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बुधवार, 3 जून 2020

खिताबों की लूट है , लूट सके तो लूट ....!



            भई हम तो किसी काबिल नहीं , कमोबेश पचपन साल हो रहे है कलम उठाये हुए और मिला क्या ठेंगा ? फिर मिले भी क्यों ?  बड़ी सिद्धांतों वाले टके के तीन बिकते हैं ।
         या तो चलते पुर्जे हो या इतनी हिम्मत हो कि हर सभा, समारोह, गोष्ठियों में पहुँच जाओ और घूम घूम कर सबको अपना परिचय दो और एक आध किताब छपवा कर सबको बाँटो , फिर उसी किताब से कुछ रचनाओं को अलग करके एक किताब और छपवा लो । कुल मिलाकर खेल पैसे का है । दो पैसे देकर नामी गिरामी नेता टाइप कलमकारों को बुला लो । दूसरी किताब आ गई । चार लोग जान गये तो अपनी संस्था बना लो।
           कुछ विश्वविद्यालय तो पैसे लेकर मानद उपाधि भी देने लगे । उपलब्धियों की बात नहीं है । बात तो जुगाड़ की है , सो चौकस होना चाहिए । टेंट में हो रुपइया तो चाहे जो खरीदो । एकदम बाढ़ सी आ गई , जो देखो डॉक्टर लगाये घूम रहा है। एक डॉक्टर साहब मिले एक मौके पर बोलने खड़े और गाँधीजी के तीन बंदरों को भूल गये और बोल गये बुरा न बोलो, बुरा न सुनो और बुरा न कहो । बच्चे मुँह दबा कर हँस रहे थे । पर डॉक्टर साहब गलत तो हो ही नहीं सकते । एक डॉक्टर साहिबा हैं , एक समारोह में हाथ फटकार फटकार कर कविता पाठ कर रहीं थी और वह रही हमारी थी लेकिन कह तो न हीं सकते थे , सब कहते कि कौन खेत की मूली हो ? डॉक्टर साहिबा काबिल है और तुम जे मियाँ मसूर की दाल ।
   .   बेचारे शोध करने वाले तो चुल्लू भर पानी में डूब मरें ( अगर मेहनत से किया हो ।) आइआइटी जैसी संस्था हो तो शोध में सात साल भी लग जाते है और फिर भी वो डॉ. नहीं लगाते हैं । सबके नाम के आगे प्रो. ही लगा होता है।
        बेचारे चिकित्सा क्षेत्र वाले भी चाहे जितनी डिग्री जोड़ लें , कहा उन्हें  वही डॉ. ही जायेगा । अब तो वही कहेंगे सब धान बाइस पसेरी । ये भी पता नहीं कि खरीदी या मानद उपाधियाँ नाम से पहले नहीं लगाते ।
        कुछ साल पहले शोध ग्रंथ ठेके पर लिखे जाते थे । गाइड ने पैसे लिए और शोधग्रंथ तैयार करवा कर हस्ताक्षर कर दिए और उपाधि किसी और को मिल गई ।
            हाँ तो जब सोशल मीडिया का जोर हुआ तो ढेर सारे समूह बने और प्रमाण पत्र बाँटने का चलन शुरू हो गया । हर दूसरे व्यक्ति के पास कई कई समूहों के सम्मान पत्र चेंपे मिल जाते है।
        अब ये जो कोरोना फैला तो फिर सेवा करने वाले तो कितने सेवा करते करते चल बसे लेकिन कोरोना वॉरियर्स का तमगा लेने के लिए बचे ही नहीं । ये लिखने वाले घर में बैठे लिख दिए दो चार लेख और जीत लिए कोरोना वॉरियर्स का खिताब । जलन इस लिए हो रही कि हम तो खूब लिखे कौनो पूछन न आया । दो-दो हजार दें तो एक नहीं कंई संस्था कोरोना वॉरियर्स बनाने को तैयार बैठी हैं। अब क्या कहें न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी ।
      फ्री राशन की तरह कहीं बँट रहे हों तो सूचित किया जाय । दो घंटे लाइन में लग कर ले लेंगे और फिर चेंपेंगे नहीं गले में लटका कर घूमेंगे । भाई बंधु जरा ध्यान रखना नहीं तो ऊपर जाकर क्या मुँह दिखायेंगे ? बेइज्जती तो आप सब की भी होगी कि पैसे देकर किताब में शामिल हुए और कई बार हुए और कोई रसीद तक न लगा पाये । गुमनाम चले गये ।

12 टिप्‍पणियां:

  1. पते की बात कही है आपने ,आज सबको काम की नही नाम की फिक्र है ,गलत सही से कोई लेना देना नही रहा ,अब सबके लिए सबकुछ धन है ,सच्चाई को दर्शाती हुई बढ़िया पोस्ट ,शुभ प्रभात दीदी

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  2. बहुत ही बढ़िया...समसामयिक विषय पर लिखा गया धारदार व्यंग्य।
    👍👍👌👌

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  3. वाह आप ने शब्द शब्द सटिक लिखा है

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  4. वाह आप ने शब्द शब्द सटिक लिखा है

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  5. बात तो सौ टका सही। बहुत बढ़िया कटाक्ष लिखा।

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  6. स्थिति का सही आँकलन ...
    आजकल ये एक दौर चल गया है .. शायद पहले भी होता होगा ... अच्छा व्यंग है आपका ... आइना दिखाता हुआ ...

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