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रविवार, 25 अगस्त 2013

काउंसलिंग जरूरी है लेकिन किसकी ?

                         हम प्रगति करते हुए अंतरिक्ष  तक पहुँच गए है और वहां तक पहुँचाने वाले शोध में देश के हर कोने के वैज्ञानिक जुटे हुए हैं और हम विश्व पटल पर भारतीय मूल की मेधा  को भी जब चमकते हुए तारे की तरह देखते हैं तो गर्व से हमारा सिर ऊँचा उठ जाता है . वहां हर हाथ सिर्फ अपने काम में जुटा होता है  क्योंकि   मेधा किसी जाति , धर्म या  या फिर वर्ग की धरोहर नहीं होती है और न हम उस जगह ये पूछते हैं कि अमुख वैज्ञानिक किस "जाति " का है . लेकिन हम इस जाति के चक्रव्यूह में कुछ ऐसे फंसे दिखते है कि हमारी शिक्षा , सोच और प्रगतिशील होने के सारे मायने बेकार हो जाते हैं .
                     हम अपने एक मित्र परिवार के यहाँ आये हुए थे क्योंकि उन्होंने हमें एक विशेष मुद्दे पर विचार विमर्श के लिए ही हमें बुलाया था .  अच्छी पढा लिखा और प्रतिष्ठित परिवार है .  उनके परिवार के सभी बच्चे उच्च शिक्षित और अच्छे पदों पर कार्य कर रहे हैं . युवा सोच और हमारी सोच अगर मिलती नहीं है तो ये दोष हमारी सोच का है . हमें समय के अनुसार बदलना जरूरी है . झूठी  मान प्रतिष्ठा को सम्मान का प्रश्न बना कर कुछ हासिल तो नहीं किया जा सकता है लेकिन खो बहुत कुछ सकते हैं . उस परिवार का एक बेटा अपनी पसंद की लड़की से शादी करने  के लिए परिवार की  सहमति चाह रहा था।   लड़की उनकी जाति  की नहीं है  और किसी उच्च जाति की भी नहीं है ।  बस यही छोटी जाति की  दीवार उस परिवार के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है ।  लोग क्या कहेंगे ?  सबको मुंह कैसे दिखायेंगे ? समाज में क्या इज्जत रह जायेगी ? आदि आदि। 
उस परिवार के लोगों की सोच पर मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी।  उस लड़की का परिवार प्रतिष्ठित परिवार था।  लड़की स्वयं इंजीनियर थी , पिता एक डॉक्टर और माँ एक कॉलेज में प्रिंसिपल, लेकिन वे इस समाज में उच्च कही जाने वाली जाति से नहीं थे। मैं सब कुछ समझ चुकी थी लेकिन अपने मित्र परिवार की सोच को बदलने के लिए पूरा प्रयास कर उन्हें इस शादी के लिए राजी करना मैंने अपने लिए एक चुनौती समझ कर ले लिया।  
                      किसी दकियानूसी सोच को  बदलना इतना आसन नहीं होता है लेकिन असंभव भी तो नहीं होता है। उनके लिए कितना मुश्किल है  ये समझना और मेरे लिए समझाना। फिर भी पूरी भूमिका तैयार करनी है और इसके लिए एक या दो बार नहीं बल्कि कई बार अपने तर्कों से उनको सहमत करने का प्रयास करना पड़ेगा और मैं इसके लिए तैयार भी हूँ।  
                  मैंने इस जाति व्यवस्था के उद्भव से लेकर  आज तक के आधार को ही उन्हें समझाने  के लिए सोची।  मैंने उनके घर हफ्ते में एक बार जाती हूँ  और पहले उस बच्चे से मिलती लेकिन अकेले में उनकी नजर में समझाने की दृष्टि - लेकिन मेरी नजर से उसे कुछ समझाना ही नहीं था।  फिर उनके साथ बैठती।  
             इस जाति व्यवस्था का आधार प्राचीन काल में कर्म के अनुसार ही बनाया गया था।  समाज का विभाजन इसी तरह से किया गया था लेकिन सभी जातियां एक दूसरे पर निर्भर रहा करती थी किसी का किसी के बिना काम नहीं  चल सकता था।  चाहे ब्राहमण हो या वैश्य या क्षत्रिय - सभी के चप्पल और जूते चर्मकार ही तैयार करते थे।  सफाई का काम करने वाले जमादार कहे जाते थे।  कुम्हार से ही मिटटी के पात्र  मिलते थे , उन्हें कोई और नहीं बना सकता था और ये कला  उन्हें अपने परिवार से ही प्राप्त होती थी और वे अपने पैतृक कार्य को करते हुए अपने जीवन को चलाते थे।  उनका कर्म क्योंकि सबकी सेवा से जुड़ा था इसलिए वे शूद्र की श्रेणी में रखे गए।  उनको गाँव या बस्ती से बाहर रहने के लिए जगह दी जाती थी।  लेकिन उस काल में भी ये जन्म से जुड़ा हुआ काम नहीं था .  सिर्फ कर्म से जुडा हुआ था।  कालांतर में इसको जातिवाद के रूप में उच्च जातियों ने जब उनको हेय  दृष्टि से देखना आरभ्य कर दिया . उनका शोषण और उनको अस्पृश्य बनाने की चाल भी इसी का परिणाम बनी।  
                    हम कर्म की दृष्टि से आज भी देख सकते हैं।  आज एक ब्राहमण परिवार का बेटा लेदर टेक्नोलॉजी में पढाई करता है और फिर बड़ी बड़ी कंपनी में काम करने लगते हैं।  वहां वे काम क्या करते हैं ? उसी चमड़े का काम न - जिस चमड़े का काम करते हुए चर्मकार हमेशा के लिए निम्न जाति में शामिल कर दिए गए।  आज हजारों लोग सभी जातियों के टेनरी में काम कर रहे हैं।  शू कंपनी में काम करते हैं और उनका सारा काम उसी से जुडा हुआ है फिर वे क्यों और कैसे उच्च जाति  के कहे जाते हैं?  उन्हें कर्म के अनुसार चर्मकार ही कहना चाहिए न।  आज  सफाईकर्मियों की भर्ती  होती है तो वहां पर काम के लिए आने वाले हर जाति के लोग होते हैं और नियुक्ति होने पर वही काम करते हैं लेकिन हम उन्हें शूद्र या जमादार क्यों नहीं कहते हैं ? वे उस काम को करते हुए भी ब्राहमण बने रहते हैं और जो काम पीढ़ियों पहले छोड़ चुके हैं उन्हें  ये समाज और हम आज भी अछूत या अनुसूचित जाति  की श्रेणी में क्यों रखे हुए हैं ? हम प्रगतिशील होने का दावा करते हैं और कल की तरह अपनी  बेटियों को घर में बंद रखने की बजाय कॉलेज से लेकर विदेश तक पढ़ने के लिए भेजने में कोई ऐतराज नहीं करते हैं , इस जगह हमारी सोच प्रगतिशील हो जाती है लेकिन  अपनी पसंद से शादी करने की बात करती है तो हमें उस लडके की जाति  से इतना सरोकार होता है कि  हमारी  प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं।
              हम खुद पढ़े लिखे हैं लेकिन इस बात पर हम पिछड़े हुए कैसे बन जाते हैं ? हमारी सोच क्यों नहीं बदल पाती है ? अंतरजातीय विवाह तो कर सकते हैं लेकिन अगर लड़का या लड़की अपने से उच्च जाति  की हो - यहाँ उच्च से उनका आशय अपने से ऊँची जाति यानि कि ब्राह्मण हो तो चलेगा, यानि कि जिन्हें वे अपने से ऊँचा समझते हैं।  मुझे तरस आता है अपने इस समाज के लोगों की इस स्वार्थी सोच पर - हम कहाँ प्रगतिशील कहें और कहाँ पिछड़ा हुआ इसको जानना बहुत मुश्किल ही है।  फिर इस फर्क को दूर करने में हमारी राजनीति और राजनैतिक दल भी बहुत कुछ भूमिका निभा रहे  है.  जिसने जन्म से ही अनुसूचित होने की प्रथा को बरक़रार रखा है।  मेरी दृष्टि से वास्तव में वे इस श्रेणी में आते हैं जो इस तरह के कर्म करते हैं।  अगर रोजी की दृष्टि से ब्राह्मण रेलवे में नौकरी पाने के लिए सफाई कर्मी का काम करता है तो वह वास्तव में अनुसूचित कहा जाना चाहिए क्योंकि वह वही काम कर रहा है जिसे सदियों पहले करने वालों के वंशज आज भी उस कलंक को धो नहीं पाए हैं।  अब अवसरवादिता के चलते हमें ब्राहमण तो बने रहना चाहते हैं लेकिन उनकी जगहों पर काबिज होने का लोभ संभरण नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि हमें सरकारी नौकरी चाहिए।  फिर काम चाहे जो भी हो लेकिन उस काम को करने वाले पर लगा हुआ तमगा उन्हें स्वीकार नहीं है।  यही दोहरी सोच हमारे समाज को आगे नहीं बढ़ने दे रही है।  
      अब आप बतलाइए कि हमारे मित्र परिवार को काउंसिलिंग की जरूरत है या फिर उनके बेटे को।  मैं तो उन्हें इसी आईने से उनको समझाने  की सोच रही हूँ और अगर उनको समझाने में सफल रही तब भी उस बेटे की शादी के बाद आप सबको बताऊँगी। और अगर असफल हुई तब भी बताऊँगी .
                    
