नाग पंचमी पौराणिक महत्व रखनेवाला पर्व है और इसको हम सदियों से मनाते चले आ रहे हैं , लेकिन जैसा की नाम से ज्ञात होता है कि इसका सीधा सम्बन्ध नागों से ही है लेकिन कहीं कहीं इसको दूसरे रूप में भी मानते आ रहे हैं -- एक वह रूप जो सदियों से लड़कियों की तिरस्कार की भावना को प्रकट करता है और इसमें "गुडियाँ पीटने की प्रथा ." प्रचलित है . वैसे तो ये प्रथा अलग अलग क्षेत्रों से जुडी हुई है क्योंकि मेरे जन्मस्थली बुंदेलखंड में ये विशुद्ध रूप से नागों का त्यौहार ही माना जाता था जो कि एक सार्थक सन्देश लिए होता था कि वे भी हमारे लिए पूज्य हैं और कहीं न कहीं हमारे हित का संरक्षण करते हैं . इनका खेतों में निवास फसलों को संरक्षित करने के लिए भी होता है .
मैंने कानपुर में ही गुड़ियाँ पीटने का त्यौहार मानते देखा है जिसका सीधा सीधा सम्बन्ध लड़कियों के तिरस्कार से जुडा है . लड़कियाँ आज लड़कों से कई गुना आगे हैं सिर्फ कार्य में नहीं बल्कि आचार - विचार , गुणों और पारिवारिक मूल्यों के प्रति भी अधिक संवेदनशील रहती हैं और हम प्रथा की सार्थकता को जाने बिना आज भी पीट रहे हैं .
मेरे जीवन में इस पर्व का एक और महत्वपुर कारण से विशेष महत्व रखता है क्योंकि आज के दिन हमारे बाबूजी (ससुरजी ) का जन्मदिन होता था और जब तक वे रहे हम इसको उनके साथ मानते थे और अब जब नहीं है तो उनकी यादों के साथ . कानपुर के होते हुए भी गुड़ियाँ पीटने की प्रथा हमारे परिवार में नहीं रही क्योंकि इस परिवार में कई पीढ़ियों से लड़कियाँ थीं ही नहीं . फिर जब लड़कियों ने आना शुरू किया तो उनके दोनों बेटों को पांच बेटियां हुई और बेटा एक भी नहीं . लेकिन उन्हें इस बात का कभी कोई मलाल नहीं था . उन्होंने कभी हम दोनों ( मैं और मेरी जेठानी ) को कभी कुछ नहीं कहा . न ही उनका मन कभी दुखी नजर आया . हर बेटी के होने पर सारे संस्कारों को धूम धाम से करते रहे . जो बच्ची छोटी होती वह उनकी रानी रानी होती और बाकि सब तो प्यारी होती थी . वह भी अपनी पोतियों को बहुत प्यारे थे .
मेरे लिए आज का दिन उनके जन्मदिन के रूप में अधिक प्रिय है . हम आज उन्हें याद करके ही उनकी अप्रत्यक्ष उपस्थिति का अहसास कर लेते हैं .
मैंने कानपुर में ही गुड़ियाँ पीटने का त्यौहार मानते देखा है जिसका सीधा सीधा सम्बन्ध लड़कियों के तिरस्कार से जुडा है . लड़कियाँ आज लड़कों से कई गुना आगे हैं सिर्फ कार्य में नहीं बल्कि आचार - विचार , गुणों और पारिवारिक मूल्यों के प्रति भी अधिक संवेदनशील रहती हैं और हम प्रथा की सार्थकता को जाने बिना आज भी पीट रहे हैं .
बाबूजी और मेरी छोटी बेटी प्रियंका |
मेरे लिए आज का दिन उनके जन्मदिन के रूप में अधिक प्रिय है . हम आज उन्हें याद करके ही उनकी अप्रत्यक्ष उपस्थिति का अहसास कर लेते हैं .
मैं पहली बार जान रही हूं दीदी गुड़िया पीटने के रिवाज़ के बारे में !!!!
जवाब देंहटाएंसुना था इस रिवाज़ के बारे में पर ये पता नहीं कि इसमें क्या होता है .
जवाब देंहटाएंआज पहली बार सुना इस रिवाज के बारे में
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज सोमवार (12-08-2013) को गुज़ारिश हरियाली तीज की : चर्चा मंच 1335....में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
पहली बार जाना कि ऐसा भी कोई त्योहार होता है ....
जवाब देंहटाएंसच मैंने भी पहली बार ही सुना कि ऐसी भी कोई प्रथा है।
जवाब देंहटाएंपता नहीं , इसके बारे में तो नहीं सुना।
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