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शनिवार, 10 अगस्त 2013

समाज क्या कहेगा ?




                     समाज क्या कहेगा? ये एक जुमला है जो सदियों से सुनते चले आ रहे हैं और युगों से ये समाज नाम की संस्था विद्यमान है और आज भी है ।  सीता का परित्याग हुआ किस लिए ? सिर्फ समाज के कहने के भय से - क्योंकि राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे और वे ऐसा कुछ कर  ही नहीं सकते थे क्योंकि  उन्हें समाज के आक्षेप का प्रतिकार करना ही नहीं था। सीता को निर्वासित जीवन जीने के लिए इस समाज ने मजबूर किया और फिर सीता का निर्वाण ।
                   ये समाज क्या कहेगा ? का ही परिणाम था की कुंती का दानवीर कर्ण का सामाजिक तौर पर  पुत्र के रूप में स्वीकार न कर पाना . समाज का स्वरूप तब भी यही था और आज भी यही है । कितने अजन्मे बच्चे मार दिए जाते है , लावारिस फेंक दिए जाते हैं और तब भी यह समाज चुप नहीं रहता है । सामाजिक मूल्यों में कुछ  परिवर्तन लगातार हो रहा है और यह परिवर्तन आज समाज के स्वरूप में क्रान्तिकारी  परिवर्तन परिलक्षित  होने लगा है।
                   युग बीता और युग के साथ ही  समाज में बदलते जीवन मूल्यों को लोगों ने धीमी गति से ही सही स्वीकार करना आरम्भ कर दिया है . लेकिन इस समाज का हौवा आज भी इतना बड़ा है कि इसके भय से समाज के ही अंग मानव कहाँ से कहाँ तक सोच कर क्या कुछ नहीं कर डालता है ? कभी इस विषय में हमने सोचने की जरूरत समझी  ही नहीं सामाजिक परिवर्तन जरूरी है और हो रहे हैं लेकिन जो इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं उनके लिए क्या करना होगा ? जिनके लिए झूठी मान मर्यादा और शान उनके लिए जीने मरने का प्रश्न बन जाता है। जाति और धर्म की बेड़ियों में जकड़े हम अपने ही अंशों की हत्या कर रहे हैं , समाज तब भी नहीं छोड़ेगा ।
                    ये समाज क्या कहेगा ? के प्रश्न को हम अपने मन से ही एक हौवा बना कर सामने रखते है और फिर उससे डर डर कर खुद ही कुछ कल्पनाएँ करके परेशान  होते रहते हैं। मैंने इस बात को सोच सोच कर परेशान  होने  वाले लोगों की काउंसलिंग की और कुछ तो उनमें से समझ सके कि ये समाज हमसे ही बना है और इसकी  जिन मान्यताओं और धारणाओं में परिवर्तन हो रहा है उसको करने वाले हमारे जैसे ही इस समाज के सदस्य है और ऐसा नहीं कि  उन्हें समाज की परवाह नहीं है बल्कि वे अपने विवेक  से सामाजिक मूल्यों अपने परिवार के सदस्यों के प्रति समान रूप से संवेदनशील होकर सोचते हैं। जहाँ मूल्यों के खातिर घर की  ख़ुशी कुर्बान होती नजर आती है, वहाँँ वे समाज की परवाह नहीं करते हैं क्योंकि ये समाज कल उनका साथ नहीं देगा। उनके अपने बच्चे , पत्नी ही उनके साथ होंगे। अगर वे अपने बेटे को 'समाज क्या कहेगा ?' सोचकर  घर से निकाल लेते हैं या अपने सम्बन्ध उससे ख़त्म कर लेते हैं तो समाज उनकी पीठ नहीं थपथपाएगा बल्कि उनको ही दोष देगा कि अपने अहम् के पीछे अपनी औलाद को छोड़ दिया। आप बचेंगे किसी भी तरीके से नहीं क्योकि समाज को कुछ तो कहना है और वह कहेगा ही!
