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सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

सबक !

                                  जीवन की दिशा कब और कौन बदल दे नहीं कह सकते हैं और मेरे जीवन की दिशा सिर्फ दो पंक्तियों ने बदल कर रख दी है।  मेरे पापा इसके सूत्रधार बने।
                     मैं हाई स्कूल में थी और मैंने तबला एक विषय के रूप में ले लिया .  बहुत सम्पन्न हम न थे और पांच भाई बहन पढ़ने वाले थे। स्कूल में संगीत का कोई  टीचर  नहीं था।  बाकी  लड़कियों ने संगीत स्कूल में सीखना शुरू कर दिया या फिर  घर पर टीचर रख लिया। मैं ऐसा कर पाने की स्थिति में न थी।  बोर्ड के प्रेक्टिकल के समय मेरा कोई शिक्षक न था जिसके साथ संगत  करने का मेरा अभ्यास हो। मैं प्रक्टिकल देने बैठी तो  संगत कर पाने का कोई सवाल ही न था।  परीक्षक ने मुझे 17/50 अंक देकर पास कर दिया और थ्योरी में मेरे 45/50 थे। जब रिजल्ट देखा तो मैं बहुत रोई। इस समय न मैं अपने न कर पाने पर दुखी थी न अपने लिए टीचर के न होने पर। बस बुरा लगा कि  मुझे इतने कम अंक मिले और मेरी परसेंटेज ख़राब हो गयी । मेरे पापा मेरे मन की बात को समझ रहे थे लेकिन एक दिशा में वे मजबूर थे। मैंने निर्णय किया कि  मैं इण्टर में तबला नहीं लूंगी और कोई विषय होगा तो पढाई करके अच्छे अंक तो ले सकती हूँ।
                     पापा ने मुझे एक कार्ड बोर्ड पर बड़े बड़े अक्षरों में --
  करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान ,
 रस्सी आवत जात ते सिल पर होत  निशान। 

लिख कर मुझे दिया और बोले कि  तुम इंटर में भी तबला लोगी। बाकी  चीजें मैं घर पर लाकर देता हूँ . इसे अपने सामने रखो और अभ्यास करो। उन्होंने मुझे एक तबला लाकर दिया और एक किताब भी, जिसमें तालों और उसके विषय में अभ्यास के लिए सारी  सामग्री थी । मैं उनकी बात को मान कर चलने लगी। बोर्ड के एक्जाम में मैंने अपना जो डेमो ताल रखा था वह सबसे अलग था . मैंने अपने बाहर  से आये हुए परीक्षक को बता दिया कि  मेरा कोई टीचर नहीं है और मैं जो भी बजाने  जा रही हूँ  हो सकता है कि संगत  ठीक ठीक न हो सके लेकिन फिर भी आप जिसे समझे मेरे साथ संगत  के लिए बैठा सकते हैं। वह परीक्षक अंधे थे और उनका एक शिष्य साथ में आया था . उन्होंने कहा कि  आप शुरू कीजिये और अपने शिष्य से कहा कि इनके संगत करने के लिए हारमोनियम बजाइए। 
                     मेरा प्रेक्टिकल कैसा हुआ? इसको तो वही अच्छी तरह से बता सकता है , जो मेरे साथ साथ बजा रहा था और जो संगीत शिक्षक वहां थे,  जो हमारे दूसरे सहपाठियों के सिखाने वाले थे . वह सब यह मानने  को तैयार न थे कि  मैंने बिना किसी शिक्षक के ये तैयार किया है। मुझे इंटर में 45/50 प्रक्टिकल में मिले थे और कुल विशेष योग्यता के मानक से बहुत आगे। 
                       इन पंक्तियों ने प्रेरणा बनाने का काम जीवन भर किया और आज भी कर रही हैं। जब मुझे  आई आई टी कानपुर में मानविकी विभाग तो समाजशास्त्र की एक परियोजना में लिया गया था और  मुझे सिर्फ  और सिर्फ मेरे लेखन के बारे में जानने वाले संकाय के प्रोफेसरों के कारण मानविकी से कंप्यूटर साइंस में भेज दिया गया। कंप्यूटर जिसे कभी देखा न था और छूना  तो बहुत दूर की बात थी। की बोर्ड पर हाथ रखने के लिए पहले कभी टाइपिंग जैसी कोई चीज नहीं जानती थी। लेकिन वहां के प्रोफेसर  , जिनके साथ मैं काम कर रही थी , उन्होंने मुझे उसमें पड़े हुए टाइपिंग के सॉफ्टवेयर से अवगत कराया। की बोर्ड पर हाथ रखते ही जो आवाज आती तो डर जाती कि कहीं कुछ गलत तो नहीं दबा दिया।  फिर इन्हीं पंक्तियों को सामने रख कर उसके हाथ की बोर्ड पर रखने से लेकर उसके अभ्यास गेम करने शुरू  किये तो एक महीने में मेरी स्पीड बहुत अच्छी हो चुकी थी। मैंने फिर  वहां पर २४ साल काम किया और जितनी टाइपिंग स्पीड मेरी थी कोई मानने को  तैयार नहीं होता कि मैंने कभी टाइपिंग नहीं सीखी है।  
                  पापा को याद सिर्फ किसी मौके पर नहीं किया जाता लेकिन मेरे जीवन के हर मोड़ पर उनकी शिक्षाएं मेरा संबल बनी रहीं और बनी रहेंगी।

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व कैंसर दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. आपको आपके पिता से मिली शिक्षा जीवन भर आपको कठिन समय में प्रयासरत रहने के लिए प्रेरित करती रहेगी. माता पिता को याद करने के लिए एक मौके की ज़रुरत नहीं होती, जीवन की छोटी छोटी चीजें हों या बड़ी हमेशा उनकी सीख काम आती है. शुभकामनाएँ.

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