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गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

कर्म का धर्म !

   कर्म का धर्म !      

                                         जीवन में जो कर्म इंसान करता है और उसके फल भी संचित होते है लेकिन इन कर्मों में भी एक भाव होता है - प्रतिफल का भाव या अभाव । कुछ कर्म तो अपने हित के लिए ही करता है और कुछ वह दूसरों के हित के लिए भी करता है। लेकिन यह सब करने से पहले वह यह सोचता नहीं है कि वह जो कर रहा है वह उसके सामने किसी न किसी तरीके से फिर से आएगा। अगर यह सोचने की क्षमता उसमें होती तो शायद वह भाग्य खुद ही लिख लेता। 

                                   फिर भी जीवन में कुछ ऐसे कर्म भी हैं जिन्हें वह करता है और फिर उसके बदले वह ईश्वर से या फिर उस इंसान से कुछ अपेक्षा रखता है यानी कि प्रतिफल। ये प्रतिफल की कामना हमारे किये गए उस कार्य की सरलता और निष्काम कर्म के भाव को समाप्त कर देता है। हम अपेक्षा क्यों करें? लेकिन मानव स्वभाव है और ये स्वाभाविक भी है कि किसी की सहायता करते समय हम ये नहीं सोचते हैं कि हम क्यों करें? (वैसे सोचने वाले सोचते भी हैं और उसके दूरगामी परिणाम सोच कर ही करते हैं।) लेकिन हर कोई ऐसा नहीं करता है फिर भी अगर मुसीबत में आता है तो उसकी निगाहें उस और देखती हैं कि शायद वह मेरे काम आये और आने वाले आते भी हैं और न आने वाले सुधि भी नहीं लेते। 

                                कहने में सहज लगता है कि 'नेकी कर दरिया में डाल' लेकिन क्या ये सहज है ? ये मन को शांति देने वाला मूल मंत्र है क्योंकि अगर अपेक्षा ही न की जाय तो कितने कष्टों और तनावों से मुक्ति मिल सकती है। शांतिपूर्ण जीवन जीने का यही एक सूत्र है कि आप जिस काम से आपकी आत्मा संतुष्ट हो वह अवश्य ही करें लेकिन करके भूल जाएँ। कोशिश करके देखी जा सकती है और इस आपाधापी भरे जीवन में मन का कोई एक कोना तो शांत रहेगा। 

सत्कर्म के बाद कष्ट क्यों ?:--

                             प्रश्न उठता है कि बहुत सारे लोग कहते हुए मिल जात्ते हैं कि हमने जीवन में कभी किसी का बुरा नहीं किया (जाने अनजाने के विषय में सब अनभिज्ञ रहते हैं।) फिर हमारे जीवन में इतने संघर्ष और कष्ट क्यों? ये बात तो सुनिश्चित है कि सदाचारी मनुष्य वर्तमान जीवन में अधिक कष्ट पाता है।  हमारे कर्म हमारा साथ जन्मों तक नहीं पीछा नहीं छोड़ते हैं, फिर चाहे वे अच्छे हों या फिर बुरे। वही कर्म अपने फल के साथ हमारे जीवन में मौजूद रहते हैं। ये सोचना तो व्यर्थ है कि हमारे अच्छे कर्म बेकार चले जाते हैं , हाँ बगैर अपेक्षा के किये जाए तो कष्ट नहीं होता और कई बार जीवन में होता है कि हम या हमारे परिजन मृत्यु के मुख से बाल बाल बच जाते है, तब हमारे वही सत्कर्म हमको महान कष्ट से बचाते हैं। अगर अकस्मात् ज्ञात होता है कि कोई सोते सोते चला गया। परिवार बिखर जाता है लेकिन वह अपने कर्मों के अनुरूप सब भोग कर चल देता है , बगैर किसी कष्ट के लेकिन कई ख्वाहिशे अधूरी लिए भी।  

कर्मों को तौलें :--

                        अगर हमारे अंदर इतना संयम और क्षमता हो तो अपने कर्मों के विषय में रोज सोते समय एक  बार स्मरण कर लें कि क्या हमने किया ? अच्छे को उठा कर अलग रख दें और बुरों पर ध्यान केंद्रित करके उनसे मुक्त होने प्रयास करें कि वे दुबारा न दुहराए जाएँ। एक दिन वह आयेगा कि हम खुद ही आकलन करके अहित करने या सोचने की मानसिकता से दूर चले जायेंगे। तब यह अनुभव कुछ लोगों के जीवन में तो होंगे कि हम आत्मिक तौर पर कितने संतुष्ट रहते हैं, मन पर कोई बोझ नहीं बचता है। करके देखिये एक बार।


 

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