                            समाज क्या कहेगा ? को लेकर कुछ  अपनी रातों की नीद गवां बैठते हैं , अगर वे खुद स्ट्राँँग नहीं है तो फिर वे उससे बचने के लिए नशे का सहारा भी  लगते हैं और खुद को धोखा देते हैं। कभी कभी तो इसके लिए वे डिप्रेशन का शिकार भी हो जाते हैं।हाँ आज भी अंतर्जातीय और अंतर्धर्मीय विवाह लोगों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन कर खड़ा हो जाता है।  पता नहीं लोग किस प्रतिष्ठा की बात करते हैं , ये प्रतिष्ठा का प्रश्न सिर्फ उन लोगों के लिए होता है जो अपने मन से कमजोर होते हैं। अगर आपके बेटे ने अंतर्जातीय विवाह कर लििया कौन सा गुनाह किया है ? उसका जीवन उसके सामने होता है और अगर उसको कोई लड़की अपने विचारों के अनुरूप समझ आती है तो विचार और संस्कार किसी जाति या धर्म की बपौती नहीं है। वह लड़की दूसरे धर्म और जाति के होते हुए भी समझदार और सामंजस्य स्थापित करने वाली हो सकती है। 
        आप अपना जीवन अपने तरीके से जी चुके फिर अपने बेटे को उसके तरीके से जीने दीजिये। आप की भी यही कामना  होती है कि  वह अपने जीवन में सुखी रहे फिर उस सुख का आधार खोजने के लिए आप उसको अधिकृत क्यों नहीं कर पाते हैं ? क्यों चाहते हैं कि  वह आपकी पसंद से ही शादी करे ताकि आप अपने समाज में सिर  उठा कर कह सकें कि  देखा मेरा बेटा  इतना पढ़ लिख कर भी मेरी बात मानता था लेकिन क्या आपकी पसंद गलत नहीं हो सकती है। उनकी पसंद अगर गलत होती है तो वे उसको निभाने के लिए पूरा पूरा प्रयास करते हैं लेकिन अगर आपकी पसंद गलत निकलती है तो वे आपको उसका जिम्मेदार ठहराने में जरा सी भी देर नहीं लगाते  हैं। अगर उसका घर टूटा तो दुखी आप होंगे , समाज तब भी कुछ न कुछ कहेगा लेकिन आपकी को शाबाशी देने नहीं आएगा और न ही आपके दुःख को बाँँटने के लिए आगे आएगा वह तब भी कुछ न कुछ कहेगा अवश्य ही . 
                                   मैंने लोगों को ये भी कहते सुना है कि  मैं समाज में लोगों को या मुंह दिखाऊंगा ? आप ने कौन सी चोरी की है ?  किसके घर को लूटा है या फिर किसी की हत्या की है ? अपने निर्णय के लिए खुद को मजबूत बना कर खड़ा करने का काम आपका ही है। ये समाज उसका साथ देता है जो खुद मजबूत होते हैं और किसी के सवाल के उत्तर में अपने आत्मविश्वास और दृढ़ता को बनाये रखते हैं। कमजोर लोगों का साथ ये समाज नहीं देता - ये कमजोर पैसे से कमजोर वाली बात नहीं है बल्कि अपनी दृढ़ता और आत्मविश्वास वाली बात है। आप दृढ हो तो कोई आपसे सवाल ही नहीं करेगा बल्कि आपके निर्णय की तारीफ ही करेगा और वाकई इस समाज में जो समझदार सदस्य है, वे सदैव लोगों के सुखी जीवन की कामना करते हैं। वे भी इस समाज के सदस्य होने के नाते आप सभी से जुड़े होते है।

