सदियों से चली आ रही सृष्टि और उसकी संस्कृति को हम बरकरार न रख पाए। हमने छोड़ते छोड़ते सब छोड़ दिया पर दिखाई किसी को न दिया। आज जब खाली हाथ इंसान जानवर से भी बदतर होकर इंसानियत और खून रिश्तों का लिहाज भी भूल गया। क्या बहन , क्या बेटी और क्या माँ ? सिर्फ और सिर्फ एक औरत उसमें दिखलाए देने लगी है। और उसकी सोच रोज किसी न किसी बेटी को दुष्कर्म का शिकार बना डालता है और हम बार बार सिर मारते हुए सोचते है कि इसमें गलत कहाँ हुआ ? इंसानी सोच अब उम्र की मुहताज नहीं रही है। अपनी नानी दादियों के मुँह से सुना था कि जब बाप बेटी को भी अपनी हवस का शिकार बनाने लगेगा और इंसान इंसान को खाने लगेगा तब घोर कलयुग समझना कि आ गया । सब कुछ हो रहा है लेकिन कहीं कलयुग की पराकाष्ठा को देखा है और प्रकृति सका ह्रास हम देख रहे हैं । अब प्रलय में क्या शेष है ? हर साल प्रकृति अपना भयावह रूप दिखा देती है ।
हमारे बुजुर्गों में जो संस्कार और संस्कृति थी , उसमें सिर्फ और सिर्फ मानवता थी , तब हर इंसान चाहे गरीब हो , चाहे अमीर हों -- एक सम्मान , एक अदब और एक रिश्ते का नाम दिया गया था। सारा गाँव एक परिवार था क्योंकि तब हम गाँव में ही बसते थे। उससे आगे आने वाली पीढ़ी घर से बाहर निकली शिक्षा के लिए और ज्ञान के लिए। वह तो उन्होंने ग्रहण की लेकिन वो अपनी संस्कृति से दूर होते गए और उन्होंने उन संस्कारों को अपनी सहूलियत के अनुसार ग्रहण किया। सब कुछ न ले पाए क्योंकि उनमें कुछ शिक्षित हुए तो उन्हें वे संस्कार बेमानी लगने लगे। हमारे घर में काम करें और हमसे ही पैसे लेकर गुजारा करें और हम उन्हें काका और बाबा का दर्जा दें। ये तो नयी सभ्यता ने सिखाया ही नहीं है। बुजुर्गों को दुःख हुआ कि ये नयी पीढ़ी हमारे बनाये संस्कारों को छोड़ती जा रही है लेकिन उन पर बस किसी का भी नहीं चल सकता है।
वह पीढ़ी शहर में आ बसी और गाँव आती रही क्योंकि अभी संस्कारों का असर बाकी था और तीज त्यौहार घर और गाँव में ही मनाने का मन बना रहता था क्योंकि उनकी दूरी गाँव से बहुत अधिक दूर तक न बन पायी थी , लेकिन आधुनिकता के रंग में रंगी यह पीढ़ी गाँव वालों को भी प्रभावित करती रही। वे शिक्षा के लिए गाँव से दूर हुए थे और नए बच्चों ने उनकी चमक धमक से प्रभावित होकर शहर का रुख कर लिया। शहर में कुछ तो काम करने को मिलने लगा और शहर की ओर दौड़ लगने लगी संस्कारों की कमी क्या हुई ? वहां भी रिश्तों की गरिमा ख़त्म होने लगी। जब ऊपर की पीढ़ी विदा होने लगी तो कुछ ही घरों पर छतें रह गयी बाकि ढह गयी और कुछ सालों बाद वो खंडहर बन बिकने लगे। जो संस्कार गाँवों से लाये थे वे चुकने लगे थे। शिक्षा की चमक दमक ने संस्कारों पर कुठाराघात किया और उनकी आने वाली पीढ़ी डैड और ममी वाली रह गयी। सारे रिश्ते अंकल और आंटी में सिमट गए। मामा , मामी , बुआ , चाचा चाची दादी बाबा सब ख़त्म हो गए। नयी पीढ़ी के हाथ क्या आया ? फ़िल्टर किये हुए संस्कार और रिश्ते और वे भी इतना कम थे कि अगली पीढ़ी को देने के लिए कुछ बचा ही नहीं था और क्या पता सृष्टि इन्हीं के लिए आगे चलकर दम तोड़ देगी ।
यौन विकृतियों ने किशोर , युवा , वयस्क और प्रौढ़ों तक को अपनी गिरफ्त में ले लिया । कन्या शब्द खत्म हो चुका है क्योंकि इन लोगों को सिर्फ औरत और भोग्या नजर आने लगी ।
माँएंं चिंतित हैंं कि बेटियों को कैसे बचायें ? बेटे को इस हवा से कैसे बचायें ? अबशिक्षित माँँओंंं की यही चिंता है । आओ मंथन करें और खोजें संस्कृति के पुनर्स्थापन की राह । तभी बच सकेगी ये सृष्टि, अन्यथा बिना प्रलय के नाश निश्चित है ।
