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गुरुवार, 25 मार्च 2010

वह मूक कान्तिकारी - गणेश शंकर विद्यार्थी !







                       आज २५ मार्च उनकी पुण्य तिथि है. वह खामोश क्रांतिकारी  - बहुत शोर शराबे से नहीं बने थे. उन्हें मूक क्रांतिकारी के नाम से भी जाना जा सकता है. अपने बलिदान तक वे सिर्फ कर्म करते रहे और उन्हीं कर्मों के दौरान वे अपने प्राणों कि आहुति देकर नाम अमर कर गए.
             वे इलाहबाद में एक शिक्षक जय नारायण  श्रीवास्तव के यहाँ २६ अक्तूबर १८९० को पैदा हुए. शिक्षक परिवार गरीबी से जूझता हुआ आदर्शों के मार्ग पर चलने वाला था और यही आदर्श उनके लिए संस्कार बने थे. हाई स्कूल  की परीक्षा प्राइवेट तौर पर पास की और आगे की शिक्षा गरीबी की भेंट चढ़ गयी. करेंसी ऑफिस में नौकरी कर ली. बाद में कानपुर में एक हाई स्कूल में शिक्षक के तौर पर नौकरी की.
                        वे पत्रकारिता में रूचि रखते थे, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उमड़ते  विचारों ने उन्हें कलम  का सिपाही बना दिया. उन्होंने हिंदी और उर्दू  - दोनों के प्रतिनिधि पत्रों 'कर्मयोगी और स्वराज्य ' के लिए कार्य करना आरम्भ किया.
उस समय 'महावीर प्रसाद द्विवेदी' जो हिंदी साहित्य के स्तम्भ बने हैं, ने उन्हें अपने पत्र 'सरस्वती' में उपसंपादन के लिए प्रस्ताव रखा और उन्होंने १९११-१३ तक ये पद संभाला. वे साहित्य और राजनीति दोनों के प्रति समर्पित थे अतः उन्होंने सरस्वती के साथ-साथ 'अभ्युदय' पत्र भी अपना लिया जो कि राजनैतिक गतिविधियों से जुड़ा था.
                    १९१३ में उनहोंने कानपुर वापस आकर  'प्रताप ' नामक अखबार का संपादन आरम्भ किया. यहाँ उनका परिचय एक क्रांतिकारी  पत्रकार के रूप में उदित हुआ. 'प्रताप' क्रांतिकारी पत्र के रूप में जाना जाता था. पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों कि खिलाफत का खामियाजा उन्होंने भी भुगता.
        १९१६ में पहली बार लखनऊ में उनकी मुलाकात महात्मा गाँधी से हुई, उन्होंने १९१७-१८ में होम रुल मूवमेंट  में भाग लिया और कानपुर कपड़ा मिल मजदूरों के साथ हड़ताल में उनके साथ रहे . १९२० में 'प्रताप ' का दैनिक संस्करण उन्होंने  उतारा. इसी वर्ष उन्हें रायबरेली के किसानों का नेतृत्व करने के आरोप में दो वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गयी. १९२२ में बाहर आये और पुनः उनको जेल भेज दिया गया. १९२४ में जब बाहर आये तो उनका स्वास्थ्य ख़राब हो चुका था लेकिन उन्होंने १९२५ के कांग्रेस सत्र के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया.
१९२५ में कांग्रेस ने प्रांतीय कार्यकारिणी कौंसिल के लिए चुनाव का निर्णय लिया तो उन्होंने स्वराज्य पार्टी का गठन किया और यह चुनाव कानपुर से जीत कर उ. प्र. प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य १९२९ तक रहे और कांग्रेस पार्टी के निर्देश पर त्यागपत्र भी दे दिया. १९२९ में वह उ.प्र. कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष निर्वाचित  हुए और १९३० में सत्याग्रह आन्दोलन ' की अगुआई की. इसी के तहत उन्हें जेल भेजा गया और ९ मार्च १९३१ को गाँधी-इरविन पैक्ट के अंतर्गत बाहर आये.
         १९३१ में जब वह कराची जाने के लिए तैयार थे. कानपुर में सांप्रदायिक दंगों का शिकार हो गया और विद्यार्थी जी ने अपने को उसमें झोंक दिया. वे हजारों बेकुसूर हिन्दू और मुसलमानों के खून खराबे के विरोध में खड़े हो गए . उनके इस मानवीय कृत्य के लिए अमानवीय कृत्यों ने अपना शिकार बना दिया और एक अनियंत्रित भीड़ ने उनकी हत्या कर दी. सबसे दुखद बात ये थी कि उनके मृत शरीर मृतकों के ढेर से निकला गया. इस देश कि सुख और शांति के लिए अपने ही घर में अपने ही घर वालों कि हिंसा का शिकार हुए.
             उनके निधन पर गाँधी जी ने 'यंग' में लिखा था - 'गणेश का निधन हम सब कि इश्य का परिणाम है. उनका रक्त दो समुदायों को जोड़ने के लिए सीमेंट का कार्य करेगा. कोई भी संधि हमारे हृदयों को नहीं बाँध सकती है.' 
                 उनकी मृत्यु से सब पिघल गए और जब वे होश में आये तो एक ही आकर में थे - वह था मानव. लेकिन एक महामानव अपनी बलि देकर उन्हें मानव होने का पाठ पढ़ा गया था. 
                 कानपुर में उनकी स्मृति में - गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक चिकित्सा महाविध्याल और गणेश उद्यान बना हुआ है. आज के दिन  उनके प्रति मेरे  यही श्रद्धा सुमन अर्पित हैं.