                       ये समाज क्या कहेगा ? जन्म देता है --लोगों को आत्महत्या करने की भावना को। अपनी चाहतों को पूरा न कर पाने की मजबूरी कभी माता -पिता के इज्जत का वास्ता देने और कभी इस समाज और परिवार का डर  दिखाने पर वे अपनी बात को कहने का साहस  ही नहीं कर पाते हैं और विरोध की बात सोच कर ही वे अंतर्मुखी होने के कारण  खुद को आत्महत्या के निर्णय तक पहुंचा देते हैं। तब भी ये समाज तमाम सारे  प्रश्न करता है और उसके जाने के बाद कितने लांछन लगाने  में भी पीछे नहीं हटता है तब क्या मिलता है ? सिर्फ अपनी बात न कह पाने से और समाज के डर से एक जिन्दगी असमय ही ख़त्म हो जाती है। आपके हाथ अफसोस आता है ।

                     ये समाज क्या कहेगा ? जन्म देता है ऑनर किलिंग को , इसके पीछे अपने को बहुत प्रतिष्ठित मानने वाले लोग अपने बेटी या बेटे के लिए अनुचित स्तर  का वर या वधू देखने पर अपनी इज्जत को धूमिल होते देखते हैं और फिर उस इज्जत को बचाने  के लिए वे बेटे के लिए उस लड़की को , बेटी के लिए उस लड़के को और कभी कभी दोनों को ही ख़त्म करवा  देते हैं। ऐसा नहीं है कि  तब समाज उनकी पीठ ठोकता है कि उन्होंने समाज की खातिर बहुत अच्छा किया , वे बदनाम तब भी होते हैं अपने स्वजन को खोकर भी और उसकी भरपाई ये समाज कभी नहीं करेगा। लोग कितनी देर आलोचना करेंगे ? थोड़ी देर न या अगर वे रोज रोज करेंगे तब भी वे आपके बच्चों को वापस नहीं ला सकते हैं। आपके निर्णय से पूरा परिवार ही सहमत नहीं होता खासतौर पर बच्चों की माँ तो कभी नहीं। आप समाज के बहुत हिमायती है तो उन लोगों को अपनी जिन्दगी जीने के लिए छोड़ दीजिये। आप अगर किसी को जिन्दगी दे नहीं सकते तो लेने का आपको कोई हक नहीं होता। इसके उत्तर में मैंने लोगों के मुंह से सुना है कि उनको जिन्दगी भी हमने ही दी थी और अगर वे हमारी मर्जी से नहीं जी सकते तो उन्हें जीने का कोई हक नहीं है लेकिन आप ये भूल जाते हैं कि जिन लोगों ने आपको जिन्दगी दी थी क्या आप ने ठीक वैसे ही जिया जैसे कि वे चाहते थे ? हरगिज नहीं क्योंकि जनरेशन गैप को कभी ख़त्म नहीं कर सकते हैं। 
                      ये समाज वह कहता है जो आप चाहते हैं , सामाजिक मूल्यों की अवमानना मत कीजिये लेकिन सामाजिक रूढ़ियों , पुरातन सोच और अन्धविश्वास को अपने जीवन में स्थान मत दीजिये। उसको मानवता के मूल्यों से सदैव सुसज्जित रखिये। बच्चों को भी वह संस्कार दीजिये , जो मानव जाति के लिए अनुकूल हों समाज आपसे बना है और पीछे मुड़ कर देखिये , ये कल क्या कहता था ? जिसे इसने कल गलत कहा था , उसको आज सही मान रहा है किस लिए ? क्योंकि ये समाज हमारी सोच को ही स्वीकार करता है और अगर हमारी सोच किसी के हित पर आघात नहीं करती , किसी को दुःख नहीं पहुंचाती है और सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन तो समय समय पर होते ही  रहते हैं और फिर वे समाज के लिए सामान्य रूप से स्वीकृत हो जाते हैं .

12 टिप्‍पणियां:

  1. जो भी कहेगा, कभी कभी सुन लेना चाहिये।

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  2. कालिदास जैसे विद्वान को भी स्थापित होने में बडा संघर्ष करना पडा, यहॉं तक कि उन्हें यह कहना पडा कि " पुराणमेतद् नहि साधु सर्वम् ।" अर्थात् जो मान्यता प्राचीन काल में थी, आवश्यक नहीं है कि वह सब सही हो, वह गलत भी हो सकती है । कालिदास को लोग बहुत गाली देते थे । वे लोगों से कहते थे कि तुम मुझे गाली दो, मुझे बहुत मज़ा आता है -" ददतु-ददतु गालीम्...।" निष्कर्ष यह कि सदैव परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्व दें उसके बाद -"कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना ----।"

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  3. सच कहा आपने समाज बना तो हमसे ही है पर अब हम हर पल उससे डरते ही रह जाते हैं ......

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  4. आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [12.08.2013]
    चर्चामंच 1335 पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें
    सादर
    सरिता भाटिया

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  5. दुर्बल-मना लोग समाज से भयभीत रहते हैं जब कि स्वस्थ सबल मना कुछ नये मानदंड स्थापित करते हैं.

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  6. सारगर्भित ...
    समाज में हर तरह के लोग अपने अनुसार समाज को प्रभावित करते रहते हैं .. पर कुछ लोग नए नियम भी बनाते हैं जिसको समाज फोल्लो करता है ... ऐसा कुछ करने में ही सार्थकता है ...

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  7. समाज को कहने दीजिये की सोच कूट कूट कर आत्मसात करनी होगी, इससे तभी उबर पायेगा ये सामाज. .इसकी जितनी परवाह की जाएगी ये उतना ही कहेगा

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  8. बिलकुल सही तर्क दिये हैं ... सार्थक लेख ।

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  9. लोगों का तो काम है...कहना...

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.