सिर्फ हिन्दू धर्म में ही वर्ष में १५ दिन पूर्वजों को समर्पित होते हैं इन दिनों में हम अपने पूर्वजों को पूर्ण श्रद्धा से स्मरण करते हुए तर्पण और श्राद्ध करते हैं . हमारे पूर्वजों को इन दिनों किये गए हमारे कार्यों ( तर्पण , श्राद्ध भोज आदि ) संतुष्टि और तृप्ति प्राप्त होती है। हम भी अपने पितृ ऋण से मुक्त होने का संतोष अनुभव करते हैं। हम अपनी संस्कृति और मान्यताओं का सम्मान करते हैं और अपने दायित्वों को पूर्ण करते हैं। जबकि इसकी भी आज के तथाकथित पढ़े लिखे और उच्च स्तरके लोग आलोचना करते हैं और इसको दकियानूसी सोच और लकीर का फकीर बताते हैं लेकिन उसके पीछे के तर्कों को जानते तक नहीं हैं । क्लब जाना , रेसकोर्स जाना ,फिल्में देखने से समय नहीं तो क्या करेंगे ? ददे रात लौटना और देर तक सोना । बिस्तर पर बैड टी चाहिए , तर्पण कौन करेगा ?
वैसे श्राद्ध कर्म का मुख्य तत्व है - श्रद्धा। श्राद्ध कर्म में पिंडदान और तर्पण करने से अधिक आवश्यक है कि हमारे मन में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा हो। जो आज का चलन हो चुका है कि जीते जी माता पिता को इज्जत न दो क्योंकि ये मानी हुई बात है बेटा पिता से कुछ अच्छे और संपन्न जीवन जीने योग्य बना दिया जाता है ( इसका पूर्ण श्रेय पिता को ही जाना चाहिए किन्तु ??) फिर पिता अपने स्तर से नीचे के नजर आने लगते हैं। उसके मित्रों के साथ बैठने की लियाकत नहीं रखते हैं । उसकी माँ बहू की किटी पार्टी वाली सहेलियों के सामने आने लायक नहीं होती है । उनके लिए ऊपर या पीछे कहीं एक कमरा बना होता है। बेटा ऑफिस से थका हुआ लौटता है तो उसके पास अपने बच्चों और पत्नी के लिए ही समय होता है। उनके हाल चाँ लेने का समय कहाँ ? कहीं कहीं तो खाना भी अलग ही बनाते हैं ।
यही बच्चे माता-पिता के श्राद्ध को बड़े ही सम्मान के साथ करना चाहते हैं। इस अवसर पर एक कहानी याद आ रही है - पिता के श्राद्ध के कारण खाने पीने में देर हो रही थी और कमरे में अपाहिज माँ खाना मांग रही थी लेकिन बहू - 'आपको अभी खाना कैसे दे दें ? अभी पंडित जी श्राद्ध करवाने आने वाले हैं उसके बाद मिलेगा। ' ऐसे में बहू और बेटे जिन्हें जीवित माँ को खाना देने के लिए एक बहाना मिल गया। मरने के बाद उनकी भी श्राद्ध करेंगे। ऐसे श्राद्ध से क्या फायदा ? क्या पितर हमारे ही घर में एक जीवित आत्मा को भूख से परेशान देख कर हमारे द्वारा किये जा रहे पिंडदान से संतुष्ट और तृप्त हो रहे होंगे। मुझे तो ऐसा नहीं लगता है। आप जीवित बुजुर्गों के लिए कुछ और खाने की व्यवस्था करके दे सकते हैं लेकिन ऐसे उत्तर देकर आप अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते हैं।
पितरों को भी जैसा कि हम मानते हैं , इन दिनों अपने वंशजों से कुछ आशाएं होती हैं लेकिन वे ये कभी नहीं चाहते कि उनके पड़पोते उनके नाम पर जीवित लोगों के प्रति निष्ठुर व्यवहार करें। सबसे पहले होता है कि आपके मन में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए। कर्मकांड और दिखावा करने की आवश्यकता नहीं है। पूर्वज तभी प्रसन्न होने जब आप उनके वंशजों को भी खुश रखेंगे। उनसे आशीष की आशा भी तभी कर सकते हैं। इस कार्य को बोझ समझ कर न ढोयें बल्कि श्रद्धा के साथ तिल युक्त जल की तिलांजलि देकर भी आप अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर सकते हैं।जीवित आत्माओं को संतुष्ट रखेंगे तभी मृत आत्माएं या हमारे पूर्वज संतुष्ट रहेंगे।
