कभी इन युवाओं के इस अपराध मनोविज्ञान के बारे में भी सोचा गया है. अगर पकड़ गए तो पुलिस के हवाले और पुलिस भी कुछ ले दे कर मामला रफा-दफा करने में कुशलता का परिचय देती है. ये युवा जो देश का भविष्य है , ये कहाँ जा रहे हैं? बस हम यह कह कर अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेते हैं कि जमाना बड़ा ख़राब हो गया है, इन लड़कों को कुछ काम ही नहीं है. पर कभी जहाँ हमारी जरूरत है हमने उसे नजर उठाकर देखा , उसको समझने की कोशिश की, या उनके युवा मन के भड़काने वाले भावों को पढ़ा है. शायद नहीं? हमने ही समाज का ठेका तो नहीं ले रखा है. हमारे बच्चे तो अच्छे निकल गए यही बहुत है? क्या वाकई एक समाज के सभ्य और समझदार सदस्य होने के नाते हमारे कुछ दायित्व इस समाज में पलने वाले और लोगों के प्रति बनता है कि नहीं?
ये भटकती हुई युवा पीढ़ी पर नजर सबसे पहले अभिभावक कि होनी चाहिए और अगर अभिभावक कि चूक भी जाती है और आपकी पड़ जाती है उन्हें सतर्क कीजिये? वे भटकने की रह पर जा रहे हैं. आप इस स्वस्थ समाज के सदस्य है और इसको स्वस्थ ही देखना चाहते हैं. बच्चों कई संगति सबसे प्रमुख होती है. अच्छे पढ़े लिखे परिवारों के बच्चे इस दलदल में फँस जाते हैं. क्योंकि अभिभावक इस उम्र कि नाजुकता से अनजान बने रहते हैं. उन्हें सुख सुविधाएँ दीजिये लेकिन उन्हें सीमित दायरे में ही दीजिये. पहले अगर आपने उनको पूरी छूट दे दी तो बाद में शिकंजा कसने पर वे भटक सकते हैं. उनकी जरूरतें यदि पहले बढ़ गयीं तो फिर उन्हें पूरा करने के लिए वह गलत रास्तों पर भी जा सकते हैं. इस पर आपकी नजर बहुत जरूरी है.
ये उम्र उड़ने वाली होती है, सारे शौक पूरे करने कि इच्छा भी होती है, लेकिन जब वे सीमित तरीकों में उन्हें पूरा नहीं कर पाते हैं तो दूसरी ओर भी चल देते हैं. फिर न आप कुछ कर पाते हैं और न वे. युवाओं के दोस्तों पर भी नजर रखनी चाहिए उनके जाने अनजाने में क्योंकि सबकी सोच एक जैसी नहीं होती है, कुछ असामाजिक प्रवृत्ति के लोग उसको सीढ़ी बना कर आगे बढ़ना चाहते हैं, तो उनको सब बातों से पहले से ही वाकिफ करवा देना अधिक उचित होता है. वैसे तो माँ बाप को अपने बच्चे के स्वभाव और रूचि का ज्ञान पहले से ही होता है. बस उसकी दिशा जान कर उन्हें गाइड करें, वे सही रास्ते पर चलेंगे.