10 टिप्‍पणियां:

  1. "विधार्थी जी के बारे में पढ़ते थे पर बहुत अच्छे से जाना दूरदर्शन पर प्रसारित सीरियल स्वराज से । वाकई में वे एक महान आत्मा थे । हमें उन पर गर्व है..........."
    amitraghat.blogspot.com

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  2. शत् शत् नमन.......
    ...
    यह पोस्ट केवल सफल ब्लॉगर ही पढ़ें...नए ब्लॉगर को यह धरोहर बाद में काम आएगा...
    http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_25.html
    लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....

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  3. पत्रकारिता के पुरौधा, श्री विद्यार्थी जी के प्रति सच्ची श्रद्धान्जलि अर्पित की है आपने, दीदी. मेरा भी नमन.

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  4. बहुत ही बढ़िया आलेख दी, इतनी अच्छी और विस्तृत जानकारी दी,आपने....लोग उन्हें भूलते जा रहें हैं...
    शत शत नमन उन्हें

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  5. श्री विद्यार्थी जी को भुलाये जाने को लेकर मैंनें आज चिट्ठाचर्चा पर पर एक क्षुब्ध टिप्पणी की थी ।
    रश्मि वावेज़ा से प्राप्त लिंक को पाकर आपको पढ़ सका और मन सँतुष्ट हुआ !
    इन हुतात्माओं के प्रति आपकी निष्ठा को नमन है, रेखा जी !
    .

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  6. उनके अवदान के प्रति हृदय नतमस्तक है। उन्हें विनम्र प्रणाम ।

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  7. अमर कुमार जी
    मुझे लगता है की ऐसे आलेखों को पढ़ने के लिए लोग इच्छुक ही नहीं होते. अपनी जड़ों और इतिहास से जुड़े रहकर भी हम प्रगति कर सकते हैं. हमारे पास महापुरुषों को नमन करने का समय ही कहाँ है? हाँ अगर कोई आरोप प्रत्यारोप की पोस्ट हो तो आपको देख कर ही लगेगाकि हमारे ब्लोग्गेर्स कितने जागरूक हैं.

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  8. रेखा जी, बहुत अच्छी पोस्ट.. और कौन कहता है कि ऐसे आलेखो को पढने वाला कोई नही है..

    हा बस ब्लाग जगत मे जितना लिखना महत्वपूर्ण है उतना उस तक लोगो तक पहुचाना.. हिन्दी जगत मे वो रीडर्स नही है जो गूगल से आपके ब्लाग तक पहुचे... और लोगो तक पहुचने के तरीक कही लिखे नही है..

    मै बस इतना कहूगा, कि लिखती रहिये.. समय साथ दे तो और ब्लागो को भी देखिये.. आपका ब्लाग रीडर से जोड लिया है मैने.. :)

    धन्यवाद!!

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  9. रेखा जी ने बिल्कुल ठीक टिप्पणी की है। यही बात मुझे भी कचोटती रह्ती है।

    बी एस पाबला

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.