                        

11 टिप्‍पणियां:

  1. गुणकर्म विभागशः, यही तो गीता कहती है।

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  2. ये संस्कार ही सबसे बड़ी बाधा हैं ....लोग क्या कहेंगे ? पहले अपने को तो आश्वस्त करें तब लोगों को जवाब देने लायक होंगे ... आपकी सोच सही है .... उस बेटे के विवाह की सूचना मिले तो खुशी होगी ।

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  3. परिवार के कार्य और मानसिकता ही उसकी जाति के द्योतक हैं -आपको सफलता मिले ,हमारी यही कामना है !

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  4. वाकई हमारी सोच इतनी दकियानूसी और संकुचित है कि उसमें उचित ज्ञान और उदारता के लिये कोई स्थान ही नहीं बचा है ! इस मानसिक अन्धकार को दूर करने के लिये आपका आलेख मशाल की तरह प्रकाशवान है ! ना जाने कब हमारा समाज जातिवाद की इस ज़िल्लत से मुक्त होगा !

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  5. परिवार के संस्‍कार कैसे हैं बस यही प्रमुख होना चाहिए। यदि ब्राह्मण होकर भी असंस्‍कारित है तो निरर्थक है। समाजशास्‍त्र कहता है कि जातिगत दोष और गुण हमारे अन्‍दर निहीत होते हैं ये दोष अन्‍तरजातीय विवाह से ही कम किये जा सकते हैं।

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  6. जब तक लोगों के मन से यह भावना निकल नहीं जाती कि लोग क्या कहेंगे तब तक समाज में बदलाव आना मुश्किल है किन्तु असंभव नहीं विचारिणीय आलेख।

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  7. पता नहीं ये संस्कार है या रूडी ...

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.