैं। )
सही बात
जवाब देंहटाएंदेश में वैसे ही भिखारियों की संख्या बहुत है फिर भी सरकार इनकी संख्या बढ़ाने पर तुली है। इतना कुछ मुफ्त में बांटा जा रहा है कि देश के भविष्य को देखकर दुख होता है।
जवाब देंहटाएंआप बिलकुल सत्य कह रही हैं। अब तो मुफ्त का पाने के लिए हर कोई भिखारी बन रहा है , कुछ भी मिले बुरा क्या है ? बेरोजगारी भत्ता मिलाने लगा तो कमाने वाले भी उस मुहीम में शामिल हो गए एक हजार रुपये मिलेगा मोबाइल का ही खर्च निकल आएगा। ये भीख वाली प्रवृत्ति नहीं तो क्या है ? अच्छा खासा कमाने वाले सुना कुछ मुफ्त मिलाने वाला है सबसे पहले जुगाड़ में जाते है।
हटाएंजब आसानी से भिक्षा मिल जाती है तो श्रम क्यों कोई करे
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