इसके लिए जिम्मेदार हमारी व्यवस्था भी है और इसके लिए एक और सबसे बड़ा कारण जिसको हम नजर अंदाज करते चले आ रहे हैं, वह है आरक्षण का? ये रोज रोज का बढ़ता हुआ आरक्षण - युवा पीढी के लिए एक अपराध का कारक बन चुका है. अच्छे मेधावी युवक अपनी मेधा के बाद भी इस आरक्षण के कारण उस स्थान तक नहीं पहुँच पाते हैं जहाँ उनको होना चाहिए. ये मेधा अगर सही दिशा में जगह नहीं पाती है तो वह विरोध के रूप में , या फिर कुंठा के रूप में भटक सकती है . जो काबिल नहीं हैं, वे काबिज हैं उस पदों पर जिन पर उनको होना चाहिए. इस वर्ग के लिए कोई रास्ता नहीं बचता है और वे इस तरह से अपना क्रोध और कुंठा को निकालने लगते हैं. इसके लिए कौन दोषी है? हमारी व्यवस्था ही न? इसके बाद भी इस आरक्षण की मांग नित बनी रहती है. वे जो बहुत मेहनत से पढ़े होते हैं. अगर उससे वो नहीं पा रहे हैं जिसके लिए उन्होंने मेहनत की है तो उनके मन में इस व्यवस्था के प्रति जो आक्रोश जाग्रत होता है - वह किसी भी रूप में विस्फोटित हो सकता है. अगर रोज कि खबरों पर नजर डालें तो इनमें इंजीनियर तक होते हैं. नेट का उपयोग करके अपराध करने वाले भी काफी शिक्षित होते हैं. इस ओर सोचने के लिए न सरकार के पास समय है और न हमारे तथाकथित नेताओं के पास.
इस काम में वातावरण उत्पन्न करने में परिवार की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. वे बेटे या बेटियों को इस उद्देश्य से पढ़ातए है कि ये जल्दी ही कमाने लगेंगे और फिर उनको सहारा मिल जायेगा. ये बात है इस मध्यम वर्गीय परिवारों को. जहाँ मशक्कत करके माँ बाप पढ़ाई का खर्च उठाते हैं या फिर कहीं से कर्ज लेकर भी. उनको ब्याज भरने और मूल चुकाने कि चिंता होती है. पर नौकरी क्या है? और कितना संघर्ष है इसको वे देख नहीं पाते हैनौर फिर --
- कब मिलेगी नौकरी?
- तुम्हें इस लिए पढ़ाया था कि सहारा मिल जाएगा.
- अब मैं ये खर्च और कर्ज नहीं ढो पा रहा हूँ.
- सबको तो मिल जाती है तुमको ही क्यों नहीं मिलती नौकरी.
- जो भी मिले वही करो.
- इस पढ़ाई से अच्छ तो था कि अनपढ़ होते कम से कम रिक्शा तो चला लेते.
इन सब में आप कहाँ बैठे हैं? इस समाज के सदस्य हैं, व्यवस्था से जुड़े हैं या फिर परिवार के सदस्य हैं. जहाँ भी हों, युवाओं के मनोविज्ञान को समझें और फिर जो आपसे संभव हो उन्हें दिशा दें. एक स्वस्थ समाज के सम्माननीय सदस्य बनने के लिए , इस देश की भावी पीढ़ी को क्षय होने से बचाइए. इन स्तंभों से ही हमें आसमान छूना है. हमें सोचना है और कुछ करना है.
बेचारे क्या करें युवा
जवाब देंहटाएंदादी का हाथ उन से उठ गया
मां ऑफिस की हो गई है
बाप तो बाप ही हैं
प्यार मिलता नहीं
तन्हाई के गिरफ्त में हैं
अपना जैसा कुछ दिखता नहीं
जो दिखता हैं अपना
वह भटका देता है सदराह से
क्या करे युवा मन
बहुत कुछ करना चाहता है
बहुत जल्दी
शायद यहीं सब कारण है
वह भटक जाता है
और चल पड़ता है
उस राह पर
जिस पर शायद वह भी नहीं जाना चाहता.
आशुतोष कुमार सिंह
9891798609
रेखा जी,
जवाब देंहटाएंजब आरक्षण का सहारा लेकर योग्यता को कुचला जायेगा, पढ़े लिखे लोग बेरोजगार होंगे, पढ़ लिख कर लोगो को अनपढ़ अय्याश और गंवार नेताओ के तलुवे चाटने पढेंगे, तो युवा शक्ति कुंठित होकर अपराध की तरफ ही बढ़ेगी. सब देशो में जहाँ ये योग्यता को उचित सम्मान नहीं मिलता वहाँ युवा अपराध में लिप्त हो जाते है.
aapka lekhan vishay ek nai disha dega
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