हमारे बुजुर्गों में जो संस्कार और संस्कृति थी , उसमें सिर्फ और सिर्फ मानवता थी , तब हर इंसान चाहे गरीब हो , चाहे अमीर हों -- एक सम्मान , एक अदब और एक रिश्ते का नाम दिया गया था। सारा गाँव एक परिवार था क्योंकि तब हम गाँव में ही बसते थे। उससे आगे आने वाली पीढ़ी घर से बाहर निकली शिक्षा के लिए और ज्ञान के लिए। वह तो उन्होंने ग्रहण की लेकिन वो अपनी संस्कृति से दूर होते गए और उन्होंने उन संस्कारों को अपनी सहूलियत के अनुसार ग्रहण किया। सब कुछ न ले पाए क्योंकि उनमें कुछ शिक्षित हुए तो उन्हें वे संस्कार बेमानी लगने लगे। हमारे घर में काम करें और हमसे ही पैसे लेकर गुजारा करें और हम उन्हें काका और बाबा का दर्जा दें। ये तो नयी सभ्यता ने सिखाया ही नहीं है। बुजुर्गों को दुःख हुआ कि ये नयी पीढ़ी हमारे बनाये संस्कारों को छोड़ती जा रही है लेकिन उन पर बस किसी का भी नहीं चल सकता है।
वह पीढ़ी शहर में आ बसी और गाँव आती रही क्योंकि अभी संस्कारों का असर बाकी था और तीज त्यौहार घर और गाँव में ही मनाने का मन बना रहता था क्योंकि उनकी दूरी गाँव से बहुत अधिक दूर तक न बन पायी थी , लेकिन आधुनिकता के रंग में रंगी यह पीढ़ी गाँव वालों को भी प्रभावित करती रही। वे शिक्षा के लिए गाँव से दूर हुए थे और नए बच्चों ने उनकी चमक धमक से प्रभावित होकर शहर का रुख कर लिया। शहर में कुछ तो काम करने को मिलने लगा और शहर की ओर दौड़ लगने लगी संस्कारों की कमी क्या हुई ? वहां भी रिश्तों की गरिमा ख़त्म होने लगी। जब ऊपर की पीढ़ी विदा होने लगी तो कुछ ही घरों पर छतें रह गयी बाकि ढह गयी और कुछ सालों बाद वो खंडहर बन बिकने लगे। जो संस्कार गाँवों से लाये थे वे चुकने लगे थे। शिक्षा की चमक दमक ने संस्कारों पर कुठाराघात किया और उनकी आने वाली पीढ़ी डैड और ममी वाली रह गयी। सारे रिश्ते अंकल और आंटी में सिमट गए। मामा , मामी , बुआ , चाचा चाची दादी बाबा सब ख़त्म हो गए। नयी पीढ़ी के हाथ क्या आया ? फ़िल्टर किये हुए संस्कार और रिश्ते और वे भी इतना कम थे कि अगली पीढ़ी को देने के लिए कुछ बचा ही नहीं था और क्या पता सृष्टि इन्हीं के लिए आगे चलकर दम तोड़ देगी ।
यौन विकृतियों ने किशोर , युवा , वयस्क और प्रौढ़ों तक को अपनी गिरफ्त में ले लिया । कन्या शब्द खत्म हो चुका है क्योंकि इन लोगों को सिर्फ औरत और भोग्या नजर आने लगी ।
माँएंं चिंतित हैंं कि बेटियों को कैसे बचायें ? बेटे को इस हवा से कैसे बचायें ? अबशिक्षित माँँओंंं की यही चिंता है । आओ मंथन करें और खोजें संस्कृति के पुनर्स्थापन की राह । तभी बच सकेगी ये सृष्टि, अन्यथा बिना प्रलय के नाश निश्चित है ।
आपकी यह प्रस्तुति 11 अगस्त 2019 को सांध्य दैनिक (05:30 PM)
जवाब देंहटाएं'मुखरित मौन'
(http://mannkepaankhi.blogspot.com) में शामिल की गयी है।
चर्चा हेतु आप सादर आमंत्रित हैं।
आह दिल को छू गया | मैंने दो बार पढ़ा | सच मैं भी सोचता हूँ कि ये कहाँ आ गए हम | शानदार पोस्ट
जवाब देंहटाएंपसंद करने के लिए धन्यवाद !
हटाएंबेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार !
हटाएंसटीक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार ।
जवाब देंहटाएंअभी भी कुछ हद तक संस्कारों का असर बाकी है बहुत से ऐसे लोग है तीज त्यौहार घर और गाँव में ही मनाने के लिए जाते है
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