वैसे श्राद्ध कर्म का मुख्य तत्व है - श्रद्धा। श्राद्ध कर्म में पिंडदान और तर्पण करने से अधिक आवश्यक है कि हमारे मन में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा हो। जो आज का चलन हो चुका है कि जीते जी माता पिता को इज्जत न दो क्योंकि ये मानी हुई बात है बेटा पिता से कुछ अच्छे और संपन्न जीवन जीने योग्य बना दिया जाता है ( इसका पूर्ण श्रेय पिता को ही जाना चाहिए किन्तु ??) फिर पिता अपने स्तर से नीचे के नजर आने लगते हैं। उसके मित्रों के साथ बैठने की लियाकत नहीं रखते हैं । उसकी माँ बहू की किटी पार्टी वाली सहेलियों के सामने आने लायक नहीं होती है । उनके लिए ऊपर या पीछे कहीं एक कमरा बना होता है। बेटा ऑफिस से थका हुआ लौटता है तो उसके पास अपने बच्चों और पत्नी के लिए ही समय होता है। उनके हाल चाँ लेने का समय कहाँ ? कहीं कहीं तो खाना भी अलग ही बनाते हैं ।
यही बच्चे माता-पिता के श्राद्ध को बड़े ही सम्मान के साथ करना चाहते हैं। इस अवसर पर एक कहानी याद आ रही है - पिता के श्राद्ध के कारण खाने पीने में देर हो रही थी और कमरे में अपाहिज माँ खाना मांग रही थी लेकिन बहू - 'आपको अभी खाना कैसे दे दें ? अभी पंडित जी श्राद्ध करवाने आने वाले हैं उसके बाद मिलेगा। ' ऐसे में बहू और बेटे जिन्हें जीवित माँ को खाना देने के लिए एक बहाना मिल गया। मरने के बाद उनकी भी श्राद्ध करेंगे। ऐसे श्राद्ध से क्या फायदा ? क्या पितर हमारे ही घर में एक जीवित आत्मा को भूख से परेशान देख कर हमारे द्वारा किये जा रहे पिंडदान से संतुष्ट और तृप्त हो रहे होंगे। मुझे तो ऐसा नहीं लगता है। आप जीवित बुजुर्गों के लिए कुछ और खाने की व्यवस्था करके दे सकते हैं लेकिन ऐसे उत्तर देकर आप अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते हैं।
पितरों को भी जैसा कि हम मानते हैं , इन दिनों अपने वंशजों से कुछ आशाएं होती हैं लेकिन वे ये कभी नहीं चाहते कि उनके पड़पोते उनके नाम पर जीवित लोगों के प्रति निष्ठुर व्यवहार करें। सबसे पहले होता है कि आपके मन में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए। कर्मकांड और दिखावा करने की आवश्यकता नहीं है। पूर्वज तभी प्रसन्न होने जब आप उनके वंशजों को भी खुश रखेंगे। उनसे आशीष की आशा भी तभी कर सकते हैं। इस कार्य को बोझ समझ कर न ढोयें बल्कि श्रद्धा के साथ तिल युक्त जल की तिलांजलि देकर भी आप अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर सकते हैं।जीवित आत्माओं को संतुष्ट रखेंगे तभी मृत आत्माएं या हमारे पूर्वज संतुष्ट रहेंगे।
सही कह रही हैं दीदी. बहुत पहले देशबंधु के लिये मैने भी इसी आशय का लेख लिखा था.
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा आपने कर्मकांड और दिखावा करने के बजाय जीवित लोगों का ख्याल रखा जाय उनका सम्मान किया जाय तभी पूर्वज प्रसन्न होंगे ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रेरक सामयिक प्रस्तुति
सही है- श्राद्ध से जरूरी है अपने जीवित बुजुर्गों के लिए श्रद्धा भाव जो इंसान के अन्दर सेवा भाव को जन्म देती है ।
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